कई दिनों से उसके मन की हालत बहुत डांवाडोल है. वह अनन्य को एक क्षण को भी अपने दिलो-दिमाग़ से निकाल नहीं पा रही. अनाड़ी नहीं है वह. सब कुछ बहुत अच्छी तरह जानती है. ऐसे संबंधों के बुरे नतीजों से भी वाकिफ़ है वह. पर अपने मन को कैसे काबू में रखे? अपनी देह को कैसे समझा-बुझा कर शांत रखे?... कुछ भी हो, पंडितजी को विश्वास में लेकर इस व्यक्तिगत समस्या का निराकरण तो वह चाहेगी ही... भीड़ छंट जाए. मौक़ा मिलते ही वह पूछेगी.
हालांकि पूनम को ज्योतिषियों, भविष्यवक्ताओं, हस्तरेखा विज्ञानियों, तंत्र-मंत्र साधकों, पूजा-पाठ और जप-तप करने वालों पर बहुत विश्वास नहीं है, पर जब पापा ने फ़ोन पर उसे बताया कि उसके शहर दिल्ली में अपने पं. रमाशंकरजी किसी सेठ के लिए महामृत्युंजय जाप का प्रबंध करने के लिए आए हैं और होटल में ठहरे हैं तो उनका मोबाइल नंबर लिया और तुरंत उन्हें फ़ोन लगा कर होटल का नाम और कमरा पूछ लिया. समय तय कर उनसे मिलने चली गई. पं. रमाशंकरजी पापा के मित्र और पारिवारिक सलाहकार हैं. पापा ने हमेशा हर कार्य उनसे ही पूछ कर किया है. यहां तक कि विराज से पूनम का रिश्ता भी उनकी ही सलाह से तय हुआ और उनके निकाले मुहूर्त पर ही शादी हुई. पुत्र यश हुआ तो उसकी जन्मकुंडली भी उन्होंने ही बनाई. उसे बहुत होनहार बताया. पढ़ाई-लिखाई में हमेशा टॉप करेगा. आई. ए. एस. बनेगा या किसी प्रसिद्ध मैनेजमेंट संस्थान से डिग्री लेकर विदेश जाएगा और मोटी तनख़्वाह पाएगा. यह सब सुनकर अच्छा तो पूनम को भी लगा, पर पूरे मन से विश्वास नहीं कर पाई. पूनम का अनुमान था, दिल्ली में होटल में उनसे मिलने उतने लोग नहीं आएंगे, जितने पिता के घर पर आते थे, लेकिन जब वह उस होटल के कमरे में पहुंची तो वहां जमघट देख कर हैरान रह गई.... इतनी जल्दी कैसे लोगों को ख़बर लग गई? क्या अब हर कोई किसी-न-किसी समस्या से ग्रस्त है? हर कोई कुछ-न-कुछ पूछना-जानना चाहता है? ग्रह-शांति के उपाय...व्यक्तिगत संबंधों में व्याप्त तनाव और उनके निवारण के लिए कोई तंत्र-मंत्र. जितने लोग, उतनी समस्याएं..... पं. रमाशंकरजी पूनम को आया देख मुस्कुराए, “आओ बेटी. यहां बैठो कुछ देर.” फिर उन सज्जन की तरफ़ उन्मुख हो गए, जो उनसे कुछ पूछ रहे थे. “क्या पूछने आई है पूनम?”..... अचानक यह सवाल उसके भीतर उठा. और जो पूछने आई है, क्या वह उनसे कह पाएगी? कह पाएगी कि विराज से उसकी शादी को चौदह-पन्द्रह साल हो गए. दस साल का लड़का हो गया-यश, पर वह पति के साथ देह-सुख उस तरह नहीं ले पाती जैसे उसकी उम्र की अन्य स्त्रियां लेती हैं या लेती होंगी....बमुश्किल दो-तीन महीने में कभी व़क़्त निकाल पाते हैं विराज उसके साथ बिस्तर पर....अन्यथा तो उसे अकेले ही छटपटाना पड़ता है देर रात तक. ठीक है कि काम-धंधे की व्यस्तता बहुत है. सुबह जब निकल जाते हैं, उसके बाद अक्सर रात के बारह-एक बजे ही आ पाते हैं. जैसे-तैसे खाना खाते हैं और उबासियां लेते हुए बिस्तर पकड़ लेते हैं. वह बर्तन समेट कर जब तक उनके पास पहुंचती है, उनकी नाक बजने लगती है... क्या एक बच्चे के बाद ही पूनम उनके लिए व्यर्थ हो गई? उसका कोई अर्थ नहीं रह गया? जो चाहत उसे अपनी देह में गरम लावे की तरह बहती अनुभव होती है, वह क्या विराज को अनुभव नहीं होती? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने कोई और पाल ली हो और अपनी भूख-प्यास वहां मिटा लेते हों? वही पागलों की तरह उनकी प्रतीक्षा करती अतृप्त मछली की तरह गरम रेत पर छटपटाती रहती हो? और सबसे ़ज़्यादा तो वह अनन्य से अपने संबंधों को लेकर परेशान रहने लगी है. द़फ़्तर में उसके साथ ही काम करता है....उम्र यही कोई 30-32 साल.... स्मार्ट, हंसमुख, आकर्षक, उसकी तरफ़ हमेशा ललचाई नज़रों से ताकते रहने वाला. अगर ठीक से बन-संवर कर द़फ़्तर पहुंचती है तो वह निकट आ बहुत हौले से ज़रूर कहता है, “बहुत अच्छी लग रही हो!” झनझना जाती है पूनम सुनकर. चेहरा आरक्त पड़ जाता है. कान तपने लगते हैं. सांसें तेज़ हो जाती हैं. किसी-किसी आदमी में पता नहीं कौन-सी चुंबकीय शक्ति या कौन-सी विद्युत धारा होती है कि औरत न चाहते हुए भी उसकी तरफ़ खिंची चली जाती है... अच्छी तरह जानती है पूनम कि वह एक बच्चे की मां है. शादी को पन्द्रह साल हो रहे हैं....अच्छा-ख़ासा बसा-बसाया उसका घर-संसार है. कहीं कोई कमी नहीं है, फिर भी न जाने क्यों हर व़क़्त महसूस होता है कि कहीं कुछ है जो कम है ज़िंदगी में! कुछ है, जो मिल नहीं रहा और जिसकी तीव्र आकांक्षा उसके भीतर हर व़क़्त सुलगती रहती है. क्या वह अनन्य के बारे में पंडितजी से कुछ भी पूछने का साहस कर पाएगी...? ख़ासकर तब जब पंडितजी उसके परिवार के अति परिचित व्यक्ति हैं. विराज के उसमें रुचि न लेने के बारे में तो एक बार को वह पूछ सकती है, पर अनन्य को लेकर कैसे कुछ पूछे? पूछना तो पड़ेगा. कई दिनों से उसके मन की हालत बहुत डांवाडोल है. वह अनन्य को एक क्षण को भी अपने दिलो-दिमाग़ से निकाल नहीं पा रही. अनाड़ी नहीं है वह. सब कुछ बहुत अच्छी तरह जानती है. ऐसे संबंधों के बुरे नतीजों से भी वाकिफ़ है वह. पर अपने मन को कैसे काबू में रखे? अपनी देह को कैसे समझा-बुझा कर शांत रखे?... कुछ भी हो, पंडितजी को विश्वास में लेकर इस व्यक्तिगत समस्या का निराकरण तो वह चाहेगी ही... भीड़ छंट जाए. मौक़ा मिलते ही वह पूछेगी. अचानक ही पर्दे के पीछे के छोटे कमरे की तरफ़ संकेत कर पंडितजी ने पूनम से कहा, “वहां चल कर बैठो. अभी एक मिनट में आता हूं.” पूनम वहां चली आई. “विराज के साथ ख़ुश हो पूनम? और यश ठीक है?” वे आकर दीवान पर बैठते हुए मुस्कुराए. गहरी और तीक्ष्ण दृष्टि से पूनम का वे निरंतर निरीक्षण कर रहे थे. कहीं मन का सारा हाल-बेहाल चेहरे से न जान जाएं. सकुचा-सी गई वह. नज़रें झुकाकर कुछ पल ख़ामोश बैठी रही. “जो कहने आई हो, बेहिचक कहो पूनम, स्मरण रखो, डॉक्टर और ज्योतिषी लोग एक की समस्या कभी दूसरे को नहीं बताते, इससे उनके विश्वास का हनन होता है. मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूं, इसका मतलब यह नहीं कि मैं उनसे तुम्हारी व्यक्तिगत बातें भी कह दूंगा.” अविश्वास और विश्वास के साथ पूनम ने पंडितजी की ओर देखा. कहे या न कहे? कुछ पल अनिश्चय में रही, फिर कुछ सोच कर बोली, “यह आपकी बनाई हुई जन्मकुंडली... और यह विराज की... यह बेटे यश की... और यह रहा मेरा बायां हाथ...” “वह सब तो ठीक है पूनम... पर अपनी समस्या तो बताओ.” वे अभी भी उसकी तरफ़ गहरी नज़रों से देखते जा रहे थे. “जो चाहिए वह नहीं मिल रहा पंडितजी.” पूनम ने हिचकते हुए कहा. “...और जो चाहिए, उसकी तृष्णा में भटकती जा रही हो तुम.” वे जन्मकुंडलियों और उसकी हस्तरेखाओं पर नज़रें दौड़ाते हुए बोले, “विश्वास इसी तरह डगमगाते हैं पति-पत्नी के बीच. चीज़ें इन चाहतों के कारण ही बिगड़ती हैं. मधुर संबंधों में दरारें ऐसे ही कारणों से उत्पन्न होती हैं. ऐसे ही टूटते हैं संबंध... असल में हम एक अबूझ प्यास के शिकार होकर हर स्थिति पर अपनी तरह सोचने लगते हैं... हमें लगने लगता है कि हमारे होने का अर्थ हमसे खोता जा रहा है. हमारा मन ज़िंदगी से धीरे-धीरे उचटने लगता है... इस उचटन और भटकन से अगर कहीं हमारे अपने व्यक्ति होने के एहसास गहराने लगें, हम अपना झूठा अर्थ तलाशने लगें... कहीं किसी और की तरफ़ हम खिंचाव अनुभव करने लगें, तो फिर संकट और ज़्यादा गहरा हो जाता है पूनम... ठीक है कि जो ज़िंदगी इस व़क़्त तुम जी रही हो, वह तुम्हें रास नहीं आ रही, पर ज़रा यह सोचो कि जिस ज़िंदगी की तरफ़ तुम ललचाई हुई बढ़ रही हो, उससे तुम्हें क्या हासिल होगा?... तुमने शायद संस्कृत का एक वाक्य सुना हो... ‘काम: कार्यहेतु: स्यात्’ अर्थात् काम, इच्छा, देह की कामनाएं, तृष्णाएं हमारे सभी कार्यों का कारण होती हैं... काम-वासना हमारे हर कार्य का नियंत्रण करती है.” पूनम को लगा, पंडितजी उससे परेशानी में डालने वाले सवालों को पूछे बिना ही सब कुछ संकेतों में कह गए हैं. आज पहली बार लगा कि पं. रमाशंकरजी दरअसल पहुंचे हुए ज्योतिषी और मन के विज्ञानी हैं. सिर झुकाए हौले स्वर में बोली, “अपने अभाव उस व़क़्त बहुत दुख देते हैं, जब कोई हमारे सामने स्वादिष्ट छप्पन-भोगों से सजी थाली परोस दे पंडितजी!” वह कुछ पल के बाद बोली, “अपनी भूख उस व़क़्त बहुत तीव्र हो उठती है, उसका क्या करूं?” “नियंत्रण... आत्मनियंत्रण बेटी.” पं. रमाशंकरजी मुस्कुराए, “नैतिक-अनैतिक का विचार गंभीरता से करो मन में. देह में कामनाओं का जागना या होना बुरा नहीं है... देह का अपना धर्म होता है, मन की अपनी चंचलता होती है. पर व्यक्ति को अपने विवेक से काम लेना चाहिए... क्या उचित है, क्या अनुचित... यह विचार जहां हमसे छूटा, हमारा पतन हुआ समझो.” “पर ज़रा सोचिए... आज की इस भागदौड़ वाली व्यस्त ज़िंदगी में हर व्यक्ति अपने संबंधों को लेकर संदेहग्रस्त है.... हम अपने आप से हर व़क़्त एक सवाल पूछते रहते हैं..... क्या हमें सही जीवनसाथी मिला? जैसा चाहिए था, वैसा यह है? जीवन में इसके साथ जो चाहिए था, वह सब मिल सका हमें?” “और क्या कभी यह सवाल भी मन आपसे पूछता है कि उसे जो चाहिए था, वह हम एक बार भी मन को खोल कर उसे दे पाए?” पं. रमाशंकरजी मुस्कुराए, “हम अपनी चाहतों को तो बढ़ा-चढ़ा कर महसूस करते हैं, पर दूसरे की चाहतों और इच्छाओं के प्रति भी क्या उतने ही संवेदनशील होते हैं?” मुस्कुरा दी पूनम, “एक बात बताएंगे? आपने मेरे मन की ये सब गहरी बातें कैसे जान लीं? क्या अपनी ज्योतिष-विद्या से?” “नहीं. यह ज्योतिष-विद्या की पहुंच से बाहर की बातें हैं बेटी...” वे भी मुस्कुराए, “तुम, जब कमरे में घुसीं, उस व़क़्त तुम्हारी आंखें और तुम्हारा चेहरा जितना उदास और द्वंंद्वग्रस्त दिखा, उससे बहुत कुछ समझ लिया.... हम लोग कठमुल्ले नहीं होते पूनम.... व्यक्ति के तन और मन की भंगिमाओं को भी अच्छी तरह समझने वाले मनोविज्ञानी होते हैं....तुम्हारे चेहरे और तुम्हारी आंखों की उदासी साफ़ बता रही थी कि विराज से असंतोष का ज्वालामुखी तुम्हारे भीतर कहीं गहरे सुगबुगा रहा है और उसके एवज में तुम किसी और की तरफ़ शीतलता की तलाश में खिंचती जा रही हो......” “क्या सलाह देंगे मुझे....? अपने आप को मेरा पिता मान कर सलाह दीजिएगा.... और बेटी के मन का भी ख़याल रखिएगा..... तन की ज़रूरतों और चाहतों-आकांक्षाओं का भी....” पूनम ने मुस्कुरा कर उनकी ओर ताका. “जिसे तुम मन-ही-मन चाहने लगी हो, वह बहुत जल्दी एक घातक पहल तुम्हारी तरफ़ करेगा.... यह तुम्हारे विवेक पर निर्भर होगा कि तुम उसकी पहल को स्वीकार करती हो या ठुकरा कर अपने दामन को बचा ले जाती हो....मैं इस मामले में तुमसे और कुछ नहीं कह सकता....वैसे पति विराज से अपने मन की तृष्णा को खोल कर कहोगी तो वहां से भी तुम्हें निराशा हाथ नहीं लगेगी.... हो सकता है, वह भी समझ बैठा हो कि तुम्हें देह-सुख में कोई रुचि नहीं है. इसलिए तटस्थ हो गया हो. वह संबंध ही क्या, जिसमें हम एक-दूसरे से मन की इच्छाओं-तृष्णाओं के बारे मे भी खुल कर न कह पाएं....?” पं. रमाशंकरजी की बात दरअसल एकदम सच निकली. एक दिन अनन्य के साथ वह रेस्तरां में बैठी कॉफ़ी सिप कर रही थी. लंच के समय उसने पूनम का हाथ अपनी हथेलियों में दबा लिया और अत्यंत तृषित नज़रों से उसकी आंखों में ताकता हुआ बोला, “पूनम...एक बात कहूं, बुरा तो न मानोगी....? जल्दी ही मेरी शादी होने वाली है. जिस लड़की से शादी तय हुई है, उसके पिता एक बड़े कारखाने के मालिक हैं.....अच्छा ऑफ़र है, इसलिए ठुकराना नहीं चाहता....” अनन्य कुछ पल रुका, फिर किसी तरह बोला, “परंतु अपनी शादी से पहले मैं एक बार... प्लीज़ पूनम, इसे अन्यथा मत लेना...... मैं एक रात तुम्हारे साथ व्यतीत करना चाहता हूं.... मैं इस बीच यह अच्छी तरह समझ चुका हूं कि तुम्हारे भीतर की औरत को भी एक पुरुष का देह-संग चाहिए....और इतने संबंध के बाद मेरे भीतर भी यह आग धधक रही है और चाहता हूं कि एक बार ही सही.... पर प्लीज़ पूनम...” “नहीं अनन्य....” एकदम सहमकर उठ खड़ी हुई पूनम, “तुम्हारी यह घातक पहल मुझे मेरी नज़रों में ही गिरा देगी...इसके बाद जो कुंठा मेरे भीतर उत्पन्न होगी, उसका दंश मैं फिर जीवनभर नहीं भुला सकूंगी..... वह मुझे फिर आजीवन दुखाता रहेगा... आदमी संसार से छिप कर ग़लत काम कर सकता है, पर मन से छिप कर कहां जाएगा....? इसलिए प्लीज़.... ये सब हमें अब यहीं ख़त्म कर देना चाहिए.....” उठ कर वह रेस्तरां से बाहर निकल आई. शाम को द़फ़्तर से घर जाते व़क़्त पूनम सोच रही थी, पति विराज से अपने तन और अपने मन की सारी बातें खोल कर कह देगी....पं. रमाशंकरजी से मिली थी, यह भी उन्हें बता देगी और उनसे हुई बातें भी...हो सकता है, अपने मन की भटकन को वह साफ़-साफ़ न कह पाए, पर और बातें तो कह ही सकती है.- दिनेश पालीवाल
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