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कहानी- ढंग का आदमी (Short Story- Dhang Ka Aadmi)

ढंग का आदमी... शायद ऐसे ही किसी आदमी की तलाश मुझे भी तो है, पर ऐसे आदमी को चुनने का कोई पैमाना भी तो नहीं है? आदमी भी तो यूं ही ढंग की औरत तलाशते हैं और उसके पैमाने? सुंदर, मृदुभाषी, सहिष्णु, सेवाभावी, गृहकार्य में दक्ष और हां! अगर कमाती हो तो सोने पर सुहागा और आदमी?

नाम रानी, पर ‘यथा नाम तथा काम’ वाली कहावत उस पर लागू नहीं हो सकती. मेरे घर को अगर मिला लिया जाए, तो कुल चार घरों में काम करती है. दिन-रात, धूप-छांव में काम करते-करते साफ़ रंग भी तांबयी हो गया था उसका और आवाज़ मीठी होते हुए भी कठोर हो गई थी. वह ‘मैं’ को हमेशा ‘म्हारी’ बोलती. मातृभाषा तो लोगों के घर काम करते-करते कब का दरकिनार कर चुकी. अगर नहीं करती तो उसके और उसके नियोक्ताओं के बीच काम चलता भी कैसे?

उम्र- यही होगी कोई तीस साल. शादी के बंधन में बंधी या नहीं, कई बार सवाल कौंधता ज़रूर. कारण? शादीशुदा होने का कोई चिह्न-सिन्दूर, मंगलसूत्र आदि कुछ भी दिखाई नहीं देता. पर क्या पता आधुनिक स्त्रियों की तरह उसे भी फैशन के विपरीत लगता हो. लेकिन फिर ख़ुद को यह याद दिलाते हुए कि शिष्ट लोग दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करते, मैं अपने सवालों को जब्त कर लेती, लेकिन कब तक? एक दिन स्वयं को संयत करने की सारी कोशिश व्यर्थ हो गई और मैंने उस सीमा को तोड़ ही दिया, जिसे व्यक्ति विशेष का ‘निजी जीवन’ कहते हैं. बड़ा हो या छोटा, अमीर हो या गरीब, ये घुसपैठ शायद ही किसी को अच्छी लगती होगी, पर मानता कौन है? मैं भी नहीं मानी, “रानी, तुमने अपने पति को क्यों छोड़ दिया?”

“आपको किसने बोला?” उसे बुरा लगा. उसकी चेहरे पर खिंचती रेखाएं देखकर मैं सकपका गई.

“वह कल...” मैं आगे कुछ बोल ही नहीं पाई.


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“अब समझी म्हारी अम्मा आई थी कल? उसके पेट में कुछ नहीं रहता.”

“तुम्हें बुरा लगा? सॉरी...” अपनी ग़लती को सुधारने की कोशिश की, पर तीर कमान से निकल चुका था.

“सारी (सॉरी) की ज़रूरत कोनी... वह तो म्हारे अम्मा के ऊपर खीझ आती है मौक़ा मिला नहीं कि शुरू हो जाती है और कोई बात नहीं उसके पास... कहती है दुबारा ब्याह कर लूं.”

“मां है तेरी. चिंता तो होती ही है...”

“काहे की चिंता? वह तो भावज के मारे डरती है. जब से आदमी को छोड़ा है, भावज को डर लागे कि म उं क घर मा कब्ज़ा न जमा लूं. मूर्ख औरत इतना भी न समझे कि रानी मर जाए, पर बिना मान के न जिए. अब आप ही बोलो म भेड़ तो हूं न, जो किसी भी खूंटी से बंध जाऊं.” उसकी बातों में वज़न था.

इसी के साथ बीते दिनों की याद आ गई.

“रश्मि, तू शादी के लिए ‘हां’ क्यों नहीं करती? तेरी शादी हो, तो तेरी बहनों की बारी आए...”

“मम्मी, कितनी बार और कैसे समझाऊं कि मेरा शादी-वादी में कोई विश्‍वास नहीं है. सात फेरे लो व किसी और को पूरा जीवन सौंप दो. फिर जली-कटी सुनो, दिन-रात बैल की तरह जुतो...”

“दो अक्षर क्या पढ़ लिए, तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है.”

“दो अक्षर! अक्षर नहीं पूरा ज्ञान ले लिया और देख लिया सबको. आरती को देखो, शादी के दो महीने बाद लौट कर आ गई. उसके पति का पहले से ही कोई अ़फेयर था और वह शारदा, शादी के चार महीने बाद ही मर गई. आज तक पता नहीं चला कि उसे हुआ क्या था?”

“बस, बंद कर यह पुराण. पहले भी मैं पचास बार सुन चुकी हूं. अब तेरी सहेलियों के भाग्य में ऐसा था तो कोई क्या करे? अगर शादी में इतने खोट होते, तो सारी दुनिया कुंआरी न बैठी होती?”

“मम्मी, मुझे अभी तो शादी बिल्कुल नहीं करनी. अगले महीने मेरा प्रोबेशन ख़त्म हो रहा है, फिर सोचेंगे.” बात आगे न बढ़ने देने का एक ही हथियार बचा था.

“चल ठीक है. आजकल तो सभी को दूध देेने वाली गाय चाहिए. वैसे इसमें बुरा भी क्या है? चार पैसे घर में ज़्यादा आएं तो बरकत ही होगी...” तुरंत संभाल ली बात. मेरे मुंह से कुछ निकले, उससे पहले ही. पर एक महीना चार साल में बदल गया. प्रोबेशन ख़त्म होते ही बस्सी की डिग्री कॉलेज में मेरा ट्रांसफ़र हो गया. रोज़ की चिकचिक से दूर यहां पर मैं ख़ुश थी. पर यह ख़ुशी हर शाम अपना रंग खो देती थी. जब मेरे आसपास के सब अपने-अपने घरौंदे में अपनों के बीच गुटरगूं कर रहे होते, मैं दीवार से पीठ सटाए किताबों से बात करने की कोशिश करती.

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“ओ दीदी, कहां खो गई?” मेरी तंद्रा भंग हुई.

“तेरा तलाक़ तो हुआ नहीं है, फिर वापस क्यों नहीं...”

“शुभ-शुभ बोलो दीदी, वैसे म्हारे यहां कोर्ट-कचहरी का फेरा नहीं है. जाति-पंचायत बैठी और क़िस्सा ख़त्म. फिर रिश्ता छूटकर कहीं जुड़ता है? ज़बरदस्ती जोड़ लो गांठ पड़ जाए...”

“तू तो बड़ी समझदार है.”

“और नहीं तो क्या? समझदारी क्या पढ़े-लिखों की जायदाद है.” चेहरे पर गर्वीली मुस्कान बिखर गई.

“आओ दीदी, आप इधर बैठो. आज म्हे थानै म्हारी रामकथा बतावा.” उसने कुर्सी को खींच कर मेरी ओर किया और ख़ुद ज़मीन पर बैठ गई, “बारह बरस की रही मां-बाप ने ब्याह दिया शहर से गांव. फिर सारा जीवन बदल गया. खेत-घर सब संभालती. बैल और मुझमें कोई फ़र्क़ तो कर ले... पर शिकायत न थी.

आदमी कभी-कभी दुलारता भी था. सब ठीक था कि एक बार ऐसी खांसी लगी कि छूटी नहीं. काढ़ा पी-पी कर गला-ज़ुबान सब कड़वा हो गया. धीरे-धीरे कंकाल बन गई. म्हारी सुध किसी ने न ली. वह तो भला हो उस दीनदयाल का, अरे म्हारा पड़ोसी बुड्ढा. किसी काम से म्हारे गांव आया था. म्हारी ऐसी हालत देख शहर जा मां को ख़बर दी. मां दौड़ी-दौड़ी आई और म उं क उसके साथ जो आई, तो वापस न गई.” उसने एक सांस में ही अपनी आपबीती कह दी.

“वापस क्यों नहीं गई?”

“क्यों? अरे ये कौन से बात हुई कि जब शरीर काम का था, उसने अपने पास रखा और जब काम का न रहा तो छोड़ दिया. जो हांड़-मांस उसके लिए तोड़ती थी, क्या अपने लिए न तोड़ सकूं? दीदी, आप म्हारी जगह होतीं तो क्या करतीं?” इस सवाल के लिए मैं कतई तैयार नहीं थी.

“मैं... मैं...”

“अच्छा छोड़ो शायद पढ़े-लिखों में ऐसा न होता हो. पर दीदी, ये तो बोलो आपने अभी तक ब्याह क्यों नहीं किया?” इस हमले से तो मैं बिल्कुल घबरा गई, पर कैसे अपना विरोध जतलाती. सीमाओं को तोड़ने की शुरुआत तो मुझसे ही हुई थी.

“कोई पसंद नहीं आया.”

“अच्छा तो ये बात है.” मेरी बात पर उसने लंबी हुंकार भरी.

“दीदी, ठीक किया आपने. दूसरों की ख़ुशी की ख़ातिर ब्याह मत करना, जब तक ढंग का आदमी न मिल जाए.” अरे ये क्या उसकी बात में तो चुंबक जड़ गया और मैं ख़ुद को कहां रोक पाई.

“ढंग का आदमी? पर रानी, दुनिया में ऐसा कोई सांचा तो बना नहीं, जिससे आदमी को नापा जा सके कि वह ढंग का है या बेढंगा.”

“आप म्हारी बात नहीं समझीं. ढंग का आदमी वह होता है, जिसे काम से नहीं चाम से प्यार हो.”

“मतलब?”

“मतलब कैसे समझाऊं? अब म काम कर लूं. देर हो गई, तो मिश्राणी म्हारे को ठोकेगी.” उसकी खीं-खीं मेरी जिज्ञासा का अपमान था. पर वह कैसे समझती?

“दीदी, बहुत सारे सवाल ऐसे होवे हैं, जिनके जवाब स़िर्फ समय के पास ही होवे.” मेरे चेहरे का रंग फीका पड़ गया, क्योंकि उसकी पारखी नज़रों ने जिन्हें मैं एक पल पहले ही उलाहना दे रही थी, ने जान लिया मेरे ढंग के आदमी की तलाश के बारे में. उसकी बातों में सच्चाई तो थी ही, जिसे मैं चाहकर भी नकार न सकी. जीवन की ऊंची-नीची पगडंडियों पर चलते हुए, ठोकर खाकर गिरते हुए और फिर संभलकर उठकर चलने से जीवन में जो अनुभव रूपी ज्ञान आता है, वह बरसों मोटी-मोटी किताबों के नीचे दबे रहने से नहीं आ सकता. इस उठने-गिरने की प्रक्रिया में ज़मीन से लगी, जो धूल-मिट्टी झाड़ी जाती है, वह उन कड़वे अनुभवों का प्रतिरूप है, जिसे समय का बहाव उड़ा ले जाता है.

ढंग का आदमी... शायद ऐसे ही किसी आदमी की तलाश मुझे भी तो है, पर ऐसे आदमी को चुनने का कोई पैमाना भी तो नहीं है? आदमी भी तो यूं ही ढंग की औरत तलाशते हैं और उसके पैमाने? सुंदर, मृदुभाषी, सहिष्णु, सेवाभावी, गृहकार्य में दक्ष और हां! अगर कमाती हो तो सोने पर सुहागा और आदमी?

रानी से ज़्यादा अब मुझे इंतज़ार था कि कब उसे उसकी पसंद का साथी मिलेगा. मेरी जिज्ञासा व़क़्त के साथ ऐसे बढ़ रही थी जैसे अमावस्या के बाद चांद. संयम की सारी पूंजी अब मैंने एकत्रित कर ली थी. मैं दुबारा घुसपैठ करने की ग़लती दोहराना नहीं चाहती थी. पर रानी के घर में घुसते ही मेरी आंखें एक्सरे मशीन की तरह काम करने लगतीं, जो उसके भीतर-बाहर का सब कुछ पढ़ लेना चाहती थी.

‘कोई मिला ढंग का...’ वाक्य गले में ही अटक जाते. महीनों बीत गए और मेरी आस भी टूटने लगी कि एक दिन, “दीदी, आपको...”

“हां, हां बोल.” अपनी व्याकुलता को छिपाते हुए तुरंत तराजू लेकर बैठ गई.

“दीदी, म्हारे को थोड़ा पैसा उधार चाहिए.” धत्त तेरे की खोदा पहाड़ और... मन में ख़टास-सी उभरी. तराजू का क्या करूं?

“दीदी, आप पूछोगी नहीं महीने के बीच में म्हारे को कौन-सी ...”

“बता.” खीझ छुपाना मुश्किल था.

“म्हारे को कुछ ख़रीददारी करनी है. दस दिन बाद म्हारी शादी है.”

“क्या बात कर रही है!” दूर जाते-जाते जैसे बाज़ी जीत ली और तुरंत ही तराजू हाथ में ले लिया. एक पलड़ा खाली, बिल्कुल खाली क्यों? उसमें रानी के ढंग के आदमी का खाका जो रखना था और दूसरे पलड़े में ‘मैन फ्राम मार्स एंड वीमन फ्राम वीनस’ से लेकर वे सारी किताबें, जिनमें आदमी को परखने के लिए कुछ सांचे रखे गए थे.

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“दीदी, वह मिल तो चार महीने पहले ही गया था, पर मरा राज़ी न हो रहा था.” पहला वाक्य ही ऐसा कि रानी का पलड़ा ज़मीन में धंस गया. इसमें नया क्या है? कभी सुना है कि औरत राजी न हुई हो. इंकार या इक़रार करने के सारे अधिकार तो आदमी जन्म के साथ ही लेकर आता है और औरत? नहीं ऐसा हमेशा नहीं होता, मैं हूं न? मैं कब तैयार हुई? और तुरंत अपनी पीठ थपथपाई.

“क्यों? तू उसे पसंद नहीं थी?”

“पसंद? पसंद तो तब होती, जब वह म्हारे को नज़र भर देखता. म्हाने उर्वशी का हर रूप धरो, पर मजाल है कि ज़रा-सा टस से मस हुआ हो. वह तो...”

“वह तो क्या?” उसकी बात को तुरंत ऐसा पकड़ा कि कहीं बीच में छूट न जाए.

“वह तो उसके बच्चों को जब कलेजे से लगा लिया, तब जाकर...” और ये क्या तराजू का पलड़ा तो चटक गया, “बच्चे हैं उसके?”

“और नहीं तो क्या? दो लड़कियां हैं.” उसने उंगलियों को ऐसे उठाया जैसे विक्टरी मार्क बना रही हो, “दीदी, जब उसने ‘हां’ कर दी, तो म्हाने लगा जैसे जिनदगी (ज़िंदगी) की लड़ाई जीत ली हो.” बेवकूफ़ औरत... मैं तो सोच रही थी कि समझदार है, पर ये तो... रानी का चेहरा ऐसे चमक रहा था जैसे गड़ा हुआ ख़ज़ाना मिल गया हो. अनपढ़ है तभी तो...

“पता है दीदी, कहता था बच्चों की ख़ातिर दुबारा शादी नहीं करेगा. क्या पता सौतेली मां कैसे रखे?” मेरी उथल-पुथल से अनभिज्ञ वह बोलती जा रही थी.

“म्हाने तो ज़माने की रीत समझ में न आवे. मां तो मां होती है सौतेली हो या सगी... वो तो दुनियावाले ज़हर भर दें.” पलड़ा थोड़ा-सा ऊपर आया. सच ही तो है मां तो मां होती है- सौतेली हो या सगी. नौ महीने कोख़ में रखने से ही कोई औरत मां नहीं बनती. पल-पल अपने प्यार से सींचना, झुलसती धूप में छांव देना और थक जाने पर गोदी में बच्चे का सिर रख उसको थपकियां देना ये तो एक तपस्या है, जिसे करने वाली ही तो ‘मां’ कहलाती है.

“ओ दीदी, म ठीक कह रही हूं न... यशोदा ने कान्हा को कहां जन्म दिया था, पर कहलायी तो उसकी मां ही.”  पलड़ा थोड़ा और ऊपर हो गया. “दीदी, सोने का आदमी है सोने का...”

“मतलब पैसेवाला...”

“धत्त! आप म्हारी बात नहीं समझीं. व्यवहार से... गुण से... सोने का है. दो साल पहले उसकी घरवाली को लकवा मार गया. सारा बदन बेकार हो गया. जीती जागती लाश की सेवा करता रहा. मां-बाप भी परेशान हो जाएं, पर वह न हुआ. टट्टी, पेशाब सब ख़ुद करवाता. बोलो, कोई करेगा इस कलयुग में? कलयुग छोड़ो सतयुग और तेरता (त्रेता) में भी कोई मरद ने न किया होगा... आठ महीने हो गए ख़त्म हुए उसकी घरवाली को...” आगे मैं और कुछ सुन नहीं पाई. उसका पलड़ा अचानक इतना भारी हो गया कि मैं तराजू को संभाल नहीं पाई. उसके चेहरे की विजयी मुस्कान मेरे दूसरे पलड़े को अंगूठा दिखा रही थी.

ऋतु सारस्वत

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