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कहानी- कहीं ये वो तो नहीं… (Short Story- Kahin Yeh Woh Toh Nahin…) 

बड़ी मुश्किल से बेकाबू हुए दिल को संयत कर निशा ने शालीनता से दिनेश का अभिवादन किया. प्रथम परिचय के आदान-प्रदान के बाद दिनेश तो वहां से चला गया, मगर उसके साथ आया खुमार भरा रोमानी झोंका निशा के दिल पर दस्तक दे वहीं ठहर कर रह गया. पहली नज़र के प्यार के क़िस्से सुने तो थे, मगर आज निशा ने उसको स्वयं अनुभव किया था. 

रविवार की छुट्टी के बाद सोमवार की सुबह निशा को बेहद बोर लगती. हर सोमवार की तरह आज भी देर से आंख खुली. हड़बड़ी में उठ कर तैयार हुई, नाश्ता बनाया, अपना और अनुज का टिफिन पैक किया... फिर सरपट बस स्टॉप की तरफ़ भागी. सोमवार को वो अक्सर कनॉट प्लेस के लिए 8.30 की चार्टर्ड बस मिस कर जाया करती थी, मगर आज क़िस्मत कुछ अच्छी थी; जो बस भी उसी की तरह लेट थी. वो दौड़ कर बस पर सवार हो गई और एक विन्डो सीट को हथिया कर गहरी सांस छोड़ते हुए तसल्ली से बैठ गई.बस अगले स्टॉप पर रुकी तो उसमें तीन किशोरियां सवार हुईं और निशा से पिछली सीट पर बैठ गईं. सवारियों के कोलाहल के बावजूद निशा आंखें मूंदे शान्त बैठी थी. पिछली सीट से लड़कियों की धीमे-धीमे चुहलबाज़ियों, हास्य ध्वनियों की आवाज़ें आ रही थीं. उनकी कुछ उड़ती-उड़ती-सी बातों ने निशा का ध्यान खींच लिया.“पता है यार... पहले मुझे लगा, शायद ये मेरा वहम है, मगर...कुछ दिनों से मैंने बार-बार नोटिस किया है कि वो जब-तब नज़रें बचा कर मुझे ही देखता रहता है... बहाने से मेरे आसपास से गुज़रता है. कल तो वो मुझसे नोट्स भी मांगने आया था, जैसे पूरी क्लास में एक मैं ही बची हूं नोट्स देने के लिए...”“सच..!” आश्‍चर्य और जिज्ञासा मिश्रित स्वर उभरा.“दिखने में कैसा है..? स्मार्ट है क्या..?” सहेलियों की उत्सुकता बढ़ रही थी.“हां है तो...”“वाह... क्या बात है... तो क्या वो तुझे प्रपोज़ करेगा?”“पता नहीं...”“तो तू कर दे...”“ना बाबा...” घबराहट और संकोच भरे स्वर के बाद गूंजती मधुर हास्य ध्वनियां...उनकी वो दिलकश चुहलबाज़ियां निशा के दिल को भी गुदगुदा गईं और चार साल पहले की कुछ ऐसी ही रोमानी यादें किसी बेलगाम सावनी घटा की तरह उमड़-घुमड़ कर उसके स्मृति पटल पर बरस गईं... निशा और उसकी बचपन की सहेली सुधा साथ-साथ कॉलेज आते-जाते थे और उनमें रास्ते भर इसी तरह की बेफ़िज़ूल मगर दिलचस्प गुटर-मुटर चलती रहती. मसलन- आज कॉलेज में किसने क्या पहना था... किस लड़के ने उन्हें पटाने की नाकाम कोशिश की... किसका किसके साथ अ़फेयर है... इत्यादि.

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कॉलेज ख़त्म करते ही निशा की एक अच्छी कम्पनी में बतौर ट्रेनी नियुक्ति हो गई थी. सुधा का ऑफ़िस भी पास ही था, शाम को घर जाने से पहले आदतन दोनों कुछ देर साथ बैठ गप्पे लड़ाते.अपने पैरों पर खड़े होने की भावना ने निशा में ग़ज़ब का आत्मविश्‍वास भर दिया था, सोच निश्‍चिंत हो गई थी और दिल के भीतर रह-रह कर कुछ इंद्रधनुष के सुनहरे रंग-सी कल्पनाएं उभरने लगी थीं... मगर इसमें दोष उसका नहीं, उसकी नादान उम्र का था. यही तो वो उम्र थी जब नज़रें हर राह... हर मोड़ पर उस अनदेखे... अनजाने चेहरे को खोजने लगती हैं, जिसको पा कर कुछ और पाने की ख़्वाहिश नहीं रह जाती... अपने आस-पास से गुज़रने वाले हर ख़ूबसूरत चेहरे को देख कर मन पुकार उठता है... ‘कहीं ये वो तो नहीं..’ उम्र के उसी नाज़ुक पायदान पर खड़ी निशा का दिल भी कुछ बेकरार सा रहने लगा था और आंखें भीड़ में उस हमसफ़र को तलाशने लगी थीं, जिसका हाथ थाम कर आने वाले जीवन का हसीन सफ़र तय करना था.एक दिन निशा अपने केबिन में बैठी थी, तभी उसके बॉस एक अपरिचित नवयुवक के साथ वहां आए,“निशा, मीट मिस्टर दिनेश, इन्होंने आज ही हमारे प्रोजेक्ट में ज्वाइन किया है.”निशा ने उस युवक को देखा... और ना जाने क्या हुआ कि उसकी आंखें अनायास ही शर्मसार होकर झुक गईं... ऐसा आकर्षक व्यक्तित्व... इतना ख़ूबसूरत चेहरा... चेहरे पर सादगी और विनम्रता भरी बड़ी-बड़ी आंखें... पल भर के लिए निशा को लगा कि जैसे उसके ख़यालों में छाई रहने वाली अनदेखी अनजानी छवि रूप धर कर प्रत्यक्ष आ खड़ी हुई. ज़ेहन में एक बार फिर ‘कहीं ये वो तो नहीं...’ का गंभीर प्रश्‍न उभर आया, जो उसकी धड़कनों को तेज़ कर गया. बड़ी मुश्किल से बेकाबू हुए दिल को संयत कर निशा ने शालीनता से दिनेश का अभिवादन किया. प्रथम परिचय के आदान-प्रदान के बाद दिनेश तो वहां से चला गया, मगर उसके साथ आया खुमार भरा रोमानी झोंका निशा के दिल पर दस्तक दे वहीं ठहर कर रह गया. पहली नज़र के प्यार के क़िस्से सुने तो थे, मगर आज निशा ने उसको स्वयं अनुभव किया था.उसके बाद कुछ अजीब सिलसिला शुरू हो गए थे... दिन में उसकी चोर नज़रें बार-बार दिनेश की ओर घूम जातीं... और जब उसे एहसास होता कि दिनेश भी उसे देख रहा है तो... घबराहट में वो चेहरा घुमा लेती. नज़रें मिलतीं तो उसके दिल के तार झंझना जाते. एक ही प्रोजेक्ट पर काम करने की वजह से दोनों को बातचीत के अवसर उपलब्ध होने लगे थे. दिनेश एक बात पूछता तो वो दो आगे की बात भी बता दिया करती. उसकी सहयोगी प्रकृति को देख कर दिनेश भी अक्सर उसी से सहायता लेने आ जाता. दिनेश के हंसी-मज़ाक और खुले गर्मजोश व्यवहार से निशा को लगने लगा कि उसका प्यार शायद एकतरफ़ा नहीं है... और जिस दिन दिनेश ने ये कहा कि ‘निशा, अगर तुम ना होती तो ना जाने इस ऑफ़िस में मेरी कैसे गुज़र होती’ उस दिन उसका शक पूरी तरह से यक़ीन में बदल गया था.दिनेश के आकर्षण में कैद निशा का दिल किसी चंचल हिरनी की तरह कुलांचे भर रहा था. उसका वेतन अपने लिए कम पड़ने लगा था. ब्यूटीपार्लर जाकर फेशियल, हेयर कलर आदि कराना ज़रूरी हो गया था. अपने पहनावे को लेकर भी वह सचेत हो चली थी. ढीले सलवार सूट की जगह टाइट फ़िटिंग चूड़ीदार और हमेशा पिनअप रहने वाले कॉटन दुपट्टे की जगह खुल कर लहराने वाले शिफ़ॉनी आंचल ने ले ली थी. पर्स में एक आईना भी रहने लगा था, जिसे चोरी-छिपे जब-तब वह देख लिया करती थी.“क्या बात है निशा..? बड़ी बनी-संवरी रहने लगी हो... कहीं शादी की बात चल रही है क्या?”“न.. नहीं तो...” वो झेंप जाती.कहते हैं ना इश्क़ और मुश्क छिपाये नहीं छिपते... उसके सहकर्मी उसमें आये परिवर्तनों की टोह ले रहे थे और शायद इसका कारण भी जानने लग गये थे. मगर वो सब बातों से बेख़बर अपनी ही स्वप्निल दुनिया में मगन थी, जिसमें झांकने का हक़ स़िर्फ उसकी अतरंग सखी सुधा को ही था. शाम को दोनों मिलते तो निशा दिनेश से जुड़ा एक-एक ब्यौरा उसके सामने रख देती.“क्या कभी उसने तुझसे साफ़-साफ़ कुछ कहा है?” एक दिन सुधा ने पूछा.“नहीं तो... ज़बान से कुछ नहीं कहता, मगर... मैं उसकी आंखों में सब पढ़ सकती हूं...” निशा का स्वर आश्‍वस्त था.“तो तुझे पक्का यक़ीन है कि वो भी तुझे...”

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और नहीं तो क्या? एक दिन कह रहा था कि मेरे बिना तो ऑफ़िस में उसका एक दिन भी गुज़ारा ना होगा. जब देखो मुझसे बात करने के बहाने ढूंढ़ता रहता है. सर भी कह रहे थे कि दिनेश उनसे मेरी तारीफ़ कर रहा था.” निशा लजाती हुई मुस्कुराई.“वाह यार... वो कुछ नहीं कहता तो तू ही कह दे. ज़्यादा देर मत करना.”“हम्म्... देखते हैं.” निशा ने ठंडी आह भरी.निशा के लिए दिनेश की पहल का इंतज़ार करना मुश्किल हो चला था, उसने कई बार सोचा कि उससे साफ़-साफ़ पूछ लेगी कि जब वो उसे पसन्द करता है, तो कहता क्यों नहीं और ये भी बता देगी कि वो उसे दिल की गहराइयों से चाहती है, मगर मौक़ा आने पर ज़बान दगा दे जाती. आज भी वो कुछ ऐसा ही सोच कर ऑफ़िस आई थी, मगर आज दिनेश ऑफ़िस में नहीं था. किसी से कुछ कह कर भी नहीं गया था. उसके बिना निशा को ऑफ़िस में बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था. तीन दिन गुज़र गये थे उसकी राह देखते हुए. किसी विरहणी की भांति आंखें इन्तज़ार की वेदना में सूनी हो चली थीं.आज दिनेश वापस आ गया था, वो कुछ ज़्यादा ही ख़ुश नज़र आ रहा था. उसने अपने सभी साथियों को जिनमें निशा भी थी, इकट्ठा किया और एक शुभसूचना का प्रसारण कर दिया, “कल मेरी सगाई हुई है.. अगले महीने शादी है... आप सबको ज़रूर आना है...”“क्या..?” निशा अवाक् थी... उसे सहसा अपने कानों पर यक़ीन नहीं हुआ.“वाह साहब मुबारक़ हो. स़िर्फ विवाह निमंत्रण से काम नहीं चलेगा... सगाई की पार्टी भी देनी होगी... वो भी आज ही...” अन्य सहकर्मियों की बधाइयां सुन धीरे-धीरे निशा के गले बात उतरी कि जो सुना था वो वहम नहीं, हक़ीक़त थी....उस पर तो जैसे वज्रपात हो गया... मस्तिष्क सुन्न पड़ गया... लगा जैसे किसी ने आकाश में ऊंची उड़ान भर रहे निर्बाध पक्षी को विषैले तीर से घायल कर ज़मीन पर तड़पता छोड़ दिया हो. वो ख़ुद को किसी तरह सम्भाल अपने केबिन में आकर बैठ गई. मन के भीतर तूफ़ान चल रहा था... प्यार मुझसे और शादी किसी और से.... ऐसी भी क्या मजबूरी थी... कहीं घरवालों के दबाव में आकर तो अपनी भावनाओं का दमन... मगर मुझसे तो कह सकता था...उसके केबिन के बाहर लोग अभी भी दिनेश को घेरे खड़े थे, “चलो, एक और बेचारा शहीद होने जा रहा है....”“अरे भाई ये तो बताओ, ये लव मैरिज होगी या अरेन्ज..?”“लव कम अरेन्ज.”“मतलब..?”“मतलब ये कि हम दोनों सहपाठी थे और पिछले चार सालों से एक-दूसरे से प्रेम करते थे... हमारे घरवाले भी इस बात से अवगत थे... बस मेरी नौकरी लगने का इंतज़ार था. सो नौकरी लगते ही हमारी सगाई की औपचारिकता पूरी कर दी गई...”निशा पर एक और पाषाण प्रहार हुआ. तो वो मुझसे नहीं किसी और से... तो फिर मुझे ऐसा क्यों लगता रहा कि वो मुझसे... कितना अपनापन... कितनी गर्मजोशी होती थी उसकी बातों में... मगर वो तो सभी से ऐसे ही बात करता है. उसने कहा था कि मेरे बिना उसका एक दिन ऑफ़िस में काम ना चले... मगर ऐसा तो मेरे बॉस भी कई बार कह चुके हैं... उनके बारे में मुझे कभी ऐसा ख़याल क्यों नहीं आया... वो मुझे बार-बार देखता था. कहीं ये मेरा वहम् तो नहीं था... आज निशा का स्वयं से वार्तालाप हो रहा था... उसका अंतर्मन उसे सच्चाई का दर्पण दिखा रहा था... वही अंतर्मन जिसने पिछले कुछ दिनों से उसे रूमानी एहसास के मकड़जाल में ऐसा उलझाया कि आज जब उससे बाहर निकलने की बारी आई, तो चाह कर भी वह सम्भल ना सकी और तबियत ख़राब होने का बहाना कर घर चली आई. दिनेश की शादी की ख़बर और अपनी नासमझी से निशा बेहद आहत थी... किसी से शिकायत भी तो नहीं कर सकती थी. कहती भी क्या... सब कुछ उसका अपना ही किया धरा था.शाम को सुधा उससे मिलने के लिए आई, तो उसकी हालत देख घबरा गई... “अरे ये क्या उदास सूरत बना रखी है..? कल तक तो भली-चंगी थी... क्या हुआ... आज भी तेरा दिनेश ऑफ़िस नहीं आया क्या....?”“आया था...”“तो, तुझे तो ख़ुश होना चाहिए.”“कल उसकी सगाई थी...अगले महीने शादी...”“क्या?.. मगर वो तो तुझसे... फिर यूं अचानक... कैसे?”“वो बेहद मजबूर था, उसके पिता ने पहले से ही अपने एक दोस्त की बेटी से उसकी शादी तय की हुई थी... जब दिनेश ने इस शादी का विरोध किया, तो उन्हें हार्ट अटैक आ गया. डॉक्टर ने कहा है कि उन्हें किसी प्रकार का मानसिक आघात नहीं पहुंचना चाहिए, अत: दिनेश को मजबूरन..."https://www.merisaheli.com/how-one-sided-love-can-affect-your-mental-health/यह भी पढ़ें: एकतरफ़ा प्यार के साइड इफेक्ट्स… (How One Sided Love Can Affect Your Mental Health?..)“और तेरा क्या..?” निशा की करुण कथा सुन सुधा द्रवित हो उठी.“मैंने उसे समझाया कि फर्ज़ प्यार से कहीं ऊंचा होता है, अत: उसे अपने पिता की बात मान लेनी चाहिए. मैंने उसे आश्‍वासन दिया कि हम हमेशा अच्छे दोस्त रहेंगे.” कहते हुए निशा तकिये में अपना मुंह छिपा कर फूट-फूट कर रो पड़ी... रो कर मन हल्का तो कर लिया, मगर मुंह अभी भी तकिये में ही छिपा था, उसकी झूठी नज़रें सुधा की उन आंखों का सामना करने में सक्षम नहीं थीं, जिनमें उसके तथाकथित त्याग और महानता के सम्मान में आंसू उभर आये थे.निशा का अब उस ऑफ़िस में काम करना मुश्किल हो चला था.. दिनेश के सहज व्यवहार का उसी तरह प्रत्युत्तर देना उसके बस की बात नहीं थी, सो उसने एक दूसरी कम्पनी में आवेदन दे दिया, जो स्वीकार हो गया. नये परिवेश और समय के साथ जीवन के प्रथम, मगर असफल प्रेम की क्षणिक अस्तित्वी लहर धीरे-धीरे अतीत के सागर में विलय हो गई.समय गुज़र तो रहा था, मगर उम्र अभी भी ‘कहीं ये वो तो नहीं...’ के नाज़ुक सवालिया पायदान पर ही खड़ी थी और एक दिन निशा के शांत झील से जीवन में किसी ने पुन: प्रेम का कंकर फेंका... जलतरंगें लहरा उठीं... संतरंगी इंद्रधनुष के सुनहरे रंगों को समेटे अनेक हसीन रूमानी कल्पनाएं पुनजीवित हो उठीं... और इस बार ये रंग किसी एक दिल से नहीं, बल्कि दो दिलों से निकले थे, जिसका परिणाम ये हुआ कि इसी महीने निशा और अनुज अपने विवाह की दूसरी सालगिरह मनाने जा रहे थे....कनॉट प्लेस... कंडक्टर की कर्कश आवाज़ से निशा अतीत से लौट आई, वो उठ खड़ी हुई. मुड़ कर पिछली सीट पर देखा तो गुटर-मुटर अभी भी ज़ारी थी... उसने मन-ही-मन उस लड़की को प्रेम में सफलता के लिए शुभकामना दी और मुस्कुराते हुए बस से उतर अपनी डगर बढ़ चली.           - दीप्ति मित्तल

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