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कहानी- परफेक्ट (Short Story- Perfect)

संगीता माथुर

“... सामने वाले को परफेक्ट बनाने के लिए कभी-कभी ख़ुद को इम्परफेक्ट बनना पड़ता है. पहले आगे होकर ख़ुद ज़िम्मेदारियां ओढ़ती हो. फिर थकान का रोना रोती हो. घर स़िर्फ तुम्हारे कंधे पर नहीं टिका है कि तुम्हारा कंधा हटते ही भरभराकर ढह जाएगा.”

मीटिंग में एनुअल पार्टी की घोषणा हुई, तो सारे कर्मचारियों के चेहरे ख़ुशी से खिल उठे. साथ ही सबकी नज़रें मेघा की और उठ गईर्ं. इतने सालों से वही तो कंपनी की एनुअल पार्टी ऑर्गेनाइज़ करती आ रही थी.

“मेघा, यार कोई अच्छा सा वेन्यू तय करना. पूल, लाइट्स म्यूज़िक सब हो वहां!”

“मेघा मैडम, मेनू में जरा हम वेजीटेरियन का ध्यान रखना और हमारा खाना अलग से लग जाए, तो बेहतर रहेगा.”

“मेघा जी, ड्रेस थीम सिंपल सोबर ही रखना. क्या है कि हम पर अब सब कपड़े सूट नहीं करते. वैसे आपको कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है. आप एकदम परफेक्ट पार्टी ऑर्गेनाइज़ करती हैं. इसीलिए तो वर्षों से यह ज़िम्मेदारी आपको ही सौंपी जा रही है.”

सबकी गर्दनें हां में हिलने लगी थीं. काव्या ने गर्व से अपनी अंतरंग सखी मेघा की ओर देखा, ‘अरे यह क्या? यह इतनी गंभीर और परेशान क्यों लग रही है? इतनी तारीफ़ सुनकर तो इसे फूलकर कुप्पा हो जाना चाहिए था.’

मीटिंग ख़त्म हुई तो उसने मेघा को पकड़ लिया. “ऐसी रोनी सूरत क्यों बना रखी है? सब तेरी कितनी तारीफ़ कर रहे थे.”

“तू नहीं समझेगी. तेरी शादी नहीं हुई है ना अभी तक.”

“ओह समझी, घर-ऑफिस की दोहरी ज़िम्मेदारियां निभाते थक रही है तू! एक बेचारी, काम की मारी. पर हाउसकीपिंग के लिए तेरे पास इतने हेल्पर हैं तो सही. सफ़ाई वाली है, कुक है, बनी के लिए नैनी है.”

“पर मैनकीपिंग तो मुझे ही करनी पड़ती है.” “हें...! यह क्या है?”

“कहा ना तेरी शादी नहीं हुई है. तू नहीं समझेगी. मैं निकलती हूं. बनी को स्कूल से लेना है. फिर बाप-बेटे के पसंद के कुछ स्नैक्स भी पैक करवाने हैं.”

“किस ख़ुशी में?”

“आज हैप्पी फैमिली डे जो है.”

“अरे तो यह शॉपिंग तो तेरे पति भी कर सकते हैं.”

“चाहे फादर्स डे हो, मदर्स डे हो, चिल्ड्रेन्स डे हो, वैलेंटाइन डे हो, एनिवर्सरी हो, सबके लिए शॉपिंग, पार्टी मुझे ही ऑर्गेनाइज़ करनी होती है. क्योंकि मैं इन सबमें परफेक्ट हूं.”

मुंह बनाते हुए मेघा कैब में चढ़ गई. काव्या हैरान उसे निहारती रह गई. अगले दिन ऑफिस में मेघा ने टेबल थपथपाकर सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया.

“पिछली बार वाली पार्टी आप सभी को बहुत पसंद आई थी ना?”

“हां बहुत.” समवेत स्वर गूंज उठा.

“तो बस वही वेन्यू, मेनू और थीम फाइनल है.” सबके चेहरे लटक गए.  

“नहीं मैडम, कुछ तो नया कीजिए. हर बार आप इतने इनोवेटिव गेम्स, आइडिया लेकर आती हैं.” “तो फिर हर साल वही ऑर्गेनाइज़र क्यों? इस बार नए लोगों को मौक़ा मिलना चाहिए. जो अभी तीन नए रिक्रूट हुए हैं, वैभव, अभय और शायना. ये मिलकर पार्टी ऑर्गेनाइज़ करेंगे. मेरी गाइडेंस हर कदम पर प्रस्तुत है.” हॉल में सन्नाटा छा गया. “नए ऑर्गेनाइज़र्स के लिए तालियां.” मेघा ने जोर से ताली बजाना आरंभ किया, तो धीरे-धीरे सभी उसमें जुड़ते गए. मेघा ने राहत की सांस ली. पर अगले दिन ही आए एक कॉल से उसके चेहरे पर फिर तनाव के बादल मंडराने लगे, तो काव्या से रहा नहीं गया.

“अब क्या हुआ?”

“अनंत का फोन था. उसकी बहन यानी मेरी ननंद रक्षाबंधन मनाने आ रही है.”

“अरे तो यह तो ख़ुशी की ख़बर है.” मेघा के सामने पिछला रक्षाबंधन रील की भांति घूमने लगा. तब दीदी के आने की ख़बर से वह भी ख़ूब उत्साहित थी. अनंत ने आनन-फानन में सारी ज़िम्मेदारियां उस पर थोप दी थीं.

“कुक को पहले से सारा मेनू समझा देना और उस हिसाब से सामान ऑर्डर कर देना. दीदी को घर और घरवाले एकदम साफ़ और व्यवस्थित चाहिए.”

“अब दो साल के बनी के साथ साफ़ और व्यवस्थित कैसे रह सकते हैं?”

“तीन-चार दिनों की तो बात है. और हां तुम साथ जाकर दीदी को उनकी पसंद की ड्रेस दिलवा लाना. तुम्हारी चॉइस और सब काम इतना परफेक्ट है कि मैं तुम्हें सब सौंपकर निश्‍चिंत हो जाता हूं. साथ में अपने और बनी के लिए भी नई ड्रेस ले लेना.”

“तुम्हारी तुम ले लोगे?”

“नहीं. वह भी तुम्हें ही पसंद करके लानी होगी. अपने ऑफिस के काम के अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं पता. क्या ट्रेंड में हैॅ? क्या मुझ पर सूट करेगा?..” मेघा का मन तो हुआ था कि सुना दे कि वह भी सालों से ऑफिस में बेस्ट एम्पलाई का ख़िताब जीतती आ रही है. पर शादी के बाद से हाउसकीपिंग, मैनकीपिंग में इतना उलझ गई है कि...

“क्या हुआ, क्या सोचने लगी? अपनी परेशानी शेयर नहीं करेगी? मेरी मदद चाहिए, बोल?” काव्या ने स्नेह से मेघा के हाथ पर हाथ धरा तो वह पिघल गई.

“ऐसी कोई बड़ी परेशानी भी नहीं है. बल्कि हो सकता है सुनकर तुझे लगे मैं ओवररिएक्ट कर रही हूं. शादी के साल भर बाद तक नए बने रिश्ते की सारी सामाजिक और भावनात्मक ज़िम्मेदारी उठाकर मैं भी ख़ुश थी. पर अब धीरे-धीरे मुझे यह बोझ लगने लगा है. हम दोनों के पैरेंट्स से, रिश्तेदारों से, दोस्तों से कब मिलने जाना है... कहां छुट्टियां मनानी है, क्या गिफ्ट देने हैं, क्या तैयारी या प्लानिंग करनी है सब कुछ मुझे ही सोचना होता है. यहां तक कि अगर कुछ ग़लत होता है, तो उसकी ज़िम्मेदारी भी मेरी. मुझे लगता है अधिकांश विवाहित महिलाएं इसी दौर से गुज़र रही हैं, विशेषतः कामकाजी महिलाओं पर पुरुष पार्टनर की सामाजिक और भावनात्मक ज़रूरतों को पूरा करने का यह अतिरिक्त कार्यभार भारी पड़ने लगा है. यह ट्रेंड रिश्तों में असंतुलन पैदा कर रहा है. और महिलाएं थकावट महसूस कर रही हैं शारीरिक भी और मानसिक भी. महिलाओं को परिवार को जोड़ने वाली, परिजनों का ख़्याल रखने वाली माना जाता है. उनकी इसी भूमिका का विस्तार हो गया है. अब वह यह भूमिका अपने पार्टनर के लिए भी निभा रही हैं. महिलाएं अपनी समस्याओं के लिए कई लोगों से बात करती हैं. जैसे अभी मैं तुमसे शेयर कर रही हूं. जबकि पुरुष स़िर्फ पार्टनर पर निर्भर करते हैं. उनके क़रीबी दोस्त नाममात्र के रह गए हैं. और उनसे भी वे शेयर-केयर का रिश्ता नहीं निभा रहे. इससे उनकी महिला पार्टनर पर अतिरिक्त मानसिक बोझ बढ़ रहा है. हम विवाहित महिलाएं अनजाने में ही अपने पार्टनर की अनौपचारिक थेरेपिस्ट बनती जा रही हैं. पुरुषों के सामाजिक संबंधों में गिरावट की एक बड़ी वजह यह भी है कि वे संस्थाएं ही ख़त्म हो रही हैं, जहां पहले दोस्ती आकार लेती थी. जैसे धार्मिक स्थल, सामाजिक संगठन, क्लब आदि. पुरुष इन जगहों पर दोस्त बना लेते थे. अब उन्हें ख़ुद पहल करनी पड़ती है, तो वे दोस्त बनाने में उदासीन हो गए हैं.” काव्या हैरानी से सुन रही थी.  

“तो इसका समाधान क्या है?”

“पुरुषों को सक्रिय होने की आवश्यकता है, वरना वे सामाजिक रूप से और अलग-थलग पड़ते जाएंगे.”

“पर उन्हें तो इस बात का एहसास ही नहीं है. उन्हें तो लगता है उनके पार्टनर को योजनाएं बनाना पसंद है. सामाजिक और भावनात्मक ज़िम्मेदारियां उठाना उन्हें संतुष्टि देता है.”

“कहां संतुष्टि देता है? थका देती हैं ये ज़िम्मेदारियां.” मेघा फट पड़ी थी.

“तो रिश्तों में संतुलन लाना होगा. पुरुषों को भी दोस्ती में भावनात्मक निवेश करना होगा. समझना होगा कि कोई एक इंसान किसी के सारे इमोशनल सपोर्ट की ज़रूरतें पूरी नहीं कर सकता. उन्हें ऐसे आउटलेट्स तलाशने होंगे, जहां वे खुलकर बात कर सकें. किसी दोस्त या रिश्तेदार से नई बात शेयर करें, उनके साथ कोई एक्टिविटी करें. इससे पार्टनर पर बोझ कम होगा और रिश्ते मज़बूत बनेंगे.”

“पर यह सब होगा कैसे?” “जिस चतुराई से तुमने अभी यहां कार्यस्थल पर अपनी ज़िम्मेदारी हल्की की है कि किसी को बुरा भी नहीं लगा और तुम्हारी प्रतिष्ठा भी बनी रही, ऐसी ही कोई जादू की छड़ी अपने पार्टनर पर भी घुमा दो. जिस इंसान के पास समाधान करने की शक्ति जितनी ज़्यादा होती है, उसके रिश्तों का दायरा उतना ही विशाल होता है.”

“हूं... सोचना पड़ेगा.” काव्या ने उंगलियां बढ़ाकर सखी के दिमाग़ पर टक-टक की और फिर दोनों खिलखिलाकर हंस पड़ीं. अनंत कुछ दिनों से नोटिस कर रहा था कि ऑफिस से आने के बाद मेघा या तो बेफ़िक्र सी बनी के संग खेलती रहती है और यदि बनी सो जाता है, तो लैपटॉप लेकर पेंडिंग ऑफिस वर्क निपटाने बैठ जाती है.

“मैंने तुम्हें रक्षाबंधन पर दीदी के आने की सूचना दे दी थी ना?” मेघा को किसी तरह की तैयारी या चिंता में लिप्त न देख अनंत से आख़िर रहा नहीं गया.

“हां, तभी तो पेंडिंग ऑफिस वर्क निबटाने में लगी हूं, ताकि तुम लोगों के संग कम से कम रक्षाबंधन वाले दिन तो रह सकूं.”

“क्या मतलब? दीदी के आने पर तुम छुट्टियां नहीं लोगी?”

“कैसे ले सकती हूं डार्लिंग? डेडलाइन है.”

“फिर हमारे कपड़ों की शॉपिंग? दीदी की गिफ्ट? त्योहार का स्पेशल खाना व मिठाइयां?”

“अरर... एक-एक करके बोलो. चलो डिस्कस करते हैं.” मेघा ने लैपटॉप एक ओर रख दिया. “पहला काम हम तीनों के कपड़े. अभी दो महीने पहले अपूर्व की शादी में हमने चार-चार जोड़ी एथेनिक ड्रेस बनवाई थी. ना वह छोटी हुई होगी, ना आउटडेटेड. हमारे बेड के नीचे बॉक्स में रखी होगी. तीनों की एक-एक निकाल लेना. बस देख लेना ड्राईक्लीन या आयरन की ज़रूरत तो नहीं है. नए कपड़ों की शॉपिंग का जो पैसा बचेगा, उससे राखी वाले दिन हम बाहर डिनर कर लेंगे, घूम-फिर लेंगे. वैसे भी कुक उस दिन छुट्टी पर रहेगी. बाकी दिन तो नाश्ता-खाना वह बना ही देगी. कुछ स्पेशल खाना हो तो ऑर्डर कर लेना.” “दीदी का गिफ्ट?”

“उन्हें ऑनलाइन पसंद करवा दो. पेमेंट कर देना. ना उन्हें भटकना पड़ेगा ना हमें. और हां बनी की राखी के अगले दिन भी छुट्टी है और नैनी भी उस दिन छुट्टी पर है. पर मुझे तो डेडलाइन की वजह से ऑफिस जाना होगा. तो आप और दीदी मैनेज कर लेना.”

“अरे पर...”

“ओह कॉल! चलो बाद में बात करते हैं.” कहते हुए मेघा ने फिर से लैपटॉप उठा लिया. लेकिन उसने कनखियों से गौर किया कि हमेशा उसके चेहरे पर छाई रहने वाली तनाव की लकीरें अनंत के चेहरे पर उभर आई हैं.

मेघा का मन सहानुभूति से भर उठा. लेकिन फिर भविष्य में अपने रिश्ते की मज़बूती का ख़्याल कर वह चुप लगा गई. अनंत ने न केवल कपड़ों और गिफ्ट का काम निपटाया, बल्कि मेघा की व्यस्तता समझते हुए कुक को उन तीन-चार दिनों का मेनू भी समझा दिया. निसंदेह उसमें दीदी की पसंद को सर्वोपरि रखा गया था, जिससे मेघा भी सहमत थी. कुक की मदद से संबंधित सामग्री भी उसने ऑर्डर कर दी. साथ ही सफ़ाई वाली की मदद से घर भी व्यवस्थित कर दिया.

दीदी के साथ सबने ख़ूूब एंजॉय किया. विशेषतः रक्षाबंधन वाला पूरा दिन तो सैर-सपाटे में कब व्यतीत हो गया, पता ही नहीं चला. दोनों भाई-बहन एक-दूसरे के क़िस्से सुनाकर परस्पर खिंचाई करते रहे. उसके बाद ढेरों व्यंजनों वाले बुफे डिनर का आनंद लेकर वे घर लौटे. मेघा तो सवेरे ऑफिस निकल ली थी. अनंत ने वर्क फ्रॉम होम ले लिया.

ऑफिस में भी मेघा का मन घर में ही अटका था. बनी तंग तो नहीं कर रहा होगा? अनंत ने सलाद कटवाया होगा या नहीं? मेघा को विचारमग्न देख काव्या ने चुटकी ली, “कुछ तो तुम जैसी ओवरप्रोटेक्टिव फीमेल पार्टनर की वजह से बेचारे पुरुष सामाजिक रूप से अलग-थलग पड़ रहे हैं. सामने वाले को परफेक्ट बनाने के लिए कभी-कभी ख़ुद को इम्परफेक्ट बनना पड़ता है. पहले आगे होकर ख़ुद ज़िम्मेदारियां ओढ़ती हो. फिर थकान का रोना रोती हो. घर सिर्फ़ तुम्हारे कंधे पर नहीं टिका है कि तुम्हारा कंधा हटते ही भरभराकर ढह जाएगा.”

काव्या के शब्दों की सच्चाई मेघा को शाम को घर पहुंचने पर दृष्टिगत हुई. दरवाज़ा खुलते ही बन रहे स्वादिष्ट गरम खाने के एरोमा से उसके नथुने फड़क उठे. अनंत का दरवाज़ा बंद था. अंदर से आती आवाज़ उसके कॉल पर होने की पुष्टि कर रही थी. बनी बुआ के संग खेल रहा था. पूरी लॉबी में खिलौने बिखरे पड़े थे.

“अरे ममा तो आ भी गई. पता ही नहीं चला. मेघा, तुम फ्रेश होओ. मैं खिलौने समेट देती हूं.”

“नहीं दी, आप बैठे रहिए. आपने चाय पी?” मेघा रसोई में जाकर कुक को चाय-पकौड़े और बनी के लिए चीले बनाने का बोल आई.  

“बनी आओ! अब सब खिलौनों को घर भेज देते हैं. टेडी, बार्बी सबको अपने-अपने घर जाना है ममा पास.” बनी फट से बड़ी सी टोकरी खींच लाया और ममा के साथ उसमें सब खिलौने भरने लगा.

“अरे वाह, बड़ी अच्छी ट्रेनिंग दे रखी है तुमने तो इसे.”

“बनी, अपनी टेबल-चेयर लगाओ. आशा दीदी चीला और दूध ला रही हैं.”

“बनी अपने आप खा लेता है?” दीदी ने पूछा. “बनी अपना सब काम ख़ुद करता है. ही इज ए वेरी गुड बाय! सब फिनिश भी कर लेता है.”

“अरे वाह!” तब तक अनंत भी आकर चाय-पकौड़ों पर टूट पड़े थे. कल आप चली जाएंगी. हम आपको बहुत मिस करेंगे.” मेघा ने भरे दिल से कहा. “मैं भी सबको बहुत मिस करूंगी.”

“मैं बनी को सुला देती हूं. कल उसका स्कूल है.” “हां और तुम भी थोड़ा सो जाना. आई हो तब से लगी हुई हो. खाना लेट खाएंगे. पकौड़ों से पेट भर गया है.” दीदी ने हिदायत दी, तो मेघा बनी को लेकर बेडरूम में आ गई और सुलाने लगी. लॉबी से भाई-बहन की वार्ता के धीमे स्वर सुनाई दे रहे थे.  

“मेघा को ऑफिस-घर आदि के ढेरों काम रहते हैं. फिर भी बनी की अच्छी परवरिश कर रहे हो तुम दोनों. उसे ऐसे ही सहयोग करते रहना.”

“सच कहूं दीदी, तो मुझे भी इन कुछ दिनों में ही रियलाइज़ हुआ है कि वह कितना थक जाती होगी. हम पुरुषों का तो क्या है, मर्ज़ी हुई तो हाथ बंटा दिया, वरना उसकी ज़िम्मेदारी समझकर पल्ला झाड़ लेते हैं. पर अब ध्यान रखूंगा.”

रिश्तों के संतुलन पर टिकते सुखद भविष्य की कल्पना ने मेघा को आह्लादित कर दिया. बनी को थपकाते हाथ मानो स्वयं उसे आश्‍वासन दे रहे थे.

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