
“हंस क्या रही हो. सच ही तो कह रही हूं. बचपन में मां कहती थीं ज़्यादा सज-संवर कर मत रहा करो, लोगों की बुरी नज़र लग जाती है. उसके बाद आई सास-ननद, वे कहने लगीं अच्छे से सज-संवर कर रहा करो. बहुएं तो ऐसी ही अच्छी लगती हैं. ज़्यादा सजने-संवारने लगी तो पति यह कहकर ग़ुस्सा करने लगे कि कितना समय लगाती हो मेकअप में. अरे इतना भी कोई तैयार होता है क्या? उनके कहने पर सजना-संवरना कम किया तो अब कहते हैं कैसी बेढ़ंगी सी घूमती हो थोड़ा सज-संवर कर रहा करो.” पूर्णिमा की बात सुनकर नूरा पेट पकड़कर हंसने लगी.
बच्चों के स्कूल और पति के ऑफिस जाते ही पूर्णिमा आज घर की साफ़-सफ़ाई में जुट गई थी. यह वही सफ़ाई है, जो हर स्त्री महीने में दो या तीन बार कमर कसकर करती है. दीवारों पर लटके जालों की सफ़ाई, वॉशरूम की चिकनाहट की सफ़ाई, बालकनी में लगे पौधों की कटाई-छटाई के साथ बालकनी की सफ़ाई. इतनी सफ़ाई करते-करते ही दोपहर के एक बज गए. घड़ी देखकर वह फटाफट नहाने को चल दी.
अमूमन वह रोज़ सुबह ही नहा लेती थी, लेकिन घर की साफ़-सफ़ाई के चलते उसे आज देर हो गई. उसके बाद दोपहर का खाना खाकर वह दो घड़ी सुस्ताने को बैठी ही थी कि बच्चों के आने का समय हो गया. बच्चों के आते ही वह उनके खाने-पीने, होमवर्क कराने में जुटी, तो शाम के खाने का वक़्त हो गया. वह शाम का खाना बनाकर ़फुर्सत होने को ही थी कि अनंत ऑफिस से आ गए.
अनंत कपड़े बदलकर लिविंग रूम में बैठे ही थे कि पूर्णिमा फटाफट गरमागरम कॉफी लेकर हाज़िर हो गई. उसके बिखरे हुए बाल, कंधे से होकर कमर पर बांधा दुपट्टा और हाथों से आती आटे, तेल और मसालों की गंध से अनंत खीझता हुआ बोला, “हद है यार, दिनभर का थका-हारा व्यक्ति इस उम्मीद के साथ घर लौटता है कि उसकी बनी-संवरी ख़ूबसूरत-सी वाइफ उसका गर्मजोशी से वेलकम करेगी और तुम हो कि देखो कैसी बेढ़ंगी सी मिलती हो.”
“बेढंगी मतलब!”
“मतलब यह कि यह गंदा-सा पुराना किचन की बदबू से भरा सूट और ये बेतरतीब बिखरे हुए बाल. उफ़! भगवान ही मालिक है तुम जैसी महिलाओं का.” अनंत ने मुंह बनाते हुए कॉफी का एक सिप लिया.
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“सॉरी, आज घर का बहुत ज़्यादा काम पड़ गया, इसलिए बाल नहीं संवार पाई.”
“आज क्या, तुम्हारा तो यह रोज़ का रोना है, 35 की हो, पर लगती 40 जैसी हो.”
अनंत के यह शब्द पूर्णिमा के मन में कहीं चुभ से गए, “35 की हो पर लगती...”
अपने गालों को छूकर वह सोचने लगी, क्या सच में वह अपनी उम्र से ज़्यादा की नज़र आने लगी है? क्या अब वाकई में उसे घर-परिवार के साथ-साथ ख़ुद पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए? कुछ सोचती हुई वह सबको डिनर परोसने लगी.
दूसरे दिन उसने घर का काम जल्दी-जल्दी ख़त्म किया. कुछ काम उसने कल के लिए भी छोड़े. कई दिनों बाद उसने अपने शरीर पर उबटन लगाया. बालों को धोकर उन पर सीरम मला. पुराना पड़ा परफ्यूम ख़ुद पर छिड़का और आलमारी से आसमानी रंग का एक नया सा सूट निकालकर पहन लिया.
सांझ होते ही घर की डोरबेल बजी, तो वह उत्साह से दरवाज़े की तरफ़ दौड़ी. सामने थका-थका सा अनंत था. उसका बैग थामते ही वह पानी लेने को दौड़ी. ज़ुल्फ़ों को संवारती वह अनंत के बगल में बैठ गई. आज उसकी ज़ुल़्फें रोज़ से कहीं ज़्यादा रेशमी थीं. पूर्णिमा पूर्ण नहीं तो कम से कम अर्धचंद्र सी तो आज लग ही रही थी.
“कॉफी बना दूं?” पूर्णिमा के पूछने पर अनंत ने शर्ट का बटन खोलते हुए स़िर्फ हां में सिर हिलाया, तो पूर्णिमा पहले से फेंटकर रखी कॉफी में गर्म खौलता हुआ दूध डालकर ले आई. वह फिर अनंत के पास इस उम्मीद से बैठ गई कि शायद अनंत उसमें कुछ नोटिस करते हुए उसकी तारीफ़ में दो शब्द कहेंगे, पर नहीं अनंत ने कुछ नहीं कहा. स्त्रियों के साथ ऐसा अक्सर होता है. उनकी गंध, उनके दोष, उनकी बेतरतीब बिखरी हुई ज़ुल़्फें तो सबको नज़र आती हैं, पर नहीं नज़र आता तो कभी-कभार संवारा हुआ उनका मन, कभी-कभार महकती हुई उनकी ज़ुल़्फें कभी-कभार शृंगार की हुई उनकी उम्मीदें. इसलिए शायद कल तक पूर्णिमा से लिपटी रसोई के मसालों की गंध, उसकी टेढ़ी चोटी, थकी हुई आंखों का फैला हुआ काजल तो अनंत को नज़र आ गया था, पर आज का उसका संवारा हुआ रूप उसे तनिक भी नज़र नहीं आ रहा था.
बहुत देर तक पूर्णिमा ने ख़ुद को अनंत के सामने तरह-तरह से प्रस्तुत किया, पर अंततः हार मानकर वह रात सबके सोने के बाद उपेक्षित सा भाव लेकर बहुत कुछ सोचती हुई सो गई.
रात देर से नींद आने के कारण सुबह देर से नींद खुली, तो घड़ी की ओर देखते ही वह बिखरे हुए बालों को क्लचर में ़कैद करती हुई हड़बड़ा कर उठी. दोनों बच्चों का टिफिन तैयार कर उन्हें स्कूल भेजा और फिर अनंत को ऑफिस.
ऑफिस जाते हुए अनंत ने उसके उदास चेहरे को देखकर पूछा, “क्या हुआ, ऐसा दुखी चेहरा क्यों बना रखा है?”
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“कुछ नहीं, बस ज़रा सा सिर में दर्द है.”
“ओके! मेडिसिन है या लाकर दे दूं.”
“नहीं, उसकी ज़रूरत नहीं. ज़रा देर आराम कर लूंगी, तो ठीक हो जाएगा.”
“अब काम ही क्या है. सारा दिन आराम ही तो है तुम्हें. ओके! बाय.”
कहते हुए अनंत चला गया. यहां उदास मन लेकर पूर्णिमा घर के काम समेटने में लग गई. हम महिलाएं भी अज़ीब होती हैं न! घर-परिवार को समेटते-सहेजते ख़ुद कब बिखर जाती हैं, पता ही नहीं चलता. काम से ़फुर्सत पाकर वह लेटी ही थी कि दोपहर एक बजे के क़रीब डोरबेल बजी. इस वक़्त कौन होगा? सोचते हुए पूर्णिमा ने दरवाज़ा खोला तो सामने नूरा खड़ी थी.
“नूरा! तुम...” वह उत्साह में नूरा का नाम लेती हुई उसके गले लग गई.
नूरा पूर्णिमा के बचपन की सहेली थी. बैंक मैनेजर थी, इसलिए बैंक के कुछ काम से कानपुर से लखनऊ आई हुई थी.
“वाओ यार! व्हॉट अ सरप्राइज़! तुम ऐसे अचानक कैसे आ गई?”
“पूर्णिमा तुम भी ना! सब भूल जाती हो. बोला तो था तुम्हें कि लखनऊ आ रही हूं, हो सका तो तुमसे भी मिल लूंगी. आज जैसे ही बैंक का काम ख़त्म करके थोड़ा वक़्त मिला, सीधे तुम्हारे बताए पते पर चली आई.”
“अच्छा किया. कितने दिनों बाद मिल रहे हैं ना हम.”
“हां, शायद मेरे सोहेल भाईजान के निकाह के बाद, तभी तो आई थीं तुम कानपुर. अब तो तुम कानपुर आती ही नहीं और आती भी हो, तो मुझे बिना मिले ही लखनऊ वापस निकल जाती हो.”
“नहीं यार नूरा! ऐसी बात नहीं है. एक तो सच में कानपुर जाना नहीं हो पाता और जाती भी हूं तो दो-चार रोज़ को ही. इतने में तो मां के पास भी ठीक से नहीं बैठ पाती. फिर इतने कम समय में तुमसे कैसे मिलना हो पाता, बोलो?”
पूर्णिमा ने बात करते हुए ही उसे लिविंग रूम में पड़े सोफे पर बैठने का इशारा किया. “वाओ! क्या सोफा है. ब्लू पर रेड कुशन कितना प्यारा लुक दे रहे हैं ना! क्या शानदार इंटीरियर है तेरे घर का.” नूरा ने लिविंग रूम के चारों ओर नज़रेें दौड़ाते हुए कहा.
“सब अनंत की पसंद के हिसाब से सजाया है. उन्हें सजा-संवरा घर बहुत पसंद है.” पूर्णिमा ने ख़ुश होते हुए कहा, तो नूरा ने पूर्णिमा के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, “ख़ैर, वो सब छोड़ और ये बता कि कैसी चल रही है तेरी हैप्पी मैरिड लाइफ. ऑल सेट ना? और तुम्हारा वो ब्यूटीशियन बनने का सपना, उसका क्या?”
“लड़की के कुंवारे सपने.... उनकी शादी के साथ वे सपने भी ब्याह जाते हैं. घर-गृहस्थी में सब छू हो जाते हैं.”
“रहने दो तुम अपने बेकार के ये फ़लस़फे. कुछ करने वाले हर हाल में कुछ ना कुछ कर ही जाते हैं. ख़ैर छोड़ो ये सब. और सुनाओ. अब कितना बदल गई है. हमेशा टशन में रहने वाली पूर्णिमा, फैशन की ओपनर कहलाने वाली पूर्णिमा, मेकअप की हर नई बारीकी बताने वाली पूर्णिमा तो अब तुझमें कहीं नज़र नहीं आ रही.”
“अब मैं, मैं रही कहां? ज़िंदगी ने पूर्णिमा से अमावस सा कर डाला.”
पूर्णिमा की इस उदास बात पर सोफे पर ख़ुद को और फैलाती हुए नूरा ने पूछा, ”क्या बात है? अनंत प्यार नहीं करते क्या तुझे?”
एक चुप्पी के बाद पूर्णिमा बोली, “बहुत प्यार करते हैं, पर मुझे लगता है कि पुरुषों के लिए प्यार की परिभाषा हम स्त्रियों से अलग होती है.”
“वो कैसे?” नूरा ने रेड कुशन को अपनी बांहों में भरते हुए पूछा.
“स्त्री पुरुष के रहन-सहन पर, उसके पहनावे पर, उसकी पसंद-नापसंद पर कोई प्रश्नचिह्न लगाती है क्या? वह तो उसे जैसा है रहने देती है. लेकिन पुरुष को पत्नी के रूप में बिल्कुल परफेक्ट वाइफ चाहिए होती है. जो उसके हिसाब से मेकअप करें, कपड़े पहनें और अपने आपको मेंटेन रखें. अपनी इसी रोका-टोकी को वह बड़े प्यार से प्यार का नाम दे देते हैं. समझ में नहीं आता कि ये कैसा प्यार हुआ भला.”
“मतलब! अनंत तुझे ऐसे प्यार करता है.”
“हां...”
“ये क्या बात हुई? स्त्री हो या पुरुष आख़िरकार रहना तो सबको अपने ढंग से ही चाहिए. तू अनंत से कुछ बोलती क्यों नहीं?”
“क्या बोलूं? मैं घर पर बेकार की बहस नहीं चाहती. जैसा जो है सो ठीक है. पार्थ और पर्व भी तो अब बड़े हो रहे हैं. हमारी बहस का बेटों पर भी तो असर पड़ता है. अपने पापा की देखादेखी अब वे भी मुझे टोकने लगे, ‘मॉम! ये मत पहनो वो पहनो. ऐसे मत रहो वैसे रहो.’ उनके पैरेंट्स मीटिंग में जाने से पहले वे मेरे लिए कपड़े सिलेक्ट करते हैं.”
“यह तो कुछ ज़्यादा ंही हो गया. पति तो पति तेरे बच्चे भी...” नूरा ने आश्चर्य से पूछा.
पूर्णिमा कॉफी बनाने को किचन में चल दी. कुछ देर सोचती हुई नूरा बोली, “वैसे देखा जाए तो ये पति, बच्चे और भाई हमेशा हम पर इसी तरह से अपना प्यार क्यों जताते हैं? इनकी पत्नी, मां, बहन इनके तरी़के से रहे. हमेशा एक लड़की या स्त्री पर यह हक़ जताते रहना ही इनका प्यार रहा है.”
पूर्णिमा बोली, “मैंने तो बचपन से दूसरों के हिसाब से ही रहना सीखा है. स़िर्फ पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी इस तरह के प्यार जताने में ख़ूब माहिर रही हैं.”
“अच्छा! वो कैसे?”
“देखो बचपन में मुझे पिता और भाई ज़्यादा सजने-संवरने से मना करते थे. उन्हें डर था कि उनकी बेटी-बहन पर किसी की गंदी नज़र ना पड़े. बड़ी हुई तो मां यह बोलकर टोकने लगी, ‘भले घर की लड़कियां ज़्यादा मेकअप नहीं किया क़रतीं...’ और तुम तो जानती हो मेरा सजना-संवरना तो बचपन से पहला शौक रहा.”
“सच में, और तू क्या गज़ब-गज़ब के हेयर स्टाइल बनाती थी. तेरेे मेकअप की सब तारी़फें करते थे. परंतु शादी के बाद तूने अपना पार्लर क्यों नहीं खोला?”
“मुझे दूसरों को सजाने में मज़ा तो आता है, पर उससे ज़्यादा मुझे ख़ुद को सजाने में आनंद मिलता है. लेकिन यह बात आज तक किसी ने समझी ही नहीं. सभी मुझे जीवन भर अपने हिसाब से सजाते रहे. अनंत को दिखाई गई, तो मां ने अपना पूरा मेकअप मुझ पर लगाकर उसके और उसके परिवारवालों के सामने खड़ा कर दिया. जब ब्याह कर आई, तो सास-ननद यह कहकर अपने हिसाब से सजाने लगीं कि हमारे यहां सीधे पल्लू की साड़ी पहनते हैं... हमारे यहां लाल नहीं नारंगी सिंदूर भरते हैं... हमारे यहां यह... हमारे यहां वह...” पूर्णिमा की इस बात पर नूरा ज़ोर से हंस पड़ी.
“हंस क्या रही हो, सच ही तो कह रही हूं. बचपन में मां कहती थीं ज़्यादा सज-संवर कर मत रहा करो, लोगों की बुरी नज़र लग जाती है. उसके बाद आई सास-ननद, वे कहने लगीं अच्छे से सज-संवर कर रहा करो. बहुएं तो ऐसी ही अच्छी लगती हैं. ज़्यादा सजने-संवारने लगी, तो पति यह कहकर ग़ुस्सा करने लगे कि कितना समय लगाती हो मेकअप में. अरे इतना भी कोई तैयार होता है क्या? उनके कहने पर सजना-संवरना कम किया, तो अब कहते हैं कैसी बेढ़ंगी सी घूमती हो. थोड़ा सज-संवर कर रहा करो.” पूर्णिमा की बात सुनकर नूरा पेट पकड़कर हंसने लगी.
“हंसने के साथ-साथ नाश्ता भी करती जाओ. सब घर का बना है.” पूरी टेबल पूर्णिमा ने तरह-तरह के स्नैक्स से भरी, तो नूरा मठरी की प्लेट से एक मठरी उठाते हुए बोली, “वाह! इतना सब कुछ तुम घर पर बनाती हो?”
“और नहीं तो क्या, मेरे दोनों बेटे पार्थ और पर्व को घर का बना ही पसंद है.”
कुछ देर में नूरा की नज़र बालकनी पर पड़ी, “वाह! कितनी ख़ूबसूरत बालकनी है. अच्छी-ख़ासी बागवानी कर रखी है.”
“अनंत के मां-पिताजी अक़्सर आते-जाते रहते हैं. यहां आकर उन्हें गांव की हरियाली याद आती है. अब उनके लिए गांव तो यहां ला नहीं सकती, लेकिन उनका मन यहां लगा रहे, इसलिए एक गार्डन उनके लिए हमेशा हरा-भरा रखती हूं.”
“सबकी पसंद-नापसंद का तुझे कितना ख़्याल है पूर्णिमा, सिवाय अपनी पसंद के.”
“छोड़ ना हम महिलाएं दूसरों के सांचे में ढलकर भी ख़ुश रह लेती हैं और रहना भी चाहिए, क्योंकि हमारे पास अन्य विकल्प भी तो नहीं.”
“तुम ख़ुद के लिए भी जीना और सजना-संवरना सीखो पूर्णिमा.” पूर्णिमा कॉफी का दूसरा कप बना लाई.
उन दोनों सहेलियों के बीच बातें ज़्यादा और समय कम था. स्कूल, कॉलेज और कानपुर की गलियों की यादों को ताज़ा करती हुई वे कॉफी की चुस्कियां ले ही रही थीं कि नूरा के जाने का समय हो गया. नूरा के जाते ही पूर्णिमा के बच्चे स्कूल से आ गए. और पूर्णिमा लग गई अपनी रोज़ की दिनचर्या में.
कई दिनों बाद दोपहर के समय नूरा का फोन आया, दोपहर काम के बाद वाली हल्की झपकी को तोड़ते हुए पूर्णिमा ने जैसे ही कॉल रिसीव किया, वहां से खनकती हुई आवाज़ आई, “कैसी है मेरी फुल मून?”
“मस्त हूं.”
“तुम्हारी आवाज़ से तो नहीं लग रहा कि तुम मस्त हो. ठीक हूं ही बोल देती. तुझे पता भी है मस्त होना किसे कहते हैं?”
“किसे कहते हैं?”
“तो पहले कानपुर आ. फिर बताती हूं कि किसे कहते हैं मस्ती.”
“कानपुर आऊं, पर क्यों?”
“वो इसलिए क्योंकि मेरा बैंक और एक बहुत बड़ी ब्यूटी प्रोटेक्ट कम्पनी मिलकर तीन दिनों का एक बहुत बड़ा इवेंट करा रहे हैं. उस इवेंट में देश की जानी-मानी ब्यूटीशियन आ रही हैं. साथ ही प्रतिभागी के तौर पर वहां हर छोटी-बड़ी ब्यूटीशियन अपने मेकअप का हुनर दिखाएगी. अगर प्रतिभागी में वाकई टैलेंट होगा, तो उसे मिलेगी पूरे पांच लाख रुपए की इनामी राशि और अपना पार्लर खोलने का अनुभव. मैं चाहती हूं कि तुम भी उस इवेंट का हिस्सा बनो.”
“अरे मैं कहां यार! कब का सब भूल गई.”
“पूर्णिमा हम हर चीज़ जीत-हार के लिए ही क्यों करते हैं? कुछ चीज़ें हार-जीत से परे हमें अपनी ख़ुशी के लिए भी तो करनी चाहिए ना? आ जा, ये तीन दिन अपने हिसाब से जी ले.”
“पर...”
“पर-वर कुछ नहीं तू कानपुर आ रही है मतलब आ रही है. मैंने तेरे आने का सारा बंदोबस्त कर दिया है.”
“इनसे और बच्चो से तो पूछना पड़ेगा ना!”
“ना जाने कब हम स्त्रियां पूछना बंद करके बताना सीखेंगी. ख़ैर! बता देना अपने अनंत और बच्चों को कि अगली 15, 16 और 17 तेरी तारीख़ें हैं स़िर्फ तेरी अपनी. अच्छा रखती हूं.” कहते हुए नूरा ने कॉल कट कर दी.
अब पूर्णिमा के मन में यह सोच-सोचकर उथल-पुथल मची हुई थी कि वह कैसे अनंत को बताएगी कि वह कानपुर अपने मायके वाले घर नहीं, बल्कि अपने शौक पूरे करने जा रही है. पर जैसे ही वह उस इवेंट की कल्पना करती, उसके पेट में तितलियां उड़ने लगतीं.
हिम्मत जुटाकर उसने ट्रॉली बैग उठाया और पैकिंग शुरू की. आज 13 तारीख़ थी. दो दिन बाद ही उसे निकलना था. नूरा से बात करने के बाद से ही उसने कानपुर जाने का मूड बना लिया था. अपनी मेड को बहुत से काम सौंपकर उसने जाने की तैयारी शुरू कर दी. शाम को अनंत के आने के बाद अनंत और बच्चों को खाना परोसकर वह फिर पैकिंग में लग गई.
अनंत ने उसे पैकिंग करते हुए आश्चर्य से देखा, तो वह बोली, “कानपुर में ब्यूटीशियन का एक बहुत शानदार इवेंट है. उसमें जा रही हूं.”
“बता रही हो या पूछ रही हो?”
“इस बार बता ही रही हूं.”
“तुम ख़ुद को बड़ी ब्यूटीशियन मानती हो?”
“नहीं वहां एक मेकअप कॉम्पटीशन भी है. मैं तो उसमें पार्ट लूंगी.”
”पागल हो गई हो क्या? ख़ुद का मेकअप तो ठीक से तुमसे होता नहीं, दूसरों का क्या ख़ाक मेकअप करोगी.”
अनंत के ताने का जवाब दिए बिना पूर्णिमा अपनी पैंकिग में लगी रही.
दूसरे ही दिन अलसुबह पूर्णिमा कानपुर के लिए रवाना हो गई. आख़िरकार अनंत ने उसके पक्के इरादे के सामने घुटने टेक दिए. अनमने मन से वह उसे एयरपोर्ट तक छोड़ने गया. जाती हुई पूर्णिमा को उसने बेस्ट ऑफ लक तक नहीं कहा. दोनों एक मौन के साथ अपने-अपने रास्ते निकल लिए. घर वापस लौटते ही अनंत बच्चों को स्कूल के लिए रवाना कर ऑफिस को चल दिया. और वहां कानपुर पहुंचते ही पूर्णिमा इवेंट वाली जगह को चल दी.
ग्लैमरस और ब्यूटी से भरी एक बेहद ख़ूबसूरत आज़ाद दुनिया उसका स्वागत कर रही थी. पूर्णिमा के लिए सब कुछ मीठे सपनों सा था. पूर्णिमा अपने रूम जाकर इवेंट के लिए तैयार होने लगी. सुनहरे बॉर्डर वाली कॉटन सिल्क की कत्थई साड़ी में पूर्णिमा गज़ब ढा रही थी. उसके कानों में झूलते बड़े-बड़े झुमके, आंखों का गहरा काजल, माथे की छोटी सी मरून बिंदी और लंबे खुले लहराते बाल उसकी आज़ादी का जश्न मना रहे थे. उसे इस रूप में देखकर नूरा कुछ देर देखती रह गई, “क्या हुआ, ऐसे क्या देख रही हो. ऐसे तो अनंत भी कभी मुझे नहीं देखते.”
“कैसे देखेंगे मेरी जान! मुझे नहीं लगता कि इससे पहले तुम कभी इतनी ख़ूबसूरत लगी होगी? पता है डियर तुम आज इतनी ख़ूबसूरत क्यों लग रही हो?फफ”
”क्यों?” पूर्णिमा ने हाथों में प्लेन मरून कांच की चूड़ियां पहनते हुए पूछा.
“क्योंकि हम स्त्रियां हरदम दूसरों के लिए सजती रहीं, हर श्रृंगार हमारा दूसरों के लिए हुआ, जबकि हम ख़ुद के लिए भी सज-संवर सकती थीं, जैसे आज तू सजी है ख़ुद के लिए.”
”बहुत हुई मेरी तारीफ़. अब चलें, इवेंट शुरू होने वाला ही होगा.” कहते हुए दोनों चल दीं.
एक-एक करके कई इवेंट हुए. यह इवेंट देखते ही देखते चर्चा में आ गया. पूर्णिमा को यहां ना कोई संकोच था, ना कोई रोक-टोक. इसलिए वह हर इवेंट का खुलकर आनंद ले रही थी. हर एक इवेंट में उसका बेहद ख़ूबसूरत और अलग लुक था.
इसी बीच ब्यूटीशियन प्रतियोगिता भी हुई. पूर्णिमा ने अपना बेस्ट दिया. इवेंट के आख़िरी दिन विजेता की घोषणा होनी थी. एक-एक करके परिणाम घोषित हुए. पूर्णिमा किसी नंबर पर नहीं थी. ना फर्स्ट, ना सेकंड और ना ही थर्ड. उसे किसी नंबर पर आना भी नहीं था. उसकी चाह पहले, दूसरे या तीसरे पायदान पर खड़े होने की नहीं थी. उसकी ख़्वाहिश तो बस फिर से अपनी ज़ुल्फ़ों को अपने हिसाब से लहराने की थी. उसकी ख़्वाहिश तो बस कुछ दिनों ख़ुद को ख़ुद के अनुसार रखने की थी.
पूरा इवेंट कई चर्चित सोशल साइट्स पर लाइव था. पूर्णिमा उन तीन दिनों में पहचान में ही नहीं आ रही थी. वह आज अनंत की पत्नी और दो बच्चों की मां नहीं, बल्कि अपने नाम के अनुरूप पूर्ण चंद्र सी लग रही थी. पार्थ और पर्व इतनी ख़ूबसूरत मां को देखकर ख़ुश हो रहे थे. और अनंत अपनी इतनी प्यारी स्मार्ट लुक वाली वाइफ को देखकर गर्व से फूले नहीं समा रहा था. आज उसे एहसास हो रहा था कि उसने कभी अपनी पूर्णिमा को उसके ख़ुद के हिसाब से रहने ही कहां दिया. वो कभी ख़ुद के अनुरूप ख़ुद को संवार ही नहीं पाई. हर इंसान को कोई ना कोई शौक होता है. उसका शौक दूसरों को और ख़ुद को सजाने का था. शायद अनंत ने यह समझने में देरी ना की होती, तो वह भी आज मेकअप प्रतियोगिता के पहले, दूसरे या तीसरे नंबर पर होती.
कुछ सोचते हुए अनंत ने ख़ुद और बच्चों से यह वादा लिया कि अब उनकी मां और अनंत की पत्नी अपने हिसाब से रहेगी. अब से वह दूसरों के लिए नहीं, बल्कि ख़ुद के लिए सजेगी.
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