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कहानी- एक कटोरी सब्ज़ी… (Short Story- Ek Katori Sabji…)

“लेकिन फिर भी एक बात तुमसे कहना चाहूंगा, ख़ुद पर तरस खाना बंद करो और तब तक तुम्हारी ज़िंदगी में कोई बदलाव नहीं हो पाएगा, जब तक तुम ख़ुद को एक बोझ समझोगी… सामने वाला भी हमारी तभी कद्र करता है, जब हम ख़ुद को वैल्यू देते हैं. इसलिए अपनी मजबूरी को आगे बढ़ने का हथियार बना कर अपने लक्ष्य तक पहुंचने की कोशिश करो, क्योंकि जो अपनी मदद ख़ुद करते हैं, ऊपर वाला भी उन्हीं की मदद करता है." फिर मैं अपने घर वापस चला गया था.

आज मैं अपने ऑफिस के लिए निकलने में थोड़ा लेट हो गया था, इसलिए मैं जल्दी-जल्दी अपना घर लॉक करके नीचे उतर गया था. तभी मेरी नज़र नीचे वाले फ्लैट पर पड़ी. उसके बाहर सामान पड़ा देखकर मैंने राहत की सांस ली, क्योंकि बहुत समय से खाली पड़े उस फ्लैट के कारण पूरी बिल्डिंग में एक मायूसी का माहौल बना रहता था.
अब वहां नए लोग आ जाने के कारण चहल-पहल बनी रहेगी, मुझे यह सब सोच कर बहुत अच्छा लगा.
फिर दिन तो मेरा काम करते-करते बीत गया और शाम होने पर जब मैं घर पहुंचा, तब फिर से मेरी नज़र उस फ्लैट पर पड़ी. उस फ्लैट में अब भी पहले जैसी ही शांति थी. फिर मैं सोचने लगा कि हो सकता है कि सिर्फ़ अभी इस फ्लैट में समान ही शिफ्ट हुआ हो और इसमें रहने वाले लोग शायद थोड़े समय बाद आए.
दिनभर की थकान के बाद एक गरमा गरम प्याली की चाय औषधि का काम करती है. इसलिए मैंने फ्रेश होकर अपने लिए चाय बनाई और बाहर बालकनी में आ गया. तभी अचानक चाय पीते वक़्त जब मेरी नज़र नीचे वाले फ्लैट पर पड़ी, तब बाहर बैठी जिस लड़की को मैंने देखा, उसे देखकर मैं हैरान रह गया.
जब दिमाग पर थोड़ा ज़ोर डाला, तो मुझे याद आया कि यह तो वृंदा है, जो मुझे उस समय मिली थी, जब मैं अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए उसके घर में किराएदार बनकर गया था. फिर मैं पास रखी चेयर पर बैठा पुरानी बातें सोचने लगा. मेरे सामने रखी चाय ठंडी होती रही, लेकिन मैं उससे बेख़बर अपने ही ख़्यालों में डूबा रहा.
“मामीजी ने आपके लिए यह तौलिया और चादर भेजी है… आपको अपना खाना खुद बनाना पड़ेगा और कमरे की सफ़ाई भी ख़ुद करनी पड़ेगी, क्योंकि हमारे यहां कामवाली बाई नहीं आती. अगर आपको अपने घर के लिए कामवाली बाई चाहिए, तो आपको उसका इंतज़ाम ख़ुद करना पड़ेगा." वृंदा ने मुझे यह सब कहा और फिर मुझे टॉवल और चादर देकर वह तेजी से बाहर निकल गई.
तब मैंने अपने हाथ में उठाया हुआ सूटकेस एक तरफ़ रखा और कमरे में अपना सामान लगाने लगा. थोड़ा सा ही समान था मेरे पास. इसलिए जल्दी ही मेरी सारी सेटिंग हो गई. फिर मैं अपनी किताबें निकाल कर पढ़ाई करने बैठ गया. थोड़ी देर बाद मुझे लाइब्रेरी भी जाना था, ताकि मैं थोड़ी किताबें इशू करवा सकूं.
“अरे, कम से कम सफ़र की थकान तो उतार लेते, ऐसे पढ़ने की भी क्या जल्दी है." अचानक उस लड़की का स्वर उभरा था.
“मैं यहां मौज-मस्ती करने नहीं आया हूं. बहुत ज़िम्मेदारियां है मेरे सिर पर… थोड़े समय बाद मेरा इंटरव्यू है. अगर मैं उसमें सफल नहीं हो पाया, तो मेरा यहां आना भी बेकार जाएगा." मैंने किताब पढ़ते हुए कहा. मेरी यह बात सुनकर तेजी से वह बाहर चली गई.
सच कहूं, तो मेरा उस समय पढ़ाई में बिल्कुल भी मन नहीं लग रहा था, क्योंकि थोड़ी थकान भी थी और भूख भी लग रही थी.
“यह लो चाय और गरमा गरम टोस्ट." मामी मंदिर गई है, इसलिए तुम्हारे लिए बना लाई. जल्दी से खा लो और बर्तन यहीं रख लेना मैं बाद में ले जाऊंगी." इतना कहकर वह फिर से गायब हो गई.

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चाय और टोस्ट खाते वक़्त मैं वृंदा के बारे में ही सोच रहा था. ना चाहते हुए भी मैं उसके प्रति एक लगाव महसूस करने लगा था. फिर अचानक मैंने अपनी इस सोच पर विराम लगाया और पुनः पढ़ाई करने बैठ गया, क्योंकि मैं जानता था कि अगर मैं अपने लक्ष्य से भटक गया, तो यह मेरे लिए कदापि अच्छा नहीं होगा.
फिर बीते समय के साथ मेरा और वृंदा का एक अनजान रिश्ता बनता जा रहा था. जब-जब मैं समय कम होने के कारण अपना रूम साफ़ नहीं कर पता था, तब वह चुपके से आकर मेरा कमरा साफ़ कर जाती थी.
सुबह के समय मैं जैसे-तैसे अपने नाश्ते के परांठे और रात के खाने के लिए तीन-चार रोटी सेंक कर रख देता था, क्योंकि मैं जानता था कि दिनभर की थकान के बाद मैं रात का खाना नहीं बना पाऊंगा. इसलिए ही तो रात में कभी-कभी ही सब्ज़ी बन पाती थी या तो मैं बाज़ार से कोई सब्ज़ी पैक करवा कर ले आता था या फिर अचार से ही खा लेता था.
इसी क्रम में जब एक दिन मैं लाइब्रेरी से घर वापस आया, तब किचन के स्लैब पर एक कटोरी सब्ज़ी देखकर मुझे एक अनोखे आनंद की अनुभूति हुई. कटोरी के नीचे एक पर्ची रखी हुई थी, जिस पर लिखा हुआ था, “हर रात को बिना सब्ज़ी के ही रोटी खाओगे, तो तबियत बिगड़ जाएगी. सारा दिन इतनी पढ़ाई करते हो, तो कम से कम रात को तो ढंग से खाना खाया करो."
उस समय मुझे बहुत तेज भूख लगी हुई थी. इसलिए मैंने तुरंत उस सब्ज़ी के साथ सुबह की बनाई हुई रोटियां अपनी प्लेट में लगा ली और खाने बैठ गया. सही में, सब्ज़ी बहुत स्वादिष्ट बनी हुई थी. न जाने कितने दिन बाद मुझे आज खाने में स्वाद आया था. उसके बाद तो न जाने कितनी बार वृंदा चुपके से एक कटोरी सब्ज़ी बचाकर मेरी किचन में रख जाती थी.
धीरे-धीरे बीत रहे समय के साथ मुझे पता चला कि वृंदा अनाथ है, इसलिए वह अपने मामा-मामी के पास रहती है. वैसे तो वृंदा कॉलेज जाती है, लेकिन उसकी मामी घर की सारी ज़िम्मेदारियां उस पर सौंप कर इसी कोशिश में लगी रहती है कि उसकी पढ़ाई किसी तरह से रुक जाए.
वैसे उसके मामा अच्छे हैं, लेकिन मामी के आगे उनकी एक नहीं चलती. उसकी मामी उस पर बहुत ज़ुल्म करती थी. इसलिए ही तो मैंने कई बार वृंदा को अकेले में रोते हुए देखा था. उसे इस तरह रोते देखकर मुझे बहुत दुख होता था, लेकिन मैं भी मजबूर था, क्योंकि मैं उसे कोई भी झूठा दिलासा नहीं दे सकता था.
फिर वह दिन भी आया, जब मेरा इंटरव्यू क्लियर हो गया. मेरे जॉब की पोस्टिंग अभी होना बाकी था, इसलिए मैं सारा सामान पैक करके अपने घर वापस जाने लगा था. तभी अचानक दरवाज़े पर एक हल्की सी आहट हुई. वहां पर वृंदा हाथ में चाय की ट्रे लिए खड़ी थी.
“अंदर आ जाओ बाहर क्यों खड़ी हो." मैंने उससे कहा तो वह अंदर आ गई.
“यह समय चाय पीने का तो नहीं है." ना चाहते हुए भी मेरे मुंह से यह निकल गया.
“चाय पीने का कोई समय नहीं होता, बस चाय पीने के लिए अच्छी कंपनी चाहिए." इतना कहकर वह अपना दुपट्टा अपने हाथों में मसलने लगी.
मैं समझ चुका था कि वृंदा मुझे क्या कहना चाहती है, लेकिन मैं फिर भी अनजान बना रहा, क्योंकि अभी मेरी पोजीशन ऐसी नहीं थी कि मैं वृंदा का हाथ थाम सकूं. वहां गांव में बीमार पिता, छोटे भाई-बहन सभी की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर थी. और वैसे भी मुझे ऐसे जीवनसाथी की तलाश थी, जो मेरे साथ कदम से कदम मिलाकर चल सके ना की मुझ पर निर्भर रहे.

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“अब तो तुम्हारी जल्दी ही नौकरी भी लगने वाली है. अगर मेरे बारे में मामी से बात करो तो… वह तो इस रिश्ते के लिए तुरंत हां कर देगी, क्योंकि उनके लिए तो मैं सिर्फ़ एक बोझ हूं." इतना कहकर वह रोने लगी थी.
“देखो, तुम्हारी चाहत का अंदाज़ा है मुझे और मुझे इस बात से इनकार भी नहीं है कि मैं भी तुम्हें चाहने लगा हूं. लेकिन मैं चाह कर भी तुम्हारा हाथ नहीं मांग सकता, क्योंकि मेरी कुछ मजबूरियां है. जिनके चलते मैं विवश हूं."
“लेकिन फिर भी एक बात तुमसे कहना चाहूंगा, ख़ुद पर तरस खाना बंद करो और तब तक तुम्हारी ज़िंदगी में कोई बदलाव नहीं हो पाएगा, जब तक तुम ख़ुद को एक बोझ समझोगी… सामने वाला भी हमारी तभी कद्र करता है, जब हम ख़ुद को वैल्यू देते हैं. इसलिए अपनी मजबूरी को आगे बढ़ने का हथियार बना कर अपने लक्ष्य तक पहुंचने की कोशिश करो, क्योंकि जो अपनी मदद ख़ुद करते हैं, ऊपर वाला भी उन्हीं की मदद करता है." फिर मैं अपने घर वापस चला गया था.
थोड़े दिन बाद मेरी पोस्टिंग एक नए शहर में हुई और मैं फिर वहां चला गया. अब सब कुछ ठीक से मैं मैनेज कर पाया था, क्योंकि एक अच्छी सैलरी मुझे जो मिलने लगी थी. फिर मैंने अपने बीमार बाबूजी का इलाज कराया और छोटे-भाई बहनों को सेटल किया.
अब तो मेरे भाई-बहनों की भी शादी हो चुकी है और माता-पिता भी मेरा साथ छोड़कर जा चुके हैं. लेकिन जब तक मां-बाबूजी ज़िंदा रहे, तब तक वह लोग मुझ पर लगातार शादी करने का दबाव बनाते रहे, लेकिन मैं चाह कर भी ख़ुद को इसके लिए तैयार नहीं कर सका, क्योंकि शायद मैं वृंदा को अभी तक भूल नहीं पाया था.
फिर अचानक मैंने अपने आसपास बढ़ते अंधकार को महसूस किया और अंदर चला आया. तब मैं बिना कुछ खाए-पिए ही बिस्तर पर लेट गया और गहरी नींद में सो गया.
अगले दिन संडे था, इसलिए मैं थोड़ी देर से सोकर उठा था. जब बाहर बालकनी में आया, तो देखा कि वृंदा सामने वाले गार्डन में टहल रही है.
बस, फिर मैं तुरंत उसके पास जा पहुंचा. मुझे अचानक सामने देखकर वह हैरान हो गई.
थोड़ी देर के लिए तो ऐसा लगा कि मानो हम दोनों ही ख़ामोश हो गए हैं. हम दोनों के भीतर अनेक बातें बवंडर मचा रही थी, लेकिन हमारे होंठों पर चुप्पी छाई हुई थी. शायद ऐसा ही होता है, जब हम किसी अपने से एक लंबे समय के बाद मिलते हैं. तब हमें ऐसा लगता है मानो हमारे कुछ भी कहने-सुनने का शब्दकोश ही खाली हो गया हो.
“आप यहां कैसे..?" वह ही चुप्पी तोड़ते हुए बोली थी.
“मेरी पोस्टिंग इसी शहर में है. और तुम सुनाओ तुम यहां कैसे? तुम्हारे मामा-मामी कैसे हैं?” मैं उससे पूछने लगा था.
“ज़िंदगी ने बहुत बड़ा मज़ाक किया है मेरे साथ… मंदार के साथ तीन साल का वैवाहिक जीवन और फिर अचानक मंदार का एक रोड एक्सीडेंट में मुझे छोड़ कर चले जाना…” इतना कहकर वह रो पड़ी थी.
उसे इस तरह रोते देखकर मेरा भी मन भर आया था, लेकिन भगवान की मर्ज़ी के आगे सब मजबूर हैं. वह मानसिक रूप से पूरी तरह टूट चुकी थी. पर मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि वह आगे पढ़ने के लिए इस शहर में आई है. उसके पति तो अब नहीं रहे थे, किंतु उसकी सास द्वारा उठाया गया यह कदम काबिल-ए-तारीफ़ था.


“विवेकजी, ज़िंदगी भी कितनी अजीब है. मेरी मामी ने तो मुझे कोई सुख नहीं दिया, लेकिन मंदार और उनकी मां ने मुझे ज़िंदगी के सारे सुख दे दिए. जबकि मामी ने तो मेरी शादी मंदार से इसीलिए करवाई थी, ताकि उनका बोझ उतर सके. आपके जाने के बाद मैंने अपनी कॉलेज की अधूरी पढ़ाई पूरी की और फिर मैं तो आगे भी पढ़ना चाहती थी, लेकिन तब तक मंदार को मेरे लिए पसंद किया जा चुका था.
इसलिए मुझे मजबूरन मंदार से शादी करनी पड़ी. लेकिन मंदार ने ढेर सारे सुखों से मेरा जीवन भर दिया. वह भी चाहते थे कि मैं आगे की पढ़ाई पूरी करूं. अब मेरे पति तो नहीं रहे, लेकिन मां तुल्य मेरी सास ने अपने संस्कारों के ख़िलाफ़ जाकर यह कदम उठाया‌ है…" इतना कहते कहते उसका मन भर आया था.
“मंदार के जाने के बाद सभी रिश्तेदारों और समाज ने मेरी सास पर मेरी दूसरी शादी करने का दबाव बनाया था, लेकिन मेरी सास ने मेरी इच्छा को महत्व दिया और मुझे यहां पढ़ने के लिए भेजा. अब जब उन्होंने मुझ पर इतना भरोसा दिखाया है, तो मुझे उन्हें सही साबित करना है. फ़िलहाल तो मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहती हूं." उसकी यह बात सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा था, क्योंकि वह अपने भविष्य को लेकर सचेत थी.
फिर बीत रहे समय के साथ हम दोनों नज़दीक आने लगे थे. वैसे तो हम दोनों ही बिज़ी शेड्यूल होने के कारण व्यस्त ही रहते थे, लेकिन फिर भी हम दोनों पड़ोसी तो थे ही. बस इसी वजह से हमारी मुलाक़ात अक्सर हो जाती थी.
धीरे-धीरे वृंदा खुलने लगी थी. मेरे प्रति उसका खुश्क स्वभाव अब बदलने लगा था. पतझड़ के बाद आगमन होने लगा था बसंत का… उसके दिल का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरे भीतर एक नया बदलाव जन्म लेने लगा था. इस बार पहल करने की मेरी बारी थी. इसलिए ही तो मौक़ा देखकर मैंने एक दिन अपने मन की बात उसके सामने रख दी थी.
“आपकी भावनाओं की क़दर है मुझे, लेकिन… मेरा मन अभी इसके लिए तैयार नहीं है. शायद मेरा मन तो मंदार के साथ ही चला गया है, बस रह गया है तो यह निर्जीव शरीर…" उसकी आंखें नम हो गईं.
“वृंदा, तुम्हारे दुख का अंदाज़ा है मुझे, लेकिन कब तक अपने खाली मन को समेट कर चलती रहोगी… कभी तो उसमें प्यार भरी ऊष्मा का संचार करना पड़ेगा." मैं अचानक ही उत्तेजित हो गया था.
“आपका कहना सही है, परंतु मुझे शायद अभी थोड़ा और वक़्त लगेगा, क्योंकि मेरे भीतर की ज़मीन पथरीली हो चुकी है. जब तक मानसिक रूप से मैं ख़ुद को तैयार नहीं कर पाती, तब तक शायद मेरा मन ऐसे ही दुखी रहेगा."
अब शायद कुछ और कहने सुनने को नहीं बाकी था, इसलिए मैं चुपचाप उठकर बाहर आने लगा था.

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“विवेकजी, क्या एक स्त्री और पुरुष शादीशुदा होने के बाद ही एक रिश्ते को नाम दे पाते हैं. क्या हम दोनों अपनी सीमाओं को पहचानते हुए एक-दूसरे के साथ दोस्ती का एक नया रिश्ता नहीं कायम कर सकते." वह अचानक मुझसे पूछ बैठी.
 उसके मुंह से यह सब सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा था.
“हां क्यों नहीं… तुम्हारी यह सोच बिल्कुल सही है, लेकिन इसके लिए मुझे हर रोज़ डिनर में तुम्हारे हाथों की बनी एक कटोरी सब्ज़ी अवश्य चाहिए, क्योंकि मैं तो आज तक तुम्हारे हाथ का स्वाद भूल नहीं पाया हूं." मैं बातचीत का रुख बदलने के इरादे से बोला था.
“हां क्यों नहीं, अब तो मेरे हाथों का बना डिनर आपको रोज़ खाने को मिलेगा." इतना कहकर वह हंस पड़ी थी.
इससे पहले कि मैं कुछ कहता, वह अचानक बोल पड़ी थी, “अपनी सोसाइटी के बाहर बनी छोटी सी चाय की टपरी देखकर मुझे आपकी बहुत याद आती थी, लेकिन मैं अकेली होने के कारण कभी वहां नहीं गई. तो चलो आज चलकर साथ-साथ चाय पीते हैं…"
“चाय और इस समय…" मैं अचानक उससे पूछ बैठा.
“चाय पीने का कोई समय नहीं होता और चाय का मज़ा तो तभी आता है, जब साथ देने वाला भी आपके जैसा हो." उसके चेहरे पर अचानक ही एक मुस्कान उभर आई थी.
“ऐसी बात है, तो चलो अभी कड़क चाय का मज़ा लेते हैं और साथ में गरमा गरम मक्खन वाला टोस्ट भी खाएंगे." इतना कह कर मैं ज़ोर से हंस दिया था.
थोड़ी देर बाद हम दोनों उस छोटी सी चाय की टपरी पर बैठकर गरमा गरम चाय का मज़ा ले रहे थे. सच में साथ में मक्खन वाले टोस्ट ने तो चाय का मज़ा ही दुगना कर दिया था.
एक प्यारा सा दोस्ती का रिश्ता पनप रहा था हम दोनों के बीच…अब हमारे इस रिश्ते का क्या भविष्य होगा हम दोनों नहीं जानते, लेकिन हमारे पास आज जो है, वह बहुत सुंदर है, हमारे लिए तो यही सुखद है.
फिर चाय पीने के बाद हम दोनों अपने-अपने घरों को चले गए थे.

शालिनी गुप्ता

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Photo Courtesy: Freepik

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