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कहानी- छुपा हुआ सच (Short Story- Chhupa Hua Sach)

मुझे अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था. संज्ञाशून्य हो गया था मैं! अणिमा और अणिमा ही मेरी आंखों के आगे तैर रही थी. खिलखिलाती-मस्ती करती, मुझे लुभाने का प्रयास करती… मेरी परीक्षा लेती… मुझसे वादा लेती… उसकी हर हरकत में छुपा हुआ सच मेरे औघड़पन की खिल्ली उड़ा रहा था.

"हाय सर, आप यहां रहते हैं?” चंचल पुकार सुन मैंने पीछे गर्दन घुमाई, तो जींस-टॉप में एक आकर्षक लड़की को देख हैरान रह गया.
“मैं अणिमा, आपकी क्लास में पढ़ती हूं… थर्ड ईयर.”
“ओह हां.” आज ही तो मैंने पहली क्लास ली थी. लड़की अब मुझे पहचानी सी लगने लगी थी.
“मैं आपके सामनेवाले फ्लैट में रहती हूं… अब तो हम मिलते रहेंगे. यू आर सो गुड, सो हैंडसम.” वह हाथ हिलाकर चली गई. मैं अवाक् खड़ा उसे ताकता रह गया.
भला पहली ही मुलाक़ात में कोई इस तरह कमेंट कर सकता है? और वह भी अपने गुरु से?… ख़ैर मुझे क्या… सत्या के बाद मैंने तो वैसे भी अपने स्टूडेंट्स से एक दूरी बनाए रखने की ठान रखी है. सत्या मेरी डायरी का वह पन्ना है, जिसे फाड़कर फेंक देने के बाद भी एक पतली सी लकीर के रूप में वह अपने अस्तित्व का एहसास कराता रहता है. साथ ही अपने से जुड़े अन्य पन्नों को भी ढुलमुल करता रहता है.
इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर मैंने नई-नई लेक्चरशिप ज्वॉइन की थी. सत्या मेरी प्रथम वर्ष की स्टूडेंट थी. पढ़ते-पढ़ाते हम जाने कब एक-दूसरे की नज़रों को भी पढ़ने लगे. जब वह अंतिम वर्ष में आ गई और घर में उसकी शादी की बात चलने लगी, तब उसने मुझे चेताया. मेरा अपना कहने को ऐसा कोई नहीं था, जो जाकर शादी की बात करता. माता-पिता का देहांत हो चुका था और एकमात्र बड़ी बहन परिवार सहित विदेश में बस चुकी थी, जिससे कम ही संपर्क हो पाता था, लिहाजा मैं स्वयं ही जाकर उसके माता-पिता से मिला. लेकिन उन्होंने इस रिश्ते को सिरे से नकार दिया. मेरी जाति, परिवार, नौकरी कुछ भी तो उन्हें पसंद नहीं था. बिज़नेसमैन पिता ने बेटी के लिए बिज़नेसमैन दामाद ढ़ूंढ़कर उसका ब्याह रचा दिया. आम प्रेम कहानियों की तरह मेरी प्रेम कहानी को भी पूर्ण विराम लग गया. उसके बाद कुछ रिश्ते आए, लेकिन मेरी अरुचि देख सबने हाथ झाड़ दिए. तब से मैंने अपनी स्टूडेंट्स से एक ख़ास दूरी बनाए रखना शुरू कर दिया है. वैसे भी अब इन सब बातों की उम्र नहीं रही.
लेकिन यह लड़की! बाप रे बाप! पहले दिन से ही सिर पर चढ़ी आ रही है. एक से एक चुस्त और आकर्षक पहनावे में वह मेरे सामने आ धमकती. एक दिन तो रात को दस बजे घंटी बजा दी.
“यह आज वाला टॉपिक कुछ समझ नहीं आया सर. ज़रा फिर से समझा दीजिए.”
मैं हड़बड़ा गया. फिर संभलकर बोला, “अभी मैं कुछ आवश्यक नोट्स बना रहा हूं. कल क्लास में समझ लेना.” धड़ से दरवाज़ा बंद कर मैंने अपना पसीना पोंछा. अगले दिन कक्षा में पन्द्रह मिनट लगाकर मैंने वह टॉपिक फिर से समझाया. स्टूडेंट्स एक-दूसरे को हैरत से देख रहे थे तो मैंने सफ़ाई दी.
“कुछ बच्चों को कल यह टॉपिक समझ में नहीं आया था, इसलिए दुबारा बता रहा हूं.” क्लास से बाहर निकलते व़क़्त आगे भीड़ में जाती अणिमा से मैंने पूछा, “क्यूं आज आ गया समझ में?”
“मुझे तो कल ही आ गया था.” उसने लापरवाही से गर्दन झटकी और चलती बनी. मेरा ख़ून खौल उठा. यह लड़की अपने आप को समझती क्या है? इसके तो घर पर शिकायत करनी पड़ेगी. बित्ते भर की है और बाप की उमर के आदमी से मसखरी करती है.
शाम को बाज़ार होते हुए घर लौटा तो अणिमा एक तश्तरी में डोसा सजाए मेरा इंतज़ार कर रही थी. उसकी हिम्मत देख मैं हैरान था. यह ल़ड़की किस मिट्टी की बनी है? इसे कुछ भी कहना-सुनना ख़ुद का दिमाग़ ख़राब करना है. लेकिन प्रत्यक्ष में मैंने इतना ही कहा, “मुझे नहीं चाहिए.”
“ले लीजिए, मैंने घर पर बनाया है.” सामने से एक मधुर आवाज़ गूंजी. मैंने आवाज़ की दिशा में सिर उठाया. क़शीदे का प्याज़ी पटियाला-सूट, उस पर गुलाबी दुपट्टा डाले एक सौम्य मूर्ति को सामने वाले फ्लैट के दरवाज़े पर देख मैं हैरान रह गया.
“मेरी ममा.”
इतने दिनों में अणिमा की मां से पहली बार मेरा आमना-सामना हुआ था. मैं अपलक उन्हें निहार रहा था. सादगी, सौम्यता और सुंदरता की देवी मानो साक्षात् मेरे सामने आ खड़ी हुई थी.
“सर, डोसा ठंडा हो रहा है.” अणिमा ने चेताया तो मैंने चुपचाप उसके हाथों से तश्तरी थाम ली. फिर तो यह रोज़ का सिलसिला हो गया. कभी गाजर का हलवा, तो कभी छोले-भटूरे. उनका एक न एक बर्तन हर व़क़्त मेरे यहां पड़ा रहता. एक बार मैंने संकोचवश मना भी किया, “देखिए, यह रोज़-रोज़ अच्छा नहीं लगता. मैं तो आप को कुछ भी नहीं भेज पाता.”
“क्या हर चीज़ कुछ पाने की आस में ही दी जाती है? इंसान अपने आत्मसंतोष के लिए किसी से कुछ नहीं बांट सकता? मैं और अनु तो आपको अपना समझकर ये सब कुछ पक़ड़ा जाते हैं. आपको यदि नहीं पसंद है तो ठीक है…”


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“नहीं नहीं, चलने दीजिए.” मैं यकायक बोल उठा था. शायद इसी को इमोशनली ब्लैकमेल होना कहते हैं.
अणिमा पर भी अब मुझे ग़ुस्सा नहीं आता था, बल्कि उसकी छेड़छाड़-मसखरी का मैं भी आनंद उठाने लगा था. मुझे यहां आए महीनाभर होनेवाला था, लेकिन आश्‍चर्य की बात थी कि अभी तक अणिमा के पापा को मैंने नहीं देखा था. शायद दूसरे शहर में नौकरी करते हों. वैसे तो नीलिमाजी यानी अणिमा की मम्मी से भी मेरी मुलाक़ात कम ही हो पाती थी. मेरे कॉलेज जाने के बाद वे बैंक निकलती थीं और शाम को बाज़ार का काम निबटाते हुए काफ़ी देर से घर लौटती थीं. जबकि मैं दोपहर को ही लौटकर घर में बंद हो जाता था.
अपनी अध्ययनशील और एकाकी प्रवृत्ति के कारण किसी से घुलने-मिलने का मेरा स्वभाव नहीं था. यह तो अणिमा का खिलंदड़पन ही था, जिसने ज़बरदस्ती मुझे उस परिवार से हंसने-बोलने को मजबूर कर दिया था… या शायद कहीं बहुत अंदर दुबका हुआ नीलिमाजी के प्रति एक चोर आकर्षण… जो भी हो उस परिवार के प्रति मैं एक गहन अपनत्व महसूस करने लगा था.
अणिमा की परीक्षाएं समाप्त हुईं, तो वह छुट्टियां बिताने अपने नाना-नानी के पास सोलन चली गई. जाने से पूर्व मुझे सूचित करने आई. मुझे उदास देख बोली, “उदास मत होइए सर! ममा यहीं हैं. उनके बैंक में छुट्टी नहीं है.” उसकी दबंगता से हैरान मैं उसे ताकता रह गया. इस लड़की के मन में आख़िर है क्या?
कॉपी वगैरह चेक करने मुझे रोज़ ही कॉलेज जाना प़ड़ता  था. एक दिन शाम को बाज़ार में सब्ज़ी ख़रीदते व़क़्त नीलिमाजी से मुलाक़ात हो गई. लौटते हुए हम साथ हो लिए. घर आने पर उन्होंने चाय का प्रस्ताव रखा तो मैं इंकार न कर सका. शायद इसी बहाने उनके पति के बारे में कुछ पता चले.
वे ताला खोलने लगीं तो मैं पूछ बैठा, “अणिमा के पापा शायद बाहर जॉब करते हैं?” उनके मनोभाव देखकर लगा मैंने कोई अप्रिय बात पूछ ली है. लेकिन तीर कमान से निकल चुका था. मैंने बात को संभालने का प्रयास किया. “अं…. कभी देखा नहीं इस….”
गैस पर चाय चढ़ाते हुए वे निर्विकार भाव से बोलीं, “वे अब हमारे साथ नहीं रहते.”
“क्या…?” मैं चौंक उठा. इस उत्तर की तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी.
“निशांतजी! किसी भी इंसान को ज़िंदगी में सारे सुख तो नहीं मिल सकते न? अपने माता-पिता की इकलौती संतान हूं. बहुत ला़ड़-प्यार से उन्होंने मुझे पाला. ऊंची शिक्षा दिलाई, अच्छी नौकरी मिल गई, फिर अच्छा घर-परिवार देखकर उन्होंने मेरी शादी भी कर दी, पर…”
चाय तैयार हो गई थी. हम अपने-अपने कप लेकर बैठक में आ गए.
“जयेश की और मेरी निभ नहीं पाई. किसी एक के साथ बंधकर रहना उसे पसंद ही नहीं था. मैंने निभाने की बहुत कोशिश की. अणिमा उसी का परिणाम है. मैं सोचती थी बच्चे के आने से वे सुधर जाएंगे. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. पता नहीं मेरा भाग्य ख़राब था या मुझमें ही कुछ कमी थी…”
“नहीं, नहीं आप तो बहुत अच्छी हैं, बहुत…” मैंने अपनी जीभ काट ली. मुझे यह सब नहीं कहना चाहिए. नीलिमाजी ने मेरी बात पर गौर नहीं किया. वे तो अपनी ही धुन में बोले चली जा रही थीं.
“मम्मी-पापा को दुख होगा, इसलिए बहुत सालों तक मैंने ये बातें छिपाकर रखीं. निशांतजी! हम और हमारा समाज कितना भी प्रगतिशील होने का दंभ भर ले, लेकिन सच तो यही है कि नारी चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित, घरेलू हो या कामकाजी किसी न किसी रूप में घरेलू हिंसा की शिकार होती ही रहती है और अपने झूठे आत्मसम्मान की ख़ातिर उसे छुपाए भी रखती है. अणिमा बड़ी हो रही थी. उससे और अपने मम्मी-पापा से मैं कब तक हक़ीक़त छुपाती?

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मेरी सहनशक्ति भी अब जवाब देने लगी थी. और जब एक दिन पानी सिर से ऊपर उठ गया तो मैं अणिमा को लेकर मम्मी-पापा के पास चली गई. तलाक़ का नोटिस भिजवा दिया गया. जयेश तो छुटकारा चाहते ही थे. जल्दी ही हमारा तलाक़ हो गया. उन्होंने तो दूसरी शादी भी कर ली और अब शायद उस बीवी से भी खटपट चल रही है. मम्मी-पापा ने वहीं नौकरी कर लेने का बहुत दबाव डाला. पर मैं अणिमा को लेकर फिर यहीं लौट आई. मैं क्यों बुज़दिलों की तरह भागूं या मुंह छुपाऊं? चौबीसों घंटे मम्मी-पापा की आंखों के सामने रहकर क्यों उनकी सेहत ख़राब करूं? भरसक प्रयास करके भी वे मुझे दूसरी शादी के लिए राजी नहीं कर पाए. मैं कहती रही अब तो अणिमा बड़ी हो रही है, उसकी शादी करेंगे… पर…”
नीलिमाजी का मोबाइल घनघना उठा. अणिमा का ही फ़ोन था.
“तुझे ही याद कर रही थी.”
“शैतान को याद किया और शैतान हाज़िर…”
मां-बेटी की वार्ता लंबी चलेगी, सोचकर मैंने इशारे से जाने की इज़ाज़त ले ली. पर लौटकर भी मैं देर तक उन्हीं के बारे में सोचता रहा. नीलिमाजी के प्रति दिल सहानुभूति से भर उठा था. यह सहानुभूति थी या कुछ और कह नहीं सकता. पर उनके प्रति दिल में श्रद्धा, प्यार, आकर्षण जो कुछ भी था, वह पहले से कई गुना बढ़ गया था.
अणिमा लौट आई थी. और साथ ही लौट आई थी उसकी चुलबुली शरारतें, मस्ती, चिढ़ाने की ज़िद. नीलिमाजी ये सब देखतीं तो अकेले में मुझसे क्षमा मांग लेतीं.
“अनु आपको बहुत सताती है, पर दरअसल वह मन ही मन आपको बहुत पसंद करती है और जिसे वह पसंद करती है, उससे ऐसे ही मस्ती करती है… फिर बेचारी है भी तो कुछ ही दिनों की मेहमान… कल को चली जाएगी तो उसकी बातें, शरारतें ही तो शेष रह जाएंगी.” वे अचानक गंभीर होकर आगे बढ़ जातीं तो मैं भी भावुक हो उठता.
सच में बेटी को पराई अमानत समझकर पालना और फिर शादी करके विदा करना कितना कष्टप्रद होता है!
अणिमा अब कम नज़र आने लगी थी. कॉलेज भी कभी-कभार ही आती. कामवाली बाई ने बताया कि उसकी तबियत ठीक नहीं है. एक दिन अपने घर के दरवाज़े पर खड़ी दिख गई तो मैंने पूछ लिया, “आजकल कॉलेज क्यों नहीं आ रही हो? महीने भर बाद तो परीक्षाएं हैं.”
“मैं और ममा अगले सप्ताह नाना-नानी के पास जा रहे हैं.”
“वापस कब लौटोगी?”
“मैं तो अब नहीं लौटूंगी… मेरी डोली जो उठने वाली है.”
“तुम्हारी मस्ती फिर से शुरू हो गई?”
“मैं मस्ती नहीं कर रही… मैं अब सचमुच नहीं लौटूंगी… लेकिन जाने से पहले आपको मुझसे एक वादा करना होगा. मेरे जाने के बाद आप मेरी ममा का पूरा-पूरा ख़याल रखेंगे. उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे.” उसकी आंखें भर आई थीं. मैं चौंक गया.
“हे अनु! क्या सचमुच तुम्हारी शादी हो रही है? मुझे बताया ही नहीं? पर एग्ज़ाम तो दे देती… ऐसी भी क्या जल्दी है?”
मेरी बात को अनसुना करते हुए उसने कसकर मेरा हाथ पकड़ लिया. “आप मेरी ममा का ख़याल रखेंगे ना? उन्हें अकेला नहीं छोड़ेंगे ना? प्रॉमिस कीजिए. प्लीज़, आइ मीन इट.” उसका जुनून देखकर मैं हक्का-बक्का रह गया. यह इसे हो क्या गया है? उसकी संतुष्टि के लिए मैंने उससे वादा कर दिया.
“हां, मैं तुम्हारी ममा का पूरा-पूरा ख़याल रखूंगा. उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ूंगा. तुम भी मिलने आती रहना.”
वह चैन की सांस लेकर अंदर चली गई. मैं चेहरे पर नासमझी के भाव लिए कॉलेज चला गया. लेकिन मैंने निश्‍चय कर लिया कि नीलिमाजी से बात करूंगा कि वे अणिमा को परीक्षा ज़रूर दिलाएं. इतनी पढ़ी-लिखी होकर वे भला अपनी बेटी के भविष्य के साथ कैसे खिलवाड़ कर सकती हैं?
दोपहर में घर लौटा तो नीलिमाजी कॉरिडोर में ही नज़र आ गईं. वे मोबाइल पर बात कर रही थीं.
“हां मम्मी, सारी पैकिंग कर ली है. पर इस पगली को देखें ना! फिर से वही ज़िद लेकर बैठ गई है… आपको मेरी बात माननी होगी. मेरे जाने के बाद आप अकेली नहीं रहेंगी… मैंने आपके लिए ये ढूंढ़ लिया है… मैंने आपके लिए वो बात कर ली है… जाने क्या बड़बड़ाती रहती है? बड़ी मुश्किल से डांटकर सुलाया है. इसीलिए तो बाहर आकर बात कर रही हूं…” मुझे आते देखकर वे चुप हो गईं. “अच्छा बाद में बात करते हैं.” कहकर उन्होंने फ़ोन काट दिया.
“अं… आप लोग सोलन जा रहे हैं?”
“हां. मम्मी-पापा ने इसी प्रॉमिस पर हमें यहां छोड़ा कि एक तो अणिमा हर छुट्टियों में उनके पास जाकर रहेगी. और दूसरे… उसकी… विदाई वहीं से होगी.” उनकी आंखें भीग गई थीं.
“म… मैं समझता हूं आपकी और उसकी भावनाओं को. पर अणिमा के एग्ज़ाम तो हो जाने देती. ऐसी भी क्या जल्दी है शादी की?”

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“शादी? किसकी शादी?” नीलिमाजी हैरत से मुझे देखने लगीं तो मैं चकरा गया. कहीं उस लड़की ने मुझे फिर से बेवकूफ़ तो नहीं बना दिया.
“अणिमा की. और किसकी?”
“ओह माइ गॉड!” नीलिमाजी ने अपना सिर थाम लिया.
“… मैं समझती रही आपको सब पता है.”
“क्या?” मैं असमंजस के भाव लिए उनका मुंह ताक रहा था.
“अनु को ब्लड कैंसर है. सोलन में हमारे परिचित डॉक्टर उसका इलाज कर रहे हैं. यहां भी मैं उसे डॉक्टर को दिखाती रहती हूं. बीच में वह ठीक भी होने लगी थी. पर फिर डॉक्टरों ने जवाब दे दिया. तब हमने यही निश्‍चय किया कि अंत समय में उसे सोलन ले चलेंगे. वहीं से उसकी अंतिम विदाई…” वे फफक पड़ीं.
मुझे अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हो रहा था. संज्ञाशून्य हो गया था मैं! दुनिया में मुझसे बड़ा बेवकूफ़ और कौन होगा? नीलिमाजी को धैर्य बंधाने का भी मुझे होश नहीं रहा. बस… अणिमा और अणिमा ही मेरी आंखों के आगे तैर रही थी. खिलखिलाती-मस्ती करती, मुझे लुभाने का प्रयास करती… मेरी परीक्षा लेती… मुझसे वादा लेती… उसकी हर हरकत में छुपा हुआ सच मेरे औघड़पन की खिल्ली उड़ा रहा था.

संगीता माथुर

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