"… मैं तुम्हें पतिव्रता नहीं मान सकता, कदापि नहीं, तुमने मुझसे धोखा किया है. सात फेरे लेते समय मेरे सुख-दुख में सहभागी होने का वचन दिया था न तुमने? कहां गया तुम्हारा वो वचन? झूठी… मिथ्याभाषिणी… बड़ी चालाक हो तुम तो. सुख के सारे दिन मेरे साथ काट लिए. अब, जब बुढ़ापे का कष्ट भोगना है तो मुझे अकेला छोड़, मुझसे दामन बचाकर चली गईं. किसके सहारे काटूंगा बुढ़ापे का अकेलापन?"
मुझे पान खाने की आदत लगा दी और खुद चली गयी. बेवफ़ा… अब… अब कभी पान नहीं खाऊंगा. लो, रखो अपना पान. हो सके तो… तो ले जाओ अपने साथ…." बाबूजी ने पान की डलिया जोर से आंगन में फेंक दी और वहीं लड़खड़ाकर बैठ गये, आंगन में झन्न से ढेर सारी चीजें बिखर गयीं. चूने का डिब्बा, कत्थे का कटोरा, कटी सुपारी, जर्दा, लौंग और पान के बीसियों पत्ते….
"बाबूजी!" रोती हुई स्नेहा ने उन्हें संभालना चाहा.
"छोड़… छोड़ मुझे, मैं ठीक हूं. बिल्कुल ठीक." कहते हुए रामेश्वर दयाल आंगन से बाहर निकल गये. उनका हृदय फटा जा रहा था. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? कभी मन करता जोर-जोर से रोने लगें, कभी अपना सिर पीट डालने का जी करता, बेचैनी से दोनों हथेलियों को मलते हुए वो अंदर-बाहर चहलकदमी कर रहे थे. आंगन में ढेर सारे लोगों की भीड़ जमा थी. कल रात रामेश्वर दयाल की पत्नी प्रियंवदा की हृदयगति रुक जाने के कारण मौत हो गयी थी. बावन वर्षीया प्रियंवदा एक हंसमुख और स्वस्थ महिला थीं, कहते हैं न कि जन्म और मृत्यु पर किसी का वश नहीं चलता. शायद इसीलिए पहले ही हृदयाघात में वो चल बसीं. जो भी सुनता, दांतों तले उंगली दबा लेता. अरे! कल ही तो उन्हें देखा था, और आज…?
रामेश्वर दयाल और प्रियंवदा के तीन बच्चे थे.
बड़ी बेटी स्नेहा, उससे छोटा सुहास और सबसे छोटा सोमेश तीनों बच्चों की शादी हो चुकी थी. बहुत सुखी परिवार था उनका. आज्ञाकारी बेटे, सेवाभावी- विनम्र बहुएं, जो भी देखता, उनकी क़िस्मत पर ईर्ष्या करता.
"बाबूजी! चलिए… मां का अंतिम दर्शन कर लीजिए. फिर उन्हें…" आगे के शब्द सुहास के आंसुओं में बह गये, उसने जड़वत बैठे पिता को सहारा देकर उठाना चाहा.
"क्यों? क्यों कर लूं दर्शन? क्यों देखूं उस धोखेबाज़ का चेहरा? बोल. बीच मझधार में छोड़ गयी मुझे…" रामेश्वर बाबू ने क्रोध से कहा, पर आवाज़ में कम्पन स्पष्ट था. शरीर थरथरा रहा था.
"चलिए न बाबूजी…" स्नेहा के सब्र का बांध टूट गया. हिचकियां ले-लेकर रोती स्नेहा के कंधों का सहारा लेकर वो आंगन में चले गये, बीच आंगन में प्रियंवदा का नश्वर शरीर जमीन पर रखा हुआ था. उनके मन में जैसे झंझावात उठने लगे. लाल बनारसी साड़ी, भर मांग सिन्दूर, बड़ी-सी बिन्दी, पैरों में महावर, चूड़ियों से भरी कलाई… कितनी सुंदर लग रही है प्रियंवदा आज, ऐसा लगता है जैसे सारा सौन्दर्य सिमटकर उसमें समाहित हो गया हो…. रामेश्वर बाबू प्रियंवदा को निहारते ही रह गए, आंखें पथरा सी गयीं, मन हाहाकार कर उठा. "क्यों छोड़ गयीं मुझे? किसके भरोसे? ऐसे समय में दगा दे दिया जब मुझे तुम्हारी सख्त जरूरत है. लोग तुम्हारे पांव छू रहे हैं. पतिव्रता मान रहे हैं सब तुम्हें, पर, पत्थर…
मैं तुम्हें पतिव्रता नहीं मान सकता, कदापि नहीं, तुमने मुझसे धोखा किया है. सात फेरे लेते समय मेरे सुख-दुख में सहभागी होने का वचन दिया था न तुमने? कहां गया तुम्हारा वो वचन? झूठी… मिथ्याभाषिणी… बड़ी चालाक हो तुम तो. सुख के सारे दिन मेरे साथ काट लिए. अब, जब बुढ़ापे का कष्ट भोगना है तो मुझे अकेला छोड़, मुझसे दामन बचाकर चली गईं. किसके सहारे काटूंगा बुढ़ापे का अकेलापन?"
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"बाबूजी!" सोमेश ने जड़वत खड़े पिता को झकझोरा, "चलिए, सब ट्रक में बैठ चुके हैं. देरी करेंगे तो लौटने में रात हो जाएगी." रामेश्वर बाबू ने कुछ नहीं कहा. कुर्सी पर रखा अपना तौलिया उठाया और ट्रक पर बैठ गये. सब रिश्तेदारों का विचार था
कि रामेश्वर बाबू को ही पत्नी का अंतिम संस्कार करना चाहिए, "शास्त्रों में भी लिखा है कि पति के हाथों अनि मिलने पर पत्नी स्वर्गगामिनी होती है. इसलिए आप ही अग्नि दें रामेश्वर भैया." पड़ोसी हरप्रसाद जी ने कहा, "नहीं. सुहास ही असि देगा." कहकर वे घाट पर रखे एक बड़े से पर बैठ गये. सब लोग आश्चर्य से उनका निर्विकार चेहरा देख रहे थे, कैसा व्यक्ति है, एक बूंद आंसू भी नहीं है इसकी आंखों में? और जलती चिता को देखकर वो सोच रहे थे, "कितनी आसानी से सबने कह दिया, रामेश्वर बाबू! अग्नि पति के हाथों से ही मिलनी चाहिए, पर किसी को क्या मालूम, ऊपर से कठोर और भावहीन दिखनेवाला मैं… मैं रामेश्वर दयाल, भीतर से कितना कमज़ोर हो गया हू. कैसे ख़ुद अपने हाथों से अपनी प्रिया के शरीर को भस्मीभूत कर दूं? माना उसका शरीर मिट्टी हो गया, प्राणहीन हो गया. पर हमारा रिश्ता, हमारा प्रेम और ख़ुद मैं तो प्राणहीन नहीं हूं. वो सारे बंधन तोड़कर चली गयी, पर मैं तो अभी-भी जकड़ा हुआ हूं मोह और सांसारिक बंधनों में, जब तक जिंदा रहूंगा, उसके लिए तड़पता रहूंगा, शायद मेरे कटु व्यवहार का ही इतना बड़ा दण्ड दे गयी प्रियंवदा मुझे." रामेश्वर बाबू की आंखें तो भावहीन थीं, पर हृदय मानो सावन की घटा का दूसरा पर्याय बन गया था.
रामेश्वर बाबू अपने कठोर व्यवहार के कारण शुरू से ही लोगों के बीच घुल-मिल नहीं पाये थे. बात-बात पर गुस्सा, हर क्षण क्रोध, मानो दुर्वासा का दूसरा जन्म उन्हीं के रूप में हुआ हो. विधवा मां और भाई-बहन उनके व्यवहार से दुःखी रहते थे. कब किस बात पर बिगड़ उठेंगे, किसे मार बैठेंगे, पता नहीं. उनकी मां परेशान रहतीं, कौन लड़की निभा सकेगी इस दुर्वासा के साथ? पता नहीं, मेरे घर-आंगन में पायल की झनकार गूंजेगी या वधू की सिसकियां? बहुत चुनकर मां ने प्रियंवदा को बहू के रूप में स्वीकार किया था.
प्रियंवदा दुलहन बनकर आयी तो उसने घर के सभी सदस्यों का मन जीत लिया, पर रामेश्वर बाबू ? उनकी प्रकृति कहां बदलनेवाली थी? होशियार प्रियंवदा ने समझ लिया था कि जन्मजात स्वभाव बदला नहीं जा सकता, पर उसमें थोड़ा-सा परिवर्तन जरूर लाया जा सकता है, वो पति की किसी भी बात का बुरा नहीं मानती थीं. न कभी पलटकर जवाब ही देती थीं.
रामेश्वर बाबू घर की बड़ी संतान थे. पिता की असमय मौत से बहुत छोटी-सी उम्र में ही घर की जिम्मेदारियों का बोझ उनके कंधों पर आ गया था, जिसके कारण उनका डॉक्टर बनने का सपना धराशायी हो गया और वे क्लर्क बनकर रह गये, उनकी हताशा ने धीरे-धीरे क्रोध का रूप ले लिया और उनका स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया. भाई-बहन, यहां तक कि मां भी उनसे बात करने में कतराती थीं, शादी के बाद फ़र्क सिर्फ इतना ही पड़ा कि रामेश्वर बाबू की क्रोधाग्रि का केन्द्र प्रियंवदा बन गयी, दाल में जरा-सा नमक तेज हो जाता या सब्ज़ी में थोड़ा-सा कम हो जाता तो वे थाली उठाकर आंगन में पटक देते थे. प्रियंवदा मनुहार कर करके थक जाती, पर क्या मजाल, जो एक कौर भी खा लेते.
प्रियंवदा की सास पान खाने की बड़ी शौक़ीन थीं. उनका पानदान हमेशा उनके पास ही रहता. जब प्रियंवदा शादी होके आयी तब उसने घर के साथ सास का पानदान भी संभाल लिया और सास के लिए पान लगाते-लगाते कब खुद भी पान खाने लगी, पता ही नहीं चला, रामेश्वर बाबू उसे पान खाते देखते तो आगबबूला हो जाते. एक दिन बोले, "ये क्या बाजारू औरतों की तरह पान चबाने लगीं? भले घर की औरतें पान खाती कभी अच्छी लगती हैं क्या?"
"क्यों" प्रियंवदा का सर्वांग पहली बार सुलग उठा.
"पान खाने में बाज़ारूपन कैसा? क्या भले घर की औरतें अपनी इच्छा से कुछ खा भी नहीं सकतीं?"
"चुप रह! ज्यादा जबान लड़ाने की जरूरत नहीं."
रामेश्वर बाबू पैर पटकते हुए बाहर चले गये, पर प्रियंवदा ने मन-ही-मन कुछ ठान लिया "अच्छा जी! आपको भी पान खाने की आदत न लगा दी, तो मेरा नाम प्रियंवदा नहीं."
दूसरे दिन जैसे ही वो खाना खाकर ऑफ़िस जाने लगे, प्रियंवदा पान की तश्तरी उनके सामने रखते हुए बोली, "खाना खाने के बाद पान खाना सेहत के लिए अच्छा होता है. लीजिए," रामेश्वर बाबू की त्यौरियां चढ़ गयीं. उन्होंने जोर से तश्तरी जमीन पर पटक दी. "तुम्हारी इतनी हिम्मत? तुमने मुझे जोरू का गुलाम समझ रखा है क्या? नहीं खाना मुझे पान-वान," कहते हुए वो ऑफ़िस चले गये. अब तो ये रोज़ का क्रम बन गया. जब भी वो खाना खाकर उठते, चाहे दिन हो या रात, पान की तश्तरी उनके सामने होती. कुछ दिन तो उन्होंने झल्लाकर तश्तरी पटकी, पर धीरे- धीरे उनका क्रोध कम होने लगा. अब वो केवल नज़रें तरेर कर प्रियंवदा की ओर देखते और वो हल्के से मुस्कुरा देती. इसी तरह दस-पंद्रह दिन गुजर गए, पर रामेश्वर बाबू ने पान की गिलौरी नहीं उठायी, सास अक्सर प्रियंवदा को समझातीं, "किस झमेले में फंसी है बहू? वो एक नंबर का जिद्दी है. कभी नहीं खाएगा पान." लेकिन ऐसे में प्रियंवदा की निगाहों में एक विश्वास कौंध उठता.
इधर दो दिन से रामेश्वर बाबूnदेख रहे थे कि प्रियंवदा अब खाना खाने के बाद पान नहीं लाती थी. अब वे सोचने लगे, "चलो, बहुत हुआ. उसका मन रखने के लिए पान खा ही लूंगा तो क्या बिगड़ जाएगा? पर प्रियंवदा ने तो पान की बाबत पूछना भी छोड़ दिया था. अब वो जब भी प्रियंवदा को पान खाते देखते, उनका मन भी पान खाने को करने लगता. एक दिन खुद ही पूछ बैठे, "तुमने पान लाना क्यों छोड़ दिया?"
"क्यों खाना है क्या?" प्रियंवदा ने पूछा. "नहीं, खाना नहीं है. मान लो, खाना भी है, तो क्या तुमसे पूछ कर खाऊंगा? मेरा घर है और मैं जो चाहूं, खा सकता हूं." रामेश्वर बाबू चिढ़कर बोले. प्रियंवदा चुपचाप तश्तरी में पान ले आयी. रामेश्वर बाबू मुंह में पान दबाते हुए बोले, "ऐसा मत समझना कि तुम्हारे कहने से पान खा रहा हूं. मेरा मन है, इसलिए खा रहा हूं, समझी?"
बस उसी दिन से उन्हें पान की या लत लग गई.
इसी बीच प्रियंवदा तीन बच्चों की मां भी बन गयी, पर रामेश्वर बाबू के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. वही बात-बात पर झल्लाना, चिढ़ना, बच्चे उनके गंभीर सामने जाने से डरते थे. जरा-सी गलती पर वे रूई की तरह बच्चों की धुनाई कर देते थे.
समय का चक्र चलता रहा. दिन बीतते रहे, बच्चे कब जवान हो गये, पता ही नहीं चला, धीरे-धीरे दोनों बेटों की शादी भी हो गयी और प्रियंवदा एक प्यारे से पोते की दादी भी बन गयी, पर रामेश्वर बाबू वैसे ही रहे. वही, ढाक के तीन पात. न तो खुशी में खुश होते, न दुःख में दुःखी. अपनी मां की मौत पर भी उनकी आंखों से एक बूंद आंसू नहीं टपका. लोग पीठ पीछे कहते, "रामेश्वर बाबू तो पत्थर हैं पत्थर." पर प्रियंवदा जानती थी, उनकी आंखें ऊपर से भले ही भावहीन रही हों, पर उनका हृदय भीतर-ही-भीतर रोता रहा है. वेदना का ज्वालामुखी दहकता तो रहा है, पर फूटा नहीं है.
दोनों बहुएं स्मिता और शशि भी ससुर का बहुत लिहाज करती थीं. दिन-रात सेवा में लगी रहतीं कि कहीं कोई त्रुटि न रह जाए. पर हुए हैं."
रामेश्वर दयाल भी एक अनोखे जीव थे. कहीं-न-कहीं गलती खोज ही लेते और बिन बादल बरसात की तरह बरस पड़ते. पर प्रियंवदा हमेशा बहुओं को समझाती. एक दिन प्रियंवदा ने बहुत भावुक होकर कहा, "जानती हो बेटी, तुम्हारे ससुर ने कभी-भी गले से लगाकर अपने बच्चों को प्यार नहीं किया. पर, जब कभी बच्चे बीमार पड़ जाते उन्हें चोट लग जाती, तब वो चुपचाप सबकी नजरें बचाकर उनका माथा सहलाते या चोट पर हाथ रखकर स्नेह से उन्हें देखते रहते. खुद मैंने देखा है, जब क्रिकेट खेलते हुए सुहास के घुटने पर रूप से चोट आ गयी थी तो पहाड़ उन्होंने उसे दो-तीन थप्पड़ ऊपर से और लगा दिये थे, पर रात में सबके सो जाने के बाद न जाने कितनी देर तक सुहास के घुटने पर प्यार से हाथ फेरते रहे थे, उनका मन तो शिरीष के फूल की तरह कोमल है, बस, ऊपर से नारियल की तरह कठोर आवरण में लिपटे इसी तरह प्रियंवदा घर के हर व्यक्ति को समझाती रहती, बचपन से ही अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देती आयी थी, उसी का फल था कि दोनों बेटे माता-पिता के आज्ञाकारी थे. पिता की इज़्ज़त करते थे. वो तो प्रियंवदा ही थी, जिसके कारण पास-पड़ोस वाले भी मदद को तैयार रहते थे, अन्यथा रामेश्वर बाबू के क्रोधी स्वभाव के कारण कोई उनसे बात करना भी पसंद नहीं करता था. बात-बात पर पड़ोसियों से झगड़ पड़ते. प्रियंवदा अक्सर रोती हुई कहती भी, "लड़ो, ख़ूब लड़ो सबसे. जब देखो झिक-झिक करते रहते हो, बेटे-बहू सबको तंग करते हो. जीना मुहाल कर दिया है. देखना, जब मैं नहीं रहूंगी तो तुम्हें मेरा महत्व पता चलेगा…" बहुओं को बड़ा आश्चर्य होता. बाबूजी के ऐसे स्वभाव के बावजूद मांजी कभी उनके लिए अपशब्द न कहतीं. हमेशा उनकी प्रशंसा के पुल ही बांधती रहतीं. एक दिन छोटी बहू शशि पूछ ही बैठी, "मांजी, एक बात पूछें, बुरा तो नहीं मानिएगा? बाबूजी के इतने कटु व्यवहार के बावजूद आपको उनके साथ रहते कोई शिकायत क्यों नहीं?" प्रियंवदा के अधरों पर हल्की-सी स्मित दौड़ गयीं. बोली, "तुमने से नीचे गिरते झरनों को देखा है? कितना मधुर संगीत छिपा होता है उनके प्रवाह में! कितना मीठा पानी होता है उनका! स्फटिक की तरह स्वच्छ, मधुर, निर्मल, है न? पर राह में जब कोई शिलाखंड आ जाता है, तो झरना स्वच्छंद रूप से निरंतर प्रवाह में नहीं बहता. पूरे वेग से उस शिलाखंड से टकरा जाता है, जिससे उसकी धारा कई प्रवाहों में बंट कर छिन्न-भिन्न हो जाती है. रास्ते से भटककर उसकी धाराएं पहाड़ की गंदगियों को समेटकर स्वयं भी गंदी हो जाती हैं. लेकिन जब उस शिलाखण्ड को मार्ग से हटा दिया जाता है, तो मीठे जल का वो झरना पुनः अपने सुंदर प्रवाह के साथ बहने लगता है और अपने अमृतमय जलकणों से धरा को सिक्त कर देता है. तुम्हारे बाबूजी का मन भी पर्वत से निकले उसी निश्छल झरने की तरह पवित्र और सच्चा है. पर क्रोध, दंभ, ज़िद और हताशा ने उनके मन पर एक गंदा सा आवरण डाल रखा है. और मैं ही उनकी राह में पड़ा वो शिलाखण्ड हूं, जिससे टकराकर उनका क्रोध फूट पड़ता है… उनका प्रेम सहज नहीं हो पाता, मैं जिस दिन उनके मार्ग से हट जाऊंगी न, तब देखना उनका मीठा स्वभाव, तब देखना उस झरने का अमृतमय प्रवाह, जो तुम सबकी आत्मा को सिक्त कर डालेगा." प्रियंवदा भावुक हो उठी.
इस घटना के एक सप्ताह बाद भली-चंगी सोई प्रियंवदा सुबह मृत पायी गयीं. पहले ही हृदयाघात में वो चल बसीं. घर पर जैसे वज्रपात-सा हो गया..
धीरे-धीरे तेरहवीं भी बीत गयी. इन तेरह दिनों में किसी ने रामेश्वर बाबू को बोलते नहीं सुना. जो कुछ पूछा जाता, सिर हिलाकर हां या ना में जवाब दे देते. श्राद्ध कर्म के बाद सारे रिश्तेदार चले गये. घर में केवल दोनों बेटे, दोनों बहुएं और रामेश्वर दयाल ही रह गये.
एक दिन जैसे ही सुहास और सोमेश खाना खाने बैठे, एक कौर खाते ही चीख पड़े, "दाल में तो बहुत तेज़ नमक है. बाबूजी कैसे खाएंगे?"
"क्या?" दोनों बहुओं को जैसे सांप सूंघ गया. "पर उन्होंने तो खाना खा लिया."
"और, कुछ नहीं बोले?" दोनों भाई आश्चर्य से एक-दूसरे का मुंह देखने लगे.
"खाते समय तो कुछ नहीं कहा, पर शाम तक ज़रूर गरज
पहुंचा दिया करती थी."
दोनों बहुओं पर शाम भी रामेश्वर बाबू की आंखें भर आयीं. खाना भी खा कमरे में परिवार के थे. दूसरे दिन गोद में लेकर तरफ़ खिलौने सोमेश ने बनाने लौटकर आश्चर्य से बाबू बरामदे सहेजकर पप्पू उनकी हमसे भूल हो गयी. हमें शाम को उसने सबको यह बात बताई. सोमेश ने कहा, "शायद तश्तरी रख देने पर उन्होंने पान नहीं खाया हो. आज से तुम लोग उनके हाथ में पान दे दिया करना."
रात में खाना खाने के बाद बड़ी बहू पान की तश्तरी लेकर उनके कमरे में गयी. छोटी बहू और दोनों बेटे दरवाज़े के पास खड़े रहे. स्मिता ने तश्तरी आगे बढ़ाते हुए कहा, "बाबूजी। पान खा लीजिए.
चुपचाप नहीं जाना रामेश्वर उठाकर बहू और पास सिर पर बोले, "बेटी ले जाओ. मैं खा सकूंगा. मुझे पान थी. जब छोड़कर खाऊं, उनके हथेलियों से फूटकर रोने दोनों बेटे शांति से गुजर गयी. ने चुपचाप रात का लिया और अपने जाकर सो गये, ये पूरे लिए आश्चर्य के क्षण छोटी बहू पप्पू को खेल रही थी. चारों बिखरे पड़े थे, तभी चाय मांगी और वो चाय किचन में चली गयी आयी तो उसकी आंखें फटी रह गयीं, रामेश्वर में बिखरे खिलौनों को अलमारी में रख रहे थे. गोद में था. वह दौड़कर जेठानी को बुला लायी. दोनों खड़ी थीं, उन्हें अपनी गले से बोले आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. प्रियंवदा की मृत्यु के कुछ दिनों बाद जब बड़ी बहू पीछे का दालान साफ़ करवा रही थी, तो उसने देखा बाबूजी के कमरे की खिड़की के बाहर पान की पचासों गिलौरियां फेंकी हुई हैं. वो हैरान रह गयीं. "इतने दिनों तक बाबूजी ने पान खाया ही नहीं? मैं तो ख़ुद तश्तरी में पान रखकर उनके कमरे में आप टूट संभालेगा? बेटों को रूदन बहुएं स्तब्ध में अपनी रहे थे. सच "तुम्हारे झरने की सच्चा है.
तश्तरी रखकर चाहिए था." बाबू ने नजरें की ओर देखा आकर उसके हाथ फेरते हुए ! ये पान वापस अब पान नहीं तुम्हारी सास ने ही खाने की आदत लगायी वो ही मुझे अकेला चली गयी तो मैं क्यों पान बोलो?" आगे के शब्द आंसुओं में बह गये. वो दोनों चेहरा छिपाकर फूट- लगे, दरवाजे पर खड़े उनके पास आकर भर्राए , "बाबूजी रोइए मत. जाएंगे तो हमें कौन " रामेश्वर बाबू ने दोनों कलेजे से लगा लिया. अनवरत जारी रहा. दोनों खड़ी थीं. उनके कानों सास के कहे शब्द गूंज ही तो कहा था उन्होंने, बाबूजी का मन तो पहाड़ी तरह पवित्र, निश्छल और मैं उनके मार्ग में पड़ा शिलाखण्ड हूं. जिस दिन मैं नहीं रहूंगी… तब देखना उस झरने का अमृतमय प्रवाह, तब देखना उनका मीठा स्वभाव, तब देखना उनका ऐसा स्नेह जो तुम सबकी आत्मा को सिक्त कर डालेगा."
पूरा परिवार प्रेम के अमृतमय स्पर्श के एहसास से भावविभोर हो उठा था. उनके अतृप्त हृदय की प्यास बुझ गयी थी, क्योंकि बहुत दिनों से अवरुद्ध प्रवाह वाला झरना जो बह निकला था, "तुम्हारे बाबूजी का मन तो पहाड़ी झरने की तरह पवित्र, निश्छल और सच्चा है. मैं उनके मार्ग में पड़ा शिलाखण्ड हूं. जिस दिन मैं नहीं रहूंगी… तब देखना उस झरने का अमृतमय प्रवाह, तब देखना उनका मीठा स्वभाव, तब देखना उनका ऐसा स्नेह जो तुम सबकी आत्मा को सिक्त कर डालेगा."
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