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कहानी- धुंध रहित (Short Story- Dhundh Rahit)

“कबीर, क्या मैं कभी तुम्हारी कला की प्रेरणा बन सकूंगी?” कबीर बोला, “तुम्हारी ख़ुशबू मेरे सांसों में है. वह हर बार बदलती है, और हर बदलाव मुझे नई प्रेरणा देता है.” “ख़ुशबू का बदलाव”, यह वाक्य कल्पना के भीतर कुछ तोड़ गया...

दिल्ली की सर्दियों की सुबह… कोहरे में लिपटी छतें, ख़ामोशी से लिपटी गलियां और चाय की प्याली में डूबी कल्पना अपनी डायरी के पन्ने पलट रही थी. वह एक लेखिका थी, जिसकी लेखनी में सच्चाई की तपिश थी, शब्दों में आत्मा की तलाश और भावनाओं में मानवीय रिश्तों की उलझन.

खिड़की से बाहर धुंधली सड़क पर उसकी निगाहें अटक जातीं. १६६ नंबर की बस कोहरे को चीरती आती, थोड़ी देर रुकती और फिर चली जाती. हर रोज़ का यह दृश्य कल्पना को किसी जीवन दर्शन की ओर खींच ले जाता.

अचानक कमरे से व्यंग्यपूर्ण स्वर उभरा, “सुबह-सुबह फिर डायरी ले बैठी हो? मैं देर से ऑफिस पहुंचूंगा.”

कल्पना धीमे स्वर में बोली, “नाश्ता तैयार है, लंच भी पैक कर दिया है. आप डाइनिंग हॉल में चलिए.” उसकी आवाज़ में स्नेह कम, दायित्व अधिक था.

कल्पना की ज़िंदगी कोई सीधी रेखा नहीं थी. वह एक उलझी हुई रेखा थी, कभी पति की उम्मीदों से टकराती, कभी प्रेम के मौन से, कभी अपने ही मन के सवालों से.

उसकी शादी इक्कीस की उम्र में अरुण से हुई थी. पढ़ा-लिखा, शालीन, लेकिन भीतर एक दीवार लिए हुए, जिसकी पारदर्शिता में भी दूरी थी. वह कल्पना की कहानियों और कविताओं से परेशान नहीं था, लेकिन वह कभी उन्हें महसूस नहीं कर पाया.

“कल्पी,” वह अक्सर कहता, “भावनाएं अच्छी हैं… पर किताबों तक. ज़िंदगी में व्यावहारिक होना ज़रूरी है. लेखक अपनी रचना में इतना डूब जाता है कि जीवन के यथार्थ से कट जाता है.”

एक दिन कल्पना की मुलाक़ात हुई कबीर से. एक चित्रकार, जो रंगों की तरह रिश्तों को भी जीता था. जब उसने कल्पना की कविताएं पढ़ीं तो मुस्कुराकर कहा, “तुम्हारी हर कविता, एक अधूरी चिट्ठी है… जो तुमने कभी ख़ुद को नहीं लिखी.”

वह पहला व्यक्ति था जिसने कल्पना की आत्मा को पढ़ा था.

कबीर का एक मास्टरपीस- तितलियों का झुंड, जो एक फूलों की क्यारी से उड़ता हुआ दूसरी क्यारी की ओर जा रहा था. कल्पना मंत्रमुग्ध रह गई. अनायास बोल पड़ी, “आपने इन तितलियों की उड़ान में जैसे उनकी आज़ादी और भावनाएं भर दी हों.”

धीरे-धीरे कबीर के साथ उसका रिश्ता गहराता गया. लेकिन कबीर एक बंधनहीन परिंदा था. कल्पना, सामाजिक बंधनों की गिरफ़्त में बसी स्त्री.

एक रात सपने में वह बुदबुदाई, “कलाकार की कला उसकी आत्मा का प्रतिबिंब होती है. मेरी कहानियों की नायिकाएं भी मेरी ही तरह सहमी हुई होती हैं. शायद… मैं ही अधूरी हूं.”

कल्पना ने एक दिन पूछा, “कबीर, क्या मैं कभी तुम्हारी कला की प्रेरणा बन सकूंगी?”

कबीर बोला, “तुम्हारी ख़ुशबू मेरे सांसों में है. वह हर बार बदलती है और हर बदलाव मुझे नई प्रेरणा देता है.”

“ख़ुशबू का बदलाव” यह वाक्य कल्पना के भीतर कुछ तोड़ गया...

धीरे-धीरे उसे समझ आया- वह ना अरुण की पूरी थी, ना कबीर की. वह ख़ुद की भी पूरी नहीं थी.

उसने अपनी डायरी में लिखा, “मैंने ज़िंदगी को नाव समझा था, जिसे किनारे तक जाना होता है. लेकिन अब लगता है, ज़िंदगी कोई किनारा नहीं- एक दरमियान है… जहां मैं हूं, केवल मैं.”

कबीर की आज़ादी की चाहत कई बार कल्पना की सीमाओं को चुनौती देती रही थी. धीरे-धीरे दोनों दूर हो गए. अरुण पहले ही मन से दूर जा चुका था.

अब कल्पना रह गई- अपने शब्दों, अपनी कहानियों के साथ.

पर अब वह स्त्री नहीं रही, जो किनारे ढूंढ़ती थी. वह ख़ुद एक दरिया बन चुकी थी, जिसमें दर्द भी था और मुक्ति भी.

उसने अपने भीतर के समुद्र को पहचान लिया था ‌अब दिशा तय थी, यात्रा शुरू हो चुकी थी.

आज वह फिर खिड़की के पास बैठी थी. १६६ नंबर की बस गुज़र रही थी, लेकिन अब धुंध रहित दृष्टि... सब कुछ स्पष्ट था.

- हरि बल्लभ कुमार

Photo Courtesy: Freepik

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