राजीव ने चिढ़ते हुए कहा था, "आया मां? कब तक आया मां की उंगली पकड़ चलती रहोगी. अरे तुम पूरी तरह स्वच्छंद हो, न तुम्हें अपनी मम्मी का डर है, न पापा का… खाओ-पिओ और मौज करो…"
एकांत के क्षणों में अनायास ही आया मां का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम जाता है. कितना अपनत्व, प्यार दिया था आया मां ने! अपनी गोद में खिला कर, उंगली पकड़कर चलना सिखाया तो आया मां ने. दुनियादारी, अच्छे-बुरे का ज्ञान कराया तो आया मां ने. मुझे क्यों मम्मी ने अपने से दूर कर दिया, मैं समझ नहीं पा रही हूं. अरे, इतना बड़ा तो घर था. मेरे लिए घर में जगह नहीं थी तो मैं सर्वेंट क्वार्टर में आया मां के साथ ही रह लेती. लेकिन मम्मी के निर्णय के आगे किसी की नहीं चलती. आया मां ने भी तो बहुत कहा था मम्मी से... पापा को तो अपने बिज़नेस से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती, महीनों घर से बाहर रहते. मम्मी भी एक कंपनी में नौकरी करती हैं, इसलिए इन दोनों को तो मेरे साथ बैठकर दो बातें करने का समय ही नहीं था. यदाकदा उनका चेहरा ही देख लिया करती थी, तो उनसे भी मुझे मम्मी ने दूर कर दिया. पापा आएंगे और मुझे नहीं देखेंगे तब एक बार तो ज़रूर पूछेंगे आया मां से, "मेरी दुलारी बिटिया कहां है?" लेकिन शायद नहीं भी पूछें, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से घर का जो माहौल चल रहा था उससे ऐसा लगता ही था कि कुछ अनहोनी होने वाली है.
"हाय। स्वीटी तुम अभी तक यहीं बैठी हो. पीरिएड तो कब का ख़त्म हो गया." हड़बड़ाकर जब मैंने क्लास रूम में चारों तरफ़ निगाह डाली तो पूरी क्लास खाली पड़ी थी. मैंने जल्दी से अपना बैग उठाया और बाहर आ गई.
"बेटी अभी तू छोटी है, इसलिए अच्छा-बुरा नहीं समझती है, लेकिन जिसे खन्ना अंकल और मम्मी का सच्चा प्यार समझती है, वह नैतिकता नहीं है, वह अच्छा नहीं है."
देहरादून के एक महंगे स्कूल में मेरा एडमीशन करा दिया गया था. दिन का समय तो स्कूल की पढ़ाई, खेल-कूद और सहेलियों के साथ गपशप में निकल जाता था, लेकिन रात में एकाकीपन बहुत अखरता था. होस्टल में हर एक छात्र-छात्रा के लिए सभी सुविधाओं से युक्त अलग-अलग रूम थे. मैं पढ़ने में होशियार थी, साथ ही टीचर, स्टाफ और स्कूल में भी सभी की चहेती थी. अपने मधुर व्यवहार और शालीनता के लिए मैं जानी जाती थी. ये सब चीज़ें मुझे विरासत में आया मां से ही मिली थीं.
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कितना चाहती थीं मुझे आया मां! क्या मेरे बिना आया मां को अच्छा लग रहा होगा? दिल्ली से देहरादून आए पांच महीने बीत गए थे. अब तक मैं यहां के माहौल में काफ़ी हद तद अपने आपको ढाल चुकी थी. यदाकदा आया मां का ही फोन आ जाता था या फिर आड़ी टेढ़ी लकीरों में आया मां की चिट्ठी...
आया मां के लाड़-दुलार में कितना अपनत्व था. जब वो मुझे अपनी गोद में बिठा कर मेरे गाल, होंठ और माथे पर गरम-गरम चुम्बन देतीं तो मैं मम्मी के उस रूखे-सूखे प्यार को भूल जाती थी. उस समय मेरा बाल सुलभ मन यही समझा था कि चुम्बन, आलिंगन से ही सच्चे प्यार की अभिव्यक्ति होती है. मैं तरसती रही थी मम्मी और पापा से उस प्यार को पाने के लिए... मैं बगीचे से गीली काली मिट्टी में सने पैरों से ही आया मां की गोद में चढ़ जाती थी और उनकी सफ़ेद धोती में कीचड़ लग जाता था. तब आया मां, "धत् गंदी..." कह कर मुझे अपने आलिंगन में कस लेती थीं.
एक बार मैं मम्मी की गोद में भी इसी तरह चढ़ गई थी, तब मम्मी ने आया मां को बुला कर जिस तरह डांटा था वह मुझे आज भी याद है. मम्मी आया मां को कह रही थीं, "मूर्ख औरत, बेबी को इतने दिनों में यह भी नहीं समझाया कि गंदे पैरों से किसी की गोद में नहीं चढ़ते हैं. मेरी कोसा की साडी ख़राब कर दी. जानती नहीं इसको धुलवाने में कितने पैसे लगते हैं! आगे से ऐसा हुआ तो तुम्हारी पगार से पैसे काट लूंगी."
इसी के साथ मेरे गाल पर भी एक चांटा पड़ा था और मम्मी ने कहा था, "इस चांटे की मार याद रखना और कभी भी मेरी गोद में गंदे पैर नहीं चढ़ना."
आया मां थर-थर कांप रही थीं. फिर मुझे गोद में उठाकर अंदर के कमरे में चली गई थीं. मम्मी की पांचों उंगलियां मेरे गाल पर उभर आई थी, जिन्हें सहला कर आया मां दर्द कम करने की कोशिश कर रही थीं. लेकिन उनके दिल का दर्द मैं अच्छी तरह आज महसूस कर रही हूं.
मुझे ऐसा महसूस होता रहता था कि मैं मम्मी और पापा की कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही थी. पापा की जहां मेरे भविष्य के बारे में ज़रूरत से ज़्यादा चिंता थी, वहीं मम्मी मुझे हमेशा उपेक्षित करतीं. बात-बात में मुझ में कमी निकालतीं. ऐसे माहौल में सिर्फ़ आया मां ही ऐसी थी, जो सभी तरफ़ से एक संतुलन बना कर मुझे पाल रही थीं. आया मां की बातें उपेक्षित वातावरण में भी जीने का एक संबल थीं.
धीरे-धीरे मैं बड़ी होती जा रही थी और कुछ-कुछ समझने भी लगी थी. पापा चाहते थे कि मम्मी नौकरी न करें, घर में रह कर मुझे संभाले, लेकिन मम्मी इसके लिए तैयार नहीं थीं. वह मुझे आया मां के भरोसे छोड़कर निश्चिंत थीं.
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जब भी पापा घर में रहते, उन दोनों में लड़ाई होती रहती. कभी पापा बिना खाना खाए चले जाते तो कभी मम्मी खाने की थाली को वैसा ही छोड़कर चली जातीं. उस समय मैं दरवाज़े पर खडी-खड़ी यह सब देखती रहती थी, तब आया मां ही मुझे गोद में उठाकर अंदर ले जाती और कहती, "बेबी ये सब चलता है, तुम चिंता मत करो... साब और मेमसाब का झगड़ा तो चलता रहता है. शाम तक सब ठीक हो जाएगा." और फिर मैं अपने आप में मगन हो जाती थी.
समय अबाध गति से गुज़र रहा था. घर में घटनाक्रम तेज़ी से घूम रहा था. मेरे यहां आने के बाद एक-दो बार ही मम्मी-पापा औपचारिकता निभाने के लिए आए थे. हां, आया मां ज़रूर हर महीने आ जाया करती थीं.
बाल अवस्था को हृदय में समेटे अब मैं युवावस्था की दहलीज़ पर पहुंच गई थी और देहरादून में ही एक कॉलेज में पढ़ने लगी थी. यहां मैं राजीव की तरफ़ आकर्षित हुई. राजीव हैंडसम और आकर्षक व्यक्तित्त्व का लड़का था. वह भी मुझे प्यार करता था. यदाकदा हम लोग अकेले में मिलते थे. एक दिन राजीव ने अपने हाथ में मेरा हाथ लेकर क़रीब आने की कोशिश की.
एक क्षण के लिए मुझे राजीव का इस तरह क़रीब आना अच्छा लगा, लेकिन फिर आया मां की सिखाई दुनियादारी ने मुझे हाथ पीछे खींच लेने को प्रेरित किया.
अतीत के उस घटनाक्रम को भी आज तक मैं नहीं भूली हूं, पापा जब भी बिज़नेस के लिए शहर से बाहर रहते, मम्मी के ऑफिस के खन्ना अंकल घर आते रहते थे. मेरे लिए खन्ना अंकल ख़ूब सारी टाफियां, खिलौने और कपड़े लाया करते थे. वह घर आते ही ज़ोर से 'डाय स्वीटी' कहते थे. उनकी आवाज़ से मेरे कमरे से बाहर निकलने के पहले मम्मी आ जाती थीं... और फिर दोनों कमरे में चले जाते थे. एक बार कमरे का दरवाज़ा नहीं लगा था. मैं उधर से निकल रही थी. मैंने देखा कि मम्मी और अंकल एक-दूसरे को बहुत प्यार कर रहे थे. मेरा बाल सुलभ मन इतना ही सोच सका था. काश! मम्मी और अंकल की शादी हुई होती... साथ ही मुझे आया मां के वे गरम-गरम चुंबन और आलिंगन याद आ गए.
जब मैं बहुत उदास हो जाती थी, तब आया मां मुझे हंसाने के लिए अंक में भरकर चुंबनों से मेरा चेहरा भर दिया करती थीं. मैं समझती थी कि चुम्बन लेने और आलिंगन करने को ही प्यार करना कहते हैं. मम्मी और पापा के हमेशा लड़ाई-झगड़े से मैं भी परेशान रहती थी, इसलिए इंतज़ार ही करती रहती थी कि कब पापा बाहर जाएं और खन्ना अंकल घर आएं.
एक बार आया मां से इस बात का ज़िक्र करने पर उन्होंने कहा था, "बेटी अभी तू छोटी है, इसलिए अच्छा-बुरा नहीं समझती है. लेकिन जिसे तू खन्ना अंकल और मम्मी का सच्चा प्यार समझती है, वह नैतिकता नहीं है. वह अच्छा नहीं है. समाज इसे स्वीकार नहीं करता है. इसीलिए खन्ना अंकल और मेमसाब चोरी-छुपे मिलते हैं... लेकिन बेटी मैं तुझमें अच्छे संस्कार डालना चाहती हूं. इसलिए बेटी कभी भी कोई ऐसा काम नहीं करना, जिससे चरित्र पर कोई उंगली उठा सके. खन्ना अंकल और मेमसाब के इस मेलजोल पर सभी उंगली उठाते हैं. लेकिन बेटी अपने को क्या... हम तो एक आया मां है, इसलिए मेरी ज़िम्मेदारी तुम्हें अच्छे से पालना और अच्छे संस्कार ही डालना है."
"क्या हुआ स्वीटी?" राजीव की आवाज़ से मैं चौंक गई थी. मैंने दृढ़ता से कहा, "राजीव, यह सही है कि तुम मुझे अच्छे लगते हो, लेकिन आया मां के बताए अनुसार अभी यह उचित नहीं है."
राजीव ने चिढ़ते हुए कहा था, "आया मां? कब तक आया मां की उंगली पकड़ चलती रहोगी. अरे तुम पूरी तरह स्वच्छंद हो, न तुम्हें अपनी मम्मी का डर है, न पापा का... खाओ-पिओ और मौज करो... यही तो ज़िंदगी है. फिर तुम्हारी मम्मी भी तो तुम्हारे पापा की होकर नहीं रह सकीं. इसलिए नैतिकता-अनैतिकता की बातें तुम्हारे मुंह से अच्छी नहीं लगतीं."
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मैं अब तक अपने आप पर काबू रखे हुए थी, लेकिन आया मां के बारे में राजीव की बात से मैं बिफर गई. बोली, "राजीव तुम्हें अपना समझते हुए मैंने अपने घर की बातें बताई, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि तुम मुझे ही उसका उदाहरण दो. अच्छा है कि तुम पढ़ाई पूरी करके आया मां से मेरा हाथ मांगना, अच्छा गुड बाय." एक झटके से मैं उठकर अपने रूम में आ गई थी और ख़ूब देर तक रोती रही थी.
आज अचानक आया मां को देखकर मैं उनके गले लग गई और राजीव के साथ घटी पूरी घटना उनको बताई. आया मां ने मुझे धीरज बंधाते हुए सब ठीक हो जाने का आश्वासन दिया.
राजीव कह रहा था, "आया मां.. आप मेरे लिए भी पूज्यनीय हैं. स्वीटी को आपने जो संस्कार दिए हैं वो प्रशंसनीय हैं. मेरी कसौटी पर स्वीटी खरी उतरी है. इस साल फाइनल होने के बाद मैं अपने मम्मी-पापा के साथ आपके पास स्वीटी का हाथ मांगने आऊंगा."
आया मां महसूस कर रही थीं कि इस दुनिया में अकेले होने पर भी वे अकेली नहीं हैं. उन्हें स्वीटी जैसी बेटी मिली है, जिसने अपनी मम्मी से ज़्यादा अधिकार देकर उनका सिर ऊंचा कर दिया है.
मेरी शादी की बात सुनकर भी मम्मी ने ख़ास ध्यान नहीं दिया. पापा से तलाक़ होने के बाद कोर्ट ने ज़बरदस्ती मुझको मम्मी के गले बांध दिया था, लेकिन देखभाल तो आया मां ही कर रही थीं. एक सादे समारोह में मेरी और राजीव की शादी हो रही थी. आया मां ख़ुश थीं कि मां की जो ज़िम्मेदारी उन्होंने उठाई थी, आज वह फलीभूत हो रही है और मैं एक ऐसे घर में जा रही हूं, जहां साब और मेमसाब के जीवन में घटी घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी. विदाई के समय राजीव और मैंने आया मां के चरण छूकर आशीर्वाद लिया और गले लग कर रोने लगी, "मां, तुम मेरी मां हो, आया मां नहीं."
- संतोष श्रीवास्तव
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