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कहानी अस्तित्व (Short Story- Astitav 2)


 
 
मेरी सारी ग़लतियों की सज़ा मां ने मुझे स़िर्फ एक बार में ही दे दी थी, जब एक महीने तक मां मृत्यु और जीवन से संघर्ष कर रही थीं और मैं एक ही शहर में रहते हुए भी अंजान थी. मां, तुम अपने साथ मेरा वजूद, अहंकार, दंभ सब कुछ ले गयी. तुम अनाथ थी ही नहीं मां, तुम हमें अनाथ कर गई.


 
 
 
फ़ोन की घंटी अचानक बज उठी. हर्ष की नींद न टूट जाए, इसलिए मैंने जल्दी से फ़ोन उठाया. मेरे ‘हैलो’ कहते ही पापा का घबराया हुआ स्वर उभरा, “निशा बेटे, जितनी जल्दी हो सके, आ जाओ. तुम्हारी मां की तबियत बहुत ख़राब है.”
उनकी आवाज़ सुनते ही मैं समझ गयी कि ज़रूर कोई चिंता वाली बात है, वरना पापा ऑफ़िस जाने के समय घर पर! ऐसा लग रहा था जैसे बहुत रोए भी हैं.
मैंने जल्दी से ‘हां’ कहकर फ़ोन रखा. हर्ष के कुछ ज़रूरी सामान बैग में रखकर मैं टैक्सी से घर की ओर चल पड़ी. अभी एक महीने पहले ही तो मायके से लौटी थी, तब तो मां ठीक थी. फिर अचानक ऐसा क्या हो गया?
घर पहुंचते ही मैं सीधे अन्दर की ओर दौड़ी, मां अपने बेडरूम में ही थीं. पापा और सुशान्त वहीं खड़े थे. सुशान्त हॉस्टल से घर आया हुआ है, इसका मतलब बात ज़्यादा ही सीरियस है.
मैंने मां की ओर देखा. मां एकटक मुझे ही देख रही थीं. “अब कुछ बोलोगी भी, ये एक महीने में क्या हालत बना ली है अपनी?” मैं हमेशा की तरह मां से झुंझला कर ही बोल रही थी.
मां ने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था, तभी पापा डॉक्टर के साथ अंदर आ गए. चेकअप के बाद डॉक्टर ने मां को ‘मृत’ घोषित कर दिया. मैं अचंभित थी कि ऐसा क्या हो गया कि मां हम सबको छोड़कर चली गईं.

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मैंने भागते हुए डॉक्टर को रोका, “क्या हुआ था मेरी मां को?”
“आपको नहीं मालूम कि उन्हें कैंसर था? जो इतनी देर से पता लगा कि कुछ करने को बचा ही नहीं.” डॉक्टर तो चले गए, पर मुझ पर एक प्रश्‍नचिह्न लगा गए. पापा चुपचाप एक तरफ़ खड़े थे. मैं उनके पास जाकर खड़ी हो गयी, “मुझे क्यों नहीं बताया आपने?”
“तुम्हारी मां ने ही मना किया था. कहने लगी हर्ष बहुत छोटा है. उसे कोई इंफेक्शन हो गया, तो वो जीते जी मर जाएगी. और तुम्हें भी वो परेशान नहीं करना चाहती थी.” पापा उदास थे, इसलिए मैं चुप लगा गयी. लेकिन मां की यही सब महानता मुझे अच्छी नहीं लगती. इतना भी नहीं सोचा कि मैं कितना तड़पूंगी उनके बिना.
ऐसा नहीं था कि मैं मां से प्यार नहीं करती थी. मैं शुरू से ही मुंहफट और ज़िद्दी थी. मां से भी हमेशा झुंझलाकर ही बात करती थी.
मैंने घर में मां का वर्चस्व हमेशा निम्न देखा. कभी उन्हें अपने अधिकारों का प्रयोग करते नहीं देखा. हमेशा हर बात वो पापा से पूछ-पूछ कर ही करतीं, मेरी सहेलियों की मां जैसी मेरी मां एकदम नहीं थी. मेरी कभी उनसे बनती नहीं थी. पापा के अतिशय लाड़ ने मुझे बिगाड़ दिया था, अपनी हर बात मनवाना मेरा स्वभाव बन गया था.
मेरी शादी के समय भी मां के चेहरे पर सब कुछ था, अगर कुछ नहीं था तो वो अधिकारभाव था. हर काम ताई से, पापा से पूछ-पूछ कर ही कर रही थीं, यहां तक
कि शादी की शॉपिंग भी मैंने और पापा ने ही की थी.
फिर जब हर्ष होने वाला था तब राजीव मुझे मायके छोड़ गए थे. मां मेरी बहुत सेवा करतीं, पर मैं रोज़ाना ही उनसे उलझ पड़ती.
एक दिन मां फ़ोन पर बातें कर रही थी, प्रसव संबंधी हर छोटी से छोटी बात दो-तीन बार पूछ रही थीं. बस, इतनी-सी बात पर मेरा मूड उखड़ गया और मैंने मां को ख़ूब बातें सुना दीं, “दो बच्चों की मां होकर भी तुम इतनी सामान्य बातें पूछ रही हो. जो सुनेगा, वो ही तुम पर हंसेगा. शायद तुम हमारी देखभाल ही नहीं करना चाहती.”
बाद में मुझे बहुत ख़राब लगा था, फिर मैंने मां से माफ़ी भी मांग ली थी. हर्ष के जन्म के समय मां अत्यन्त प्रसन्न थीं. सब कुछ ठीक ही तो था, मां थोड़ी थकी-थकी-सी लगती थीं. लेकिन इतना कुछ घट जाएगा, ये सोचा न था.
ताईजी की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी. मां को हॉल में लिटा दिया गया. ताईजी मुझसे मां की साड़ी मांग रही थीं.
मैं दुखी मन से मां की आलमारी में से साड़ी निकालने लगी. एक सुर्ख लाल रंग की साड़ी हाथ में आई. कई बार मां को ये साड़ी करवा चौथ पर पहनते देखा था. मैंने वही निकाल ली, तभी साड़ी में से एक डायरी निकल कर मेरे पैरों के पास गिरी.
मां की आलमारी से डायरी मिलना घोर आश्‍चर्य था, क्योंकि मैंने मां को कभी पढ़ते-लिखते नहीं देखा था. पढ़ने की उत्कंठा चरम पर थी, पर समय अनुकूल नहीं था, इसलिए डायरी अपने कमरे में रख मैं पुनः हॉल में आ गयी.

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फिर जैसे सब कुछ यंत्रवत् होता गया. मां का पार्थिव शरीर अंतिम क्रियाकर्म के लिए ले जाया गया. राजीव मेरे साथ ही थे, हर्ष को उनके पास सुलाकर मैं चुपचाप डायरी लेकर बालकनी में बैठ गयी.
डायरी का हर पृष्ठ जैसे मोती के अक्षरों से भरा था. ऐसे लगता था जैसे ये डायरी ही मां की सहेली हो. पहले पन्ने पर मम्मी-पापा की शादी की तारीख़ पड़ी थी, मां ने वहीं से लिखना शुरू किया था-
आज मेरी शादी है, पता नहीं, कैसे लोग होंगे? मैंने तो आज तक परिवार नहीं देखा, क्या मैं विवाह के बाद की ज़िम्मेदारियों को निभा पाऊंगी? जब से होश संभाला है, ख़ुद को अनाथाश्रम में ही पाया. वार्डन दीदी के आदेशों का पालन किया. अधिकार प्रयोग करने से डर लगता है. फिर कुछ पन्ने खाली थे. उसके बाद मां ने फिर लिखा- दीपक बहुत अच्छे इंसान हैं. इतने अच्छे कि सुहागरात के दिन ही निशा और सुशांत का दायित्व मुझे सौंपते हुए कहा, ‘मैं चाहता तो किसी भी लड़की से विवाह कर सकता था, पर मां विहीन तुम इनकी तकलीफ़ों को बेहतर समझोगी, इसलिए तुमसे शादी की. सुमन मैं अब पिता नहीं बनना चाहता.’ मैंने भी मूक सहमति दे दी थी.
मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा था, लेकिन अगर आगे नहीं पढ़ूंगी तो.. मां का इतना बड़ा राज़ हमसे छिपा था.
“निशा और सुशांत बड़े हो गए हैं. सुशांत हॉस्टल चला गया है. निशा की शादी में बड़ा अरमान था कि शॉपिंग करूं, पर दीपक ने कहा, ‘तुम्हें अनुभव नहीं है, रहने दो.’ मन हुआ कि कहूं मुझे तो बच्चे पालने का भी अनुभव नहीं था, फिर भी आपने मुझसे शादी तो की न.
निशा मुझमें बड़े घर की औरतों के हाव-भाव ढूंढ़ती है. कभी मेरी बेटी बनकर मेरे क़रीब नहीं आई. हमेशा उखड़ी रहती है. अब मैं उसे कैसे समझाऊं कि उसके प्रसव की पीड़ा, तकलीफ़ कुछ भी तो मैं नहीं बांट सकती और न ही कोई झूठा दिलासा दे सकती हूं, जब मैंने वो दर्द सहा ही नहीं तो बांटूंगी कैसे?
निशा मां बन गयी है. कितना कोमल स्पर्श है मुन्ने का. निशा कितनी ख़ुश थी. क्या मां बनने के बाद ऐसी ही प्रसन्नता होती है?

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फिर कुछ पन्ने खाली थे. शायद मां को समय नहीं मिला था.
मां ने आख़िरी पन्ने पर लिखा था, आजकल बहुत जल्दी थक जाती हूं, काम नहीं कर पाती. सोचती हूं दीपक के साथ डॉक्टर के पास जाऊं, पर अभी घर में सब कितने ख़ुश हैं निशा और मुन्ने के साथ! मेरी तबियत का सुनकर सब परेशान हो जाएंगे, बाद में बताऊंगी. उसके बाद की पूरी डायरी खाली थी. मैं स्तब्ध थी. मेरी सारी ग़लतियों की सज़ा मां ने मुझे स़िर्फ एक बार में ही दे दी थी, जब एक महीने तक मां मृत्यु और जीवन से संघर्ष कर रही थीं और मैं एक ही शहर में रहते हुए भी अंजान थी. मां, तुम अपने साथ मेरा वजूद, अहंकार, दंभ सब कुछ ले गयी. तुम अनाथ थी ही नहीं मां, तुम हमें अनाथ कर गई.
मैं मां से बार-बार माफ़ी मांग रही थी, पर आज मां मेरे पास नहीं थी, मैं ‘अस्तित्वविहीन’ हो मां के ‘अस्तित्व’ में ही स्वयं की तलाश कर रही थी.

रुपाली भट्टाचार्य


 

 
 
 

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