वे मुमताज़ की नशीली आंखों में जब भी झांककर देखते, उन्हें कहीं से भी सन्देह की कोई झलक नहीं दिखाई देती थी. लेकिन एक जटिल समस्या अब भी उनके मस्तिष्क में कई बार रेंगने लगती कि कभी कहीं कोई मुमताज़ का उनकी तरफ़ से मन न फेर दे.
यह मुमताज़ बेगम की ख़ूबसूरती का जादू नहीं तो और क्या था कि उसने सेठ चम्पकलाल चौपटलाल चौकसी जैसे व्यक्ति को भी इस तरह शीशे में उतारा कि वह बस उसी के हो कर रह गए.
सेठ चम्पकलाल ऐसे रंगीन मिज़ाज थे कि अपनी फिल्मों की हर हीरोइन पर जी-जान से मोहित हो जाते थे. पर मुमताज़ बेगम के पीछे वह ऐसे लट्टू हुए कि अपने काम का मुख्य दायित्व अपने सहयोगियों के ऊपर छोड़ दिया. चित्रशालाओं की रंगीनियां उनके लिए आकाश-कुसुम बन कर रह गईं और वह स्वयं, "तू हो, तेरा जलवा हो और गोशा-ए-तन्हाई" के भाव रूप बन कर रह गए.
सेठ चम्पकलाल ने मुमताज़ बेगम से शादी तो चोरी-छिपे की थी, परन्तु फिल्म क्षेत्र में ब्लैक धन तो छिप सकता है, किसी का प्रेम छिपाए नहीं छिपता. जब बात खुल ही गई तो सेठ चम्पकलाल ने भी ज़िद में अपने स्टूडियो का नाम बदल कर मुमताज़ स्टूडियो रख दिया.
मुमताज़ बेगम बड़ौदा की एक सुप्रसिद्ध नर्तकी व वेश्या थी. बम्बई में एक दूर के रिश्ते की खाला को हज़ तीर्थ के लिए समुद्री जहाज में चढ़ाने आईं तो फ़ुर्सत के एक दिन सेठ चम्पकलाल के स्टूडियो में शूटिंग देखने पहुंच गई. सेठ चम्पकलाल पहली ही नज़र में घायल हो गए और मुमताज बेगम को अपनी फिल्मों में काम करने के लिए निमंत्रण दे दिया. मुमताज़ नाच सकती थी, गा सकती थी. इस पर अपार सौन्दर्य, पहली फिल्म की सफलता के बाद मुमताज़ ने सेठ जी की कई फिल्मों में काम किया, परन्तु सेठ चम्पकलाल ने उसे अन्य किसी दूसरे प्रोड्यूसर के पास नहीं जाने दिया. और जब शादी हो गई तो सेठ चम्पकलाल ने मुमताज़ से फिल्मों का सारा काम छुड़वा दिया.
सेठ चम्पकलाल मुमताज़ से पहले स्वयं किसी भी औरत के वफ़ादार नहीं रहे थे. यहां तक कि अपनी पहली पत्नी को भी सौराष्ट्र में अपने गांव में रख छोड़ा था. परन्तु मुमताज ने कुछ ऐसा मन्त्र फूंका कि सेठ चम्पकलाल इतना भी सहन नहीं कर सकते थे कि मुमताज़ से कोई हंस कर बात भी कर ले.
सेठ चम्पकलाल के दिल में शुरू में यह सन्देह हुआ था कि मुमताज़ आख़िर एक वेश्या है- कहीं किसी दूसरे पर आसक्त न हो जाए, परन्तु मुमताज़ को जहां अपने सौन्दर्य पर गर्व था, वहीं सेठ चम्पकलाल के एहसानों का भी लिहाज़ था... वेश्या जीवन के कुछ ही वर्षों में कई रईसों और जागीरदारों से पाला पड़ चुका था, लेकिन कभी किसी ने शादी के लिए हाथ नहीं थामा था. उसने भी फ़ैसला कर लिया था कि वह अब जीवन बिताएगी तो केवल सेठ चम्पकलाल के साथ.
वे मुमताज़ की नशीली आंखों में जब भी झांककर देखते, उन्हें कहीं से भी सन्देह की कोई झलक नहीं दिखाई देती थी. लेकिन एक जटिल समस्या अब भी उनके मस्तिष्क में कई बार रेंगने लगती कि कभी कहीं कोई मुमताज़ का उनकी तरफ़ से मन न फेर दे.
मुमताज़ जिससे भी मिलती, उसके मुख पर पुष्प खिल उठते. स्टूडियो हो या महफ़िल, उसकी हंसी की फुलझड़ी बात-बात पर छूटती. उसकी हंसी में बचपन का भोलापन, प्राकृतिक यौवन का उन्माद और सौन्दर्य का गर्व मिश्रित रहता. उसकी हंसी तो रूक जाती, लेकिन वायुमंडल में देर तक जैसे किसी जलरंग की आवाज़ थिरकती रहती. लोग सुध-बुध खो बैठते. युवाओं के मन और बूढ़ों के ईमान डोलने लगते.
सेठ चम्पकलाल जहां एकान्त, में मुमताज की अदाओं पर मर मिटते थे, वहीं लोगों के सामने उसकी मुस्कानों को बिखरते देखकर जल-भुन कर रह जाते, पर कुछ कह नहीं पाते थे.
सेठ चम्पकलाल का ग़ुस्सा भी ऐसा था, जो उनके चेहरे या आंखों से कभी प्रकट नहीं होता था. मानसिक तनाव की हालत में वह बस दोनों हाथों की उंगलियों पर तेजी से एक से सौ तक गिनती गिनने लगते थे.
फिल्म क्षेत्र के बहुत से लोग सेठ चम्पकलाल के एहसानों के बोझ तले दबे हुए थे, लेकिन कुछ लोग इस बोझ तले कुछ इस तरह दबे कि फिर कभी सिर न उठा सके.
एक नए उभरते हीरो से मात्र उनकी ही फिल्मों में काम करने के लिए उन्होंने तीन साल का एक लम्बा अनुबंध करा लिया. हीरो से किसी बात पर अनबन हो गई. दो नई फिल्मों के लिए हीरो के मुहूर्त शॉट ले कर डिब्बे सदा-सदा के लिए बन्द कर दिए. हीरो को तीन साल तक अनुबंध के अनुसार बराबर पारिश्रमिक देते रहे. लेकिन तीन साल के बाद जब अनुबंध की अवधि समाप्त हुई तो अन्य सभी फिल्म निर्माता उक्त हीरो के नाम तक से बिदकने लगे.
एक भुक्कड़ फिल्मी लेखक से भी इसी प्रकार का एक लम्बा अनुबंध किया. लेखक अपने लिखे हुए हर शब्द को पत्थर की लकीर समझता था. सेठ चम्पकलाल लेखक के इसी दावे के आगे नतमस्तक हो गए. एक अर्से तक उसी लेखक से अपनी कई फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखवाई और तमाम स्क्रिप्ट आलमारियों में बन्द होती रहीं. फिल्मों के नामों की कभी घोषणा तक नहीं हुई. अनुबंध समाप्त होने के बाद किसी दूसरी संस्था में फिल्मी लेखक का कुछ बस नहीं चला तो अपने गांव वापस जा कर स्कूल मास्टरी करने लगा और समाचार पत्रों में अपना जीवन चरित्र धारावाहिक रूप से प्रकाशित कराता रहा.
मज़े की बात तो यह है कि इस बीच सेठ चम्पकलाल के मुख पर कभी क्रोध अथवा दुख की क्षीण रेखा भी प्रस्फुटित नहीं हुई. माना हाथों की उंगलियों पर एक से सौ तक की गिनती जुड़ कर लाखों की संख्या पार कर गई.
एक दिन मुमताज़ ने हंसी में चम्पकलाल से कहा कि स्टूड़ियों का एक नवयुवक टाइपिस्ट क्लर्क बांके बिहारी अर्थपूर्ण निगाहों से घूर-घूर कर उसकी तरफ़ देखता है और मुस्कुरा-मुस्कुरा कर अपने होंठों पर जीभ फेरता है तो सेठ चम्पकलाल के मुख पर एक फीकी सी मुस्कान उभरी और सिर्फ़ इतना कहा, "कौआ चला हंस की चाल."
"क्या?" मुमताज़ ने पूछा.
जवाब में सेठ चम्पकलाल की उंगलियां बड़ी तेज़ी से एक से सौ तक गिनती गिनने लगीं. हफ़्ते भर बाद सेठ चम्पकलाल ने टाइपिस्ट क्लर्क बांके बिहारी को उठा कर अपनी संस्था का हेड वलर्क बना दिया.
बांके बिहारी ने समझा कि मुमताज़ की सचमुच उस पर कृपा दृष्टि हो गई है और यह पदोन्नति उसी की सिफ़ारिश का फल है. वह समय-असमय मुमताज़ से बात करने के बहाने ढूंढ़ने लगा. वह उसकी हर बात पर ध्यान नहीं देती. लेकिन बांके बिहारी में कभी इतना साहस नहीं हुआ कि वह बेधड़क होकर मुमताज़ से प्रेम जता सकता.
कुछ महीने और बीत गए और एक दिन स्टूडियो में पहुंचते ही चम्पकलाल ने बांके बिहारी को हेड क्लर्की के पद से हटाकर संस्था का मैनेजर नियुक्त कर दिया. एक बार तो मुमताज़ भी सिटपिटाकर रह गई कि चम्पकलाल के दिल में क्या है? फिल्म क्षेत्र में यह अफ़वाह यहां तक दृढ़ हो गई कि लोग समझने लगे, मुमताज बांके बिहारी पर वास्तव में आसक्त हो गई है.
मुमताज़ स्टूडियो में आती तो बांके बिहारी के पास ही दफ़्तर में बैठी रहती. चम्पकलाल स्टूडियो के काम में व्यस्त रहते. कई बार ऐसा भी हुआ कि बांके बिहारी और मुमताज दफ़्तर में बिल्कुल अकेले रह जाते. बांके के नाड़ी की गति तेज़ हो जाती. मुमताज़ की हर अदा पर सांसों की गति कठिन और उलट-पुलट होने लगती. लेकिन कभी इतना साहस नहीं हुआ कि मुमताज़ से कोई प्यार भरी बात कर सकता. दिन के उजाले में मात्र वह यही सपने देखता रहता कि यदि मुमताज़ उस पर सचमुच इतनी मोहित हो चुकी है कि टाइपिस्ट क्लर्क से हेड क्लर्क और हेड क्लर्क से मैनेजर पद पर उसे आरूढ़ करा चुकी है तो एक दिन प्रेम का पहला कदम भी उसीं की तरफ़ से उठेगा. इसी आशा में बांके ने मैनेजर पद पर दो वर्ष बिता दिए.
चम्पकलाल ने मैनेजर का कार्यभार धीरे-धीरे बांके बिहारी पर से कम करते हुए उसके सहकारियों पर डाल दिया था. अब बांके के पास केवल चम्पकलाल की ओर से पत्रों और अनुबंधों पर हस्ताक्षर करने का काम शेष रह गया था.
इन दो वर्षों में बांके ने एक बड़ा फ्लैट ख़रीद लिया. एक कार ले ली. दफ़्तर में उसके पास काम नाम मात्र के लिए भी नहीं था. सुख-चैन का जीवन बिताते हुए इन दो वर्षों में बांके फूलकर कुप्पा हो गया. शरीर पर मोटाई की परत-पर-परत चढ़ गई. दो वर्ष पहले का सुन्दर नवयुवक इतना भद्दा और बेडौल हो गया कि चार कदम चलते ही सांस फूलने लगती और जिस दिन चम्पकलाल को इस बात का पूर्ण विश्वास हो गया कि बांके बिहारी अब बिल्कुल निकम्मा हो चुका है और कहीं भी काम करने लायक नहीं रहा, उस दिन उन्होंने स्टूडियो में खड़े-खड़े बांके बिहारी को नौकरी से निकाल दिया.
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बांके बिहारी के चले जाने के बाद सेठ चम्पकलाल देर तक मानसिक तनाव में आ कर अपने हाथों की उंगलियों पर एक से सौ तक गिनती गिनते रहे. मुमताज़ ने पहली बार उंगलियों की इस बेचैन अवस्था को देखा तो उससे रहा न गया. उसने पूछा, "यह आपकी उंगलियां क्यों कांप रही हैं?”
"क्या?" चम्पकलाल ने कांपते हुए हाथों को पीठ के पीछे छिपाते हुए कहा, "कुछ भी तो नहीं. ऐसे ही ज़रा हिसाब लगा रहा था."
- प्रीतम बेली
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