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कहानी- कटाक्ष (Short Story- Kataksh)

“हां ज्योति, मैं तुमसे पूछ रहा हूं कि क्या जीवन के सफ़र में मेरी साथी बनोगी? मैं अभी शादी करने के लिए नहीं कह रहा हूं. शादी मेरे सैटल होने के बाद ही होगी.” बस, अब मुझे क्रोध आ गया, “सुनो मि. आदित्य, यह मेरा बी.एससी. का तीसरा वर्ष है. मुझे अपना करियर बनाना है, तो शादी का तो प्रश्‍न ही नहीं उठता… रही आपसे शादी करने की बात, तो शायद कोई अंधी ही होगी, जो आपसे शादी करेगी.” क्रोध से भरी मैं वहां से उठ कर चली गई. आदित्य के चेहरे की बेचारगी देखने के लिए मैं वहां रुकी नहीं.

फोन लगातार बजता जा रहा था. नंबर शिशिर का ही था.
“उ़फ्, खाना भी ढंग से नहीं खाने देता.”
“हैलो…” फोन उठाते ही मिश्री घुली आवाज़ कानों में पड़ी.
“हूं…”
“ये हूं क्या लगा रखा है, बात करो मैं हूं.”
“हूं…” मैंने एक लंबी हुंकार भरी. आलू के परांठे का बड़ा टुकड़ा अभी भी मेरे हलक में था. जल्दी-जल्दी आधा-अधूरा कौर चबाकर मैं झुंझलाई, “उ़फ् शिशिर, खाना भी ठीक से नहीं खाने देते. अच्छा बोलो, क्या तकलीफ़ हो गई तुम्हें?”
“बस, बैठे-बैठे तुम्हारी याद आ गई. वैसे आज बहुत जम रही हो.”
“यह फोन पर तस्वीर का आविष्कार शायद अभी तक नहीं हुआ है.” मैंने हंस कर कहा,“अच्छा बोलो, कितने लोग आ रहे हैं?”
“यू आर सो इंटेलिजेंट डियर, तुम मेरे मन की बात कैसे जान जाती हो?”
“तीन साल से इसी पर तो रिसर्च कर रही हूं. अच्छा बताओ, क्या-क्या बनाना है?”
“वही बिरयानी कोरमा और लच्छेदार परांठे, कहो तो मैं लेता आऊं.”
“तुम परेशान मत हो, ऑफिस से निकलते हुए मैं ले आऊंगी. ऑफिस के सामने जो ढाबा है, वो अच्छा बनाता है. पर बिरयानी वेज ही होगी.”
“पता है बाबा, जब से तुम पेटा क्लब की मेंबर बनी हो, तब से नॉनवेज न खाती हो न बनाती हो.” शिशिर की बात पर मैं हंस दी.
मुझे पता था, आजकल शिशिर की ख़ास मीटिंग चल रही है, जिसमें कुछ लोग बाहर से भी आये हैं. ऑफिस से निकलकर मैंने जहांगीर ढाबे से परांठे लिये, फिर टैंपो कर लिया, बस करती तो देर हो जाती. घर पहुंचकर ताला खोला और हाथों का सामान लिये अंदर पहुंची. जल्दी-जल्दी साड़ी उतारकर गाउन पहन लिया. फ्रिज खोला तो दही, उबले आलू, लहसुन-अदरक का पेस्ट तैयार रखा था. इतना मैं अक्सर तैयार रखती हूं. घड़ी में समय देखा, सात बज चुके थे. बाथरूम में जाकर मैंने हाथ-मुंह धोये. फिर कपड़ों की अलमारी खोली, लाल ऑफ़ व्हाइट तांत की साड़ी पर ख़ुद-ब-ख़ुद मेरा हाथ चला गया. यह रंग मुझ पर खूब फबता है. वैसे भी हर औरत अपनी सुंदरता की चमक दूसरों की आंखों में देखना चाहती है. मैंने वही साड़ी पहन ली. बालों का जूड़ा बनाकर होंठों पर हल्की लिपस्टिक भी लगा ली. फिर कपड़े की अलमारी में रखा अपना मनपसंद पऱफ़्यूम लगाया. सब कुछ तैयार था. तभी डोरबेल बजी, सामने शिशिर खड़ा था. साथ में दो लोग और भी थे.

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“सॉरी डियर, आने में कुछ देर हो गई. अंदर आने की इजाज़त तो है ना?”
“अरे, क्या बोल रहे हो? साथ में कोई है तुम्हारे.” मैंने शिशिर को घूरा.
“ज्योति, इनसे मिलो हमारे बॉस मि. आदित्य राय. ये मेरे कलीग मि. सुब्रतो और सर ये हैं मेरी वाइफ ज्योति.”
मैं मानो आसमान से गिरी. ये मैं क्या देख रही हूं. मेरे सामने आदित्य खड़ा था. जीवन में कभी आदित्य मुझे इस रूप में मिलेगा, मैंने कभी सोचा भी नहीं था. लेकिन जीवन का बहुत बड़ा सच मेरे सामने था. “ए, क्या हो गया?” शिशिर ने मुझे टोका.
“नमस्ते मि. राय..” मैंने बड़ी मुश्किल से हाथ जोड़े. उनका औपचारिक स्वागत करके मैं अंदर आ गई. रसोई में आकर अपनी बेकाबू सांसों पर काबू पाने की कोशिश की. कैसे सामना करूं मैं उस आदमी का, जिसने जीवन में सिर्फ़ मुझसे ही प्यार किया और मैंने हमेशा उसकी चाहत को ठुकराया. जिसके ज़िक्र से भी मुझे एक लिजलिजेपन का एहसास होता था, आज वही व्यक्ति मेरे पति का बॉस है. तभी शिशिर की आवाज़ आई, “अरे भई, कहां रह गई?” हाथों में ट्रे पकड़े ही मैंने शिशिर को आवाज़ दी. मेरी शकल देखते ही शिशिर घबरा गये. “क्या हुआ ज्योति, तुम्हारी तबियत तो ठीक है ना?”
“हां.. बस यूं ही चक्कर-सा आ गया था.”
“तुम अभी बैठो, आराम करो, खाना खाने में अभी व़क़्त है. बाज़ार से कुछ लाना हो तो बता दो.”
“नहीं, सब कुछ तैयार है.” मैंने ज़बरदस्ती चेहरे पर मुस्कुराहट लाने का प्रयास किया. शिशिर मेरा गाल थपथपाकर चले गये और मैं वहीं पलंग पर धप्प से बैठ गई. मेरी नम आंखों में अतीत नाच उठा.
कॉलेज में मुझसे दो वर्ष सीनियर था आदित्य. काला रंग, बाहर को निकले दांत और दुबला-पतला शरीर. ढीली-ढाली पैंट-शर्ट में वह हमारे ग्रुप में कार्टून दिखता. पढ़ने में ज़रूर होशियार था वह. एक बार रैगिंग के दौरान सीनियर्स से बचाया था उसने मुझे. मैंने हौले से मुस्कुराकर उसका शुक्रिया अदा किया था. मैं इस बात से अनजान थी कि धीरे-धीरे आदित्य मुझे चाहने लगा है. मैं कॉलेज में जहां से भी गुज़रती, उसकी आंखें मेरा पीछा करती रहतीं.
कॉलेज के वार्षिक उत्सव में हम दोनों ही प्रथम आये. मुझसे हाथ मिलाकर वह मुझे विश करने आया था. मैंने बस ‘हाय’ और ‘सेम टू यू’ कहकर जल्दी से उससे पीछा छुड़ा लिया था.


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लड़कियां मुझे छेड़तीं, “ज्योति, तेरा मजनूं लैला की तरह काला है और तू हीर की तरह गोरी.” लेकिन एक वर्ष बीतने पर भी आदित्य की वही प्रतिक्रिया रही. वह जिन नज़रों से मुझे देखता, उनमें मासूमियत एवं बेचारगी भरी होती. एक दिन कॉलेज के खाली पीरियड में जब लाइब्रेरी में बैठी मैं कोई नोट्स तैयार कर रही थी, वह मेरे पास आया और बड़ी मासूमियत से कहने लगा, “ज्योति, मुझसे शादी करोगी?”
मैं तो जैसे आसमान से आ गिरी. मैंने उसे ऊपर से नीचे तक घूरा, फिर ज़ोर से हंस पड़ी, “डोंट बी सिली मि. आदित्य, आपको पता है आप क्या कह रहे हैं?”
“हां ज्योति, मैं तुमसे पूछ रहा हूं कि क्या जीवन के सफ़र में मेरी साथी बनोगी? मैं अभी शादी करने के लिए नहीं कह रहा हूं. शादी मेरे सैटल होने के बाद ही होगी.” बस, अब मुझे क्रोध आ गया, “सुनो मि. आदित्य, यह मेरा बी.एससी. का तीसरा वर्ष है. मुझे अपना करियर बनाना है, तो शादी का तो प्रश्‍न ही नहीं उठता… रही आपसे शादी करने की बात, तो शायद कोई अंधी ही होगी, जो आपसे शादी करेगी.” क्रोध से भरी मैं वहां से उठ कर चली गई. आदित्य के चेहरे की बेचारगी देखने के लिए मैं वहां रुकी नहीं. आदित्य का वह आख़िरी साल था. पेपर देकर वो चला गया. फिर मुझसे कभी नहीं टकराया. न मैंने ही जानने की कोशिश की कि वो कहां है. बी.एससी. के बाद ही मैंने नौकरी कर ली और दो वर्ष बाद ही मेरी शादी शिशिर से हो गई.
“ज्योति, क्या हुआ?” शिशिर मुझे पुकार रहा था. मैं घबराकर उठ बैठी. “कुछ नहीं, यूं ही ज़रा आंख लग गई थी… खाना लगाऊं क्या?”
“श्योर… हां, परांठे तुम लाई थीं ना.”
“हां, बस अभी गर्म करती हूं.” मैं चुपचाप खाना मेज़ पर लगाने लगी. खाना स्वादिष्ट था यह सुब्रतो ने कहा था. आदित्य चुपचाप खाना खाता रहा. मैं धीरे-धीरे सर्व करती रही. वे लोग राजनीति पर बातें करते रहे. नई और पुरानी साझा सरकारों पर चर्चा होती रही. खाने के बाद सुब्रतो ने बाथरूम पूछा तो शिशिर उसे बाथरूम दिखाने चला गया. आदित्य हाथ धो चुका था और जेब में हाथ डाले खड़ा था. “अभी तक नाराज़ हैं मुझसे?”
“नहीं ज्योति, ग़लती तुम्हारी नहीं थी. हर कोई सुंदरता ही चाहता है. लेकिन तुम कुरूप होतीं तब भी मैं तुम्हें इतनी शिद्दत से चाहता.”
“आदित्य, तुम्हारा परिवार… मेरा मतलब तुम्हारे बीवी, बच्चे कहां हैं?”
आदित्य हंसा, “तुम्हीं ने तो कहा था ज्योति कि मुझसे कोई अंधी लड़की ही शादी करेगी. अब अगर मैं अंधी लड़की लाऊं, तो उसकी देखभाल कौन करेगा. इससे अच्छा कुंवारा ही मर जाऊं.”
तभी वहां शिशिर आ गए.
“अरे ज्योति, तुम्हें नहीं पता हमारे आदित्य जी अभी तक कुंवारे हैं, कोई लड़की बताओ ना इनके लिए.” मैं ज़बरदस्ती होंठों पर मुस्कुराहट ले आयी.
रात में मैंने शिशिर को कुरेदा, “यह तुम्हारे बॉस अभी तक कुंवारे क्यों हैं?”
“क्यों भई, तुम्हारा इरादा तो नेक है ना?” शिशिर ने मुझे छेड़ा.
शिशिर की बात पर मैं हंस दी. फिर न कभी आदित्य आया, न उसका घर में कभी ज़िक्र ही हुआ.
समय इसी तरह बीतता रहा. साल के अंदर ही शिशिर का तबादला मुंबई हो गया और हम दिल्ली से मुंबई आ गये. वहां व्यवस्थित होने में कुछ समय लग गया. चार साल के अंदर ही निकिता और तरू पैदा हो गये. मैं भी वहीं एक कंपनी में लग गई, क्योंकि बच्चों के जन्म के समय मैंने नौकरी छोड़ दी थी. अम्मा-पापा पटना में थे, इतनी दूर से यहां आने में उन्हें द़िक़्क़त हो रही थी. घर भी ज़्यादा दिनों तक नहीं छोड़ सकते थे. मेरी मां भाई-भाभी के पास बैंगलोर में थी. एक लम्बे समय तक कैसे कोई आकर मेरा परिवार संभालता. ऐसा संभव भी नहीं था.
आठ वर्ष बीत गए. उस साल बेस्ट सेलिंग के लिए शिशिर को कम्पनी की तरफ़ से अवॉर्ड दिया जाना था. यह अवॉर्ड मलेशिया में मिलना था. टिकट हम दोनों को ही दिया गया था. मैं बेहद ख़ुश थी. पूरे दस दिन का ट्रिप था. हमारी फ्लाइट मुंबई से थी. कम्पनी की गाड़ी हमें लेने आयी. बच्चों को हमने बैंगलोर मां के पास भेज दिया था. फ्लाइट थोड़ी लेट थी. समय बिताने के लिए हम यूं ही टहलने लगे. हमारे कुछ शुभचिन्तक जो हमें छोड़ने आए थे, उन्हें हमने वापस भेज दिया. तभी एक स्वर पर चौंक कर हमने मुड़ कर देखा, आदित्य खड़ा था, “शिशिर जी, आप यहां…?”
शिशिर ने भी चौंक कर देखा. आदित्य बहुत पहले कम्पनी छोड़ कर जा चुका था, ऐसा शिशिर ने ही मुझे बताया था.
शिशिर ने भी गर्मजोशी के साथ आदित्य का स्वागत किया.
“हां, हमारी अभी यहीं से फ्लाइट है. कम्पनी ने मुझे अवॉर्ड के लिए चुना है.”
“बधाई हो, सुना था मैंने..सॉरी.. तुरन्त आपको विश नहीं कर सका.” पैसा और रुतबा हर इंसान को नई चमक दे देता है. आदित्य का आज का व्यक्तित्व सालों पीछे छोड़े आदित्य से कहीं मेल नहीं खा रहा था. कहां वह आंखों पर मोटा चश्मा लगाए ढीली-ढाली पैंट पहनने वाला लड़का और कहां आज ग्रे कलर के सूट में उसका निखरा व्यक्तित्व. उसकी आंखों से एक आत्मविश्‍वास झलक रहा था.


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इसी बीच मेरी नज़र आदित्य के बगल में खड़ी एक अंग्रेज़ महिला पर पड़ी. तीखे नैन-नक्श और सलीके से पहने वस्त्र. वह मुस्कुराते हुए हमारी बातें सुन रही थी. कौन हो सकती है यह लड़की? उसे देखने से तो लग रहा था कि वह आदित्य के साथ है…
“मीट माइ वाइफ़.. हेलेना…” मैं चौंक पड़ी. तो क्या आदित्य की शादी हो गयी, वह भी इतनी ख़ूबसूरत लड़की के साथ. आठ वर्षों में अपने फैले शरीर से हेलेना की तुलना की. वह आत्मविश्‍वास से भरी हुई नज़र आई. शिशिर ने उससे हाथ मिलाया, पर जाने क्यों मैं ऐसा न कर सकी. मैं ख़ुद को असहज महसूस कर रही थी. मैं बड़ी मुश्किल से सिर्फ़ नमस्ते कर पाई. “आपने शादी कब की?” शिशिर ने पूछा.
“चार वर्ष पूर्व, मैंने तो सोच लिया था कि शायद मुझसे कोई लड़की शादी नहीं करेगी.. ऐसा किसी ने मुझसे कहा भी था कि कोई अंधी ही मुझसे शादी करेगी.” मैं सांस रोके शान्त खड़ी थी…
“लेकिन हेलेना के प्यार ने मुझे परास्त कर दिया. जाने इसे मुझमें क्या दिखा जो इसने मुझे अपनाया, इतना सारा प्यार दिया..” हेलेना मुस्कुराकर आदित्य के सीने से लग गयी. अचानक मुझे एक झटका-सा लगा. सालों पहले अपनी कही बात मुझे याद हो आई. क्या आदित्य आज तक इस बात को दिल से लगाए बैठा है? मेरी आंखें शर्मिंदगी से झुक गयीं. ठीक है, मैं उसे प्यार न करती, पर उस पर कटाक्ष तो न करती.
आदित्य बता रहा था कि आजकल वह जेनेवा में है. हेलेना जेनेवा विश्‍वविद्यालय में प्रवक्ता है. सुन्दरता एवं कुरूपता का यह सुन्दर मिलन न मैंने कभी देखा था न सुना था. आदित्य आंखों में ढेर सारा प्यार लिये हेलेना को निहार रहा था. जाने क्यों, आज अपनी नज़रों में मैं ख़ुद को बहुत छोटा महसूस कर रही थी, बहुत ही कुरूप..

- साधना राकेश

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