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कहानी- प्रतिबद्ध 3 (Story Series- Pratibadh 3)

पुष्कर के घर छोड़ने के वर्षों बाद तक वह रात्रि की नीरवता में सोचती, ‘कहीं वह आतंकवादी तो नहीं बन गया?’ घर-द्वार छोड़ने के बाद दिशाहीन व्यक्ति आख़िर जाएगा कहां? ईश्‍वर से वह उसके जीवित रहने की कामना करती. पुष्कर को अगर कुछ हो गया तो वह स्वयं को आजीवन क्षमा न कर सकेगी. उसे जीवित देख उसने राहत की सांस ली. पुष्कर के प्रति उसके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे, ‘राग-द्वेष, हर्ष-विषाद से यह इंसान बहुत दूर जा पहुंचा है. गंगा के समान पवित्र हृदय आज आकाश सदृश बृहद हो गया है. हृदय पर एक चोट खाकर इंसान इस तरह महान भी हो सकता है!  भस्मीभूत हुए अपने सपनों से आहत उसने वैराग्य की धूनि रमा ली. “खाना अब तक शुरू नहीं किया न... दाल में घी देना भूल ही गई थी.” उसने कमरे में प्रवेश करते ही कहा. कटोरे से वह घी निकाल रही थी तभी उसकी दृष्टि पुष्कर से जा टकराई. मुग्ध दृष्टि से उसे अपनी ओर देखते पाकर वह घबरा उठी. घबराहट में अधिक घी छलक कर दाल में जा गिरा. “वाह! क्या प्रेम है... ख़ूब घी पिलाया जा रहा है पुष्कर भैया को.” पुष्कर की बहन सुमेधा हंस रही थी. तब तक कमरे में ताऊ भी आ गए. मयूरी अप्रस्तुत हो उठी. दुपट्टे को संभालती वह जो भागी तो घर जाकर ही दम लिया. उस दिन के बाद से उसने मधुसूदनजी के घर की ओर जाना ही छोड़ दिया. विवाहोत्सव में मग्न होकर वह उस घटना को भूल गई. बारात निकलने की तैयारी ज़ोर-शोर से हो रही थी. मयूरी ने आसमानी ज़रीदार लहंगा पहन रखा था. चाय की ट्रे लेकर आ रही थी कि एक मोहक स्वर उभरा, “मुझे भी चाय मिलेगी?” “क्यों नहीं...” चाय बढ़ाते हुए मयूरी ने दृष्टि ऊपर की तो सामने पुष्कर था. वह मयूरी को अपलक निहार रहा था. “मुझसे ब्याह करोगी?” चाय का कप मयूरी के हाथ से लेकर उसने सीधा प्रश्‍न पूछा. घबराई मयूरी ट्रे लेकर आगे बढ़ने लगी तो उसने रास्ता रोक लिया, “मयूरी मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए. प्रथम भेंट में ही मैंने तय कर लिया था कि तुम नहीं तो कोई नहीं. विश्‍वास मानो मेरा, मैं आजीवन कुंआरा रह जाऊंगा.” देवदूत से दुर्लभ सौंदर्य को देख मयूरी मुग्ध हो उठी. उसके कान गर्म हो उठे, चेहरा लाल हो गया, पर भावनाओं पर नियंत्रण रखकर वह वहां से चली गई. चाचा के ब्याह के बाद ही मधुसूदनजी उसके विवाह का प्रस्ताव लेकर आए. सभी बेहद ख़ुश हो उठे. मयूरी की आंखों में इंद्रधनुषी सपने जाग उठे. सारे सपने क्षणभर में ही चूर हो गए जब दादाजी ने कहा कि वह सजातीय होने के बाद भी उपजाति का है, इसलिए यह शादी नहीं हो सकती. उस दिन से दोनों परिवार के संबंधों में दरार-सी पड़ गई. मयूरी के बीए करते ही उसका ब्याह दिल्ली में कार्यरत एक इंजीनियर से हो गया. मयूरी ब्याह के बाद दिल्ली आ गई. पति उसे बेहद प्यार करते. पहले निहार का जन्म हुआ, फिर सागरिका का. सागरिका के जन्म के कुछ दिनों बाद ही अचानक उसकी पुष्कर की बहन से कनाट प्लेस में भेंट हो गई. उसके पति भी दिल्ली में ही कार्यरत थे. “तुम्हारे ब्याह के बाद ही भैया घर छोड़कर चले गए. बहुत खोज की गई, पर उनका पता नहीं चला.” अश्रुपूरित नेत्रों से पुष्कर की बहन ने बताया. यह भी पढ़ें: ज्ञानी होने का दावा (Gyani Hone Ka Dawa) मयूरी स्तब्ध रह गई. उसके हृदय में एक टीस-सी उठी, “मेरे लिए उसने अपने जीवन की आहुति दे दी. मैं तो अपने संसार में रमी रही, कभी उसकी सुध न ली. संस्कारों से जकड़ी मैं कर भी क्या सकती थी. शादी-ब्याह के फैसले तो परिवार के बुज़ुर्ग करते हैं. हे ईश्‍वर वे कहीं भी रहें, उनके साथ रहना.” समय ने करवट ली, बच्चे बड़े हो गए. सागरिका ब्याह कर मुंबई अपने पति के पास चली गई और निहार का ब्याह दिल्ली में ही हो गया. अपने जीवन की उलझनों के बीच कभी पुष्कर की याद आने से वह अपराधबोध से भर उठती. उसने पुष्कर से न तो कोई वादा ही किया था और न उसे धोखा ही दिया था, पर उसके घर छोड़ने का कारण तो वही थी. पुष्कर के परिवारवाले भी उसे ही कलंक लगाते होंगे. वर्षों के लंबे अंतराल के बाद पुष्कर की याद अतीत के गर्भ में दफ़न हो गई थी. आज जब स्मिता की बुआ वगैरह स्वामीजी के जीवन से वैराग्य की कथा सुन रही थी तो वह भी बहुत लगन से सब सुन रही थी. उसे क्या पता था कि जिस स्वामी के दर्शनार्थ वह स्मिता की बुआ के घर जा रही है, वह कोई और नहीं, पुष्कर है. उसके परिवार वालों के कारण ही पुष्कर के हृदय को चोट पहुंची है. अपनी एकांगी प्रेम में असफलता के कारण ही उसे जीवन से वैराग्य हो गया और फिर हताशा में स्वतः ईश्‍वर की ओर रुख कर लिया. चोट खाने के बाद ही तो इंसान ईश्‍वर की शरण में जाता है. पुष्कर के घर छोड़ने के वर्षों बाद तक वह रात्रि की नीरवता में सोचती, ‘कहीं वह आतंकवादी तो नहीं बन गया?’ घर-द्वार छोड़ने के बाद दिशाहीन व्यक्ति आख़िर जाएगा कहां? ईश्‍वर से वह उसके जीवित रहने की कामना करती. पुष्कर को अगर कुछ हो गया तो वह स्वयं को आजीवन क्षमा न कर सकेगी. उसे जीवित देख उसने राहत की सांस ली. पुष्कर के प्रति उसके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे, ‘राग-द्वेष, हर्ष-विषाद से यह इंसान बहुत दूर जा पहुंचा है. गंगा के समान पवित्र हृदय आज आकाश सदृश बृहद हो गया है. हृदय पर एक चोट खाकर इंसान इस तरह महान भी हो सकता है!  भस्मीभूत हुए अपने सपनों से आहत उसने वैराग्य की धूनि रमा ली. उमड़ती भावनाओं व आकांक्षाओं को किस तरह उसने हृदय के गहनतम कोने में दफ़नाया होगा? उस क्षण कैसी मर्मांतक पीड़ा की तीव्र अनुभूति उसे हुई होगी.’ उसे महसूस हुआ आज प्रतिबद्ध लहनासिंह अपनी सूबेदारनी के सम्मुख खड़ा हो,  सूबेदारनी के कथन का मान रखने के लिए लहनासिंह ने अपनी जान दे दी और पुष्कर ने जो कहा वह अपने जीवन की पूर्णाहूति देकर निभाया. उसे पुष्कर से लहनासिंह जैसी प्रतिबद्धता की आशा न थी. एक कसक के साथ उसका रोम-रोम सिहर उठा.

- लक्ष्मी रानी लाल

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