महिलाओं के संघर्ष, पुरुष प्रधान समाज में शून्य अस्तित्व को लेकर तमाम कहानियां लिखी गईं और फिल्में बनी हैं. लेकिन 'लापता लेडीज' घूंघट की वजह से पत्नियों की अदला-बदली पर हास्य के पुट के साथ तीखा प्रहार करती है. गांव की पृष्ठभूमि, शादी का मौसम, कई शादियां हुईं, उसमें ट्रेन में कई विवाहित जोड़े साथ सफ़र कर रहे हैं. चूंकि दुल्हनों की साड़ी एक जैसी और घूंघट होने के कारण फिल्म का मुख्य पात्र दीपक पुष्पा उर्फ जया को अपनी पत्नी फूल समझ गांव ले आता है. दरअसल, वह अपने गांव रात के समय स्टेशन पर उतरता है. अंधेरा और घूंघट होने की वजह से वह जान नहीं पता कि अपनी जगह किसी और की पत्नी को साथ ले आया है. यह राज़ तब खुलता, जब बहू के प्रवेश करने पर सास उसकी आरती उतारती है व घूंघट उठाने के लिए कहती है. यह दृश्य लाजवाब है.
जब दीपक अपनी पत्नी फूल की जगह किसी और को देखता है… बच्चे भी ताली बजा कर चिल्लाने लगते हैं चाची बदल गई… चाची बदल गई… गांव का माहौल, परिवार का दबाव, दीपक का सदमे में आ जाना… वाकई में यह सीन बहुत बढ़िया फिल्माया है निर्देशक किरण राव ने.
यूं तो पूरी फिल्म में किरणजी ने हर छोटी सी छोटी बात पर ध्यान दिया है, फिर चाहे पात्रों का सिलेक्शन रहा हो या गांव की पृष्ठभूमि, रीति-रिवाज़ों को दिखाना हो, शादी के सीन्स या पुलिस थाने के मनोहर श्याम दरोगा के रूप में रवि किशन.
दीपक बने स्पर्श श्रीवास्तव ने गज़ब का अभिनय किया है. एक दुखी पति जिसकी पत्नी बदल चुकी है, उसकी याद में उसे ढूंढ़ने की परेशानी, पिता की डांट-फटकार, दोस्तोंं के कटाक्ष… सब सुनते-सहते, अपने फ्रस्ट्रेशन को शराब में निकालते स्पर्श श्रीवास्तव ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है. इससे पहले वे अपने अभिनय का कमाल वेब सीरीज़ 'जामताड़ा' में दिखा चुके हैं.
तीनों ही कलाकार दीपक, फूल बनी नितांशी गोयल और पुष्पा/जया बनी प्रतिभा रांटा छोटे पर्दे पर अपने अभिनय का जलवा दिखा चुके हैं. लेकिन बड़े पर्दे पर यह तीनों का ही पहला अनुभव रहा और तीनों ने अपनी पहली ही फिल्म में अपने अभिनय का लोहा मनवाया है. तीनों ने निहायत ही सरलता से अपने-अपने पात्रों को आत्मसात किया है. अन्य कलाकारों में गीता अग्रवाल, छाया कदम, दुर्गेश कुमार, भास्कर झा, रवि कपाड़िया, सत्येंद्र सोनी, किशोर सोनी, पंकज शर्मा, रचना गुप्ता, प्रांजल पटेरिया, समर्थ महोर, कीर्ति जैन, अबीर जैन और दाऊद हुसैन ने भी अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है.
लापता लेडीज को कामयाब बनाने में कहानीकार बिप्लव गोस्वामी, पटकथा लेखिका स्नेहा देसाई और दिव्य निधि शर्मा की मज़ेदार संवाद का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है इसमें कोई दो राय नहीं. विकास नौलाखा का ख़ूबसूरत छायांकान प्रशंसनीय है. स्वानंद किरकिरे, दिव्यनिधि शर्मा व प्रशांत पांडे के गीत उल्लेखनीय हैं. राम संपत का संगीत मधुर है. उस पर अरिजीत सिंह का गाया सजनी… कानों में मिश्री घोल देता है.
आमिर खान के प्रोडक्शन तले बनी लापता लेडीज महिलाओं के तमाम संघर्ष जिसमें एक देवरानी है, जो बरसों से पति का इंतज़ार उसकी ख़ुद से बनाई तस्वीर को देख कर रही है… एक पत्नी, बहू, मां, सास है, जो सबकी पसंद का खाना बनाने-बनाते यह भूल ही चुकी है कि उसे खाने में क्या पसंद है… जब फूल की सास अपनी सास से कहती है कि हम दोनों फ्रेंड बन जाए, तो यह संवाद न केवल चेहरे पर मुस्कान ला देता है, बल्कि बहुत कुछ सोचने पर भी मजबूर करता है कि क्यों एक स्त्री ख़ासकर रिश्तों में सास-बहू दोस्त नहीं बन पातीं… गांव के नज़रिए से देखा जाए, तो फिल्म की कहानी साल २००१ के पहले के संदर्भ को दिखाती है. तब स्थिति कुछ और ही थी. यह मध्य प्रदेश के काल्पनिक गांव पतीला और सूरजमुखी के निवासियों की दास्तान कहती है. जहां पर कई बार ट्रेन रुकती नहीं और किस तरह से लोग संघर्ष करके ट्रेन में सवार होते हैं.
फिल्म में कुछ बातें खटकती भी हैं, जैसे- दीपक की शादी के बाद पत्नी के साथ ससुराल में दो दिन रुकने पर उसके साथ कुछ और लोग क्यों नहीं रुके? नवविवाहिता दंपति अकेले आते हैं. जबकि ऐसा होता नहीं है नई नवेली शादी में. और भी छोटी-मोटी कई खामियां फिल्म में रही हैं, लेकिन कलाकारों का उम्दा अभिनय और बेहतरीन निर्देशन की वजह से ये नज़रअंदाज़ की जा सकती है. दो घंटे की फिल्म लोगों को बांधे रखती है अपने ख़ूबसूरत प्रस्तुतीकरण और कलाकारों की अभिनय के कारण.
- ऊषा गुप्ता
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