
तमाम जांचें व दोनों से संयुक्त एवं अलग-अलग लंबी पूछताछ के बाद स्पष्ट हुआ कि वे दोनों डीआईएनएस यानी डबल इनकम नो सेक्स सिंड्रोम के शिकार हैं. दोनों किंकर्त्तव्यविमूढ़! परस्पर आंखें चार करने में लाचार. आंखें चार करने में वे अभ्यस्त होते ही कैसे? सही मायने में प्यार हुआ ही कहां था. ये तो इंटरनेट लव था. अब प्यार कहो या संपर्क... वह तो इंटरनेट पर संदेशों के आदान-प्रदान के ज़रिए परवान चढ़कर स्वयंवर में परिवर्तित हुआ था.
अतिरिक्त महत्वाकांक्षा के चलते आयुषी ने ज़िंदगी को माउस के क्लिक की तरह समझा. आयुषी ने ही क्यों, रत्नेश ने भी शायद यही समझा था, लेकिन यथार्थ का ठोस धरातल माउस का क्लिक भर नहीं है कि उंगली का हल्का-सा दबाव कम्प्यूटर की स्क्रीन पर रंगीनियां बिखेर देगा और फिर भिन्न-भिन्न ऑनलाइन डॉट कॉम क्लिक करते चले जाओ... दुनिया और प्रकृति के रहस्य किसी तिलिस्म की तरह खुलते चले जाएंगे. आईटी की शिक्षा ग्रहण करते हुए आयुषी और रत्नेश ने सॉ़फ़्टवेयर व हार्डवेयर की मौलिक प्रोग्रामिंग का गणित तो अच्छे से हल किया था, लेकिन यह गणित उनकी ज़िंदगी के रासायनिक घोल में गड़बड़ा गया था. गड़बड़ी भी तब समझ आई, जब उनकी उम्र 33-35 साल की हो चली. तीन साल का वैवाहिक जीवन गुज़ारने के बावजूद वे अपना उत्तराधिकारी पैदा नहीं कर पाए. नेट के ज़रिए आयुषी और रत्नेश ने परस्पर एक-दूसरे को जीवनसाथी के रूप में चुना. एक-दूसरे के आचार-व्यवहार, धर्म-जाति, खानपान, शिक्षा, कुण्डली, मातृभाषा, रक्तसमूह, मूलनिवास स्थान, आमदनी, करियर और माता-पिता की हैसियत को ठीक से जाना, सत्यापन किया, तब कहीं तीन साल पहले इंटरनेट पर विकसित हुए लव के रहस्य को परिजनों पर उजागर कर ‘अरेंज मैरिज’ के बंधन में बंधे. दोनों की लगभग डेढ़ लाख रुपये प्रतिमाह की आमदनी, सभी भौतिक सुख-सुविधाएं उपलब्ध. स्वयं को अत्याधिक बुद्धिमान समझने के बावजूद वे अपने-अपने शरीरों में डिम्ब और शुक्राणु की स्वस्थ उपलब्धता की पड़ताल करना भूल गए. नई ऊर्जा और प्रवृत्ति का आनंद उठा रहे मोटी कमाई के इन दीवानों की कोख में तीन साल तक डिम्ब और शुक्राणु ने संयोग कर भ्रूण की संरचना नहीं की, तो यह जोड़ा आशंकित हुआ और यौन विशेषज्ञ डॉक्टर शर्मा की शरण में पहुंचा. तमाम जांचें व दोनों से संयुक्त एवं अलग-अलग लंबी पूछताछ के बाद स्पष्ट हुआ कि वे दोनों डीआईएनएस यानी डबल इनकम नो सेक्स सिंड्रोम के शिकार हैं. दोनों किंकर्त्तव्यविमूढ़! परस्पर आंखें चार करने में लाचार. आंखें चार करने में वे अभ्यस्त होते ही कैसे? सही मायने में प्यार हुआ ही कहां था. ये तो इंटरनेट लव था. अब प्यार कहो या संपर्क... वह तो इंटरनेट पर संदेशों के आदान-प्रदान के ज़रिए परवान चढ़कर स्वयंवर में परिवर्तित हुआ था. यह तो उन्होंने अब जाना कि बहुत अधिक बुद्धि में उलझे रहने का नतीजा उनकी देहों में तीव्र काम-भावना को लगभग समाप्त करते हुए उन्हें डबल इनकम नो सेक्स सिंड्रोम जैसी शुष्क बीमारी के दायरे में ले आई है. मानसिक तनाव और काम के अतिरिक्त दबाव के चलते शरीर में घर कर लेनेवाली इस शुष्कता से स्त्री में डिम्ब और पुरुष में शुक्राणु का सम्पूर्ण रूप से विकास ही असंभव हो जाता है. किसी समाचार चैनल पर न्यूज़ फ्लैश की तरह अज्ञात गर्भ को फाड़कर अनायास ही विस्फोटक हुआ यह छोटा-सा क्षण अथाह वेदना के साथ आया और दोनों को भीतर तक आहत कर गया. उपचार की कोई निश्चित प्रोग्रामिंग करते, इससे पहले ही रत्नेश को मोबाइल पर सूचना मिल गई कि उसे तत्काल कंपनी के नए खुलनेवाले द़फ़्तर की बैठक में भागीदारी के लिए अगली फ्लाइट से दुबई पहुंचना है. वे अपने रिलायंस सोसायटी के पन्द्रहवें माले पर स्थित फ्लैट में आये. आनन-फानन में रत्नेश ने अटैची में कुछ कपड़े ठूंसे, काग़ज़ात रखे और फ्लाइट पकड़ने के लिए रवाना हो गया. इस दौरान दोनों ने न तो एक-दूसरे को गर्मजोशी से विश किया और न ही आयुषी ने सीऑफ़ के लिए एयरपोर्ट तक जाने की इच्छा जताई. जाते-जाते रत्नेश ने आयुषी को ढांढ़स बंधाते हुए इतना ज़रूर कहा, “डॉक्टर शर्मा की रिपोर्ट पर ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, लौटने पर किसी अच्छे गायनाकोलॉजिस्ट से चेकअप कराएंगे.” वैसे भी वे एक-दूसरे के मुंबई से बाहर रवाना होने पर सीऑफ़ या रिसीव करने के लिए जा ही कहां पाते हैं? चौबीस घंटे चलनेवाले कॉल सेन्टर में काम करते हुए आयुषी को और रिलायंस में काम करते हुए रत्नेश को दिन व रात के मतलब का कोई अलग अर्थ ही नहीं रह गया है. उनके लिए तो दिन-रात जैसे एक ही हैं. ऐसे में इस युगल को एक साथ बिस्तर पर समय गुज़ारने के अवसर ही कितने मिल पाते हैं...? बच्चा पैदा न कर पाने के चिंतनीय पहलू के सामने आने के पूर्व हासिल उपलब्धियों से गौरवान्वित करनेवाले कितने ही अवसर आयुषी को मिले हैं, रत्नेश को भी. कोटा के बंसल इंस्टिट्यूट से कोचिंग लेते हुए पहली ही बार में आईआईटी के लिए चयन हो जाना, ख़ुशी का कितना बड़ा अवसर था पूरे घर के लिए. बधाइयों का तांता... अख़बारों में संस्थान के विज्ञापनों में दर्प से दमकती आयुषी के फ़ोटो... या फिर आईटी करने के साथ ही टाटा इंफोकॉम द्वारा कॉम्पलैक्स सेलेक्शन... या फिर अपने ही करियर से मेल खाते रत्नेश से विवाह... या फिर फोर्ड फिएस्टा कार ख़रीदना... ढेर सारी ख़ुशियां, छोटी-सी उम्र में एक-एक कर इतनी सरलता से चली आईं कि वह अपने मित्रों, सहेलियों, सहयोगियों और सगे- संबंधियों में ईर्ष्या की पात्र बन गई थी. कमोबेश यही स्थिति अपनों के बीच रत्नेश की थी. शादी के बाद शुरुआती दिनों में चौपाटी पर क़दम धंस जानेवाली रेत में रत्नेश का हाथ थामे हुए समुद्र की लहरों के बीच अठखेलियां करते हुए उसे लगता कि सफल और सार्थक ज़िंदगी के लिए एक-एक कर अनायास ही जुड़ती जा रही उपलब्धियों ने उसे अपनों के बीच बेहद भाग्यशाली औरत बना दिया था. औरत होना ही जैसे औरत के लिए एक बड़ी कमज़ोरी है. इंदौर और मुंबई में अकेली रहते हुए आयुषी ने वर्षों गुज़ारे, लेकिन क़िताबी कीड़ा बनी रहते हुए उसने कभी एकाकीपन का एहसास नहीं किया, पर आज समुद्री लहरों के थपेड़ों के बीच उसने पूरी रात सन्नाटे और आत्महीनता के भयावह बोध के साथ बमुश्किल गुज़ारी. जैसे वह अवसाद और दुश्चिंता से घिरती जा रही है. उसने कहीं पढ़ा था- 'जो लोग व़क़्त की क़द्र नहीं करते, व़क़्त उनके साथ कभी वफ़ा नहीं करता.' तो क्या वाकई उन्होंने व़क़्त को नज़रअंदाज़ किया? पैसा कमाने की होड़ में काम का दबाव इन दोनों पर इतना रहा कि दिनचर्या उनके लिए एक बाढ़-सी बनकर रह गई, वर्चस्व को निगल जानेवाली बाढ़. मुंबई वैसे भी पिछले दो साल से मौसमी बाढ़ की गिऱफ़्त में है. यदि समय का ख़याल रखा होता, तो आज मातृत्व ग्रहण करने के नाज़ुक व उचित क्षण गुज़र नहीं गए होते और वे कमोबेश बांझ व नपुंसकता का बोध करानेवाली पंक्ति में आ खड़े नहीं हुए होते. पर अवसर उसने कहां गंवाए? वह तो अवसरों की सीढ़ियों पर ही पैर जमाते हुए आर्थिक ताक़त बनी है. हां, प्रतिस्पर्धा के इस दौर से लोहा लेते हुए उसने प्राकृतिक प्रवृत्तियों का बलात दमन ज़रूर किया है. शायद इसी का नतीजा है, ‘नो सेक्स सिंड्रोम’, पर महत्वाकांक्षा की ताबीर ही कुछ रहस्यमयी होती है. तब इच्छाएं सुरक्षित भविष्य गढ़ने की होड़ पर केन्द्रित हो गई थीं और अब विरोधाभास की कितनी हद है कि कामनाएं कोख भर जाने की प्रबल लालसा पर आकर स्थिर हो गई हैं. उम्र के भिन्न-भिन्न पड़ावों पर इंसान के लक्ष्य भी बदल जाया करते हैं. प्रकृति की शायद यही स्वाभाविक प्रवृत्ति है और शायद यही अवचेतन में कहीं गहरे बैठे जातीय संस्कार.
- प्रमोद भार्गव
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