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कहानी- सुदर्शना (Short Story- Sudarshna)

- स्मिता भूषण

"... सच कहती हूं, तुम लोगों के लिए जो बंधन है, वह मेरे लिए सुंदरतम आभूषण. तुम लोगों के लिए जो घर यातनागृह है वह मेरे लिए है सपनों का महल. अपनों की डांट-फटकार, उलाहने यहां तक कि उपेक्षा भी किसी झूठे क्षणिक और दिखावटी प्रेम से बेहतर हैं..."

जमुना और निर्मला पार्क की कोनेवाली बेंच पर बैठी एक-दूसरे को अपने दुखड़े सुना रही थीं. पैंसठ के लगभग उम्र थी उन दोनों की. एक सी उम्र, एक से दुख-सुख, एक सी व्यथा और लगभग एक सी अनुभवों की गाथा. फिर भी जब वे एक-दूसरे को अपनी व्यथा-कथा सुनाने बैठतीं, तो पूरी तन्मयता से नित नवीन घटनाएं कहतीं सुनती, जिनका सार यही रहता कि ज़माना कितना बदल गया है. बड़ों का आदर-सम्मान तो कुछ बचा ही नहीं, किसी तरह जी रहे हैं बस मजबूरी है, इसलिए बेटे के घर पड़े हुए हैं.

"अरी निर्मला, आज तो दीपिका ने कमाल ही कर दिया, घर में कोई मेहमान आए थे. मैं दिनभर घर में बैठे-बैठे ऊब गई थी, इसलिए सोचा थोड़ी देर बाहर जाकर मेहमानों के बीच बैठूं, अभी मुझे वहां बैठे दो-चार मिनट ही हुए थे कि दीपिका उन्हीं के सामने मुझे डपट कर बोली, "अम्माजी, अंदर जाकर बैठिए."

मेरा मन एकदम से सुलग उठा,‌ "क्या मैं मेहमानों के पास भी बैठने लायक नहीं हूं?" जमुना अपने झूठे आंसू पोंछकर बोली. ऐसी घटनाएं रोज़मर्रा की होने के कारण मन पर अमिट प्रभाव नहीं छोड़ पाती थीं. परंतु सखी को बताने पर मन तो हल्का हो ही जाता था.

"सुनी जमुना, क्या तुम्हारे बेटे-बहू ने अपना पुराना कैलेंडर ड्रॉइंगरूम में सजाया है? नहीं ना समझ लो, तुम वही पुराना कैलेंडर हो, जिसे फेंक दिया जाता है. तुम्हें एक कमरे में तो जगह मिली है न, वही बहुत समझो." निर्मला ने उसे समझाते हुए कहा.

दोनों इसी घटना पर काफ़ी देर तक विचार-विमर्श करती रहीं. फिर उनकी गप्पों की गाड़ी बेटे-बहू, नाती-पोतों की पटरी से फिसलकर अपनी सास पर जा पहुंची. कैसे सास के उन्होंने ज़ुल्म सहे, कैसे उनकी सेवा की, कैसे उनके सामने कभी भी ऊंची आवाज़ में बात नहीं की. अपने बड़प्पन का दोनों देर तक गुणगान करती रहीं. एकाएक उनकी निगाह कोने में बैठी एक समवयस्क महिला पर पड़ी, जो सफ़ेद साड़ी पहने और आंखों पर चश्मा चढ़ाए हुए थी. वह महिला चेहरे से बहुत उदास दिखाई दे रही थी.

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"चल जमुना, उससे दोस्ती कर लें." निर्मला ने अपने हंसोड़ स्वभाव के कारण अभी भी बचपन का दामन नहीं छोड़ा था.

"ज़रूर." जमुना बोली. दोनों अपने भारी भरकम शरीर को सम्हालकर हाय-हाय करके उठीं और धम्म से उसके पास जाकर बैठ गईं.

"देखिए, मैं निर्मला हूं और यह मेरी सहेली जमुना. हमारी दोस्ती इसी पार्क में हुई थी. घरेलू खटपट से ऊबकर हम यहां आकर बैठती हैं और एक-दूसरे से दुख-सुख की बातें करती हैं. और, वह सब छोड़िए... आप

"कवि की सारी कल्पनाएं उस प्यार की महानता के आगे बौनी हैं. सागर की भी एक सीमा है. आकाश की ऊंचाई भी असीमित नहीं है. उनका प्यार इन सब पैमानों से बढ़कर था. सीपी में मोती की तरह सदा सहेजकर रखा उन्होंने मुझे."

पहले अपना परिचय तो दीजिए और किसी की श्रीमती के नाम से नहीं, बल्कि स्वयं अपने नाम से. हम यहां सिर्फ़ सखियां हैं, किसी की रिश्तेदार नहीं."

अचानक हुए इस दोस्ताना हमले से वह महिला अवाक् रह गई, मगर फिर एक रूखी सी मुस्कुराहट के साथ उसने अपना परिचय दिया,

"मेरा नाम सुदर्शना है.”

अब चकित होने की बारी इन दोनों की थी. गंगा, जमुना, सावित्री, गोदावरी ऐसे रेडीमेड नामों के ज़माने में इतना सुंदर नाम. ऐसा नाम रखने वाले माता-पिता कितने सुलझे विचारों‌ के रहे होंगे, जिन्होंने इस रूपसी का नाम, गुण के अनुरूप रखा, कोई पौराणिक नाम रखकर टाला नहीं.

सुदर्शना ज़रूर अपनी जवानी में बेहद सुंदर रही होगी, इस उम्र में भी उसकी देह सधी हुई और सुडौल थी. रंग दूध सा गोरा था. नाक-नक्श तीखे और दांत, जो असली ही लग रहे थे, बिल्कुल कतारबद्ध थे. काले सफ़ेद रंग का मिश्रण लिए बाल, एक मोटी चोटी में गूंथे हुए कमर के नीचे तक झूल रहे थे. चेहरे पर उम्र की लकीरें तो गहरी थीं, पर उन्होंने उसके सौंदर्य की मोहकता को छुआ तक नहीं था.

"आप कहां रहती है?" जमुना ने पूछा.

"दूर, शिवाजी नगर में."

"वहीं से अकेली आई हैं?" उन्हें यह महिला कुछ रहस्यमय लगने लगी.

"हां, यूं ही घूमते-फिरते चली आई. अब तो रोज़ आया करूंगी. आप लोगों से मुलाक़ात जो हो गई." वह मुस्कुराई. जमुना और निर्मला को यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि उनसे परिचय उसे भी भला लगा है.

"देखो, तुम लोग मुझे आप-आप कहकर मत पुकारना, सुदर्शना ही कहना." वह बोली, तो अपरिचय की दीवार क्षणभर में ही गिर गई.

कुछ देर पहले वह औरत उन्हें कुछ गर्वीली सी लग रही थी, पर अब अपनी सी लगने लगी.

शाम काफ़ी घिर आई थी. अंधेरा बढ़ने लगा था.

"अच्छा, में कल फिर मिलूंगी." सुदर्शना युवतियों की तरह फुर्ती से उठी और तेज़ चाल से वहां से चल पड़ी.

निर्मला और जमुना अभिभूत होकर उसे देखती रहीं, "हाय! कितनी फुर्तीली है. यहां तो बिना उफ़, ओह... किए उठते ही नहीं बनता."

"कितने सुंदर बाल है." जमुना अपने सुपारी के आकार के जूड़े को सहलाकर बोली.

"छरहरी भी है, लगता है बाल-बच्चे नहीं हैं." निर्मला बोली तो जमुना ने भी तुरंत उससे सहमत होते हुए कहा, "हमारे जैसे चार-पांच बच्चे हुए होते तो पक्का, ऐसी ही फैल जाती."

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निर्मला की तीन बेटियां और दो बेटे थे. बड़ी बहू की कैंची की तरह चलनेवाली ज़ुबान से तंग आकर वह छोटे बेटे के यहां पिछले साल भर से थी. पति की मृत्यु हुए पांच-छह साल हो चुके थे. जमुना की दो बेटियां और एक बेटा था. उसके पति इस उम्र में आकर बेहद चिड़चिड़े हो गए थे. बेटा-बहू और पोतों की कई हरकतें उन्हें बेहद नागवार गुज़रती, पर उनसे कुछ कहना भी संभव नहीं था. अतः सारा ग़ुस्सा बेचारी जमुना पर उतारते रहते.

जमुना निर्मला से अक्सर कहती, "इस पकी उम्र में भी ये सबके सामने मुझे यूं डांट देते हैं, जैसे मैं कोई नई-नवेली दुल्हन हूं. फिर बेटे-बहू भी इनकी बातें सुनकर खी-खी करके हंसते हैं और मुझे तिनके बराबर भी इज़्ज़त नहीं देते."

निर्मला उन लोगों में से थी, जो किसी भी हालत में मुस्कुराहट का साथ नहीं छोड़ती. उसके पोते उसे प्यार भी बहुत करते थे और पलटकर जवाब भी दे देते थे. अपनी कहानियों के अकूत भंडार के बल पर वह बच्चों के हृदय में किसी तरह जगह जमाए हुए थी. जमुना का हर समय बिसूरता मुख देखकर उसके पोते उसके पास भी फटकना पसंद नहीं करते. पति की फटकार और बहू की तीखी निगाहों की तलवार से बचने के लिए वह इस पार्क में रोज़ कुछ समय बिताती. यहीं उसकी मुलाक़ात हुई निर्मला से और उसके हंसमुख स्वभाव से, जो अब दोस्ती में बदल गई थी.

रातभर जमुना और निर्मला दोनों को सुदर्शना सपने में भी दिखाई दी. सफ़ेद बाल और सिलवटों से भरा चेहरा छोड़कर उसकी कोई बात नवयुवतियों से कम नहीं थी. चाल-ढाल, उठने-बैठने में गज़ब का आकर्षण था. मुस्कुराहट में बिजली सी चमक थी. न व्यर्थ की ही ही, न ओढ़ी हुई गंभीरता. दोनों सोच रही थीं कि सुदर्शना की तरह से मुस्कुराए तो उन्हें ज़माना बीत गया. ऐसी आकर्षक चाल और चुस्ती-फुर्ती जैसे बीते युग की बात हो गई थी. वे दोनों उस पर इस तरह फ़िदा हो रही थीं, जैसे अल्हड़ किशोरियां अपनी मनपसंद हीरोइनों पर होती हैं.

पल-पल बरस जैसा बीत रहा था. लग रहा था कि कब शाम हो और सुदर्शना से मुलाक़ात हो. उसकी ज़िंदगी के अतीत और वर्तमान का पता चले और उसके चेहरे की उदासी का रहस्य भी खुले.

बहू द्वारा पटकी गई चाय निर्मला ने जैसे-तैसे हलक़ के नीचे उतार ली और हमेशा की तरह चाय में चीनी कम होने की शिकायत की. बहू ने हमेशा की तरह उनकी बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकाल दी. निर्मला हंसमुख तो थी पर बहू के सामने उसके होंठ इस तरह भिंचे रहते जैसे कि कभी न हंसने की क़सम खा रखी हो. बहू उनकी सब बातें तो चुपचाप सुन लेतीं, पर उसके सुव्यवस्थित चौके में यदि उन्होंने कोई चीज़ इधर उधर की, तो उनकी खैर नहीं थी.

दिल ही दिल में निर्मला जानती थी कि उनकी बहू फिर भी आम बहुओं से अच्छी है. उन्हें बैठे-बैठे चाय-नाश्ता लाकर देती है. जमुना का हाल उनसे ज़्यादा बुरा था. उसे काम भी करना पड़ता था और जली-कटी भी सुननी पड़ती थी. यदि निर्मला से मैत्री न हुई होती, तो जमुना के दिल का गुबार कैसे निकलता. निर्मला और जमुना की पार्क में हुई यह मैत्री पार्क की सीमाओं से बाहर कभी नहीं निकली. दोनों एक-दूसरे के घर भी कभी नहीं गई.

शाम के चार बज चुके थे. निर्मला उत्साह से उठी. करीने से साड़ी बांधी. बहू तिरछी निगाहों से उन्हें तैयार होते देख रही थी.

हुंह, देखती रहे. जब वह तैयार होने में एक घंटा लगाती है तो मेरी टेढ़ी भृकुटी की परवाह करती है क्या? निर्मला ने विद्रोही अंदाज़ में सोचा. आज उसने पर्स भी लिया. चप्पल भी ठीक-ठाक पह‌नी वरना रोज़ तो स्लीपर्स में ही निकल पड़ती.

पार्क में जाकर वह बेंच पर पसर गई. रोज़ से दस-पंद्रह मिनट जल्दी ही चली आई थी वह. फिर भी उसे अधिक देर इंतज़ार नहीं करना पड़ा. बुलधुल जमुना अलमस्त चाल से आती हुई दिखाई दी. बुरा हो इस मोटापे का, न चाल सही रहने देता है, न उठने-बैठने में नफ़ासत लाता है. उसने दिल ही दिल में सोचा, "ओह!" जमुना धम्म से बेंच पर बैठ गई. उसकी सांस फूल गई थी, "वह नहीं आई?" उसने हांफते हुए पूछा.

"हां, वह कल भी तो देर से ही आई थी." निर्मला ने कहा,

दोनों का गपशप कार्यक्रम शुरू हो गया. लेकिन आज वह कार्यक्रम रोज़ की तरह रोचक नहीं था, कहीं कुछ खालीपन सा था.

अभी दस-पंद्रह मिनट ही हुए थे कि सामने से उन्हें श्वेतवस्त्र धारिणी सुदर्शना आती हुई दिखाई दी.

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"आ गई," निर्मला उत्तेजना से चीखी, फिर स्वयं ही अपनी इस हरकत पर झेंप सी गई. सुदर्शना आकर उन दोनों के बीच की छोटी सी जगह में बैठ गई,

"कब आईं आप लोग?" उसका स्वर उन दोनों के कानों में मिश्री घोल गया.

"हममें यह तय हुआ था कि हम एक-दूसरे को आप कहकर संबोधित नहीं करेंगी." जमुना ने कहा.

वह हौले से मुस्कुराई, मोती से दांत चमक उठे.

कुछ क्षण चुप्पी सी छाई रही, फिर निर्मला ने ही बातचीत शुरू करते हुए कहा, "तुम अकेली रहती हो या बेटे-बहू के साथ?"

"बेटे के घर." उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया. मगर इस छोटे से उत्तर से उन्हें संतुष्ट कहां होना था. वे प्रश्न पर प्रश्न पूछती गईं. उन्हें जो भी जानकारी मिली वह उन्हें चकित करने के लिए काफ़ी थीं. वह एम.ए. बी.एड. थी और एक हाई स्कूल में शिक्षिका रह चुकी थी. पांच साल पहले ही रिटायर हुई थी. उसके तीन बेटे थे. एक यहीं पूना में था, बाकी दोनों मुंबई में थे. पति की मृत्यु हुई, तब बड़ा बेटा सोलह-सत्रह वर्ष का था. विपत्तियों में भी वह बिना घबराए मोर्चे पर डटी रही. बेटों को पढ़ाया लिखाया, उनका विवाह किया.

"असल विपदाएं तो इसके बाद ही शुरू होती है." जमुना बोली.

"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, मेरे तीनों बेटे सुशील और आज्ञाकारी हैं. मुझे अपने घर अक्सर बुलाते रहते हैं."

"बेटा तो खैर हीरा होता ही है पर बहू..." निर्मला ने सोचा शायद यह प्रश्न उसकी दुखती रग छेड़ दे.

"बहू? वह तो मेरी बेटी है. इतना प्यार करती है मुझे कि पूछो मत. हर घड़ी मेरा ध्यान रखती है. कभी मेरा सिर भी दर्द करे तो डॉक्टरों का तांता लग जाता है."

जमुना को याद आया, जब वह बदन और जोड़ों के दर्द की शिकायत करती है तो बहू व्यंग्य से मुंह बिचका देती है, मानो उसके चेहरे पर ही लिखा, "हंह, सब नाटक है."

"सिर्फ़ यही बहू अच्छी है और बाकी दोनों?" निर्मला ने आशा भरे स्वर में पूछा, उसने सोचा, शायद बाकी दोनों कर्कशा हों, निर्लज्ज हों, बड़ों का लिहाज़ न करने वाली हों.

"वे दोनों भी समझदार और शांत स्वभाव की हैं." सुदर्शना ने अविचलित स्वर में कहा, "फिर तुम यहीं क्यों रहती हो?"

"इसलिए कि मैं बचपन से पूना में ही रही हूं ना! मुझे यहीं अच्छा लगता है." सुदर्शना ने उनकी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा.

"ओह!" निर्मला और जमुना के उत्साह के फूले हुए गुब्बारे में जैसे सूई सी चुभ गई. सुदर्शना उनकी हमउम्र तो थी पर हमदर्द नहीं.

"सच! मैं बहुत सुखी हूं!" सुदर्शना स्वयं से ही बुदबुदाते हुए बोली.

"यह दुख ज़रूर है कि पति ने पूरी उम्र साथ देने का वादा नहीं निभाया, पर जितना हमारा साथ रहा, सदा अविस्मरणीय रहेगा."

"क्या वह तुम्हें बहुत प्यार करते थे?" निर्मला ने अटपटा सा प्रश्न पूछा.

सुदर्शना ने एक गहरी सांस ली और उसकी आंखें छलछला आईं.

"कवि की सारी कल्पनाएं उस प्यार की महानता के आगे बौनी हैं. सागर की भी एक सीमा है. आकाश की ऊंचाई भी असीमित नहीं है. उनका प्यार इन सब पैमानों से बढ़कर था. सीपी में मोती की तरह सदा सहेजकर रखा उन्होने मुझे."

निर्मला को याद आया, उसके पत्ति की मृत्यु हुए छह साल हो गए थे, पर जितना भी उनका वैवाहिक जीवन था, उसका एक क्षण भी संजोकर रखने योग्य नहीं था. निर्मला की साधारण शक्ल-सूरत उसके पति को सांप की तरह डसती थी. उसके हंसमुख स्वभाव की उन्होंने कभी कद्र नहीं की. निर्मला उनके लिए सिर्फ़ एक नारी शरीर बनकर रही. उसके हृदय की उन्होंने कभी परवाह नहीं की, निर्मला की सहज हंसी में भी नाटकीयता घुलती गई. उसने भी पति की उपेक्षा के प्रति लापरवाही का नाटक शुरू किया. यही था उसका वैवाहिक जीवन.

सुदर्शना की सारी बातें बड़ी अनोखी थी. रातभर निर्मला को अजीब-अजीब सपने आते रहे, जिसमें सुदर्शना की जगह वह होती थी सुख सागर में आकंठ डूबी हुई. सुबह नींद खुलती तो रात का उन्माद छाया रहता. न बहू के बनाए खाने में मीन-मेख निकालने की इच्छा होती, न किसी बात पर त्यौरियां चढ़ाने की. रात को सपने में पीए गए अमृत घूंट उसे विष वमन करने से रोकते रहते.

उधर जमुना का भी यही हाल था. दोनों के घरवाले भी चकित थे कि इन कलहप्रिया स्त्रियों को क्या हो गया?

दोनों हिरनी के पांव लिए रोज़ पार्क में जातीं, सुदर्शना की जादुई गृहस्थी के हैरतअंगेज क़िस्से सुनतीं और आश्चर्य प्रकट करतीं.

"भई सुदर्शना, तुम सचमुच भाग्यशाली हो. सबको ऐसी घर-गृहस्थी कहां नसीब होती है?"

सुदर्शना दिल खोलकर हंसती और नित नई बातों की पोटली खोलती. आज बहू ने ख़ास मेरे लिए खीर बनाई, भजन गाकर सुनाए, पांव दबाए.

उसकी प्रशंसा भरी बातें सुनकर निर्मला और जमुना को अपनी बहू की बुराई करने में शर्म महसूस होती थी. बस, ठंडी सांस भरकर रह जातीं वे दोनों,

दिन स्वप्नवत् बीत रहे थे. नवीन मैत्री दोनों को रास आई थी. संपूर्ण रूप से सुखी सुदर्शना की बातें निर्मला और जमुना के सांसारिक जीवन से जले, फफोले पड़े हृदय को ईष्यों से दग्ध नहीं करती थीं, यह बड़े आश्चर्य की बात थी. यह सुदर्शना के सुंदर व्यक्तित्व का ही तो प्रभाव था. साधारण मनुष्य अपने पड़ोसी से ही तो ईर्ष्या करता है, किसी महापुरुष से तो नहीं. सुदर्शना भी उन दोनों के लिए अलौकिक शक्ति से संपन्न कोई असामान्य स्त्री बन गई थी, जिसकी बराबरी हरगिज़ नहीं की जा सकती.

एक दिन निर्मला और जमुना पार्क में आई. रोज़ ही सुदर्शना उनके आने के दस-पंद्रह मिनट बाद आती थी, मगर उस दिन नहीं आई. दोनों भारी कदमों से घर लौट आईं. अगले दिन भी वह नहीं आई. पूरे पंद्रह दिन बीत गए इसी तरह.

निर्मला और जमुना का हृदय बेचैन हो रहा था. उन्हें बड़ा पछतावा हो रहा था कि क्यों नहीं उन्होंने उसका पता नोट कर लिया. शिवाजी नगर किसी छोटे-मोटे शहर जितना बड़ा है. वहीं, कहां ढूंढ़ने जाएंगी वे उसे.

"कहीं उसकी तबीयत तो ख़राब नहीं हुई." एक शंका प्रकट करती, तो दूसरी तुरंत उससे सहमत होते हुए कहती, "स्वस्थ होने पर पुनः आएगी हमारी सुदर्शना."

दोनों पुनः गपियाने लगती. पर उन्होंने महसूस किया कि बहू की बुराई की धार अब काफ़ी कम हो गई है. शत्रुपक्ष के प्रति शिकायतों में भी अब पहले का सा वज़न नहीं रहा.

क्या सुदर्शना की बहू में एक भी अवगुण नहीं होगा? पर सुदर्शना तो बहू के गुणों की प्रशंसा करते थकती नहीं थी.

अब सुदर्शना की अनुपस्थिति को एक महीना हो चला था. एक रोज़ दोनों हमेशा वाली बेंच पर बैठी गपशप कर रही थीं कि एक औरत ने उन दोनों की बातचीत में व्यवधान डालते हुए पूछा,

"क्या आप लोग निर्मला और जमुना हैं, सुदर्शनाजी की सहेलियां?"

"हां-हां, बात क्या है? सुदर्शना कहां है?" दोनों ने अधैर्य से पूछा.

"उनकी तो मृत्यु हो गई, दिल की मरीज़ थीं. कुछ दिन पहले दिल का ज़बरदस्त दौरा पड़ा, कोई सेवाटहल करने वाला तो था नहीं. मैं ही थी उनकी पड़ोसन. मैंने ही उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया. बड़ी बुरी हालत थी उनकी. निःसंतान जो थीं. पीछे कोई रोनेवाला भी नहीं था."

वह जो कुछ कह रही थी, निर्मला और जमुना की समझ में ही नहीं आ रहा था. सुदर्शना और निःसंतान.

"यह पत्र उन्होंने आप लोगों के लिए दिया था." उनकी स्तब्धता को भंग करते हुए उस अपरिचित महिला ने कहा.

निर्मला ने कांपते हाथों से पत्र लिया, वह कुछ पूछती, इससे पहले वह महिला तेज डग भरती हुई अदृश्य हो गई.

जमुना ने निर्मला के हाथ से पत्र लेकर खोला.

प्रिय सखियों,

क्या तुम लोग विश्वास करोगी? तुम दोनों मेरे जीवन की पहली सखियां हों. हंसता-खेलता बचपन, स्नेहिल माता-पिता, रिश्तेदार, सखियां, बच्चे सब मेरे लिए अपरिचित शब्द हैं, क्योंकि मैं एक वेश्या हूं. क्यों चौंक गई न यह पढ़कर! कहीं पत्र ही उठाकर न फेंक देना. तुम जैसे उजले लोगों के लिए तो कालिख हूं ना मैं!

परंतु क्या तुम कभी समझ पाओगी कि मेरे अंतर में भी स्वप्न थे, इच्छाएं थीं. उम्र बीत गई. इर्दगिर्द मंडराने वाले भ्रमर भी उड़ गए. रह गई मैं! एकाकी! समाज के लिए घृणा की पात्र, किसी को अपना कहने के लिए तरसती हुई. तुम दोनों से मैत्री हुई और मेरी कल्पनाएं पंख लगाकर उड़ती चली गईं. काल्पनिक पति और काल्पनिक बहू-बेटे आदर्श नहीं होगे तो और क्या होंगे, वास्तविक होते तो उनमें भी मानवीय गुण-दोष अवश्य होते.

सच कहती हूं, तुम लोगों के लिए जो बंधन है, वह मेरे लिए सुंदरतम आभूषण. तुम लोगों के लिए जो घर यातनागृह है वह मेरे लिए है सपनों का महल. अपनों की डांट-फटकार, उलाहने यहां तक कि उपेक्षा भी किसी झूठे क्षणिक और दिखावटी प्रेम से बेहतर हैं.

कृतज्ञ हूं तुम्हारी, तुम लोगों के कारण ही काल्पनिक और झूठी ही सही, पर गृहस्थी का आनंद तो लिया मैंने!

मेरी एकमात्र दयालु पड़ोसन ने मुझे अस्पताल में दाख़िल कर दिया है, मेरी मृत्यु नज़दीक है. अलविदा,

तुम दोनों को पुनः शतशः धन्यवाद!

तुम्हारी सुदर्शना

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