यह एक सच्चाई है कि महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर जो स्थिति पूरी दुनिया में है, भारत में भी कमोबेश वैसी ही हालत है. यहां भी परिवारों में उनके स्वास्थ्य को पुरुषों के बराबर महत्व नहीं दिया जाता है. स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भी उनके साथ काफ़ी भेदभाव किया जाता है. अध्ययनों के अनुसार, स्वास्थ्य समस्याओं के उपचार के लिए अस्पताल जानेवाले कम आयु वर्ग के युवकों व बच्चों की तुलना में इलाज के लिए अस्पताल जानेवाली उसी उम्र की युवतियों व बच्चियों की संख्या लगभग आधी है. इसी सन्दर्भ में डॉ. रश्मि तलवार, डिप्युटी लैब हेड (क्लिनिकल रिफ्रेंस लैब, गुड़गांव) और प्रमुख, आनुवंशिकी विभाग, एसआरएल डायग्नोस्टिक्स ने उपयोगी जानकारियां दी.
यह प्रवृत्ति उपचारात्मक देखभाल ही नहीं, बल्कि निवारक स्वास्थ्य देखभाल, जो अच्छे स्वास्थ्य का प्रथम चरण है की दृष्टि से भी है. ऐसी स्थिति काफ़ी हद तक भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवहार, पुरुषों के विशेषाधिकार को वरीयता, वित्तीय अनुपयोगिता, और डायग्नॉस्टिक एवं स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण है.
इंश्योरेंस इंफॉर्मेशन ब्यूरो द्वारा वर्ष 2013-14 के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार, उक्त अवधि में किए गए कुल बीमा दावों में से लगभग 70% दावे पुरुषों के थे, जबकि बाकी के मात्र 30% दावे महिलाओं के लिए थे. दूसरी बात, वर्ष 2013-14 के दौरान इंडस्ट्री द्वारा वितरित की गई कुल दावा राशि का लगभग 72% पुरुषों को और 28% महिलाओं को मिला. पिछले वर्ष भी लगभग ऐसा ही अनुपात रहा. इससे पुरुषों और महिलाओं को प्राप्त इस तरह के कवरेज के लाभों में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है, जहां महिलाएं साफ़तौर पर वंचित व उपेक्षित हैं.
लेकिन अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका कारण शिक्षा या जागरूकता की कमी और प्रथम अधिकार के रूप में निवारक एवं उपचारात्मक स्वास्थ्य सेवा की मांग की प्रेरणा का अभाव है. इसलिए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का एक प्रमुख उद्देश्य महिलाओं की सहायता करना है, ताकि वो अपने स्वास्थ्य के बारे में सोच-विचार कर निर्णय लेने में सक्षम हो सकें.
स्वास्थ्य सेवा को वित्तीय रूप से लाभपूर्ण बनाकर इस सशक्त स्थिति को हासिल किए जाने की प्रबल संभावना है. हालांकि जैसा कि ज्ञात है कि ज्ञान में ही शक्ति है, इससे स्वस्थ जीवनशैली विकल्पों एवं स्वास्थ्य सेवा के बारे में जागरूकता व जानकारी बढ़ाने में मदद मिलेगी.
बीमारियों से बचाव या बीमारियों को गंभीर रूप लेने से रोकने की दिशा में पहले कदम के रूप में, यह अत्यावश्यक है कि सार्वजनिक संवाद में निवारक स्वास्थ्य सेवा पर प्रमुखता से ज़ोर दिया जाए. भारत की महिलाओं में शिक्षा एवं प्रेरणा का अभाव चिंताजनक है और इसके कई कारण हैं.
दृष्टांत के तौर पर भारत की महिलाओं में ब्रेस्ट, सर्वाइकल और ओरल कैंसर के मामले चौंकानेवाले हैं. उसके बावजूद, चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएफएस-5 राष्ट्रीय आंकड़े- प्रतीक्षित हैं), 15-49 वर्ष के आयु वर्ग की मात्र 22%, 10%, और 12% महिलाओं ने ही अब तक सर्वाइकल, ब्रेस्ट और ओरल कैविटी की जाचं कराई है.
इससे हमें यह पता चलता है कि अत्यावश्यक निवारक स्वास्थ्य जांच के बारे में महिलाओं को जागरूक करना कितना ज़रूरी है. हर दस वर्ष में मानव शरीर में महत्वपूर्ण रूप से बदलाव होता है और इस बदलाव को ध्यान में रखते हुए निवारक स्वास्थ्य जांच आवश्यकताएं भी बदलती हैं. आयु समूह के आधार पर कुछ निवारक स्वास्थ्य जांच संबंधी राय नीचे दी गई है.
- बच्चियों का प्रथम दशक (जन्म से 12 वर्ष). यह किसी भी बच्चे की वृद्धि और विकास की अवस्था होती है और इस अवस्था में निवारक स्वास्थ्य जांच मोटे तौर पर एक जैसे ही होते हैं. जन्म के समय, जेनेटिक टेस्ट- न्यू बोर्न स्क्रीनिंग से शिशुओं में संभावित मेटाबॉलिक विकारों का शीघ्र पता चल सकता है, जिससे जल्द इलाज के ज़रिए बच्चों व उनके परिवारों के जीवन को बेहतर बनाया जा सकता है. इसके अलावा विभिन्न रोगों के लिए संपूर्ण प्रतिरक्षण प्रक्रिया को समान महत्व दिया जाना चाहिए. इस अवस्था के लिए परामर्शित कुछ वार्षिक जांचों में ईएसआर के साथ कंप्लीट ब्लड काउंट (सीबीसी), मल-मूत्र जांच, हीमोग्लोबिन जैसे प्रमुख मानकों का ध्यान रखा जाना चाहिए. इस प्री-प्यूबर्टी (यौवनारंभ-पूर्व) आयु वर्ग में विशेष पोषण आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाना बेहद ज़रूरी होता है, क्योंकि प्री-प्यूबर्टी और किशोरवास्था के दौरान आहार में प्रोटीन एवं कैल्शियम सहित अनेक पोषक तत्वों की आवश्यकता बढ़ जाती है, ताकि शारीरिक परिपक्वता में सहायता मिल सके.
- किशोरियों के लिए (13-20 वर्ष). यह लड़कियों के लिए महत्वपूर्ण समय होता है, क्योंकि प्यूबर्टी के बाद, शरीर में बहुत अधिक बदलाव आता है. साथ ही इस अवस्था में ही जीवनशैली से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएं जैसे कि किशोरवय मोटापा (टीनएज ओबेसिटी) और उच्च कोलेस्ट्राल लेवल व अन्य प्रभावित करने लगती हैं, इसलिए फीजिशियन और गायनोकनॉजिस्ट से वार्षिक सलाह लेना चाहिए. वार्षिक सीबीसी और अन्य टेस्ट्स के साथ-साथ, thyroid, endocrinology, रैंडम सुगर टेस्ट एवं Vitamin B12, Vitamin D एवं Iron deficiency tests कराना चाहिए.
- वयस्कावस्था के शुरुआती दो दशक (20-40 वर्ष की आयु). इस अवस्था में जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों के शुरुआती लक्षण दिखने लगते हैं. चूंकि इस अवस्था में अधिकांश युवतियों की शादी हो जाती है और वो गर्भधारण करती हैं, इसलिए स्त्री रोग एवं मातृत्व संबंधी देखभाल पर प्रमुखता से ध्यान दिया जाना चाहिए. स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी सामान्य देखभाल के अलावा शादीशुदा महिलाओं को समय-समय पर पीएपी-स्मीयर टेस्ट कराते रहना चाहिए. प्रत्येक पांच वर्ष पर यह टेस्ट कराना चाहिए. उन्हें बीच-बीच में स्तन जांच भी कराना चाहिए, जैसे कि वो मैमोग्राम टेस्ट करा सकती हैं और प्रत्येक मासिक चक्र के बाद घर पर ही अपने स्तन की जांच कर सकती हैं कि उसमें कहीं कोई गांठ तो नहीं बन रही है.
- 40 और 50 के दशक में पहुंच चुकी महिलाएं. 45 वर्ष से 55 वर्ष की अधिकांश महिलाओं में रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज़) शुरू हो जाती है. इसका अर्थ यह भी है कि 40 से 45 वर्ष की महिलाओं को अनियमित मासिक धर्म का अनुभव होने लगता है. मेनोपॉज़ को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए और महिलाओं को चाहिए कि वो गर्भाशय, स्तन और अण्डाशय के ख़तरों से सतर्क रहें. यही नहीं मेनोपॉज़ का संबंध यूरिनरी कैल्शियम के अत्यधिक उत्सर्जन से भी है, जिसके चलते किडनी स्टोन्स हो सकते हैं. मेनोपॉज़ की अवस्था में हड्डियां बनने की प्रक्रिया भी बाधित होने लगती है और हडि्डयों का स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ने लगता है. इस प्रकार महिलाओं में आर्थराइटिस, ओस्टियोपोरोसिस एवं हड्डियों से जुड़ी अन्य बीमारियों के लक्षण धीरे-धीरे बढ़ने लगते हैं. उम्र अधिक हो जाने के चलते इस अवस्था में डायबिटीज़, लीवर एवं किडनी फंक्शंस और हृदय के स्वास्थ्य से जुड़ी जांच सामान्य हो जाती है. डॉक्टर्स द्वारा पूरक आहार लेने की सलाह दी जाती है. आसान रक्त जांच के लिए ज़रिए इन स्तरों पर नियमित रूप से निगरानी रखनी चाहिए.
- बुजुर्ग अवस्था (60 वर्ष और इससे अधिक की उम्र)। इस अवस्था में संज्ञानात्मक (कॉग्निटिव) बीमारियों के लक्षण दिखने लगते हैं. संज्ञानात्मक क्षमताओं के घटने की गति को धीमे करने में योग, पैदल टहलने या अन्य गतिविधियों को करने से मदद मिल सकती है. इस अवस्था में प्रतिरोधी क्षमता भी काफ़ी घट जाती है, इसलिए महिलाएं कंप्रिहेंसिव डायग्नॉस्टिक चेकअप के अलावा समय-समय पर इम्यूनिटी टेस्ट करा सकती हैं.
- चूंकि हम जीवन के स्वर्णिम वर्षों में प्रवेश कर चुके होते हैं, इसलिए महिलाओं को चाहिए कि वो पॉजिटिव एजिंग पर ध्यान दें. इसका अर्थ है कि हमारी संज्ञानात्मक एवं शारीरिक क्षमता घटने के बावजूद, हमें अधिक आनंदायक, चिंतामुक्त एवं संवादपूर्ण जीवनशैली अपनानी चाहिए और साथ ही सालभर या छह महीने पर हेल्थ चेकआlप कराते रहना चाहिए.
स्वयं को स्वस्थ रखना बहुत कठिन काम नहीं है, लेकिन इसके लिए थोड़ी कोशिश और सतर्कता आवश्यक है. उम्र और जीवनशैली संबंधी कारकों के अनुसार समय से जांच कराने से आपको अपने स्वास्थ्य की स्थिति को जानने में मदद मिल सकती है और संभावित समस्याओं की शीघ्र पहचान हो सकती है, जिससे कि उनका आसानीपूर्वक उपचार भी संभव होता है. हर उम्र की महिलाओं को चाहिए कि वो खानपान की आदतों, एलर्जी, एनिमिया, विटामिन डी, विटामिन बी 12, कैल्शियम और सोडियम लेवल को नियंत्रित रखें, क्योंकि सामान्यतौर पर महिलाओं में इसकी कमी देखी जाती है.
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2021 के मद्देनज़र महिलाओं के लिए यह उपयुक्त समय है कि वो समय-समय पर स्वास्थ्य की देखभाल और डायग्नॉस्टिक चेकअप के अधिकार की मांग करें. और याद रखें, हो सकता है कि निवारक स्वास्थ्य जांच से आपमें कोई बदलाव न हो, लेकिन यह आपकी उम्र बढ़ने के स्वरूप में ज़रूर बदलाव ला सकता है.
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