"वरुण! अब मैं हारना नहीं चाहती. हर बार, हर किसी से हारती ही चली आ रही हूं. मेरी जिंदगी हारने का दूसरा नाम बनकर रह गई है इसलिए अब और नहीं..."
छांव! छांव की तलाश में तो उम्र तमाम हो गई, लेकिन तपती दोपहर कभी ढली ही नहीं. फासलों को कम करने की नाकाम कोशिश में ही उम्र गुज़र गई, लेकिन हाथ कुछ न आया. ज़िंदगी में वही खालीपन, वही एकलता अपनी जड़ें जमाए रहे. गुज़रे वक़्त में भी ऐसा कुछ ख़ास था ही नहीं कि जिसकी याद ही के सहारे ग़मगीनी कुछ कम हो जाती. पिछले एहसास भी दर्द ही दे जाते और हर आने वाला कल तो जैसे ग़म का नया फ़साना ही था. अपराजिता! नाम में क्या है? जो अपने आप से पराजित हो वह और किस आशा या आकांक्षा का सहारा तलाशे...
अपराजिता के पत्र के इस आधे-अधूरे अंश को मैं कई-कई बार पढ़ता रहा, उसमें लिखी एक-एक बात की गूढ़ता को समझने का प्रयत्न करता रहा, दारुण पीड़ा की जो लहर मैंने अपने अंतर में महसूस की उस पीड़ा से जो ख़ुद गुज़र रहा हो उसकी स्थिति का अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता था. अपराजिता का क्लांत चेहरा बार-बार मेरी आंखों के सामने उभर रहा था. उसकी ज़िंदगी के हर पल का साक्षी रहा था मैं, इसलिए भी शायद मेरे लिए उसे समझ पाना सरल था. लेकिन जब सहारे के लिए मैंने उसकी ओर अपना हाथ बढ़ाया तो उसने कहा था, "वरुण! अब मैं हारना नहीं चाहती. हर बार, हर किसी से हारती ही चली आ रही हूं. मेरी ज़िंदगी हारने का दूसरा नाम बनकर रह गई है इसलिए अब और नहीं..."
इधर मैं सोचा करता कि क्या अपराजिता सचमुच पराजित हो चुकी थी अथवा जिसे वह अपनी पराजय मान रही थी शायद यही उसकी जीत थी. प्रत्युत्तर में प्रथम मैंने यही लिखा था- "अपराजिता तुम्हारा नाम दूसरों के लिए अनुकरणीय है, एक दिन विनय लौट आएगा तुम्हारे पास... ये सच है कि टूटी डाल फिर तने से जोड़ी नहीं जा सकती, लेकिन नया अंकुर तो नई आशा लेकर ही फुटता है. बस, तुममें उसी नई आशा के संचार की आवश्यकता है और मुझे तुमसे पूरी उम्मीद है कि तुम हताशा के दामन से अपने आप की छुड़ा सकोगी.
किसी की बेवफ़ाई के बदले हम अपनी ही ज़िंदगी से बेवफ़ाई करने लगें, तो क्या यह अपने ही साथ नाइंसाफी न होगी? किसी के खोखलेपन से तुम अपने विचारों की ऊंचाइयों को खोखला मत करो, हारता वह है जिसने कभी जीतने की तमन्ना ही न की हो, लेकिन तुम्हारा अपना संघर्ष दी तुम्हारी जीत है जिसे तुम अपनी पराजय समझ बैठी हो."
पत्र तो लगभग पूरा हो चुका था, किंतु अपराजिता के जीवन का एक-एक पन्ना खुलता चला गया. अपराजिता के एक अदद जीवनसाथी विनय के लिए ज़रूर यह कहना उचित था कि नाम से क्या होता है? उसके जीवन में कलंक बनकर चिपट गया था वह नाम... कैसे-कैसे सामंजस्य स्थापित किया होगा उसने विनय के साथ. न ही विचारों का कोई ठोस धरातल और न ही स्थायित्व, बिज़नेस के नाम पर शहरों की अदला-बदली और फिर जितने शहर उतने ठौर-ठिकाने... ख़ुद अपने पैरों पर खड़ी थी, इसलिए ख़ुद का और नन्हीं बच्ची का निर्वाह हो ही जाता था. लेकिन वे घरौंदे नहीं होते, जहां सपनों की बेल परवान चढ़ती है. विनय की बेहयाई दिन-ब-दिन बढ़ती गई. इसी वजह से समाज से भी कटना पड़ा. एक ठूंठ से जुड़े रहने की संस्कारिता का कितना बड़ा दंड.
स्वप्न था, जीवनसाथी के सहारे कई-कई ऊंचाइयों को पहुंचेगी. हाय नियति! जाकर गिरी भी तो ऐसी गहरी खाई में जहां से अपनी ही आवाज़ पराई सी लगती, फिर किसे पुकारती... हां, वह ख़ुद चाहता तो था उसे दलदल से निकालकर एक नई रोशनी में लाना.
पहले पहल जब उसकी सहमी आंखें अपने ही घर के आंगन में देखी थी तो लगा था कितने लंबे समय के बाद मंज़िल मिली भी तो वहीं, जहां से उसकी खोज में सफ़र शुरू किया था. पता लगाया तो जाना कि वह यहीं नज़दीक ही रहती है और उसके साथ ही मालूम हुआ उसका संघर्ष... एक अमानुष को मानव बना सकने का संघर्ष और सब कुछ... और फिर तो उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या व घटनाक्रम से जाने-अनजाने जुड़ता चला गया था मैं...
अपराजिता से मैं कुछ ख़ास परिचित न था, किंतु इन आंखों से ज़रूर वाक़िफ था. पहले ये आंखें इस तरह साहमी-सहमी नहीं हुआ करती थीं, पहले तो इनमें गज़ब का आत्मविश्वास, सपनों का नया रंग लिए छलका करता था. कभी-कभी लगता एक ज़िंदगी की तमाम उम्मीदों को धूल में मिलाने का कहीं न कहीं मैं भी एक सूत्रधार हूं और इसी अपराधबोध से दबकर मैंने उसकी काफ़ी लंबे समय तक तलाश की थी.
उसके लिए मेरे मन में हमेशा प्रगाढ़ आदर ही रहा. उस देवी को मन ही मन वंदन किया करता था मैं, लेकिन चाहकर भी उसकी सहायता कर सकने में अक्षम था, क्योंकि वह इतनी स्वाभिमानी थी कि सहायता या दया जैसे अदना शब्द को बीच में लाकर मैं उसकी मासूम बच्ची से अपने घर की संरक्षित छत छीनना नहीं चाहता था. जहां वह विनय की अमानुषिकता से संरक्षण देने उसे ले आया करती थी. शुरू-शुरू में वंदन की देखभाल करने वाली आया के पास से ही मैंने उसके बारे में जाना था.
नियति के खेल पर हंसी ही आती. कभी-कभी लगता कुछ भी योग्य स्थान पर नहीं है. जहां जिसे होना चाहिए वह वहां नहीं है, जो जिस चीज़ के काबिल है वह उसे ही हासिल नहीं है. अपराजिता शायद आज उस स्थान पर होती जहां मैं हूं...
विगत फिर अंगड़ाई लेकर किशोरावस्था की दहलीज़ पर पहुंच गया था. जहां अपराजिता! यह नाम! मेरे लिए एक प्रतिद्वन्द्वी से ऊपर कुछ ख़ास न था. में उन योग्य विद्यार्थियों में से था, जिन्हें अपनी योग्यता का बड़ा घमंड हुआ करता है और मेरी इसी योग्यता का माप यदि किसी से कम उतरता था तो वह बस यही एक नाम अपराजिता से. यही कारण था कि मैं इस एक नाम से ईर्ष्या भी किया करता. लेकिन जब छात्रवृत्ति की परीक्षा में में बाज़ी मार ले गया, तब मेरी ख़ुशी का ठिकाना न था. मैंने अपने सभी सहपाठियों को पार्टी दी और एलान किया कि यह पार्टी छात्रवृत्ति के लिए मेरे चयन के उपलक्ष्य में नहीं, किंतु अपराजिता को पहली बार पराजित कर सकने की ख़ुशी में है.
बाद में जब ज्ञात हुआ कि इस छात्रवृत्ति का रुपयों की दृष्टि से जहां मेरे लिए महत्व नगण्य था, वहीं अपराजिता के स्वप्नों की आधारशिला इसी छात्रवृत्ति पर आधारित थी. तो पता नहीं विचारों की वह नगण्यता ईर्ष्या के साथ धुलकर उसके प्रति दया व सहानुभूति की भावना मन में जगा गई. और बाद में एक खोज की शुरुआत हुई, उसके लिए कुछ कर पाने की... लेकिन बार-बार पता करने पर भी वह कभी न मिल सकी. बाद में मैं मेडिकल की पढ़ाई में व्यस्त हो गया और फिर ज़िंदगी के हर मोड़ पर सफल होते हुए लगभग उसे भूल भी गया था, लेकिन अब हर पल इसी सोच में क़ैद रहता कि प्रतिद्वंद्वी रूपी दुर्भाग्य की कालिमा बनकर.
यहां आकर अपने काम और वंदन की परवरिश में दिन पंख लगाकर उड़ने लगे. कभी-कभी अपराजिता का पत्र आता, जिसमें अपनी ज़िंदगी की कतरनों का उल्लेख न के बराबर होता और आस्था की बातें ही अधिक हुआ करती थीं. इस बार एक लंबे अर्से के बाद उसका पत्र मिला था, जिसने एक चलचित्र की भांति मुझे अपराजिता के जीवन की याद ताज़ा कर दी.
अपराजिता ने एक जगह लिखा था कि अपाहिज़ मां और आवारा बाप की लड़की लाख संस्कारों से पूर्ण हो, लेकिन समाज इस संस्कारिता को कब मान्यता देने वाला था? उसका लिखा एक-एक शब्द मेरे मन को उद्वेलित करता रहा, कल जो उसको किसी भी रूप में सहारा देने की दिली तमन्ना मेरे मन में थी वह आज भी ज्यों की त्यों बरक़रार थी. अपराजिता के प्रति मेरी इस भावना को मैं स्वयं आज तक कोई नाम न दे पाया था. इसे मेरा उसके प्रति एकतरफ़ा प्रेम भी नहीं कहा जा सकता था. क्योंकि उस समय जब वह मुझे मिली थी, तब मेरी उम्र इन सब बातों के दौर से आगे निकल चुकी थी. उसके प्रति दया शब्द का प्रयोग तो मैं भूल से भी नहीं कर सकता, क्योंकि दया का पात्र तो दयनीय होता है, लेकिन अपराजिता ने अपने को कभी भी दया का पात्र नहीं बनने दिया था. शायद उसकी यही महानता उसके प्रति नतमस्तक होने को मुझे सदा प्रेरित करती रही.
उसके लिए तो शायद यही कहना उचित था, "नारी तुम केवल श्रद्धा हो!"
मेरी अर्धांगिनी के अधूरे स्वप्न की पूर्ण परिणति स्वरूप वंदन भी डॉक्टर बन चुका था. इधर कई दिनों से उसके विवाह के लिए रिश्ते भी लगातार आ रहे थे. अपराजिता का पत्र मिलने के बाद इधर कुछ रोज़ से सारे अंधेरे जैसे छंटते हुए नज़र आने लगे थे. एक सार्थक जीवन जी लेने की तमन्ना पूर्ण हो सकने की संभावना दिखाई देने लगी थी.
जब गुत्थी सुलझने पर आती है, तब हवाओं का रुख भी सही हो जाता है. बस कुछ इसी तरह बरसों की उलझन सुलझाने का मार्ग हाथ लग गया था. मैं अपने आप को बहुत ही हल्का महसूस कर रहा था कि अपने आप से मानो मैंने कहा, "मैं उसे हारने नहीं दूंगा... वह अपराजिता ही रहेगी."
आस्था को अपनी पुत्रवधू बनाकर में अपराजिता की आंखों के बुझे सपनों में फिर ख़ुशियों के रंग भर देना चाहता था. उसी शाम वंदन से मैंने सारी बातें कर लीं. जैसा कि मुझे यक़ीन था, वंदन वहीं जाकर अपने जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ करने के लिए तत्पर हो गया, जहां मैंने अपने जीवन अध्याय को अल्प-विराम लगाया था.
अपनी अर्द्धांगिनी के प्रेम पुष्प को अपराजिता के चरणों में समर्पित कर सकने का सुकून मेरे मन की तपती भूमि में सावन की पहली बौछार बन बरसने लगा था.
- श्रीमती निकुंज शरद जानी
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES