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कहानी- यह कैसा त्रिकोण है? (Short Story- Yah Kaisa Trikon Hai?)

"तुम जितना अधिक संवेदनशील बनोगी, दुख उतने ही ज़ोर से हमला करेंगे. अक्सर हम मन को मैदान बना लेते हैं. क्यों न हम उसे पहाड़ी ढलान बना दे कि पानी वहां ठहरे ही नहीं, कीचड़ बने ही नहीं..."

मछेरा‌ जैसे जाल समेटता है उसने निगाहों का पैमाना छोटा कर लिया. बिन्दु की परिधि में दुनिया सिमट आई थी.

"नंदी!" मैंने एक आवाज़ दी.

"आइए भैया, आइए." वह हड़बड़ा कर उठी और कुर्सी आगे कर दी.

"अब ये क्या हालत बना रखी है दीदी?" कहते हुए मैं कुर्सी पर बैठ गया था. उसकी पतली देहयष्टि और चेहरे पर कान्ति का सर्वथा अभाव,

प्रताड़ित होने का गहरा आभास दे रहे थे.

"भैया! यही तो नारी जीवन का दुर्भाग्य है कि क्रिया किसी की होती और प्रभाव किसी और पर."

वह चाय बनाने चली गई, मुझे कुछ अजीब-अजीब सा लग रहा था. राज दुर्घटनाग्रस्त हुए, तब यह ठीक लग रही थी. उनके बाद ही स्थिति बदतर हुई है.

अचानक मैंने शीला का ज़िक्र किया तो उसकी आंखों में पानी भर आया. उसने बताया, "आज शीला का चुनरी महोत्सव है. दस दिन पहले मेरी

प्यारी शीलू अपने पति साथ चिता में बैठ कर संसार की आपदाओं से मुक्त हो गई. मेरा तो वही एक सहारा थी. उसी के सहारे दुखों के इतने बड़े-बड़े दिन मैंने काट दिए, अब कैसे काट पाऊंगी, नहीं जानती."

दुखों की बात सुनते ही मेरे भीतर का कथाकार सजग हो गया, मैं उस सिहरन पैदा करने वाले सिलसिले और उसके रहस्य को जानने की उत्सुकता का संवरण नहीं कर सका, प्रत्युत्तर में उसने अपना पोथा ही खोल दिया.

नंदी के दुर्दिनों की शुरुआत उसके पत्ति राज की दुर्घटना के साथ ही हो गई थी, पर तब उसके प्रति किसी की नज़र यों फिरी नहीं थी. तब वह किसी अशुभ और अमंगल कार प्रतीक नहीं बनी थी, डॉक्टर ने सभी को आशान्वित कर रखा था कि राज जल्दी ही स्वस्थ हो जाएंगे. उन्हें रक्त की ज़रूरत पड़ी तो नंदी ने सहर्ष अपना खून दिया. यह नियति ही थी कि अपना खून देकर भी नंदी उन्हें नहीं बचा पाई.

वैधव्य जीवन की यह शुरुआत उसके कष्टमय यात्रा का प्रथम चरण था, जिसकी पहली शुरुआत उसकी सास ने उसे जहरीली नागिन कहकर की थी, "तूने शरीर में खून की जगह ज़हर भर रखा है करमजली, जिससे मेरे बेटे को तूने मार दिया. तू मेरी बहू नहीं नागिन है, ज़हरीली नागिन..."

एक ओर अपने प्रियतम की मृत्यु का आघात और दूसरी ओर एक लम्बा विधवा जीवन, तिस पर गालियों और प्रताड़नाओं की भरमार इन सबसे उसका मन तो जर्जर हुआ ही था, ससुरालवालों के पाशविक व्यवहार से तन भी मृतप्राय सा हो गया था. ऐसे में यह बहू रामधारी जीव उनके किसी काम की न रही तो उन्हें यह बोझ लगने लगा. जल्द ही निःस्पन्द सामान की तरह इस बोझ को भी उसके पितृगृह में लाकर डाल दिया गया.

ज़िंदगी की मारामारी का यह सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हो गया था. तिल-तिल कर मरना शायद उसकी नियति में कहीं आलेखित था और जिसे ब्योरेवार घटित होना ही था.

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उसने मुझे बताया, 'जब मुझे अपने पितृगृह में लाकर छोड़ दिया गया तो घरवालों ने उस वक़्त मुझे गले लगा लिया था. शीला तो लिपट गई थी मुझसे. मेरे मैले गंदे कपड़ों को उसने धोया. सब कुछ ठीकठाक किया. पता नहीं फिर मां को क्या हो गया. कुछ दिनों में पलटकर उसने अपने तेवर चढ़ा लिए. मेरी ओर से उसने आंखें फेर ली. दो मु‌ट्ठी अन्न के बदले घर के काम का सारा बोझ मेरे निर्बल कंधों पर डाल दिया. वह निश्चिंत हो गई. कभी किसी काम में छोटी-सी भी खामी रह जाती तो मां मेरा सिर खपच्ची कर देती. ऐसे में शीला मेरा पूरा सहयोग करती, पर मां को यह भी बर्दाश्त नहीं हुआ.

मां उसे डांटने लगती. वह मां से भी इस बात पर कई बार उलझ पड़ती. उसका स्नेह, उसका प्यार..." कहते-कहते उसकी आंखों में समंदर भर आया और दो बूंदें उसके कपोलों को आर्द्र कर गई.

नंदी की इन स्थितियों पर मैंने विचार किया तो आंखों के आगे अंधेरा छा गया. यह विधवा जीवन जाने कितने अभिशापों में आवेष्टित होता है. 'विधवा और वैधव्य' जाने क्यों उस रचनाकार ने ये शब्द गढ़े. आज ये नारी जीवन के दुर्भाग्य को अंकित कर रहे है. किसी मृत पुरुष की पत्नी पर विधवा का लेबल लगाना क्या आवश्यक था? और क्या यह न्यायोचित था? आश्चर्य है, समाज को यह सब रास आ गया. पति मर गया तो स्त्री होने के अतिरिक्त यह कुछ और क्यों हो गई? बड़ा आश्चर्य तो यह है कि इस अतिरिक्ततता को सिद्ध करने के लिए विधवा पर अत्याचारों का सिलसिला भी समाज को भाने लगा.

आम्रपाली ने लिच्छवियों के क़ानून पर थूककर उसे लाख बार धिक्कार होने योग्य बताया था, पर. इस जागृत समाज की अजागृत व क्रूर परंपरा ने उसे भी बौना बना दिया.

"नंदी."

मैंने उसे सान्त्वना देने का एक प्रयास किया था.

"तुम जितना अधिक संवेदनशील बनोगी, दुख उतने ही ज़ोर से हमला करेंगे. अक्सर हम मन को मैदान बना लेते हैं. क्यों न हम उसे पहाड़ी ढलान बना दे कि पानी वहां ठहरे ही नहीं, कीचड़ बने ही नहीं... नंदी आने वाले लोगों में भी कुछ मीठा बोल लिया करो, फॉर्मेलिटी के तौर पर ही सही."

"वो तो ठीक है भैया, पर इतना भी कोई सब्र होता है भला कि खून का घूंट पीकर भी आदमी जीता चला जाए?" नंदी ने अपने मन का ज़हर आज पहली बार किसी के सामने प्रगट किया था. बड़ी गंभीरता से वह बीली, "जब इंसान की ज़िंदगी में कोई रस ही महसूस न करे तो भी उसे ज़िंदगी जीते रहना चाहिए? रस चूक जाने के बाद भी क्या गन्ने को चूसते रहना चाहिए? एक तितली भी फूल के सूख जाने के बाद बैठी नहीं रहती. आदमी ही नीरसता को क्यों अपना लेता है? उपेक्षाओं का शिकार आदमी कितना विषमय हो जाता है, आज पहली बार महसूस किया मैंने."

कभी सब्र न खोने वाला इन्सान सब्र खो बैठे तो समझना चाहिए कि कुछ ऐसा ही हुआ, यो उसके काबिले बरदाश्त न तो, जो व्यक्ति सैकड़ों चाते सह लेता है, कधी उफ् तक नहीं करता, बही किसी एक बात पर पालटकर आपा खोने लग जाए तो निश्चित है कि उसके लिए बहुत कुछ अपमानजनक घटित हुआ है.

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नंदी को जिन्दगी में यह एक भूचाल मा. जिसने उसके अमगत संकल्प और वर्ष को एक साथ डगमगा दिया, "भैया" कहते-कहते उसकी जुबान पर जैसे ताला लग गया.

उसके इस सम्बोधन में उपचार नहीं था, एक अपनत्व मुझे महसूस होल था. जबकि रिश्ते से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं था. एक परिचय मात्र था. वर व एक दुखियारी विधवा‌ अन्त थी. नौकरानी की तरह घर का सारा काम करती रहती, मां की वर्तनाओं को, अवहेलनाओं को जुबान बन्द कर पटक जाती, यंत्रणाओं का कहीं नहीं था. पहले पहले तो उसे सांत्वना देने पारा-पड़ोस के लोग भी आते थे, लेकिन अब कोई उसे पूछता तक नहीं. जय मां ही पलटकर उसे तिरस्कृत करने लगी तो पड़ोसी को उससे कौन-सी गरज पड़ी थी? कभी कोई दूर-दरात का रिश्तेदार भी जाता तो मां पहले ही क्षण उसे अपना रुख समझा देती. और फिर वह आगत व्यक्ति सहानुभूति का टुकड़ा डोलकर चलता बनता, जैसे कोई पालतू बिल्ली को पाव-रोटी का टुकड़ा डाल रहा हो.

उस दिन नंदी अपनी कोठरी में बैठी आंसू बहा रही थी. शीला ने जब ये देखा तो जाने उसे क्या लगा होगा. उसकी आंदों तर हो गई थीं. विधवा जीवन की कटुताओं और पीड़ाओं को यो साक्षात् देखकर उसका अन्तरतम सिहर गया.

नंदी को दर्द को सुनना बहुत जरूरी समझा था मैंने उसके लिए भी और मेरे अपने लिए भी. सुनाने से उसके मन की पौड़ा कुछ हल्की हो रही थी और मुझे कहानी लिखने का प्लॉट मिल रहा था. समान की गलत परम्परा पर चोट करने के लिए इससे अच्छा और कौन-सा पात्र मुझे मिल सकता था, पर वहां ज्यादा रुकना भी मेरे लिए संभव नहीं था. जिस साहित्यिक गोष्ठी के सिलसिले में में चण्डीगढ़ से यहां आया था, उसका समय करीब-करीब पूरा हो गया था. मैं उठकर जाने लगा तो नंदी ने मेरा हाथ पकड़ लिया, बोली, "भैया। अभी नहीं जा सकने कुछ और ठहरिएगा" उसके स्नेह और आत्मीयता ने मुझे बांध लिया था, पर मेरी भी अपनी समस्या थी. बड़ी मुश्किल से उसे समझाकर और फिर कभी आने का वादा करके ही मैं वहां से आ सका आते-आते मैंने भी उसे चंडीगढ़ आने का निमंत्रण दे दिया..

आव उससे नदी को मैने चंडीगढ़ के अपने घर में देखा तो बड़ी खुशी हुई थी अपने किसी करियर

के सिलसिले में वह यहां आई थी..

"भैया!"

वह मुझ से कुंछ पूछना चाहती थी, पर उससे पहले मैंने ही उत्साहित होकर पूछ लिया, "दीदी। कैसा चल रहा है अब?" शायद वह बहुत पीड़ित थी और वह पीड़ा उसके शब्दों में व्यक्त हो रही थी, "भैया। मांग का सिन्दूर मिट जाने से मन की इच्छाएं तो नहीं मिट जातीं न। और में दो वर्ष एक दुःस्वप्र की तरह जिए हैं मैंने. तुम जानते हो भैया, यह नारी जीवन है. जाने किस ऋषि ने इसे अभिशाप दिया था, जन्म-जन्मान्तर से यह अभिशप्त है. नारी-पुरुष समानता के खोखले नारे लगाकर ही तुम्हारा यह समाज अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है. हालत तो यह है कि घर-परिवार में होने वाले किसी भी अशुभ कार्य का सेहरा विधवा के माथे मड़ दिया जाता है. सबकी आंखों की चहेती मासूम लड़की विधवा होने के बाद जैसे अमंगल का प्रतीक बन जाती है क्यों?

तुम जानते हो, शीला मेरी आंख का तारा थी. शादी के बाद वह ससुराल जाने लगी, तब में उससे मिलना चाह रही थी, पर यह अवकाश भी मुझे नाहीं दिया धक्के देकर मुझे एक ओर कर दिया गया, कहा गया, तुम रास्ते में मत रहो, वर्ना अमंगल तो जाएगा वैसे घर के किसी भी शुभकार्य में मैं स्वयं भी आगे नहीं आती. मां अपने हावभाव से मुझे यों घूरती,

जैसे मैं उनके शुभ कार्य कर विन होऊं और सभी ने मुझे मीठी मार से यों अलगा दिया था, जैसे पानी की परत पर तेल की बूंद साथ होकर भी अलग-अलग."

"नंदी, समाज क्या करे, जब नारी डी अपमानित करती है? नारी ही नारी पर अत्याचार और शोषण करती है." मैंने कहा.

"हां, करती ती नारी ही है, पर आश्चर्य है कि उसकी अज्ञानता पर परंपरा और धर्म का झूठा लेबल लगाकर समाज उसे मान्यता दे देता है. अब देखो, जिस भयावह स्थितियों को मैंन झेला, उनकी तह में जारा जाओ तो एक कडूचा सच तुम्हें फन फैलाए खड़ा दिखेगा और वह यह कि ज्ञान-विज्ञान और मानव सभ्यता के इतने विकास के बाद भी समाज का एक हिस्सा बेड़ियों में ग्रस्त है.

कैसर की मरीज मेरी भाभी छत से गिरकर बेहोश हो गई थी. अस्पताल में उसका इलाज चल रहा था. उस दौरान कहर टूट पड़ा था मुझ पर. एक दुःखद संवाद आया, जिसने मेरे कानों के पर्दे ही फाड़ दिए, छोटी बहन शीला के पति की मृत्यु हो गई और वह फूल को कलों भोली मासूम बहन अपने पति के शव के साथ ही चिता पर चढ़ गई जिस पड़ी यह संवाद सुना, तब में चौल्कार कर उठी. मेरी चीत्कार और चिल्लयों अस्पताल के हाल में गूंज गई, तब कई नसों ने आकर मुझे घेर लिया. भाभी खाट

पर पड़ी थी और मैं नीचे बैठी चीख कर सीने की आग को दवा रही थी

"एक बेटी चिता पर जल मरी, एक बहू लापरवाही से मर गई और एक बेटी ज़िन्दा होकर भी रह-रहकर मर रही है. कैसा त्रिकोण है यह..!"

मेरा चहकना तो मां को कभी बर्दास्त नहीं हुआ, आज चीखना भी सहन न हुआ.

"हरामी, निर्लज, अब रो काहे रही है? वो मेरी बिटिया हमारा सम्मान ऊंचा कर गई है. बड़ा पुण्य का काम उसने किया है. एक तू ही है बेहया, जो घर में अमंगल फैला रही है इस ख़ुशी के मौक़े पर तुझे यूं रोते शर्म नहीं आती?" प्रलाप करती हुई मेरी मां का हाथ तब तक मेरे मुंह पर दबा रहा, जब तक मेरी ज़ुबान बन्द न हो गई.

वाह! ख़ुशी का मौक़ा पुण्य का कार्य. मैं हैरान थी यह सब देखकर बेटी ज़िन्दा जल गई और उफ़ तक नहीं. मैंने देखा, पिता और भाई के चेहरों पर एक अनोखा ही गर्व चमक रहा था. जैसे आसमान में उन्होंने तारे टांक लिए हों. उस मासूम को देखकर ही मैं थी रही थी. वही तो थी मेरी एक आशा की किरण. अब बचा ही कौन जो इस अभागिन का दुख हल्का कर सके. उसी की याद में मैं झूम रही थी. घर परिवार के लोग निर्भव हो गए थे. मेरी परवाह कभी किसी ने की ही नहीं थी. मैं अपने को व्यवस्थित नहीं कर पाई थी कि उस नाज़ुक हालत में भाभी को मेरे भरोसे छोड़ सब चले गए थे. शीला का चुनरी महोत्सव आन-बान के साथ मनाना जो था.

मैं भीतर ही भीतर रो-रोकर पगलायी जा रही थी. अपना होश भी संभाल नहीं पा रही थी. भाभी की देखभाल तब मैं क्या कर सकती थी. वह सीरियस अवस्था में पहुंच गई थी. दौरे पर दौर पड़ रहे थे. डॉक्टरों ने बहुत कोशिश की बचाने की, पर किसी को मौत से बचा लेना डॉक्टर के हाथ में कहां है? होश-हवाश तब मेरे भी उड़ गए थे. मैं मूर्छित पड़ी थी. पता नहीं मां को किसने बुलाया? मैं कुछ स्वस्थ हुई तब मां भी पास खड़ी थी. उसका रौद्र रूप देखकर में सहम गई थी. आरोपों के पुलिन्दा मां मुझे ही थमा रही थी.

"पापिनी! तूने अपने पति को मारा, मेरी बेटी आन पर कुर्बान हुई तो तूने अपशकुनी रोना शुरू कर दिया और अब अपनी भाभी पर हाथ फेर तूने अपनी प्यास शान्त की है. खून की प्यासी ख़ुद चिता पर नहीं चढ़ सकी तो अब दूसरों की चिताएं जला रही है."

पर मैं अवाक, स्तब्ध सब कुछ सुनती जा रही थी, क्योंकि मेरी यही नियति थी, क्योंकि मैं विधवा थी, क्योंकि मैं पति के साथ चिता पर नहीं चढ़ी थी...

भैया जब आए तो मैं उससे लिपट गई. मैंने कहा, 'भैया, अब तुम भी सता होओगे ना! शीला सती हो गई, उसने बड़ा ऊंचा काम किया. अब मेरा भैया भी वैसा ही ऊंचा काम करेगा कुल का नाम रोशन करेगा. तुम जल्दी सता हो जाओ ना! हम तुम्हारे गीत गाएंगे. लोग तुम्हारा मंदिर बनाएंगे, फूल चढ़ाएंगे."

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"यह क्या कर रही है? बदतमीज बन्द कर अपनी ज़ुबान." मां सहसा गरजी, "पापिन की प्यास अभी बुझी नहीं." ग़ुस्से से तमतमाई मां अनर्गल बके जा रही थी.

यह कैसा विपर्यास है. भैया को सता होने को प्रेरित करना अमंगल है तो फिर शीला ने अपनी सजीव देह को जलाकर कौन-सा मंगल काम किया, कौन-सा पुण्य किया? मैं इस पूरे दर्शन को समझ नहीं रही थी.

"भैया, मैंने फिर उलटकर सोचना शुरू किया, वह बेचारी चिता पर नहीं चढ़ती तो और क्या करती? अपनी विधवा बहन की ज़िन्दगी को उसने शुरू से देखा है. इस समाज की मान्यताओं और परम्पराओं को उसने समझा है. प्रताड़नाओं और अपमानों की आग से बहन की ज़िन्दगी को धुआं-धुआं होते उसने देखा है. इन क्रूरताओं से भयभीत मेरी बहन ने यह रास्ता चुना तो ठीक ही किया. तिल-तिल कर मरने की बनिस्पत एक साथ ही जल मरना उसने बेहतर समझा होगा.

मैंने कहा, "नंदी हमारे एक महान नेता काम में डूबे हुए थे, अचानक उन्हें पत्नी की मृत्यु का तार मिला. तार पढ़‌कर जेब में खिसका दिया और फिर काम में डूब गए."

बात को उसने गहराई से पकड़ा और बोली, "अगर पत्नी ऐसा करें तो समाज उस पर टूट पड़ेगा. लोग उसके लिए बातों के ऐसे-ऐसे पहाड बनाएंगे, जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. पत्नी को ही सती होना चाहिए पति को सता क्यों नहीं?"

"यही तो प्रतिकूलता है नंदी!"

- मुनि प्रशान्त कुमार

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