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कहानी- कर्मण्येवाधिकारस्ते बनाम मिस बेचारी- 4 (Short Story- Karmanyevadhikaraste Banam Miss Bechari-4)

“आप क्या जानो जहां हसबैंड-वाइफ दोनों वर्किंग होते हैं, वहां समय की कितनी मारामारी होती है.” तीसरे घर में बात सुनते ही ताना मिला. यह लोग मल्टीनेशनल कंपनी में काफ़ी अच्छे पद पर थे. मैंने सोचा थोड़ा सा लॉजिक इनको तो समझ आ ही जाएगा. मैंने बोलना शुरू किया, “लेकिन बिजली तो आपकी ही वेस्ट होती है, मोटर भी तो घिसती है जितना ज़्यादा चलेगी…”
“मोटर-बिजली वगैरह यह सब मॉनिट्री हैं. पैसा तो हाथ का मैल है. समय से ज़्यादा क़ीमती दुनिया में कुछ नहीं…"

मेरी सोसायटी चार मंज़िला घरों की है. एक फ्लोर पर तीन घर है और स्टेयरकेस के ऊपर सबके वॉटर टैंक की जगह बनी है.
मेरे ब्लॉक में ऐसे बहुत से लोग हैं, जो मोटर चला कर अपने टैंक से पानी बहाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं. आख़िर देश को स्वतंत्रता मिले इतना अरसा हो गया है, तो वो कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं. बिजली उनकी जिससे वह मोटर चलाते हैं, मोटर उनकी, टैंक उनका तो मर्ज़ी भी उनकी ही चलेगी ना! उनके टैंक से बहते पानी से टॉप फ्लोर वाले के घर में सीलन जाती है, तो इसमें उनका क्या दोष? आने वाली जनरेशन के लिए वॉटर-लेवल को बचाना आख़िर उनकी ज़िम्मेदारी क्यों है? उन्होंने कोई ठेका थोड़े ही ले रखा है सारी दुनिया की चिंता करने का.
खैर जैसी कि मेरी आदत है इन बातों से तंग आकर मैंने सबको अवेयर करने की सोची. ब्लॉक के लोगों के घर जाकर दरवाज़े खटखटाए.
“भाईसाहब आप अपने टैंक में एक अलार्म क्यों नहीं लगवा लेते?” के जवाब में वे धाराप्रवाह शुरू हो गए, “अरे अपने पास की बिजली की दुकान वाला कितना बेईमान हो गया है. आपको पता है बहनजी? अलार्म मुश्किल से 50 रुपए का आना चाहिए, लेकिन उसके यहां अलार्म सवा सौ रुपए का है.” 
“लेकिन भाईसाहब आपको कैसे पता कि अलार्म 50 रुपए का आना चाहिए?” मैंने आश्चर्य से गोल-गोल आंखें घुमाई.

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“अरे अलार्म में होता ही क्या है? एक तार और एक सेंसर. इतनी समझ तो मुझे भी है बिजली की. आपको नहीं पता? होगा भी कैसे? लेडीज़ को इलेक्ट्रिकल बातों का ज्ञान कम होता है.” उन्होंने ताना मारा और मुझे समझ आ गया इनसे आगे बातें करना फ़िज़ूल है.
अगला दरवाज़ा खटखटाया. हालांकि उन बहनजी का दरवाज़ा मैंने बड़ी मजबूरी में खटखटाया था. उनकी बातूनी आदत से मैं वाक़िफ थी. एक बार चलते-फिरते हेलो भी कर ले, तो अपने पूरे खानदान की सारी कर कड़वी-खट्टी बातें बताने के बाद ही कनक्लूडिंग वाक्य सुनने को मिलता था कि मैं तो किसी की बुराई करने में विश्वास नहीं रखती. बड़ी साफ दिल की हूं. और इस कनक्लूडिंग वाक्य से पहले उन्हें कुछ भी सुना पाना, बता पाना या एक वाक्य भी बोल पाना संभव नहीं था.
खैर! मैं तो जानती ही थी कि आज का पूरा दिन इन्वेस्ट करना पड़ेगा, तो मैंने लगभग एक घंटे उनकी बातें सुनने के बाद अलार्म के बारे में कहना चाहा, तो वे फिर शुरू हो गईं. इस बार कच्चा चिट्ठा खुला उनके पति के आलस का. वह उनसे कह-कह करके थक गई हैं, लेकिन वह अलार्म नहीं लाते. पास की बिजली की दुकान से ख़ुद जाकर ले आने का आइडिया दिया, तो फिर उनका शिकायत गान शुरू होना ही था कि सुबह से रात तक चक्करघिन्नी की तरह घर के काम करते-करते वो कितना थक जाती हैं. 
“आप क्या जानो जहां हसबैंड-वाइफ दोनों वर्किंग होते हैं, वहां समय की कितनी मारामारी होती है.” तीसरे घर में बात सुनते ही ताना मिला. यह लोग मल्टीनेशनल कंपनी में काफ़ी अच्छे पद पर थे. मैंने सोचा थोड़ा सा लॉजिक इनको तो समझ आ ही जाएगा. मैंने बोलना शुरू किया, “लेकिन बिजली तो आपकी ही वेस्ट होती है, मोटर भी तो घिसती है जितना ज़्यादा चलेगी…”
“मोटर-बिजली वगैरह यह सब मॉनिट्री हैं. पैसा तो हाथ का मैल है. समय से ज़्यादा क़ीमती दुनिया में कुछ नहीं. वैसे हम दो बार अलार्म लगा चुके हैं, लेकिन ख़राब हो जाता है. अरे, सारा माल चाइनीज़ आता है. पता नहीं कब अपने देश में स्टैंडर्ड चीज़ें बननी शुरू होंगी कि हमें घटिया चाइनीज़ चीज़ों पर निर्भर न रहना पड़े.” मैंने सिर पीट लिया. मुझे ही समझना चाहिए था कि लॉजिक की दूसरे के पास भी कमी नहीं होती. यह बात मैदान में उतरकर ही समझ में आता है.
अपना पूरा दिन इन्वेस्ट करके मैं एक घर को भी अलार्म लगाने के लिए नहीं समझा पाई. कुछ दिनों बाद पता चला किचन की नली भरने लगी. तभी मुझे नीचे वाले घर और उससे नीचे वाले घर से भी यही कंप्लेंट आई. अब जब सबके सिर पर मुसीबत आई, तो आनन-फानन में प्लंबर को बुलाया गया. उसने बताया की मुमटी से पानी नीचे आने का और किचन की नालियों का पाइप एक ही है, जिसमें मुमटी पर उगे पीपल के पेड़ ने अपनी जड़े फैला दी हैं. समस्या गंभीर थी. सबकी नालियां ब्लॉक हो गई थीं, जिसकी वजह से सबके घर के काम रुक गए थे. आनन-फानन में सफ़ाई वाले को बुलाया गया. उसने अच्छे-ख़ासे पैसे बताए.

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“दस हज़ार?” मेरा मुंह आश्चर्य से खुला रह गया.
“केवल पाइप साफ़ करने के?”
“देने ही पड़ेंगे. क्या करें, किचन की नली से पानी नहीं जा रहा, तो पूरे घर में फैल रहा है." सब ने तुरंत पैसे दिए. उन्होंने भी जो टैंक के अलार्म को पचास रुपए का बता रहे थे और सवा सौ का अलार्म नहीं ख़रीद रहे थे. जिनके पास अलार्म लेने जाने का टाइम नहीं था, उनका तो बहुत सारा समय वैसे ही वेस्ट हो चुका था, वो मोल-भाव में और समय नहीं वेस्ट करना चाहते थे.
ख़ैर! स्वीपर आया और उसने जड़े निकालने के चक्कर में मुमटी से नीचे जाने वाला पाइप ही तोड़ दिया और कहा कि अगर इस पाइप की मरम्मत करनी है, तो पांच हज़ार और लगेंगे. इन सब के चक्कर में सैटरडे-संडे बीत चुका था. किचन की नालियों से पानी न जाने की समस्या हल हो गई थी, क्योंकि जड़े पाइप समेत निकाल दी गई थीं.
अगले दिन मुमटी से पानी बहना शुरू हुआ, तो वह ख़ूब आवाज़ करता हुआ झरने की तरह नीचे गिरने लगा. मैं खीझ ही रही थी कि समस्या को छोटे स्तर पर न सुलझाए जाने से वह कितनी बढ़ जाती है, तभी पाया कि जिसके टैंक से पानी बह रहा था उसने अपनी मोटर ऑफ कर दी थी. 
अब मेरी समझ में आया कि जड़ निकालने के लिए पाइप तोड़ देने से समस्या बढ़ी ही नहीं थी, बल्कि उसका समाधान मिल गया था. अब पानी जैसे ही किसी टैंक से गिरता, झरने की तरह शोर करता हुआ नीचे फैलने लगता, जिससे सबको कहीं ना कहीं प्रॉब्लम होती थी. तो जिसके भी टैंक से पानी बह रहा होता था, वह अपनी मोटर बंद कर देता था.
कुछ ही दिनों के अंदर सब ने अलार्म लगवा लिया, क्योंकि अगला पांच हज़ार का ख़र्चा कोई करने को तैयार नहीं था. यही नहीं, माली को बुलवाकर मुमटी में उगे बाकी के पीपल के पेड़ भी आनन-फानन में निकलवा दिए गए. समय निकालकर और पैसा ख़र्च करके.
आज मैंने एक सबक सीखा कि कभी-कभी समस्या का बढ़ जाना अच्छा होता है. पाइप का टूटना तो समस्या बढ़ने की बजाय समस्या का समाधान बन गया. पानी वेस्ट न जाने देने की अवेयरनेस तो आई, फिर चाहे जैसे भी आई.

- भावना प्रकाश 

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Photo Courtesy: Freepik

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