मेरे मस्तिष्क में विचारों का बवंडर चल रहा था. कभी आंखों के आगे तन्वी का चेहरा आता, तो कभी मीता का. हर विषय के चार तर्क पक्ष में और चार विपक्ष में प्रस्तुत कर इंसान को क्यों असमंजस में डाल दिया जाता है?
मैं सोच रही थी कि इतने दिनों बाद अपनी प्रिय सहेली मीता के घर अचानक पहुंचकर उसे सुखद सरप्राइज़ दूंगी, पर उसके घर के वातावरण में घुली बोझिलता ने मेरे उत्साह पर पानी फेर दिया था. शिथिल क़दमों से मैं भी उसके पीछे-पीछे चाय बनवाने रसोई में पहुंच गई थी. थोड़ा-सा कुरेदते ही लावा उबलकर बाहर फूट आया था.
“मैं और सनत काफ़ी समय से ‘बच्चा पैदा करें या ना करें’ इस बात को लेकर असमंजस में थे, क्योंकि दोनों ही अपने-अपने करियर में अभी तक व्यवस्थित नहीं हो पाए हैं. अब जब मेरी कंपनी ने महिलाकर्मियों को एग फ्रीज़िंग की सुविधा दे दी है, तो हमने राहत महसूस की कि चलो इस काम को फ़िलहाल टाला जा सकता है. लेकिन मम्मीजी को पता चला, तो नाराज़ हो गईं. उनके अनुसार, हर काम उचित व़क्त पर किया जाना ही बेहतर होता है. वे घर में कब से बच्चे की किलकारी सुनने को तरस रही हैं. उनके अनुसार, मेरी डिलीवरी से लेकर बच्चे के पालन-पोषण तक की सारी ज़िम्मेदारी जब वे ओढ़ने को तैयार हैं, तो हम उन्हें इस सुख से क्यों वंचित रख रहे हैं?
वे कहती हैं कि जब वे नहीं रहेंगी, हम दोनों की भी बच्चे पैदा करने व पालने की उम्र नहीं रहेगी, तब फ्रीज़्ड एग से बच्चा पैदा करने का क्या औचित्य? और वह भी तब, जब इसमें सफलता का प्रतिशत 20 या 25% ही है.”
“बात तो उनकी सही है.” सारी बात जानकर मैं भी सोच में पड़ गई थी.
“लेकिन हम तो फिर से असमंजस में आ गए न?”
मीता की समस्या का मेरे पास कोई समाधान न था. घर लौटते-लौटते तन्वी के होमवर्क की चिंता में मीता की समस्या मेरे दिमाग़ से पूरी तरह निकल गई थी. घर में घुसते ही मैंने पुकार लगाई, “तन्वी, आज का होमवर्क?”
“इंग्लिश टीचर ने इंटरनेट पर आर्टिकल दिया था.”
“अरे, वह तो बहुत आसान है. पहले नेट के सब फ़ायदे लिख दो, जैसे- इससे एक क्लिक पर ही किसी भी विषय से जुड़ी समस्त जानकारी एक सेकंड में मिल जाती है, समय की बचत, पचासों क़िताबें जुटाने, खंगालने की माथापच्ची नहीं... फिर इंटरनेट से होनेवाली हानियां... बच्चों की क्रिएटिविटी ख़त्म, नेट पर अति निर्भरता... आदि-आदि.”
“वो सब मैडम ने बता दिया था ममा, मैंने लिख भी लिया है.” मेरे धाराप्रवाह भाषण को बीच में ही रोकने का प्रयास करती तन्वी बोल उठी.
“तो फिर क्या समस्या है?” मैं हैरान थी.
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“मैंने कब कहा कोई समस्या है? पर मेरे दिमाग़ में एक उलझन है. मैडम जब भी लिखने को कोई विषय देती हैं, तो पहले पक्ष में तर्क देती हैं, फिर विपक्ष में और अंत में उपसंहार लिखवाकर मंझधार में छोड़ देती हैं. कोई यह तो बताए इंटरनेट प्रयोग करना चाहिए या नहीं? डेमोक्रेटिक सिस्टम सही है या नहीं? विज्ञान अभिशाप है या वरदान?”
एक टीचर होने के नाते मैं तन्वी के सारे सवालों के जवाब दे सकती थी, लेकिन वह सब तो ‘उपसंहार’ के तहत उसकी टीचर उसे पहले ही बता चुकी थी. मुझे एक मां की तरह उसकी समस्या का सटीक समाधान प्रस्तुत करना था और उसके लिए मैं स्वयं को पूरी तरह प्रस्तुत नहीं कर पा रही थी. तन्वी अपने कमरे में जा चुकी थी. मैं शिथिल तन-मन से रसोई के काम निपटाने लगी. सवेरे स्कूल जाने की जल्दी में मैं अक्सर खाने की आधी तैयारी रात में ही कर लेती हूं.
प्रिंसिपल मैडम ने हमेशा की तरह आज की मीटिंग में भी मुझे सम्मिलित कर एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंपी थी. विषय था- स्कूल में सेक्स एजुकेशन आरंभ करना. कुछ टीचर्स ने दबी ज़ुबान में विपक्ष में तर्क रखे. पर चूंकि ऊपर से निर्देश थे, इसलिए पक्ष में तर्क रखते हुए इसे तुरंत प्रभाव से लागू करने का आदेश जारी कर दिया गया और प्रिंसिपल मैडम की प्रिय सहेली और विश्वासपात्र होने के नाते यह ज़िम्मेदारी भी मुझे सौंप दी गई. मेरे मस्तिष्क में विचारों का बवंडर चल रहा था. कभी आंखों के आगे तन्वी का चेहरा आता, तो कभी मीता का. हर विषय के चार तर्क पक्ष में और चार विपक्ष में प्रस्तुत कर इंसान को क्यों असमंजस में डाल दिया जाता है? यहां तो ठीक है ऊपर से निर्देश हैं, इसलिए मानना ही है, अन्यथा निर्णय लेना वाकई में कितना मुश्किल हो जाता है? अपनी सोच में लीन मुझे ध्यान ही नहीं रहा प्रिंसिपल का रूम कभी का खाली हो चुका था.
“तमन्ना, कुछ परेशानी है?” प्रिंसिपल मैडम ने पुकारा, तो मेरी चेतना लौटी.
“देखो, प्रिंसिपल होने के अलावा मैं तुम्हारी दोस्त भी हूं. स्कूल की परेशानी हो या व्यक्तिगत परेशानी तुम मुझसे शेयर कर सकती हो.”
“मैं सोच रही थी कि यह सेक्स एजुकेशन वाकई में बच्चों के लिए सही साबित होगी या नहीं? दरअसल, बच्चों को समझाने से पहले मैं स्वयं आश्वस्त हो जाना चाहती हूं. उन्हें दुविधा में रखना मुझे उचित नहीं लगता.”
“बिल्कुल-बिल्कुल. तो मैं तुम्हें बताती हूं कि लगभग 30 प्रतिशत बच्चे ऐसे होंगे, जिन्हें इस शिक्षा से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि वे पहले ही इंटरनेट आदि संसाधनों से इस बारे में पर्याप्त जानकारी जुटा चुके हैं. 2 से 5 प्रतिशत बच्चे इस जानकारी का दुरुपयोग कर सकते हैं. गर्भनिरोधक तरीक़ों आदि की जानकारी से वे ग़लत राह पर जा सकते हैं...”
मैं हैरानी से प्रिंसिपल मैडम की बात सुने जा रही थी. जब वे जानती हैं कि बच्चे इस जानकारी का नाजायज़ फ़ायदा उठा सकते हैं, तो फिर भी इसे लागू करने को क्यों तत्पर हैं? मेरी मानसिक ऊहापोह से सर्वथा अनजान वे अपना पक्ष रखे जा रही थीं.
“लेकिन हमें इसे लागू करना है उन शेष 65 प्रतिशत बच्चों के लिए, जो किसी न किसी कारण से इस तरह के ज्ञान से सर्वथा अनजान हैं. उन्हें गुमराह होने से बचाने के लिए उन्हें यह जानकारी देना बेहद ज़रूरी है. एक बात और समझ लो, हमारा काम मात्र यह शिक्षा देना व इसके गुण-दोष गिनाना है. कौन या कितने इसका सदुपयोग या दुरुपयोग कर रहे हैं, इसके लिए हम ज़िम्मेदार नहीं हैं.”
“लेकिन मैडम उन्हें कौन-सी राह अपनानी चाहिए, कौन-सी नहीं, यह मार्गदर्शन करना हमारा कर्त्तव्य है.”
“तमन्ना, हम एक निर्णय या निष्कर्ष सब पर कैसे थोप सकते हैं? हर इंसान की रुचि, स्वभाव, परिस्थितियां भिन्न-भिन्न होती हैं. कोई एक निर्णय सब पर थोपकर एक जैसे परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती. यह विज्ञान नहीं, मनोविज्ञान है. जिसकी प्रयोगशाला अतिविस्तृत है. पूरा संसार ही इसकी प्रयोगशाला है. यहां एक ही परीक्षण अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न परिणाम देता है. इसलिए सबको एक ही लाठी से हांकना नादानी है. हर इंसान को अपने स्वभाव, परिस्थिति और समय के अनुसार अपनी राह स्वयं चुननी होगी.”
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प्रिंसिपल की बातों को सुन मेरी उलझन भी कम होने लगी थी. मेरी सोच का दायरा व्यापक होने लगा था. हां, शायद अब मैं तन्वी के सवालों के जवाब दे सकती हूं. उसकी समस्त शंकाओं का निवारण कर सकती हूं. मैं जान गई हूं कि उसे इंटरनेट का प्रयोग रोकने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह उसका प्रयोग सीमित समय के लिए और सही कार्य के लिए करती है. मैं उस पर पूरी निगरानी रखती हूं. मैं जान गई हूं कि मीता को एग फ्रीज़िंग सुविधा का लाभ उठाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उसकी सास उसके बच्चे को ख़ुशी-ख़ुशी पाल लेगी और मीता के करियर पर कोई आंच भी नहीं आने देगी. प्रिंसिपल मैडम को तहेदिल से धन्यवाद देकर मैं बाहर निकल आई.
शाम को होमवर्क के समय जब मैंने तन्वी की सारी शंकाओं का निवारण किया, तो वह उत्साह से मेरे गले लग गई.
“आप मेरी ममा ही नहीं, सच्ची मार्गदर्शिका भी हैं. लेकिन ममा डर लगता है कि अपने लिए सही राह चुनने जितना विवेक है मुझमें?”
“क्यों नहीं, बिल्कुल है. अच्छा बताओ, अभी दीवाली पर तुम फ्लोरलेंथ अनारकली लेने की ज़िद कर रही थी. तुमने साक्षी को पहने देखा था और तुम्हें बहुत पसंद आया था. लेकिन जब मैं दिलवाने ले गई, तो तुमने लेने से इंकार कर दिया था. क्यों?”
“क्योंकि ट्रायलरूम में जब मैंने वह सूट पहनकर देखा, तो वह मुझ पर ज़्यादा नहीं जम रहा था. मैं साक्षी जितनी लंबी नहीं हूं न इसलिए... बस, तुरंत मैंने अपना इरादा बदल लिया और दूसरी ड्रेस ले ली.”
“बस, यही तो स्वविवेक है. अभी तुम्हारी उम्र ऐसे ही
छोटे-छोटे निर्णय स्वविवेक से लेने की है. जैसे-जैसे ब़ड़ी होगी, तुम्हारी सोच का दायरा विस्तृत होगा, विचारों में परिपक्वता आएगी और तुम अपने लिए बड़े और महत्वपूर्ण निर्णय भी आसानी से ले सकोगी. अपने लिए सही राह चुनते व़क्त यह अवश्य ध्यान रखना कि अधिकांश बातों के सकारात्मक के साथ-साथ नकारात्मक पहलू भी होते हैं. यह आपकी क़ाबिलीयत है कि आप कितना सकारात्मक पक्ष ग्रहण करते हैं. तुमने वह दोहा तो सुना ही होगा ‘सार सार को गहि रहे थोथा देइ उड़ाय’ अर्थात् किसी भी चीज़ की अच्छी बात रख लो और थोथी यानी खोखली बातें उड़ा दो.” तन्वी को सोच में डूबा देख मैं रुक गई.
“क्या हुआ? फिर कोई समस्या है?”
“नहीं, समस्या नहीं, बल्कि मुझे समाधान सूझ रहा है. अगली कक्षा में हम सभी को भी कोई न कोई विषय चुनना है. आज टीचर सभी विषय और उनसे जुड़े करियर के बारे में बता रही थी और हमेशा की तरह अंत में हमें असमंजस में छोड़कर निकल गई कि अब आप निश्चित करें कि आपको कौन-सा विषय चुनना हैं. मैं तो खीज ही उठी थी, लेकिन अब सोच रही हूं कि वे सही थीं. अपनी पसंद और क़ाबिलीयत के अनुसार निर्णय तो हमें ही लेना होगा. चूंकि मुझे मैथ्स पसंद है, पर साइंस नहीं, तो क्यों न फिर मैं कॉर्मस ले लूं. इसमें करियर के अच्छे विकल्प भी हैं. नेट पर और सर्च करती हूं.” तन्वी इंटरनेट पर व्यस्त हो गई थी.
बेटी के भविष्य के प्रति आश्वस्त मैं उसकी आत्मनिर्णय की बढ़ती क्षमता को मुग्ध भाव से निहारे जा रही थी.
संगीता माथुर
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