डॉ. गार्गी
"सोच, मर जाता तू, तो कैसे आता इस स्वर्ग में. और मान ले कि तीनों अच्छे होते, तो क्या हो जाता? तुझे एयरकंडीशन कमरा दे देते, एक मोटा गद्दा डलवा देते, देखभाल के लिए नर्स रख देते, घूमने को ड्राइवर भी दे देते, सोने की थाली में खाता तू, पर खाता तो यही दलिया ही न? अकेला खाता सुबह-शाम. यहां देख इस चौपाल में कितने सारे खाते हैं, तेरे साथ ‘दलिया दो प्याज़ा’ और ‘खिचड़ी मखनी’ वो भी हंसी-ठहाकों के सलाद के साथ."
यूं तो बात बहुत छोटी थी. नलिन दा का मन मर गया था बस. अपने 68 साल के वजूद का रिमोट बने मन की मुर्दा ठठरी को लादे गुमसुम से हो गए थे नलिन दा. गुमसुम होने के बावजूद उनके अंदर की बेचैनी साफ़ दिखाई देती रही थी कि यह शख़्स बहुत कुछ कहना चाहता है, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना चाहता है, रोना चाहता है, अपने अंदर सुलग रहे गुबार को ज़ुबान के रास्ते बाहर निकालकर हल्का होना चाहता है, पर यह सब कर नहीं पा रहा है. बेबस है, ठीक वैसे ही, जैसे कोई हाथ-पैर बांधकर मुंह पर टेप लगा दे और कहे कि चीख बेटा, तो बताओ क्या हो सकेगा चीखना? निकलेगी चीख? सात दिन पहले तक लगातार चलनेवाली उनकी कुछ क्रियाएं, जैसे- खाना-पीना, हंसना-बोलना, घूमना-फिरना बिल्कुल निष्क्रिय थीं. केवल कुछ ही क्रियाएं हरकत में थीं, जैसे- घुटनों के सूजे जोड़ों की जकड़न को सहलाना, ठुड्डी पर हाथ टिका गोद में टिके मनपसंद अख़बार को पढ़ने की बजाय चश्मे के पीछे से एकटक घूरना या फिर बिस्तर के बिल्कुल सामने खुलनेवाली खिड़की से दिखाई देनेवाले उस बड़े से बंद गेट को बेबसी से निहारना, जिसे खुलवाकर वे यहां परायों की भीड़ में शामिल करवाए गए थे. नलिन दा का गुमसुम रहना, खाने की प्लेट को बिनछुए सरका देना, बिस्तर पर पड़े-पड़े हताशा से कमरे की छत को देखते रहना, जैसे यहां रहनेवालों के लिए कोई ख़ास मायने ही नहीं रखता था. इसीलिए किसी ने भी उन्हें ज़्यादा नहीं टोका. एकाध ने ‘हाय’, ‘हेलो’ की. एकाध ने उन्हें देखकर कनखियों से दूसरे को इशारा किया. एकाध ने ‘खा लो भाई, वरना बीमार पड़ जाओगे’ कहकर आत्मीयता का छींटा-सा भी मारा. लेकिन ये सब कुछ गुमसुम नलिन दा के ऊपर से निकल गया. सातवें दिन कमरे के शांत वातावरण में जैसे शंखनाद गूंजा अचानक, “ओ हो, तो आप हैं हमारे नए रूममेट. वेलकम, वेलकम.” नलिन दा ख़ामोश रहे. कमरा दोबारा गूंजा, “ओ हो, मुंह पर ताला, पिट के आए हो क्या?” वाहियात से सवाल के साथ गूंजता हो-हो का अट्टहास नलिन दा को चिढ़ा गया. उन्होंने गर्म लोई माथे तक चढ़ा ली. सुबह हुई. चिड़िया चहकी, तो नलिन दा ने सामनेवाले बिस्तर पर लेटे शख़्स को जांचने के उद्देश्य से जैसे ही उस पर नज़र टिकाई, तो कमरे में फिर हंसी थिरकने लगी, “ओ हो, रतनारे नैना, रतजगा किया रातभर. आंखें पके टमाटर-सी हो रही हैं. हूं... रतजगे के चार यार, जोगी, भोगी, रोगी और वियोगी. तुम इनमें से कौन-से हो भाई?” इस बार नलिन दा ने लोई माथे तक नहीं खींची. बस, ज़रा-सा मुंह फेर पलकें झपका लीं. ‘कौन हूं मैं?’ नलिन दा ने जैसे स्वयं से पूछा, ‘न जोगी, न भोगी, न ही रोगी, कर्मयोगी रहा हूं मैं आजीवन. पिता ने जब से बिज़नेस का जुआ कंधों पर टिकाया, तभी से हर पल, हर क्षण कर्मयोगी बना रहा मैं. रोगी बनने की नौबत कभी-कभार आई भी, पर लेटने की ़फुर्सत नहीं मिली कभी. गोली गटककर काम में जुटा रहा. चांदी के जिस चम्मच के साथ पैदा हुआ था, उसे अपनी मेहनत और लगन से सोने का कर दिया मैंने. विरासत में मिले वैभव को कई गुना बढ़ाकर तीनों बेटों को सौंप दिया ख़ुशी-ख़ुशी. कर्म फिर भी नहीं छोड़ा, सहयोगी बना रहा बेटों का. बीच में वियोग ज़रूर आया, जब साइलेंट हार्ट अटैक में पत्नी साथ छोड़ गई. पर उबर आया जल्दी. जैसी तुम्हारी मर्ज़ी भगवन, तुम्हारा आदेश सिर-माथे पर कह समझा लिया था ख़ुद को और तीनों बेटों की गृहस्थी की खिलखिलाहटों में डुबो दिया अपने आपको. फिर क्या, पोते-पोतियों, बेटों-बहुओं से भरे-पूरे परिवार का मुखिया मैं आज यहां पड़ा हूं अकेला. इन परायों के बीच इस वृद्धाश्रम में पिछले सात दिनों से? कोई पूछने भी नहीं आया. किसी ने खोज-ख़बर भी नहीं ली मेरी. पुराने मुंशीजी ने देखा न होता, तो शायद सड़क पर पड़ा होता कहीं. क्यों? क्या ग़लती की मैंने? कहां कसर रह गई मेरी परवरिश में?’ नलिन दा के गुमसुम फफोले फूट पड़े. वे ज़ार-ज़ार रोने लगे. शंखनाद ख़ामोश रहा. नलिन दा के दुख के आवेग से हिलते कंधों का वेग कुछ धीमा पड़ा, तो किसी के कोमल स्पर्श ने सहलाया, “ले, चाय पी गरमागरम. देख, छोटा है उम्र में मुझसे. हुकुम चलाऊंगा. नहीं सुनी मेरी, तो टिकाऊंगा भी एक.” आंसुओं से लबालब भरी पलकों को सयत्न उठाया नलिन दा ने, तो पाया कि झुर्रियों से अटी, बुढ़ौती से झुकी एक काया चाय का कप लिए सामने खड़ी है. यकायक बच्चे बने नलिन दा उस काया से लिपट गए. उनके गुमसुम मन का संताप- विलाप सब उस काया की स्नेह की उष्मा में तिरोहित हो गया. उसी दिन दोपहर के बाद आश्रम के बगीचे में बने सीमेंट के बेंच पर बैठे नलिन दा ने नम आंखों से भाईजी से एक सवाल किया. शंखनाद का नाम यहां भाईजी है, यह नलिन दा जान चुके थे. “क्या ग़लती की मैंने, जो मेरे तीनों बेटों ने अपनी बड़ी-बड़ी कोठियों में मुझे एक खाट बिछाने की जगह नहीं दी? तीनों ने यह भी नहीं सोचा कि इस बुढ़ापे में मैं कहां जाऊंगा? क्या खाऊंगा? उनकी कोठियां बनवाने, सजाने के लिए मैंने अपने पुरखों की छत भी बेच दी थी. सोचा था कि सही कहते हैं बच्चे. पुरखों की इस झड़ती दीवारोंवाली अमानत में अब रखा भी क्या है? अपने जीते जी बंटवारा कर दूं. तीनों की अलग-अलग कोठियां हो जाएंगी. पर क्या पता था...” नलिन दा फिर सिसकने लगे थे. “...सब यही ग़लती करते हैं. मैं भी करने जा रहा था, पर एक दोस्त ने बचा लिया ऐन व़क्त पर. बैंकवाला था. भगवान उसे स्वर्ग बख्शे. उसने मेरा घर बैंक में रखवा दिया. सगे बेटे चिढ़ गए. मुंह फेर गए. बैंक बेटा बन गया. हर महीने पैसा देता है मुझे. मन किया यहां रहा, मन किया घर चला गया. जहां पूरी उम्र गुज़ारी हो, वहां रहने का आनंद कुछ और ही होता है. पर अकेलापन काटता है न. वहीं तो गया हुआ था, जब तू यहां आया. मैं यहां होता, तो रोने देता तुझे इतने दिन.” भाईजी ने नलिन दा की खुश्क सिसकियों को एक बार फिर स्नेह की गर्माहट में समेट लिया. दिन बीते और नलिन दा उस माहौल में कुछ रमे, तो पता चला कि यह आश्रम भाईजी ही चलाते हैं. पेशे से डॉक्टर रहे हैं. सब को ख़ुश रखते हैं और ख़ुद भी ख़ुश रहते हैं. भाईजी नलिन दा के अंतस में गड़े कील-कांटों को निकालने के लिए यथा-संभव सर्जरी करते रहते थे. पर मन तो मन है ना. शीशे-सा नाज़ुक. भाईजी ने नलिन दा के नाज़ुक मन के सभी टूटे टुकड़ों की प्लास्टिक सर्जरी कर दी थी, पर एक हेयर लाइन फ्रैक्चर उनकी निगाह से छूट गया. उसी हेयर लाइन फ्रैक्चर की पीड़ा से बिंधे नलिन दा ने एक दिन फिर टीसता सवाल दोहराया, “मैं तीन-तीन बेटों का बाप और इतना अभागा. ज़िंदगी की सांझ में घर से निकाल दिया गया. अब मुझे बची-खुची सांसें इसी वृद्धाश्रम में पूरी करनी होंगी.” “वृद्धाश्रम क्यों कहता है? ये तो ‘एल्डर्स पैराडाइज़’ है, उम्रदराज़ों का स्वर्ग. जहां हर शाम कैम्पफायर होता है और हर सुबह किटी पार्टी, लेकिन न कोई रेस और न कोई रीस. बस, मस्ती और मस्ती.” कितना समझाया भाईजी ने कि अपने सुर बदलो, पर नलिन दा अभी भी वही राग अलाप रहे थे. “मैंने ऐसे नालायकों को पैदा किया, जिन्होंने घर से निकाल दिया.” “अरे, शुक्र कर उन्होंने घर से ही निकाला, दुनिया से निकाल देते, तो क्या कर लेता तू? मानता है न कि तीनों का खून स़फेद हो गया है. सोच, मर जाता तू, तो कैसे आता इस स्वर्ग में? और मान ले कि तीनों अच्छे होते तो क्या हो जाता? तुझे एयरकंडीशन कमरा दे देते, एक मोटा गद्दा डलवा देते, देखभाल के लिए नर्स रख देते, घूमने को ड्राइवर भी दे देते, सोने की थाली में खाता तू, पर खाता तो यही दलिया ही न? अकेला खाता सुबह-शाम. यहां देख इस चौपाल में कितने सारे खाते हैं, तेरे साथ ‘दलिया दो प्याज़ा’ और ‘खिचड़ी मखनी’ वो भी हंसी-ठहाकों के सलाद के साथ.” नलिन दा को कंधे से घेर भाईजी डाइनिंग हॉल की तरफ़ मुड़े. वहां भी कोई डिबेट चल रही थी. एक बुज़ुर्ग कह रहे थे, “मैं सोचता हूं कि ग़लती हमारी भी है. बच्चों ने जब जो मांगा, हमने उन्हें दिया. अपना पेट काटकर दिया. अपना मन मारकर भी दिया. हमेशा दिया-दिया और दिया. देते समय यह भी कहा कि सब तुम्हारा ही तो है. हमें क्या चाहिए.” “ठीक कह रहे हो भाई.” दूसरा बोला, “सवा सोलह आने खरी बात कही है तुमने. हमने कभी यह नहीं कहा कि हमारी भी कुछ ज़रूरतें हैं. हमें भी कुछ चाहिए. कभी उन्हें उनकी ज़िम्मेदारियों का एहसास दिलाया ही नहीं हमने. उनसे या तो अकड़करबात की या रोकर. याद करो, अपने बाप-दादाओं का ज़माना. संयुक्त परिवार में कर्त्तव्य भावना का पाठ अपने ही नहीं, पराए भी पढ़ाते रहते थे. यदि कहीं किसी भी बुज़ुर्ग की अवमानना होती थी, तो गली-मोहल्लों की पंचायत दम ठोककर खड़ी हो जाती थी, उस उपेक्षित बुज़ुर्ग के पक्ष में. डर होता था नई पीढ़ी के मन में परिवार का, समाज का. आज कौन-सी पंचायत और कौन-सा समाज. सब अर्थ खो चुके हैं.” चर्चा गंभीर मोड़ पर थी. आगे बढ़ती इससे पहले ही आश्रम का गेट खुला. एक नौजवान हाथों में कई पोटलियां लटकाए अंदर घुसा. पीछे-पीछे लाठी के सहारे चलते दो शिथिल पैर भी दिखाई दिए. “आ गया, आ गया अपना यार.” कुछ चिल्लाते, तो कुछ अपनी जगह बैठे-बैठे ही उमंग की हिलोर में झूलते दिखे. आनेवाला जितना उम्रदराज़ था, उसके आगे चलनेवाला उतना ही नौजवान था. 30-32 की बयार जैसा तरोताज़ा. कुछ देर भरत मिलाप-सा चला. नौजवान के हाथ की पोटलियां एक-एक करके डाइनिंग टेबल पर खुलती चली गईं. पोपले मुंह उन्हें देख-देखकर खिलखिलाते रहे. नौजवान के बैग में रखा एक डिब्बा भाईजी ने लपक लिया. ढक्कन खोल के लंबी सुगंध ली, “वाह! गोभी के परांठे, नीचे आलू के भी हैं. जीती रह, जीती रह. तुझे हमारी उम्र लग जाए. देख स्वाद छोटे.” भाईजी ने परांठे का एक निवाला नलिन दा के मुंह में ठूंसते हुए नौजवान की पीठ थपथपाते हुए कहा, “ये सोलिटेयर है हमारा, पर बहू तो कोहिनूर है. क्या ग़ज़ब के परांठे बनाए हैं.” “जल्दी घर लौटने का मन बनाना पिताजी.” नौजवान ने चिरौरी-सी की. “अरे, आऊंगा जल्दी. तू फ़िक़्र मत कर. यारों के बीच रह लेने दे थोड़े दिन.” आह्लादित पिता ने जवाब दिया. “नहीं, ज़्यादा नहीं.” डिब्बे से परांठा निकालते एक हाथ को रोकते हुए भाईजी बोले, “पूरा एक परांठा खा लिया, अब नहीं. इस उम्र में परांठे पचते नहीं.” “पचते तो हमें भी नहीं अंकल आजकल.” नौजवान बोला. “अच्छा.” भाईजी निवाला चबाते हुए बोले, “पहले तो ऐसा नहीं था. मेरे पिताजी तो नब्बे की उम्र में भी रोज़ नाश्ते में परांठा खाया करते थे. पर अब मुझे नहीं पचते, तुम्हें भी नहीं पचते, कोई गड़बड़ है यार. परांठों का कैरेक्टर ख़राब हो गया है शायद.” एल्डर्स पैराडाइज़ की दीवारों को टकराता जो ठहाका हवा में तैरा, उसमें सबसे ऊंचा स्वर नलिन दा का था.अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें – SHORT STORIES
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