"वसुधा! तुम आसमां बन गई! बहुत ऊपर उठ गई तुम..!" वसुधा ने प्रत्युत्तर में कहा, "वसुधा तो वहीं है, जहां थी. आसमां ही कुछ झुक गया है शायद... जिन खोजा तिन पाइयां सुना है न तुमने?" उधर से कुछ स्वर उभरे, जैसे लहरें तट से टकरा-टकरा कर लौट रही हों.
तख्त पर रखी खुली किताब के पन्ने किसी पंछी के पंख की तरह फड़फड़ा रहे थे.
वसुधा न जाने कब से आंखें गड़ाए वहीं देखे जा रही थी. वह सोच रही थी कि सुगंधा की व्याकुलता भी आज चरम सीमा पर पहुंचकर सफल हो जाएगी. वसुधा का स्वप्न साकार हो जाएगा. घड़ी दस बजा रही थी,बस दस मिनट के बाद सुगंधा आसमान पर होगी. अपने पंख फैलाए, आसमान के आगोश में, सच होते अपने सपने को खुली आंखों से देख सकेगी.
वसुधा उठ खड़ी हुई और किताब बंद कर उसे आलमारी में रखने लगी, तभी उसके आंचल का एक छोर पुस्तकों की आलमारी में जा फंसा. उसके होंठों पर एक मुस्कान उभरी. उसे लगा, जैसे छोटा-सा ताला हिल-हिलकर मानो कह रहा हो कि अब मुझे इस चौकीदारी से मुक्त कर दो.
आलमारी के ऊपर सुगंधा ने एक चिट चिपका दी थी, जिस पर लिखा था- मम्मी की लाइब्रेरी.
वसुधा ने माथे पर आए चांदी के तारों को पीछे ठेल, ढीला-सा जूडा बना लिया. कांच के कपाटों में से झांकती किताबों को देखकर उसकी आंखें सजल हो उठीं. कितना प्यार था उसे अपनी इन किताबों से... सालों बाद आज उसने आलमारी के कपाट खोले. धूल मिश्रित पुरानी किताबों की सुगंध नथुनों में घुस गई, वह अपने आंचल से धूल झाड़ने लगी.
अनायास ही वसुधा की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी. ऐसा लग रहा था, दो अतिप्रिय सहेलियों का एक लंबे अंतराल के बाद मिलन हो रहा हो. उसके हाथ पुस्तकों पर इस तरह फिसलने लगे, जैसे वह सुगंधा के बालों को प्यार से सहला रही हो. उसे लगा कि जैसे प्रेमचंद का जुम्मन शेख, जैनेंद्र की मालती और वेदना की साधिका, स्वयं महादेवी उससे बातें कर रही हो.
जिस पल उसने सुगंधा को ऊंचाइयों पर लाने का प्रण लिया था, उसी पल अपनी प्रिय किताबों को मानो कारावास का दंड सुना दिया था. फिर वह केवल सुगंधा को हो बांचती रही.
वसुधा चौंक उठी, आसमान की ऊंचाइयों से मानो उसे किसी ने पुकारा. वह खिड़की से लगकर खड़ी हो गई. आसमान में जैसे सर्वत्र प्रेम प्रकाशित हो उठा था, सुगंधा आज ऊंचाइयों पर थी और वसुधा की नज़रें उस आवाज़ से परे दूर कहीं टिकी हुई अपना अतीत तलाश रही थीं.
सुधांशु और वसुधा-दो जिस्म, एक जान. उनके जीवन में 'तेरे सुर और मेरे गीत, दोनों मिलकर बनेगी प्रीत...' की परिणिति तब हुई, जब उसकी गोद में पहले पहल प्रीता की किलकारियां गूंज उठी थीं.
वसुधा ख़्यालों में खोई बरादमे में आ गई. मंज़िल तक पहुंचने का एक लंबा सफ़र अनेक उतार-चढ़ाव के उपरांत भी गुज़र ही गया था, किंतु मंज़िल पर पहुंचकर क्यों यादें फिर सताने लगी थीं?
प्रीता की बाल सुलभ क्रीड़ाएं काव्य-पंक्तियों में परिमार्जित होती गई थीं-
मैं बचपन को बुला रही थी
बोल उठी बिटिया मेरी
नन्दन बन सी कूक उठी
यह छोटी कुटिया मेरी
मां... मां... कहकर बुला रही थी
मिट्टी खाने आई थी
कुछ मुंह में, कुछ लिए हाथ में
मुझे खिलाने आई थी...
वसुधा के अंतर के निजी कोने से आज मां... मां... की आवाज़ें बरबस ही उठने लगी थीं. मेहंदी की महक से वातावरण ख़ुशनुमा होने लगा था.
उसके आंचल में दूसरा फूल खिला-परागी. सुधांशु को कहीं कोई गिला नहीं था. उसका रोमांच भी बरक़रार था. उसके आंचल की छांव में दो कलियाँ इठला रही थी, महक रही थीं.
एकाएक मेहंदी के कांटों की चुभन से वसुधा कराह उठी... गांव से अम्मा आई थीं. वे दिन-रात कार्य में व्यस्त सुधांशु को रोज़-रोज़ कुलदीपक का वास्ता दे देकर उसका मन अंततः बदलने में सफल हो ही गई थी.
सुधांशु की हर चाह को पूर्ण करना, उसके हर निर्णय को मौन स्वीकृति देना, अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य मानकर एक बार और...
सुगंधा के आगमन पर अम्मा के कोहराम ने ज़िंदगी को नरक बनाने में कहीं कोई कसर न रख छोड़ी थी. सीधे और शांत सुधांशु ने तुरंत ही हथियार डाल दिए या उसे डाल देने पड़े थे. पता नहीं, किंतु नन्ही सुगंधा को साथ ले फिर ज़िंदगी की राह में अकेली वसुधा शून्य में घिर गई थी.
अंतर के जिस कोने में प्रीता-परागी थे, उसे कभी वसुधा ने सुगंधा के सामने खुलने नहीं दिया था. उसका अपना निजी कोना, उसकी अपनी तड़प, सुगंधा की एक-एक मुस्कान पर न्यौछावर वह स्वयं मुस्कुराने का प्रयत्न करती रही थी.
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उसके आंचल की दो कलियां सुधांशु के आश्रय में थीं, यही तसल्ली काफ़ी थी. वसुधा को किसी से कोई शिकायत नहीं थी. सुख कभी कहीं स्थिर नहीं रहा है, यही मानकर वह ज़िंदगी से समायोजन करने लगी थी. किंतु जिस परिवार ने सुगंधा को ठुकराया था, उसे आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने का उसने दृढ़ निश्चय कर लिया था.
बेटियां पिता और परिवार के दिल की दुनिया में थोड़ी-सी ज़मीं और थोड़ा-सा आसमां ही तो चाहती हैं, यदि उन्हें उनका अधिकार मिल जाए, प्यार का सिंचन मिल जाए, तो उनके नाम से पिता की पहचान बन सकती है. लेकिन सुगंधा को उसके इस जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित कर दिया
गया था. बस इसी एक चोट का प्रत्यारोपण थी वसुधा की प्रतिज्ञा... जो आज आसमान से प्रतिध्वनित हो रही थी.
वसुधा ने सोचा, सुगंधा के लौटने पर वह यहां नई क्यारियां बनाएगी, कितनी सुखद अनुभूति होती है, जब अपनी रोपी हुई डाली धीरे-धीरे बढ़ती, पल्लवित होती हुई संपूर्णता को प्राप्त होती है.
बहती हुई हवाएं ही संदेश लाई थी सुधांशु के पुनर्विवाह का. सुधांशु और अम्मा की चाहत पूर्ण हो, इसमें उसकी भी ख़ुशी थी, पर सुधांशु और उसकी सहभागिनी अधिक दूर साथ-साथ न चल सके. जीवन कहां जाकर पूर्णविराम ले लेगा किसे पता चल पाता है. सुधांशु फिर अकेला...
वसुधा ने एक लंबी सांस छोड़ी.
स्वर्णिम दिन, स्वर्णिम अस्ताचल में परिणित हो चला था. उसने देवालय में ज्योति प्रज्ज्वलित कर ईश्वर को धन्यवाद दिया.
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वसुधा विचारों की रौ में बहती चली जा रही थी कि तभी फोन की घंटी टनटना उठी. उसने जैसे ही रिसीवर कान पर लगाया... आश्वर्यं से वह बोल उठी, "सुधांशु!.."
बिसरी हुई यादों का जैसे एक सैलाब सा उमड़ पड़ा... सब कुछ गड्डमड्ड होता गया, याद रही तो केवल वह पगडंडी जिस पर चलकर वह मंज़िल तक पहुंची थी. कभी सुगंधा पर स्नेह-बदरी बनकर बरसती ममतामयी मां, तो कभी एक पिता की तरह सख्त चट्टान-सी, अडिग, अचल...
फोन पर सुधांशु का गंभीर स्वर उभरा, "वसुधा! तुम आसमां बन गई! बहुत ऊपर उठ गई तुम..!"
वसुधा ने प्रत्युत्तर में कहा, "वसुधा तो वहीं है, जहां थी. आसमां ही कुछ झुक गया है शायद... जिन खोजा तिन पाइयां सुना है न तुमने?"
उधर से कुछ स्वर उभरे, जैसे लहरें तट से टकरा-टकरा कर लौट रही हों.
"क्या तुम फिर से अपने मन में मुझे स्थान दे पाओगी? सुधा के बिना सुधांशु अपूर्ण ही रहता है न."
दिल में एक तपिश सी महसूस की वसुधा ने, एक ऐसी तपिश, जिससे बरसों से मोम बन चुके आंसू जैसे पिघलने लगे. इन आंसुओं की आंच घुल-घुलकर सुधांशु के कानों में पहुंचने लगी.
"जब तुम्हारे झूठे दंभ ने मुझे नन्हीं सुगंधा को गोद में लिए घर की दहलीज़ लांघने पर मजबूर किया था, तब तुम्हें अपनी अपूर्णता का तनिक भी एहसास न हुआ? और आज तुम उस एहसास को जगाना चाहते हो, जिसकी अंतिम चिंगारी भी राख बन चुकी है. मैने बेटी को ज़िंदगी के नए मायनों से परिचित कराया है." वसुधा के स्वर में एक ठहराव था.
"बस, मैने तो श्रद्धा और प्रेम से एक पौधे को सींचा है और आज उसकी डालियां झूम-झूमकर हवा से बातें करने लगी हैं. उन्हीं डालियों के साये में मैं अपनी तमाम उम्र गुज़ार दूंगी."
वसुधा ने हौले से रिसीवर रख दिया. शीतल चांद जैसे मन के आकाश में उदित हो उठा था.
- श्रीमती निकुंज शरद जानी

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