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कहानी- बंधन टूटे ना (Story- Bandhan Toote Na)

Hindi Short Story प्रिय अनुराग, शुभाशीष! कल तुमने फ़ोन पर जो कुछ भी कहा, सुनकर क्षणभर को तो स्तब्ध रह गया मैं, फिर भयभीत हो उठा. कहीं बेटा भी आजीवन पिता की तरह दुखों के सलीब पर...? हे ईश्‍वर! ऐसा कभी न हो, यही प्रार्थना कर रहा हूं. आज तक किसी से कुछ नहीं कहा. मन की पीड़ा मन में ही समेट ली, क्योंकि दुनिया की नज़र में एक पुरुष किसी भी परिस्थिति में दुखी, पीड़ित और लाचार कहां होता है? स्त्री की वेदना सब को सहज ही दिख जाती है, पर पुरुष की पीड़ा की ये विडंबना है कि वो नितांत सच्ची होते हुए भी झूठ के आवरण से ढंक दी जाती है. बेटा, आज तुमसे बहुत कुछ बांटना चाहता हूं. जब से पता चला है कि बहू तुमसे नाराज़ होकर मायके चली गई है, तब से बेचैन हूं. किसी तरह नीति को मनाकर ले आओ बेटा. पति-पत्नी में से एक का भी दिल टूटता है, तो परिवार विखंडित हो जाता है. नन्हें अमृत के बारे में सोचो... क्या वो तुम दोनों में से एक के बिना भी अच्छा जीवन जी पाएगा? आख़िर बहू चाहती क्या है? इस प्रश्‍न का उत्तर ढूंढ़ो बेटा. ताली एक हाथ से नहीं बजती. नहीं, मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा. जानता हूं, तुम साफ़ दिल के सच्चे व संवेदनशील इंसान हो, पर बेटा, बुरा मत मानना. तुमने उसी तरह अपनी पत्नी पर हावी होने की कोशिश की है, जैसे तुम्हारी मां मुझ पर हावी हुआ करती थी. मैं जानता हूं तुम्हारी मां का मेरे प्रति व्यवहार ही तुम्हारी सोच को एकांगी बनाता रहा है. बच्चा जो देखेगा, वही तो सीखेगा न. आज बहू में मैं अपना अक्स देख रहा हूं. तुम्हारी कटु से कटु बातों को भी वो सहजता से सह लेती है. शायद अब उसकी वेदना का बांध टूट गया हो. कुछ लोग अपनी ही संवेदनाओं के मारे होते हैं, जैसा मैं था. बचपन से ही दब्बू ग़लती चाहे किसी की भी हो, मैं ही आगे कर दिया जाता था और डांट खाकर अकेला चुपचाप सुबकता रहता था. पिता का भय मेरे मन पर इतना ज़्यादा था कि उनकी एक तेज़ आवाज सुनकर मैं कांपने लगता था. मां मेरी मनोस्थिति से नितांत अनजान थीं. उनके लिए तो मैं उनके सात बच्चों में से एक था. बस, मेरा बचपन दबा-सहमा था, मैं हमेशा सोचता था, जब मैं पिता बनूंगा, तो अपने बेटे को जितना प्यार दूंगा, उतनी आज़ादी भी दूंगा. वो मुझसे डरेगा नहीं, मेरा दोस्त बनेगा. मैंने अपनी ओर से पूरा प्रयत्न किया है, कितना सफल हुआ, ये तो तुम ही बता सकते हो न? मैंने अपना दर्द तुमसे कभी नहीं बांटा, मैं तुम्हें दुख जो देना नहीं चाहता था, पर आज जब तुम उसी मोड़ पर तन्हा, उदास और किंकर्त्तव्यविमूढ़ से खड़े हो, जहां कभी मैं खड़ा था, तो एक पिता होने के नाते अपना मन तुम्हारे सामने खोलकर रख रहा हूं. जो ग़लतियां मैंने की थीं, उन्हें तुम कभी मत दोहराना. यह भी पढ़ें: हर वक्त सेल्फी लेना है ‘मेंटल डिस्ऑर्डर’ हर चीज़ की एक सीमा होती है बेटा. प्रेम, दया, क्षमा, क्रोध, सहनशीलता और मौन- सभी का. आज तुम्हारे पिता के मौन की सीमा भी टूट रही है. बहुत सहा है मैंने, बचपन से लेकर उम्र के बासठवें पड़ाव तक. पिता के कठोर अनुशासन से जो दब्बूपन मेरे भीतर जन्मा, वो युवावस्था में भी कायम रहा. मैं पढ़ाई में अव्वल था, देखने में सुंदर था, पर मेरी प्रतिकार करने की शक्ति न जाने कहां विलुप्त हो गई थी. जब भी किसी से ‘नहीं’ कहने की इच्छा होती, दिल तेज़ी से धड़कने लगता, पसीने-पसीने हो उठता मैं और अंत में परिस्थितियों को दूसरों की इच्छानुसार स्वीकार करता चला जाता. विवाह हुआ तो सोचा जीवनसंगिनी के सान्निध्य में जीवन का हर सुख जीऊंगा, पर यहां भी नियति ने धोखा दिया. कहां तुम्हारी मां, आइएएस पिता की इकलौती लाडली और कहां मैं, एक मध्यमवर्गीय परिवार का तीसरा बेटा. तुम्हारे नाना बहुत बुद्धिमान व्यक्ति थे. अपनी अति सामान्य गर्म मिज़ाज घमंडी बेटी के लिए उन्हें मुझ जैसा शांत, सहनशील, गुडलुकिंग, मध्यम परिवार का, उच्च पदस्थ दामाद ही तो चाहिए था न? आज एक राज़ की बात बताता हूं, पहली नज़र में तुम्हारी मां मुझे बिल्कुल नहीं भायी थी, पर यहां भी मेरा दब्बूपना, मेरा मौन मेरे जीवन पर भारी पड़ गया. पिता ने दो टूक स्वर में कह दिया था, “अनूप को ऊषा से ही विवाह करना होगा. बेवकूफ, इतना भी नहीं समझता कि बड़े परिवार का दामाद बनेगा, वो भी इकलौता. यहां लक्ष्मी क़दम चूमने को बेचैन है और ये मूर्ख पांव झटकना चाहता है?” जीवन के इतने बड़े निर्णय, जिससे संपूर्ण जीवन प्रभावित होता है, में भी मैं मौन रह गया. अंततः लक्ष्मी ने मेरे पांव चूम ही लिए. मैंने जैसी जीवनसंगिनी की कामना की थी, तुम्हारी मां उसके बिल्कुल विपरीत थी. उसे पूरी दुनिया सुहानी लगती थी, पर अपने पति में हज़ारों दोष नज़र आते थे. प्रेम की उष्मा, स्नेह की गरिमा, दांपत्य की मादकता, जीवनसाथी का मनुहार, सहयोग जैसे शब्द मेरे लिए बने ही नहीं थे. “आपकी ड्रेसिंग सेंस बेकार है, आपको बोलना नहीं आता... बोरिंग... डल... पता नहीं पापा ने आपमें क्या देखा? सुंदरता लेकर अचार डालूं क्या? शादी को लेकर कितने सपने देखे थे, एक भी पूरे नहीं हुए.” ऐसे वाक्य मेरे लिए प्रयुक्त होते रहे और मैं अंदर से आहत, पर ऊपर से सामान्य दिखने के प्रयत्न में जुटा रहा. उसने जो कहा, मैंने कभी प्रतिकार नहीं किया. उसे मेरा संयुक्त परिवार कभी नहीं भाता था. कभी मां-बहनों से उलझ पड़ती थी, तो कभी किसी और से. प्यार की भाषा नहीं, उसे तो केवल अपनी भाषा आती थी, ज़िद की भाषा. बार-बार तुनककर मायके चली जाया करती. एक-दो बार मैंने समझाना चाहा, पर उसका स्पष्ट जवाब था, वो इतने बड़े परिवार के साथ नहीं रह सकती. आख़िरकार फिर उसके पिता का रसूक काम आया. मेरा ट्रांसफर नागपुर हो गया. मैं घर-परिवार से दूर हो गया, पर वो बेहद ख़ुश थी. यह भी पढ़ें: ग़ुस्सा कम करने और मन शांत करने के आसान उपाय मैं कई बार हिम्मत जुटाता कि उसे समझाऊं कि मैं केवल उसका पति नहीं और भी बहुत से रिश्तों से जुड़ा हूं, पर मौन मुझ पर हावी हो जाता. शॉपिंग, किटी पार्टियां, रेस्टोरेन्ट में बढ़िया लज़ीज़ खाना खाना, फ़िल्म देखना, बस यही उसके शौक़ थे. मैं अनिच्छा से यदा-कदा उसका साथ निभाता रहा. मेरी इच्छाएं मन के कोने में दबी-कुचली सहमी-सी दम तोड़ती रहीं. तुम्हारी मां ने मुझसे एक बार भी नहीं पूछा कि मेरी कोई इच्छा है भी या नहीं? मेरे परिवारवाले मुझे जोरू का ग़ुलाम, बेवकूफ, कठपुतली वगैरह नामों से पुकारते थे. मैं यथासंभव उन सब की इच्छाओं और मांगों को भी पूरा करता था,पर अकेले. तुम्हारी मां ने कभी मेरा साथ नहीं दिया. तुम्हारे दादा-दादी को जब तीर्थयात्रा पर ले गया था न, तब भी चक्की के दो पाटों में पिसा था. तुम्हारी मां फिज़ूलख़र्ची का रोना रो रही थी और मेरे मां-पिताजी लाख कोशिशों के बाद भी ख़ुश नहीं थे. कारण था मैं. उनकी नज़र में मैं जोरू का गुलाम जो था. पिताजी कहते, “अरे, एक डांट में पत्नी सीधी हो जाएगी. इसके मुंह से बोल तो फूटे, पर नहीं, उसे ख़ुश रखने के लिए ये मुंह पर ताला लगाकर बैठेगा, बेवकूफ.” पिताजी को क्या पता था, मैं अगर ऊषा को समझाने का प्रयत्न करता, परिवार के मायने समझाने का प्रयास करता, तो उस चिकने घड़े पर कौन-सा असर होना था,  उल्टे वो मुझ पर बरस पड़ती. मेरा दम घुटता था. पारिवारिक कलह से डरकर मैंने मौन समझौता कर लिया था. तर्क-वितर्क या कुतर्क करने की शक्ति मुझमें थी ही कहां? पर आज सोचता हूं काश, एक बार कुछ कहकर देखा होता, तो शायद परिस्थितियां भिन्न होतीं. एक और सच जान ही लो. जब तुम आनेवाले थे न, तब ऊषा ने गर्भपात कराने की ठान ली थी. “इतनी जल्दी मैं बच्चा नहीं चाहती, मेरे फिगर का तो सत्यानाश हो जाएगा.” “ऊषा, ईश्‍वर की इस नेमत को ठुकराना पाप है.” मैंने प्रतिवाद करने का प्रयास किया, तो वो क्रोध से भरी ख़ूब चीखी-चिल्लाई और बिना मुझे बताए अपनी एक सहेली के साथ क्लीनिक चली गई, पर यहां क़िस्मत ने मेरा साथ दिया. डॉक्टर ने साफ़ कह दिया कि गर्भपात के लिए देर हो चुकी है. वो बेहद कठिन दिन थे अनुराग. तुम्हारी मां का क्रोध सातवें आसमान पर रहता था. हर बात पर चिढ़ती-बिगड़ती रहती थी. सुख और आराम के सारे साधन घर में मौजूद थे, पर वो ख़ुश नहीं थी. मेरा धैर्य, मेरा त्याग, मेरी सहनशीलता किसी का प्रभाव उस पर नहीं पड़ता था. मेरी हर बात का वो उल्टा अर्थ लगा लेती थी और मैं मौन रह जाता था. फिर तुम आए, मुझे जीवन की पहली ख़ुशी मिली. सच कहता हूं, उस क्षण मेरे आनंद का पारावार न था. तुम्हें कंधे पर झुलाकर, प्रेम से दुलारकर मुझे जो आत्मिक आनंद की प्राप्ति होती थी न, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता. तुम्हारे जन्म के बाद भी तुम्हारी मां नहीं बदली. पालन-पोषण का दायित्व एक आया को सौंपकर वो कर्त्तव्यमुक्त हो गई, पर मैं तुममें अपना बचपन जीता रहा. चार वर्ष की नन्हीं-सी उम्र में दार्जिलिंग के बोर्डिंग स्कूल जाते समय बिलखकर रोते तुम्हारा मासूम चेहरा आज तक भूला नहीं हूं, पर वो भी तुम्हारी मां का निर्णय था. मैं हमेशा की तरह पीड़ा मन में समेटे मौन था. जब भी तुम छुट्टी में घर आते, हम बाप-बेटे के लिए वो बढ़िया समय होता था, याद है न? फिर दिन सरकते गए. मैं दिन-रात क़िताबों में डूबा रहता और तुम्हारी मां के तो कई शौक़ थे. मुझे याद नहीं आता, कभी भी कुछ समय के लिए हम दोनों ने किसी मुद्दे पर चर्चा की हो. उसे सीधे निर्णय देना पसंद था और मुझे चुपचाप रहकर कलह को दूर झटकना, पर कहते हैं न ‘किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है.’ मेरा तटस्थ निर्लिप्त हो जाना ही मेरे लिए कष्टप्रद हो गया. पति-पत्नी का रिश्ता जो सबसे निकट होता है, हमारे लिए औपचारिकता मात्र रह गया. बेटा, जब तुमने मुझे नीति से मिलवाया था, तो मैं बेहद ख़ुश हो गया था. वो मुझे ज़िम्मेदार और सुलझी हुई लड़की लगी थी. शांत, संवेदनशील, भावुक-सी वो लड़की पहली नज़र में ही मुझे अपनी-सी लगी थी, पर एक चीज़ उस क्षण भी मुझे खटक गई थी, तुम्हारा नीति के प्रति अजीब दबाव से भरा व्यवहार. पहले तो मैंने इसे सामान्य समझा, फिर धीरे-धीरे बात समझ में आती गई कि अपनी मां के मेरे प्रति व्यवहार से तुम भीतर से आहत हो और भयभीत भी. नीति की छोटी-सी बात का मान रख लेने से भी जैसे तुम्हारे पुरुषत्व की तौहीन होती थी. नीति क्या पहनेगी, क्या खाएगी, कैसे रहेगी? सारे निर्णय तुम्हारे होते थे. एक दिन बिना तुम्हें बताए वो मायके क्या चली गई, तुमने घर में कोहराम मचा दिया था, याद है न? उस शाम बहू फूट-फूटकर रोई थी. हां, उसके आंसुओं का साक्षी मैं था. भीगे कंठ से उसने मुझसे कहा था, “बाबूजी, मैं जितना जुड़ना चाहती हूं, अनुराग उतनी ही बेरुखी से अपने व्यवहार से इस रिश्ते की जड़ें खोखली कर देते हैं. पत्नी क्या दासी होती है? जीवनसंगिनी अगर जीवनभर रोती ही रहे, तो ऐसे साथ की क्या अहमियत है?” मैं सन्न रह गया था. बहू के शब्द आत्मा को तेज़ आरी की तरह काट रहे थे. मैंने इस संबंध में भी तुम्हारी मां से बात की थी. उसने लापरवाही से जवाब दे दिया, “आपका ही लाडला बेटा है, आप ही उससे बात कीजिए. पति-पत्नी के बीच पड़ना मूर्खता है.” मैं हतप्रभ रह गया था. यहां पति-पत्नी के बीच पड़ने जैसी क्या बात थी? हमारे बच्चों की ज़िंदगी का प्रश्‍न था. मैं आदत से लाचार, फिर चुप हो गया. मूकदर्शक-सा सब कुछ देखता रहा. अमृत का जन्म हुआ, तो मैंने चैन की सांस ली, शायद ये बच्चा तुम दोनों के बीच पुल का काम करे, पर तुम भी अपनी आदत से लाचार थे. फिर तुम्हारा तबादला दूसरे शहर में हो गया. मैं फिर आशान्वित हो उठा था, शायद अकेले में तुम दोनों का दांपत्य फल-फूल जाए? पर तुम्हारे फ़ोन ने मेरी इस आशा पर भी तुषाराघात कर दिया. “पापा, आपकी बहू मुझसे लड़कर मायके चली गई है. अमृत को भी साथ ले गई है. जानते हैं क्या कहती है? नौकरी करके अकेले अमृत को पाल लेगी, पर मेरे साथ नहीं रहेगी. मैं भी चुप नहीं बैठनेवाला, डाइवोर्स के पेपर मुंह पर मारूंगा, तब होश आएगा.” “बेटा, जल्दबाज़ी में कोई निर्णय मत लो. मैं बहू से बात करूंगा.” तुम्हें समझाकर मैंने फ़ोन तो रख दिया, पर मन अनजानी आशंका से थरथरा उठा था. बहू से बात की तो मुझे कहीं भी उसका दोष नज़र नहीं आया. अनुराग, क्या अपने पति से प्रेम और सम्मान की इच्छा रखना दोष है? यदि हां, तो बहू दोषी है. बेटा, पत्नी की इच्छाओं का मान रखना तुम्हारा धर्म है. पहले सोचा तुम्हें बुलाकर तुमसे बात करूं, फिर अपने स्वभाव से डर भी लगा. कहीं तुम्हें सामने पाकर सब कुछ कह न पाया तो! इसलिए पत्र में अपना दिल खोलकर रख रहा हूं. बेटा, तुम अनजाने में ही नीति के धैर्य की परीक्षा लेते रहे हो. पिछले तीन वर्षों में उसने साबित किया है कि वो एक अच्छी पत्नी है. वैसे मैं जानता हूं कि मैं हमेशा चुप रहकर अपना दांपत्य खोता चला गया और तुममें बहुत ़ज़्यादा बोलने-टोकने की आदत है और तुम्हारा दांपत्य भी टूटने के कगार पर खड़ा है. पति-पत्नी का रिश्ता जो सबसे क़रीबी और महत्वपूर्ण होता है, लोग अपनी नादानी से इसे ही सबसे छोटा और बेकार समझ लेते हैं. जब होश आता है, तो एक मधुर स्वप्निल मादक संसार हाथ से रेत की तरह फिसल गया होता है. बेटा, पुरुषत्व के अहं में आकर ग़लत निर्णय मत लो और न ही नीति के सामने हथियार डालकर उसे मनाकर घर ले आओ. आपस में बात करो बेटा. अपने व्यवहार से थोड़ा तुम झुको और थोड़ा-सा उसे भी झुकने पर विवश कर दो. आपसी समस्या को सुलझाने का प्रयास करो. पति-पत्नी के रिश्ते के बीच किसी भी तरह की दीवार नहीं होनी चाहिए, फिर चाहे वो मौन और सहनशीलता की दीवार ही क्यों न हो? मैंने हमेशा तुम्हारी मां और अपने बीच चुप्पी की दीवार कायम की. परिणाम, हम दोनों इस दीवार के दो अलग-अलग छोरों पर जीवन जीने को विवश हो गए. पति-पत्नी का संबंध जो सात जन्मों का होता है, एक ही जन्म में बेमानी लगने लगा. हम दोनों ने इस अटूट बंधन को सदा तार-तार किया. तुम्हारी मां सरेआम मेरा अपमान करती रही है, पर मैंने कभी उससे अपने मान-सम्मान की अहमियत के बारे में बात नहीं की. आज लगता है, अगर हमने दिल खोलकर एक-दूसरे से बात की होती, तो शायद स्थिति कुछ और ही होती. पर जो बीत गई, वो बात गई. तुम और बहू हमारी ग़लतियां मत दोहराना. मैंने नीति को भी समझा दिया है कि वो मेरी तरह तटस्थ बनने का प्रयास न करे और तुमसे कहता हूं, अपनी जीवनसंगिनी के साथ सुखी दांपत्य जीवन जीओ बेटा. उसके मन को समझने का प्रयास करो और अपना मन भी खोलकर उसकी हथेली पर धर दो. बहू की कौन-सी उम्मीदों पर तुम खरे नहीं उतर रहे, पूछो. साथ ही उसे यह एहसास भी दिलाओ कि तुम्हारी भी कुछ उम्मीदें हैं. समझौता नहीं, सामंजस्य का निर्माण करो. दांपत्य का बिरवा सामंजस्य के मीठे जल से ही तो सींचा जाता है. इस सत्य को आज आत्मसात कर लो, मेरी तरह उम्र के अंतिम पड़ाव में पछतावे का एहसास नहीं होगा. मेरे जैसे लोगों की तो ये स्थिति है कि चाहे लाख कहो, फिर भी बहुत कुछ मन के भीतर लावे-सा दहकता ही रहता है. अब सुनो, पत्र के साथ कश्मीर के दो हवाई टिकट भी हैं. मेरी तरफ़ से तुम दोनों के लिए उपहार. बहू तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है. जाओ, जन्म-जन्म के इस बंधन को एक नई गांठ से बांध दो. इसी क्षण से प्रयास करो बेटा कि ये बंधन टूटे ना. असंख्य शुभकामनाओं के साथ तुम्हारा, पापा

       डॉ. निरुपमा राय

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