Close

पहला अफेयर: आईना (Pahla Affair: Aaina)

Pahla Affair
पहला अफेयर: आईना (Pahla Affair: Aaina)
मेरा यह अंतर्मुखी व्यक्तित्व शायद मैंने अपनी मां से जन्मजात पाया है. बहुत कम बोलने तथा अपनी किताबों में खोये रहने का स्वभाव लिए कब मैंने जीवन के इक्कीस बसंत पार कर लिए, इसका एहसास शायद मुझे भी नहीं हो पाया. उन दिनों अपने स्थानीय यूनिवर्सिटी से रसायन शास्त्र में पीएचडी की डिग्री हासिल करने के लिए मैंने दाख़िला लिया था. मेरे अनुभवी गाइड ने पढ़ाई में मेरी रुचि देखकर मुझे कुछ समय के लिए बीएचयू, वाराणसी जाने की सलाह दी, जिससे मैं वहां की लाइब्रेरी में अपने विषय के अनुकूल नए शोध पत्रों को पढ़ सकूं. उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने बीएचयू की लाइब्रेरी में अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया. सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि एक दिन मैंने एक सुशील से गौर वर्ण लड़के को मेरी सामनेवाली मेज़ पर अपनी किताबों में झुके हुए पाया. यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं थी, पर न जाने क्यों मुझे कुछ अजीब और अटपटा-सा लगा. मैंने उचककर उसकी किताबें देखी की कोशिश की, शायद डॉक्टर बनना था उसे, वह भी दांतों का. उसकी किताबें थीं मानव दांतों के आंतरिक अध्ययन विषय पर और उसे शायद बेचैनी की हद तक यह जानकारी चाहिए थी. पता नहीं क्या और कैसे हुआ, लेकिन मैंने जब उसे पहली बार देखा, हृदय में कोई जल तरंग-सा बज उठा. मुझे अपनी किताबों के अक्षर जैसे दिखाई नहीं पड़ रहे थे. अब तो मैं बहाने से उसे ही देखती रहती. मेरे हृदय की गति पर जैसे मेरा नियंत्रण ही नहीं रह गया था. शाम को जब मैं वापस हॉस्टल लौटती, तो वहां कोई सखी-सहेली या परिचित तो मिलता नहीं, मैं कमरे में जाकर आईने के सामने खड़ी हो जाती और अपने आप से ही घंटों बातें किया करती. एक दिन मैं आईने से ही पूछ बैठी, ‘इतनी सुंदर तो हूं मैं, ये मुझे देखता क्यों नहीं...’ अगले दिन थोड़ा संवरकर जाती, परंतु वो पाषाण हृदय किताबों में ही घुसा रहता, मुझे देखता ही नहीं. ऐसा एक बार भी संभव नहीं हुआ कि हमारी नज़रें टकरा जाएं. यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: एक ख़ूबसूरत लम्हा (Pahla Affair: Ek Khoobsurat Lamha) धीरे-धीरे मेरा ध्यान अपनी किताबों में न होकर उसकी गतिविधियों में रहने लगा. नज़रें उसके चहेरे पर ही टिकी रहने लगीं और मुझे एहसास होता गया कि मैं उससे प्यार करने लगी हूं. मेरा संकोची, अंतर्मुखी मन मुझे मुंह खोलने नहीं देता और उस बेपरवाह को अपनी पढ़ाई के आगे शायद कोई दुनिया ही नहीं दिखाई देती. और फिर एक दिन वह नहीं आया. आगे जब तक मैं बनारस की उस लाइब्रेरी में रही, वह नहीं आया. मैंने हिसाब लगाया, पूरे पांच दिन आया था वो और मुझे भटकाकर मीलों दूर न जाने किन ख़ुशबुओं के बगीचे में उड़ा ले गया था. मैं तितली की मानिंद उड़ती फिर रही थी, परंतु वह तो जा चुका था. अथक प्रयासों से मैंने दोबारा अपनी पढ़ाई ब्रारंभ की, लेकिन मुझमें पहले जैसी एकाग्रता नहीं रही. वह चोर मुझसे मेरा ‘मैं’ ही चुरा ले गया था शायद. उसकी कोई पहचान मेरे पास नहीं थी. न नाम, न पता, सिवाय एक काग़ज़ के पन्ने के, जो उसकी मेज़ से उड़कर मेरी मेज़ के नीचे आ गया था. उस पन्ने पर उसने शायद मानव दांतों से संबंधित चित्र बनाने के लिए आड़ी-तिरछी लकीरें खींच रखी थीं. उसी काग़ज़ के पन्ने को मैंने संभालकर रख लिया था. कैसा जादुई था यह प्यार का एहसास, जो पूर्णतया एक तरफ़ा तो था, लेकिन मुझे इतराना सिखा गया था और इसमें मेरा साक्षी बना था मेरे हॉस्टल के कमरे में लगा हुआ वह आदमक़द आईना. आज मैं दो बेटों की मां हूं और संतुष्ट भी हूं. सभी को मेरी पीएचडी की डिग्री और मेरे द्वारा किए गए हर एक कार्य पर गर्व है, लेकिन मेरी किताबों के बीच दांतों के चित्रवाला काग़ज़ का वह पन्ना आज भी छुपा बैठा है, जो तब बोल पड़ता है, जब-जब मैं आईना देखती हूं.

- डॉ. कमला कुलश्रेष्ठ

यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: आंखों आंखों में… (Pahla Affair: Ankhon Ankhon Mein…)

Share this article