“क्या बताऊं नीलू, आज तक अपने कंधे पर उस गुनाह का बोझ ढो रही हूं... आंटी जब तक मेरे पड़ोस में रहीं, मुझे अपना सबसे बड़ा हितैषी समझती रहीं और मैंने... उनका सब कुछ छीन लिया...”
“ऐसा मत बोल अर्पिता… तुझे क्या पता था कि वो किस मुसीबत में हैं…”
“इसी बात का तो दुख है नीलू, मुसीबत पहले से बता कर तो नहीं आती... और जब वो मुझे अपना समझ सहायता लेने आईं तो मैंने उन्हें ख़ुद तक पहुंचने का मौक़ा तक नहीं दिया... उस दिन के बाद वो कभी मेरे घर नहीं आईं, मेरे दरवाज़े पर उनकी वो अंतिम दस्तक आज भी मेरे कानों में गूंजती है...’’
“नीलू, मुझे कल एक मीटिंग के सिलसिले में दिल्ली जाना है, चाहो तो तुम भी साथ चलो, वो तुम अपनी सहेली की शादी में नहीं जा पाई थी ना... सो उससे मिलकर बधाई देती आना...”
रितेश का प्रस्ताव सुन सारे शरीर में जैसे बिजली दौड़ गई. अपनी सबसे प्यारी सहेली अर्पिता से मिलने की बेचैनी, उसके जीवनसाथी के बारे में जानने की उत्कंठा यकायक अपने चरम पर पहुंच गई. 3 महीने पहले उसकी शादी का निमंत्रण पत्र आया था, अपनी आंखों पर यक़ीन नहीं हुआ था. बार-बार नाम पढ़कर और फिर फ़ोन से बात कर दिल को भरोसा दिलाया कि हां अर्पिता शादी कर रही है... वो अर्पिता, जिसके लिए शादी का दूसरा नाम ग़ुलामी की जंजीर था... एक ऐसा पिंजरा जिसमें फंसी स्त्री किसी निरीह पंछी की तरह बेबसी और लाचारी का जीवन काट कर अंत में तड़प-तड़प कर अपने प्राण त्याग देती है.
अर्पिता को मैं बचपन से जानती थी, कुछ अलग ही क़िस्म की लड़की थी वो. मेरठ में मेरे घर से सटा हुआ घर था उसका, हम दोनों में ख़ूब पटती... साथ-साथ खेलते-कूदते, स्कूल जाते, छत पर छिप कर घंटों बतियाते... उसके माता-पिता का अलगाव हो चुका था, वो अपने पिता के साथ रहती थी. स्कूल ख़त्म होने के बाद वो आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली हॉस्टल में चली गई. उसके बाद यदाकदा पत्रों और फ़ोन के जरिये ही सही, मगर हमारे दिल के तार जुड़े रहे.
मेरा अर्पिता से तीन साल पहले मिलना हुआ था, हमने दो-तीन दिन साथ गुज़ारे थे. तब मैं उसके व्यक्तित्व और सोच में आये परिवर्तन को देख कर हतप्रभ रह गई थी. अर्पिता अब वो बचपन वाली चुलबुली, चहकती गुड़िया नहीं रह गई थी... उसकी जगह एक ऐसी आधुनिका ने ले ली थी, जिसके लड़कों से तेवर और रंग-ढंग थे. स्त्री सुलभ लज्जा, कोमलता से कोसों दूर, अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीने का दावा करने वाली, उन्मुक्त... स्वतंत्र... आत्मनिर्भर... दंभित... वो ख़ुद को सामान्य लड़कियों की श्रेणी से परे समझती और उनकी तरह शादी-ब्याह कर घर-गृहस्थी देखना अत्यंत हीन कार्य समझती थी.
“ना बाबा, मुझसे किसी मर्द की जीवनभर ग़ुलामी नहीं की जाएगी... मैं अपनी दुनिया में ख़ुश हूं और उसमें किसी की दख़लअंदाज़ी बर्दाश्त नहीं कर सकती...” उसने मुझसे कहा भी था.
अर्पिता अक्सर कहती, “हिन्दुस्तानी समाज की सबसे बुरी आदत एक-दूसरे के जीवन में तांक-झांक कर हस्तक्षेप करना है.”
मेरे सामने उसका मकान मालिक ग़लती से पूछ बैठा था, “बेटी, दो-तीन दिन से दिखाई नहीं दी, कहीं बाहर गई थी क्या?” बस अर्पिता की त्यौरियां चढ़ गईं,
“देखा ना... किस कदर रोक-टोक की आदत है इन लोगों को... मैं कहीं भी आऊं, जाऊं... जीऊं या मरूं... किसी को क्या...” इतनी-सी बात उसके लिए उसके निजी जीवन में हस्तक्षेप का उदाहरण थी.
अर्पिता के ऐसे आत्मकेन्द्रित दृष्टिकोण के चलते मैं ये जानने को बेताब थी कि वो शादी के चक्कर में कैसे पड़ी? वो कौन महानुभाव है, जिसका हस्तक्षेप उसने सदा के लिए स्वीकारा?.. क्या वो भी मेरी तरह ही घर के काम-काज करती होगी?... इसी दिमाग़ी उधेड़बुन में उलझे हुए मुझे पता भी न चला कि मैं कब अपनी पैकिंग कर दिल्ली जाने के लिए तैयार भी हो गई.
रास्ते भर मैं रितेश को अर्पिता के बारे में बताती रही और वो हैरान होते रहे. आख़िरकार हम अर्पिता के घर पहुंच गए. एक बार फिर उसने अपने बदले हुए व्यक्तित्व से मुझे अचंभित कर दिया. पिछली बार तीखे तेवर दिखाने वाली अर्पिता आज किसी आम भारतीय गृहिणी की तरह ही नज़र आ रही थी. सलीके से बंधी सूती साड़ी, जूड़े में संवरे बाल, माथे पर कुमकुम, मांग में सिंदूर... उसने हमारी ख़ूब आवभगत की.
रितेश चाय की चुस्की लेते हुए बार-बार मुझे कनखियों से घूर रहे थे, जैसे नज़रों से कह रहे हों, झूठी कहीं की, तूने क्या बताया था और ये क्या निकली... मेरे पास नज़रें बचाने के सिवाय कोई दूसरा चारा न था.
अर्पिता के पति तीन-चार दिन के लिए बाहर गए हुए थे. यद्यपि मेरा रितेश के साथ गेस्ट हाउस में रुकने का प्रोग्राम था, मगर अर्पिता ने मुझे अपने साथ रुकने को राजी कर लिया. थोड़ी देर बाद रितेश ने विदा ली और उनके जाते ही मैंने उस पर सवालों की झड़ी लगा दी, “ये क्या?... क्यों?... कैसे...?” अर्पिता खिलखिला कर हंसने लगी. आज उसकी वही पुरानी बाल-सुलभ खिलखिलाहट कानों में अमृत-सा घोल गई.
“तू अभी-अभी तो आई है, सब क्या अभी जान लेगी... कुछ देर आराम से बैठ... मैं अपने एक-दो काम निपटा लूं, फिर तसल्ली से बातें करेंगे” कह कर अर्पिता रसोई में चली गई. कुछ देर वहीं बैठ मैं भी उसके पीछे चल दी.
“क्या बना रही है?”
“भरवां बैगन और कचौरी.”
“वाह क्या बात है, मगर अभी तो मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं है... अभी तो पेट भर नाश्ता किया है.”
“अभी तुझे दे भी कौन रहा है... ये तो मैं अपनी पड़ोसन संध्या के लिए बना रही हूं, वो मां बननेवाली है... तीसरा महीना चल रहा है... आजकल उसका चटपटा खाने को बड़ा मन करता है, मगर मॉर्निंग सिकनेस की वजह से रसोई में जा भी नहीं सकती. कल बातों-बातों में यूं ही कह रही थी कि भरवां बैंगन और कचौरी खाने का बड़ा मन हो रहा है... सोचा, आज उसे सरप्राइज़ देकर खिला आऊं.”
मुझे एक और झटका लगा, पड़ोसियों के हालचाल पूछने तक को बुरा समझनेवाली लड़की आज अपनी पड़ोसन को सरप्राइज़ देकर कुछ खिलाना चाहती है... यक़ीन नहीं हुआ. मैंने उसके माथे पर हाथ रख तबियत देखने का अभिनय किया.
“चल हट... मैं अब बदल गई हूं.”
“वो तो मैं देख ही रही हूं... मगर कैसे ये समझ नहीं आ रहा...”
“वो सब बाद में बताऊंगी. पहले ज़रा संध्या को खाना दे आऊं.” अर्पिता खाना लेकर चली गई. थोड़ी देर बाद वापस आने पर उसके चेहरे पर ख़ुशी और संतोष के भाव झलक रहे थे.
“लगता है. तेरी पड़ोसन को भरवां बैगन और कचौरी पसंद आ गए.”
“हां... वो इतनी ख़ुश हुई कि क्या बताऊं... मेरा पेट तो उसका खिला हुआ चेहरा देखकर ही भर गया... सच, दूसरों के लिए कुछ अच्छा कर उन्हें ख़ुशी देने में कितना सुख है, ये मैंने बहुत देर में सीखा...” कहते हुए अर्पिता की आंखों में एक अजीब-सा सूनापन छा गया, वो शून्य में तांकने लगी, जैसे अतीत की किसी चौखट को छूने चली गई हो... कुछ पल वहीं ठहर कर वापस वर्तमान में आई और बोली, “तू कुछ अपनी सुना, घर में सब कैसे हैं?”
“देख, मेरे सब्र का और इम्तहान मत ले...”
“मतलब?” अर्पिता ने मुस्कुराकर पूछा.
“मतलब ये कि मुझे तेरी पर्सनल डायरी का एक-एक पन्ना पढ़ना है... जब हम इससे पहले मिले थे तो तू बिल्कुल भी ऐसी नहीं थी... उसके बाद तेरे जीवन में ऐसा क्या हुआ, जिसने तुझे इतना बदल दिया?”
“बताती हूं... बताती हूं..., पिछले साल की बात है, मैंने अपनी नौकरी बदली थी, इसलिए फ्लैट भी नये ऑफ़िस के आस-पास ही देख रही थी. बड़ी मुश्किल से एक जगह घर मिला. वहां अधिकतर मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यमवर्गीय लोग रहते थे... हर एक को हर दूसरे की एक-एक बात का पता रहता... कौन कहां जा रहा है... कब आ रहा है... कौन बीमार है... तू तो जानती ही है, मुझे इन सब बातों से कितनी चिढ़ थी, इसलिए मैं शुरू से ही अपने आस-पास रहने वालों से कट कर रहा करती. मेरे फ्लोर पर साथ वाले फ्लैट में एक रिटायर्ड वृद्ध दंपति अकेले रहा करते थे. आंटी अक्सर ऑफ़िस आते-जाते हुए टकरा जातीं. वो मुझसे बात करने की और मैं उनसे बचने की हर संभव कोशिश करती.
एक बार मुझे तेज़ बुखार हुआ था. मेरे फ्लैट के बाहर पड़े दूध के पैकेटों और अख़बारों से शायद उन्हें अंदाज़ा हो गया कि मेरी तबियत ख़राब है और मेरी ऐसी स्थिति भी नहीं है कि बाहर आकर दूध ही ले सकूं. तब ह़फ़्ते भर तक उन्होंने मेरा एक मां की तरह ध्यान रखा. मैं ठीक हो गयी, मगर फिर भी उन्हें जब भी मौक़ा मिलता, वो मेरे लिए कुछ न कुछ बनाकर लाती और पास बैठ बतियाने लगती. उनका व्यवहार आत्मीयता से भरा था. उनका मुझे बेटी कहकर पुकारना मुझे भी अच्छा लगने लगा था... मगर फिर वही सवाल, वही नसीहतें, कहां काम करती हो? क्या काम करती हो..? घरवाले कहां हैं..? शादी क्यों नहीं करती? लड़कियों का यूं अकेले रहना ठीक नहीं... बस... मुझे उनसे झल्लाहट होने लगी. मैं उन्हें अनदेखा करने लगी, घर आती तो स्पाई हॉल से देख कर चार में से तीन बार दरवाज़ा ही ना खोलती.
एक दिन रविवार था. मैं सुबह आराम से बैठी अख़बार पढ़ रही थी. तभी दरवाज़े पर दस्तक होने लगी, मैं समझ गई कि आंटी ही होंगी और सुबह-सुबह कौन उनके साथ अपना व़क़्त बर्बाद करे, सोच कर मैंने दरवाज़ा नहीं खोला. कुछ देर दस्तक दे वो चली गईं और मैं भी इस बात को भूल गई.
शाम को मैं कहीं बाहर जा रही थी, तभी हमारी बिल्डिंग के वॉचमैन ने मुझे देखकर पूछा, “मैडम, वो आपके साथ वाले फ्लैट के साहब के क्या हाल हैं?”
“क्यों, क्या हुआ उन्हें?” मैंने घबराकर पूछा.
“अरे आपको नहीं पता, सुबह उन्हें हार्टअटैक आया था, बड़ी बुरी हालत में हॉस्पिटल गये थे... मछली की तरह तड़प रहे थे... लगता था जैसे अंतिम सांसें ले रहे हों... पता नहीं बचे भी या नहीं... मुझे लगा आप तो पड़ोस में रहती हैं, शायद आपको पता हो...”
सुनकर मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई. ओह, शायद आंटी उस व़क़्त मेरी मदद लेने... और मैंने दरवाज़ा भी नहीं खोला. अपने स्वार्थी कृत्य पर मेरी अंतर्रात्मा मुझे धिक्कारने लगी. इधर-उधर पूछताछ कर बड़ी मुश्किल से उनके हॉस्पिटल का पता चला. मैं वहां भागी-भागी पहुंची तो देखा... अंकल का देहांत हो चुका था. आंटी एकदम अकेली असहाय-सी अंकल के पार्थिव शरीर के पास बैठी थीं. मुझे आंटी ने जिस नज़र से देखा, वो मैं कभी भूल नहीं सकती.
आंटी को हॉस्पिटल की फॉर्मेलिटीज़ समझ नहीं आ रही थी, मैंने ही वहां सब निपटाया... उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी... किसी नाते-रिश्तेदार को भी बुलाने से मना कर दिया... कहने लगीं, “जब जीते-जी किसी ने नहीं पूछा तो उनकी मौत पर क्यों किसी का एहसान लूं...” अंकल का दाह-संस्कार विद्युत शवदाह गृह में कर दिया गया...
अपने दिल पर गुनाह का बोझ लिए मैं ह़फ़्ते भर उनके साथ रही और उनकी देखभाल की. बातों-बातों में उन्होंने मुझे बताया, “जब तेरे अंकल को हार्टअटैक आया था, तब दुर्भाग्य से हमारा फ़ोन भी ख़राब हो गया था. मैं तेरे दरवाज़े पर सहायता मांगने आई थी. सोचा था, अगर तू अपनी कार से जल्दी से उन्हें हॉस्पिटल पहुंचा दे... या फ़ोन करके ऐम्बुलेंस ही बुलवा दे... मगर मेरा दुर्भाग्य... तू भी घर पर नहीं थी... बाहर से फ़ोन करने में और उन्हें हॉस्पिटल ले जाने में हुई कुछ मिनटों की देरी ने उनके प्राण ले लिए... डॉक्टर कह रहे थे कि अगर दस मिनट पहले आये होते तो भी बच सकते थे... ख़ैर, नियति को कौन टाल सकता है भला...”
“मैं उनसे क्या कहती... कैसे बताती कि उस दर्दनाक घड़ी में मैं घर पर ही थी, मगर अपने क्षणिक स्वार्थ में आकर मैंने दरवाज़ा नहीं खोला और उनके सुहाग को मौत के मुंह में धकेल दिया...” अर्पिता फूट-फूट कर रोने लगी. उसकी आपबीती सुन मैं भी अपने आंसू नहीं रोक पाई.
“क्या बताऊं नीलू, आज तक अपने कंधे पर उस गुनाह का बोझ ढो रही हूं... आंटी जब तक मेरे पड़ोस में रहीं, मुझे अपना सबसे बड़ा हितैषी समझती रहीं और मैंने... उनका सब कुछ छीन लिया...”
“ऐसा मत बोल अर्पिता... तुझे क्या पता था कि वो किस मुसीबत में हैं...”
“इसी बात का तो दुख है नीलू, मुसीबत पहले से बता कर तो नहीं आती... और जब वो मुझे अपना समझ सहायता लेने आईं तो मैंने उन्हें ख़ुद तक पहुंचने का मौक़ा तक नहीं दिया... उस दिन के बाद वो कभी मेरे घर नहीं आईं, मेरे दरवाज़े पर उनकी वो अंतिम दस्तक आज भी मेरे कानों में गूंजती है... उस दस्तक ने मेरा जीवन के प्रति नज़रिया ही बदल दिया... जिन सामाजिक मूल्यों की मैं खिल्ली उड़ाती थी, उनका गहन अर्थ समझ आ गया... धीरे-धीरे मैंने अपने आस-पास के लोगों को सम्मान की दृष्टि से देखना शुरू किया और पाया कि एक-दूसरे के सुख-दुख बांटने से... एक-दूसरे के काम आने से कितना रस घुल जाता है जीवन में.
उन्हीं दिनों मेरी मुलाक़ात राज से हुई, मेरे ऑफ़िस में उनकी नई पोस्टिंग थी. वो शक्ल-सूरत, रंग-ढंग में साधारण थे, मगर उनके ऊंचे विचारों और सहायता जैसे गुणों ने मुझे बेहद प्रभावित किया. हम क़रीब आये और फिर हमने शादी कर ली. आज मैं अपनी गृहस्थी और अपने समाज में बेहद सुखी हूं, मगर आंटी की उस अंतिम दस्तक की फांस दिल में कुछ ऐसी चुभी है कि निकाले नहीं निकलती.” मैंने अर्पिता के हाथों को थाम लिया. ये तीन-चार दिन कैसे निकले पता ही नहीं चला. हमने जी भर बातें की, अपने खट्टे-मीठे अनुभव बांटे, मगर अर्पिता के दिल में चुभी वो फांस मैं भी नहीं निकाल पाई.
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