एक दिन उसने पूर्णिमा से पूछा, "आख़िर तुम चाहती क्या हो? क्या मैं घर छोड़ कर चला जाऊं या कुछ खा कर मर जाऊं? न दफ़्तर में चैन, न घर में आराम. वहां अफ़सर जान खाते हैं, यहां तुम..."
अक्सर घर काट खाने को दौड़ता, स्त्री-बच्चे पराए पराए से लगते. मन करता, घर से बाहर चला जाए, सड़कों पर आवारागर्दी करता रहे. उस वक़्त तक घूमता रहे, जब तक कि थक, टूट न जाए और घर लौट कर गहरी नींद सो जाए, ताकि उसकी पत्नी के ऊंचे बोलने का स्वर और बच्चों की चे-पों सुनाई न दे. उसे लगता कि परिवार के लोग ही उसके सबसे बड़े दुश्मन है. उसकी पत्नी और बच्चे, जिन्होंने उसकी सुख-शांति छीन ली है. शायद वह पिछले जन्म के किसी पाप का फल भोग रहा है.
उसे अपने मित्र कुमार से ईर्ष्या होती थी, जिसे एक ऐसी सुशिक्षित और सुसभ्य पत्नी मिली थी, जिसकी एक मुस्कान, एक झलक से मन खिल उठता. यूं तो उसकी अपनी पत्नी भी देखने में बुरी नहीं, परंतु चार वर्षों में ही वह तीन बच्चों की मां बन गई और अपनी दुनिया में ऐसे खो गई, जैसे और किसी काम से उसका कोई वास्ता ही नहीं. खीझ जाए तो बच्चों पर अपना ग़ुस्सा उतारती है.
अनूप ऐसा अनुभव करता है, जैसे उसने एक बहुत बड़ी मुसीबत अपने सिर मोल ले ली है. क्या-क्या सपने देखे थे उसने. क्या-क्या सोचा था. सब कुछ मिट्टी में मिल गया. अब तो मौत ही उसे इस जीवन से छुटकारा दिला सकती है.
एक दिन उसने पूर्णिमा से पूछा, "आख़िर तुम चाहती क्या हो? क्या मैं घर छोड़ कर चला जाऊं या कुछ खा कर मर जाऊं? न दफ़्तर में चैन, न घर में आराम. वहां अफ़सर जान खाते हैं, यहां तुम. जब घर आओ, बस अपना रोना शुरू कर देती हो. यह नहीं है, वह नहीं है. यह चाहिए वह चाहिए, जब देखो, बच्चे टें-टें करते रहते हैं. आखिर यह सब क्यों? क्या तुमसे यह सब सम्भाले नहीं जाते?"
"जाने तुम्हें हो क्या गया है? मैं ख़ुद अचम्भे में हूं. और लोग भी दफ़्तरों में काम करते हैं, पैसा कमाते हैं, घर भी संभालते हैं, उनके भी बाल-बच्चे होते हैं, पर तुम्हारी तरह कोई नहीं होगा. ऐसा करो तुम हम सबको कुछ देकर मार डालो. छुट्टी हो जाएगी. तुम्हें शांति मिल जाएगी."
"तुमने मेरा जीना दूभर कर दिया है..."
पूर्णिमा का उत्तर था, "पहले तुम ऐसे नहीं थे. इधर न जाने तुम्हें क्या रोग लग गया है, समझ में नहीं आता."
"वह रोग तुम हो." कहता हुआ अनूप घर से बाहर निकल गया था. सीधा सिनेमा हाउस पहुंचा. टिकट लेकर पिक्चर देखने लगा. रात का खाना भी उसने बाहर ढाबे में खाया. जब घर लौटा, रात के ग्यारह बज रहे थे. पूर्णिमा खाने पर उसका इंतज़ार कर रही थी, पर उससे कुछ बोले बिना वह बिस्तर पर चला गया, फिर शायद पूर्णिमा भूखी ही सो गई. इसके बाद और कई बार ऐसा हुआ.
एक दिन उसने पूर्णिमा से कहा, "तुम अपने मायके क्यों नहीं चली जाती? वहीं ख़र्च भेज दिया करूंगा."

पूर्णिमा ने जवाब दिया, "ठीक है, अगर तुम मेरी सूरत नहीं देखना चाहते हो तो मैं तुम्हारी आंखों से दूर हो जाऊंगी, कल ही बच्चों को लेकर मां के पास चली जाती हूं."
अनूप का बच्चों से मोह कम था. उसकी समझ से शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करने में वे बहुत बाधक थे. वह प्रायः उन्हें डांटता, डपटता, झिड़कता और पास नहीं फटकने देता था. बच्चे भी उससे डरते और दूर-दूर रहते.
एक दिन उसने जब रो रही बच्ची को उठा कर पलंग पर फेंक दिया था तो पूर्णिमा का जैसे खून सूख गया था. कहने लगी, "यह तुमने क्या किया? बच्ची को जान से मार डालना चाहते हो क्या? उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? तुम मुझसे चाहे जैसा व्यवहार करो, लेकिन बच्ची को...." वह रोने लगी थी.
उस रात जब बच्चे सो गए, तब पूर्णिमा उससे बोली, "तुम मुझसे नाराज़ क्यों हो? मुझसे क्या भूल हुई है, बोलो? तुम जो इतने बदल गए हो, ज़रूर इसमें कोई रहस्य है. क्या दिल में किसी और को बसा लिया है? अगर ऐसी बात है तो उसे भी यहां ले आओ, मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी. मैं तुम दोनो की सेवा करूंगी."
"दूर हटो मेरे पास से." उसे एक ओर धकेलते हुए उसने परे हटा दिया था.
आज शाम से उसके दिमाग़ का पारा कुछ ज़्यादा ही चढ़ा हुआ था. जब वह दफ़्तर से घर लौटा तो देखा, हमेशा की तरह चाय और नाश्ता तैयार नहीं था. पूर्णिमा ही घर से गायब थी. वह बौखलाया हुआ सा घर से बाहर निकल आया. पास के एक होटल में नाश्ता किया, फिर पागलों की तरह इस बाज़ार से उस बाज़ार, एक जगह से दूसरी जगह सड़क नाप रहा था. समय काटे नहीं कट रहा था. मेन रोड पर चलते-चलते वह अचानक किसी से टकराते-टकराते बचा. मिलीजुली हंसी की आवाज़ उभरी, उसने नज़रें उठाकर देखा तो सामने ऊषा और कुमार खड़े थे.
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"ओ यार! तुम इस तरह." कुमार बोला, "मजनूं बने कहां घूम रहे हो?"
अनूप ने कुमार से हाथ मिलाया और ऊषा की और देखते हुए कहा, "भाभी नमस्ते! बड़ी उम्र है तुम दोनों की. आज मुझे ऐसा लग रहा था, अचानक ही तुम लोगों से मेरी भेंट हो जाएगी. मैंने रात सपना भी देखा था."
"बहुत अच्छे," ऊषा मुस्कुरा दी, "तुम बहुत सुंदर सपने देखते हो. चलो, हमारे साथ चलो."
"कहां?"
"जहां हम जा रहे हैं."
"लेकिन मुझे ज़रा जल्दी घर पहुंचना है."
"ऐसी भी क्या जल्दी है, चलो, बातें करेंगे." कुमार उसका हाथ पकड़ कर कार की ओर ले चला.
अनुप जब कुमार के यहां आया, उसे लगा, जैसे वह किसी कलामंदिर में आ गया है- सुंदर बंगला, आसपास समान पेड़ों की छाया, सुरक्षित वातावरण, आकर्षक लॉन.
कुमार की बैठक तो मानो एक आर्ट गैलरी है. दीवार पर टंगे कलात्मक चित्रों को देख कर मन प्रसन्न हो जाता है. वहां की प्रत्येक वस्तु प्रिय लगने लगती है और सबसे प्रिय श्रीमती कुमार है. हंसमुख और मिलनसार बातों से मन मोह लेती हैं और एक है पूर्णिमा, जिसके पास बैठने से ही सिर चकराने लगता है.
श्रीमती कुमार चाय बनाते हुए बोली, "चीनी कितनी?"
"बस, एक चम्मच." अनूप बोला और उसने भरपूर नज़रों से उसकी ओर देखा.
श्रीमती कुमार बोली, "भाभी से मिले बहुत दिन हो गए हैं. कभी उन्हें भी अपने साथ लाइए."
"वह क्या आएगी," अनूप मुंह बना कर बोला. "उसे घर के काम को छोड़ कर और किसी काम से कोई दिलचस्पी नहीं."
"ठीक ही तो है." कुमार चाय की चुस्की लेते हुए बोला.
"हां, तुम्हें यही अच्छा लगता है." श्रीमती कुमार आंखों की पुतलियों को नचाते हुए बोली, "यह चाहते हैं कि महिलाएं घर के बाहर ही न झांका करें."
अनूप ने देखा, कुमार का चेहरा कुछ गम्भीर हो गया था.
श्रीमती कुमार बोली, "अच्छा, एक दिन मैं ख़ुद भाभी के पास जाऊंगी."
"उससे मिलकर तुम्हें मज़ा नहीं आएगा भाभी." अनूप निराशापूर्ण स्वर में बोला.
"क्यों?" अर्थपूर्ण दृष्टि से उसने अनूप की ओर देखा.
"बस, यूं ही."
"बीवीजी, नवीन बाबू आए हैं." नौकर ने सूचना दी.
"अरे, नवीन बाबू..." मिसेज़ कुमार का चेहरा प्रसन्नता से खिल गया.
"उन्हें यहीं ले आओ."
नौकर बोला, "वे कार में बैठे आपको याद कर रहे हैं."
"नवीन बाबू कौन है?" अनूप ने कुमार से पूछा.
श्रीमती कुमार बोली, "नवीन से तुम्हारा परिचय नहीं है. मेरा मित्र है. हम सहपाठी रह चुके हैं. कम्पनी में पब्लिक रिलेशन ऑफिसर हैं."
बाहर से कार के हॉर्न की आवाज़ आई.
श्रीमती कुमार ने नौकर से कहा, "जाओ, कह दो, मैं अभी आई."
यह उठकर दूसरे कमरे में चली गई.
कुमार माथा झुकाएं चुपचाप बैठा हुआ था. अनूप की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. कुछ देर तक माहौल में चुप्पी छाई रही. अनूप बोला, "कुमार, तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है."
"ऊ..." वह तनिक चौंका.
श्रीमती कुमार एक नई सुंदर साड़ी पहनें दूसरे कमरे से बाहर निकलीं और वैनिटी बैग हिलाते हुए बोली, "मैं जल्दी ही लौट आऊंगी कुमार." और खट-खट सैंडल खटखटाते हुए कमरे से बाहर चली गई.
अनूप ने पूछा, "भाभी अचानक कहां चल दीं कुमार?"
कुमार धीरे से बोला, "रिहर्सल के लिए."
"रिहर्सल कैसी रिहर्सल?" अनूप ने आश्वर्य से
"नाटक की रिहर्सल और किसकी रिहर्सल?"
"नाटक?"
"हां! जो कल्चरल शो होने वाला है न, उसी के लिए."
अनूप ने इस संबंध में कुछ नहीं पूछा.
कुमार लम्बी सांस भरकर बोला, "रोज़ कोई न कोई प्रोग्राम रहता है. आज नाटक तो कल नृत्य. ऊषा को न जाने इन प्रोग्रामों से कब फ़ुर्सत मिलेगी?"
"तुम उसे कुछ भी नहीं कहते?"
कुमार ठंडी सांस लेता हुआ बोला, "साहस नहीं होता. नृत्य व कला से उसे बहुत पहले से ही लगाव है और फिर सभा, सोसायटी और सांस्कृतिक संगठनों के तकाज़े." उसने अपना सिर थाम लिया.
अनूप उसकी ओर देखता रहा.
"मैंने बड़े अरमानों से शादी की थी, लेकिन आज स्थिति यह है कि उससे जी भर कर बातें करने को मन तरसता रहता है. जब भी बाहर से घर आओ तो पाओ, वह टेलिफोन से चिपकी हुई है या उसे कोई मिलने आई है या आया है और उससे सभा-सोसायटी की बातें हो रही हैं. किसी नाटक या प्रोग्राम की चर्चा हो रही है या चंदा इकट्ठा करने कर प्रोग्राम बन रहा है. मेरे साथ उसे कोई चर्चा और बात करने की फ़ुर्सत ही नहीं है."
अनूप तब भी कुमार के चेहरे के भाव भांपता रहा.
उस दिन वह रात दस बजे तक कुमार के पास बैठा रहा. कुमार बता रहा था. कैसे एक बच्चे के बिना सारा घर सूना सूना सा दिखाई देता है. इतनी बड़ी कोठी ऊषा की अनुपस्थिति में काटने को दौड़ती है. यूं तो यहां की प्रत्येक वस्तु सुंदर है. परन्तु अर्थहीन और निष्प्राण है.
ऊषा केवल कल्पना और सपनों की दुनिया में विचरती है. आर्ट, कला ही जीवन है. भावनाओं और इच्छाओं का कोई मूल्य नहीं. हर एक का एक समय होता है."
जब अनूप कुमार के यहां से घर लौटा, उसके अंदर का तनाव कम हो चुका था. उसने देखा, पूर्णिमा छोटी बच्ची को गोद में लिए लोरी गुनगुनाती हुई उसे सुलाने का प्रयास कर रही.
उसने कहा, "लाओ, बच्ची मुझे दो और खाना लगाओ."
बच्चों को उसे थमाते हुए बोली, "तुम इतनी देर से." आगे शायद कुछ बोलना उसने उचित नहीं समझा.
"मैं कुमार के यहां चला गया था, अनूप ने नम्र भाव से कहा, "तुम शाम को कहां गई थी?" "बच्चों को सर्दी-खांसी है, इसलिए उन्हें डॉक्टर के पास ले गई थी."
अनूप और क्या कहे, सोच में पड़ गया.
"शायद तुम इसी कारण ग़ुस्से से इतनी रात गए घर वापस लौटे हो." पूर्णिमा ने कनखियों से देखते हुए व मुस्कुराते हुए कहा.
"नहीं, ऐसी बात नहीं," अनूप आंखें चुराता हुआ बोला.
"चलो खाना परोसो, भूख लगी है." पूर्णिमा मुस्कुराहट के फूल बिखेरती हुए किचन में चली गई. अनूप की आंखों के सामने स्वर्गीय सौंदर्य की छटा बिखर गई.
- गुरुबचन सिंह
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