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कहानी- स्वांग 2 (Story Series- Swang 2)

“मानस का हंस, छोटी ने बताया आप पढ़ नहीं पाई थीं.” वह नहीं समझ सका, उसे स्थिति का खुलासा करना चाहिए था या नहीं. नीति की बरौनियां झपक गईं. जैसे चोरी पकड़ी गई हो, “हम लोगों को पुस्तकें नहीं मिल पातीं, इसलिए ये...” “पढ़ लिया करें, पुस्तकें आनंद देती हैं.” “मृत्युंजय मिल सकती है?” पुस्तकों का मामला उलझा न दे. ऊंहूं. यह तब तक नहीं होगा, जब तक वह स्वयं इस परिवार में इन्वॉल्व न हो. छोटी अपनी अल्हड़ता और लापरवाही में तेज़ बोलती है, “अब नहीं ले रहे हैं.” नीति का अस्फुट स्वर, “कह, एक लेना पड़ेगा.” छोटी फुलका ले आई, “एक तो लेना ही पड़ेगा.” उसने ले लिया. एक फुलका और के बहाने नीति फतह पाना चाहती है. गुरुजी कहने लगे, “बेटा, कभी फुर्सत में छोटी को गणित पढ़ा दिया करो. इसकी गणित कमज़ोर है.” “पढ़ा दूंगा. गणित आज भी मेरा प्रिय विषय है.” छोटी बीच का द्वार खोलकर मनुहरि के कमरे में आ जाती. जब तक पढ़ती, द्वार खुला रहता. खुले द्वार से उधर की गतिविधि का आभास मिलता. नीति और निधि उधर से गुजरतीं, तो मनुहरि को लगता उसे देखने के लिए दोनों इधर-उधर हो रही हैं. हां, उसका तो अनुमान, बल्कि धारणा है कि वह इस परिवार के लिए आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है. उसकी उपस्थिति ज़बर्दस्त परिवर्तन की तरह है. तो इस स्वप्नविहीन घर में कच्चे रूप में एक सपना जन्म ले रहा है, जो इन्हें किसी मुक़ाम तक नहीं पहुंचाएगा. “फिर गड़बड़. भैया आन्सर नहीं निकल रहा.” छोटी पस्त थी. मनुहरि ने चौंककर कॉपी पर ध्यान केंद्रित किया, “छोटी तुमने ग़लती दोहराई है. बीजगणित बहुत सरल है, बस तुम्हें चिह्नों पर ध्यान देना होगा.” “यहीं तो गड़बड़ा जाती हूं.” फिर मनुहरि ने आंगन की खिड़की से सुना. छोटी बता रही थी, “दीदी, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि गणित इंट्रेस्टिंग हो सकता है. मैं गणित समूह लूंगी यह पक्का रहा. पीईटी में बैठूंगी. यह भी पक्का रहा.” नीति और निधि ने हाथ के संकेत से छोटी को धीमे बोलने को कहा. फिर छोटी ने क्या बताया, लड़कियों ने क्या पूछा, वह सुन न सका. अनुमान पुष्ट हुआ, लड़कियां उससे संबद्ध-असंबद्ध जानना चाहती हैं. मनुहरि अनायास सोचने लगा, यदि चयन की स्थिति बने, तो नीति उपयुक्त होगी या निधि? क्या नीति?, क्यों?, पता नहीं. निधि क्यों नहीं? पता नहीं. लेकिन इस तरह की बेवकूफ़ी भरी बातें क्यों सोचनी चाहिए, जबकि सर्वश्रेष्ठ प्रस्तावों की सूची लंबी है. मनुहरि ने पुस्तक उठाई और बिस्तर पर अधलेटा होकर पढ़ने लगा. देखा पृष्ठ चौरासी का ऊपरी कोना मुड़ा हुआ है. उसे ध्यान आया पुस्तक कई बार दूसरे स्थान पर रखी मिलती है. क्या उसके जाने के बाद लड़कियां उसके कमरे में आती हैं? पुस्तक पढ़ती हैं? कमरे में नीति आती है या निधि? या दोनों? गुरुजी और छोटी दोपहर में स्कूल में रहते हैं. चाची सो जाती होंगी और लड़कियां कमरे में दाख़िल हो जाती होंगी. लड़कियां कुछ संकेत सम्प्रेषित करना चाहती हैं? यह भी पढ़ें: कम बजट में उठाएं घूमने का आनंद ( Tips For Budget Travelling) उसके अनुमान को सत्यापित करने के लिए ही पढ़ते समय छोटी अप्रत्याशित रूप से कह बैठी, “भैया, आप मानस का हंस वापस कर आए? नीति दीदी पूरा पढ़ नहीं पाईं.” “मैं नहीं जानता था तुम्हारी दीदी पुस्तकें पढ़ती हैं. मैं फिर ले आऊंगा.” मनुहरि दूसरे दिन शाम को पुस्तक लेकर लौटा, तो दूध का पैकेट नीति ने पकड़ाया. “मानस का हंस, छोटी ने बताया आप पढ़ नहीं पाई थीं.” वह नहीं समझ सका, उसे स्थिति का खुलासा करना चाहिए था या नहीं. नीति की बरौनियां झपक गईं. जैसे चोरी पकड़ी गई हो, “हम लोगों को पुस्तकें नहीं मिल पातीं, इसलिए ये...” “पढ़ लिया करें, पुस्तकें आनंद देती हैं.” “मृत्युंजय मिल सकती है?” पुस्तकों का मामला उलझा न दे. ऊंहूं. यह तब तक नहीं होगा, जब तक वह स्वयं इस परिवार में इन्वॉल्व न हो. यदि कहें, तो इस परिवार से उसका इन्वॉल्वमेेंट बस इतना भर है कि कई बार पीने का पानी चुक जाता है और उसे मांगना पड़ता है. आज ही शाम को एक मित्र आ गया. घड़ा खाली. मनुहरि बाहरवाले दरवाज़े से निकलकर गुरुजी के अहाते में पहुंचा. वह अपने कार्य प्रयोजन से बीचवाले द्वार को प्रयोग नहीं करता है. निधि अहाते में थी. “चाची नहीं हैं? पीने का पानी ख़त्म हो गया है.” “आप चलिए, मैं लाती हूं.” निधि स्टील की बाल्टी में पानी लिए हुए बीचवाला द्वार खोलकर आ गई. मनुहरि ने उसके हाथ से बाल्टी ली, घड़े में पानी डाला, बाल्टी वापस कर दी. निधि द्वार उढ़काकर चली गई. मित्र बोला, “उधर वो चुप, इधर तुम चुप. तुम लोग आपस में बोलते-चालते नहीं हो या इशारों-इशारों में...” “यह कला मुझे नहीं आती.” “पटा लो.” “यह कला भी मुझे नहीं आती.” “उन लोगों को आती होगी. सजातीय, कुलीन, प्रशासनिक अधिकारी... ऐसे लड़के को कोई नहीं छोड़ता.” “मैं हाथ नहीं आनेवाला.” मनुहरि मित्र के साथ ही बाहर चला गया. फिर रात्रि भोजन के बाद लौटा. घर में बिजली नहीं थी. असहनीय गर्मी और बिजली का जब तब मुकर जाना. आहट पाकर रामराज गुरुजी ने छत से नीचे झांका, “ऊपर चले आओ मनुहरि.” “आया चाचाजी.” मनुहरि को छत का खुलापन अच्छा लगा. गुरुजी बोले, “आओ बेटा, यह छत हमारे लिए एक नियामत है.” “बिल्कुल.” मनुहरि निवाड़ की खटिया पर बैठ गया. बात शायद शादी-ब्याह की चल रही थी, क्योंकि गुरुजी उसी तारतम्य में कहने लगे, “मनुहरि, तुम लोग दीप्ति के लिए लड़का तलाश रहे हो न? है एक लड़का फूड इंस्पेक्टर है. मैंने नीति की बात चलाई थी, किंतु हमारा और लड़केवालों का गोत्र एक है. विवाह नहीं हो सकता. दीप्ति के लिए चर्चा की जा सकती है.” “प्रस्ताव अच्छा है.” कहते हुए मनुहरि ने अनायास नीति को ताका. वैवाहिक चर्चा पर यह कैसा महसूस कर रही है? अंधेरे में उसकी दशा न जान सका, किंतु लक्ष्य किया वह उसे ही देख रही थी और अब आंखें झुका ली हैं. क्या नीति उसके प्रति मृदुभाव रखती है? गुरुजी बोले, “हां, मुझे लगता है सुयोग बैठेगा.” बिजली आ गई. मनुहरि अपने कमरे में चला आया. यदि दीप्ति का विवाह यहां तय हो जाता है, तो इस परिवार का एक उपकार और हो जाएगा. क्या यह परिवार दबाव बना रहा है? उसे घेर रहा है? गुरुजी नीति या निधि का प्रस्ताव रख दें, तो स्पष्टतः मना करना कठिन होगा. कैसी व्यूह रचना है? यदि इनसे मुक्त होकर कहीं अलग रहना चाहे, तो गुरुजी को क्या कारण बताएगा कि आप नीति या निधि को मेरे सिर थोपें, इससे बेहतर है मैं अपना प्रबंध कहीं और कर लूं. ओह...   Sushma Munindra   सुषमा मुनीन्द्र

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