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कहानी- ख़ुशी की ख़ातिर (Short Story- Khushi Ki Khatir)

“वाह! मां होने की अच्छी कुर्बानी दे रही हो तुम! अपनी इस भूमिका में तुम इतना रम गई हो कि अपना वजूद ही भूल गई हो. मालती, तुम सारी ज़िंदगी अपनी ख़ुशियां ताक पर रखकर परिवार के लिए जीती रही. अपने लिए जीना कब सीखोगी? याद करो, कुछ समय पूर्व जब तुम अपनी ज़िंदगी जी रही थी तब कितनी ख़ुश थी?.."

एक कंधे पर मनु को लटकाए दूसरे हाथ से सूटकेस थामे पूर्णा घर में घुसी तो मालती उसे देखती ही रह गई. फिर तुरंत उसने आगे बढ़कर सोए हुए मनु को थामा और अंदर अपने बेडरूम में लिटा दिया. वैसे तो भारी सूटकेस और पूर्णा के चेहरे पर खिंची तनाव की लकीरें अपने आप में ही सारी स्थिति बयां कर रहे थे. फिर भी बेटी को ठंडे पानी का गिलास थमाते हुए मालती स्वयं को पूछने से न रोक सकी. “सब ठीक तो है न बेटी? अमेय के साथ फिर से..?”
“मैं सब झगड़े का अंत कर आई हूं मां! मैं अब उस घर में नहीं लौटूंगी.” पूर्णा का सपाट उत्तर उसके निश्‍चय की अडिगता बता रहा था. पर फिर भी मां की ममता और पुराने संस्कार छलक ही आए. “अभी तू ग़ुस्से में है. बाद में ठंडे दिमाग़ से…”
“नहीं मां यह फाइनल है. मैं अब उस घर में लौटने वाली नहीं हूं. आपको बोझ लग रही हूं, तो यहां से भी चली जाती हूंं.” पूर्णा उठने लगी तो मालती ने उसे जबरन बैठा दिया.
“कैसी बातें कर रही है? बच्चे भी कभी मां पर बोझ होते हैं? अब उठ मनु को कुछ खिला, फिर हम भी खाना खाते हैं.”
“मनु को मैं खिलाकर लाई हूं और मुझे भूख नहीं है.”
“ठीक है फिर मैं भी नहीं खाती. फ्रिज में रख देती हूंं.” मां के इस वार के सम्मुख पूर्णा को हथियार डालने पड़े. खाना खाते हुए दिल का दर्द स्वतः ही ज़ुबान पर आता चला गया.
“अमेय का व्यवहार दिन-प्रतिदिन बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है मां. घर और मनु को अकेले संभालने तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन आए दिन उसके घरवालों का आ धमकना और फिर उनकी पूरी खातिर तवज्जो करना इतना सब कुछ मुझसे नहीं होगा. फिर जितनी बार वे आते हैं किसी न किसी बहाने एक मोटी रकम ऐंठकर ले जाते हैं. हम इतने सालों में न अभी तक अपना फ्लैट बुक करा पाए हैं और न गाड़ी. दुनिया को दिखाने के लिए दो-दो कमानेवाले हैं, लेकिन हकीकत में पाई-पाई को तरसना पड़ रहा है. अमेय न उनसे पैसों के बारे में बोलते हैं न घर और मनु के कामों में ही कोई मदद करते हैं. मैं घुट रही हूं मां. यदि अब वहां और रही तो किसी दिन निश्‍चित ही मेरा दम घुट जाएगा.” खाना खाकर मालती ने बिस्तर पर सोए मनु को खिसकाकर पूर्णा के लिए जगह बनानी चाही तो उसने मना कर दिया.
“इसे सोने दो मां. मैं उधर दूसरे कमरे में सो जाऊंगी.” मालती का सवेरे जल्दी उठकर वॉक पर जाने का नियम था. आज भी आंख हमेशा की तरह जल्दी खुल गई. ब्रश वगैरह करके वह निकलने की सोच ही रही थी कि पूर्णा उठकर बाहर आ गई.

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“मेरा टिफिन बना दो मां, मुझे ऑफिस निकलना है.” कहकर पूर्णा बाथरूम में घुस गई. मालती ने जूते उतारे और रसोई में जाकर काम पर लग गई. पूर्णा का टिफिन, दूध तैयार करके उसने अपने लिए भी चाय बना ली. मनु अभी तक सो रहा था. पूर्णा ने तैयार होते-होते ही दूध खत्म किया और बाय करके निकल गई.
“अच्छा मां, शाम को मिलते हैं.”
मालती का पूरा दिन व्यस्तता से भरा गुज़रा. दो साल के मनु को नहलाने, खिलाने, पिलाने, उसके साथ खेलने में पूरा दिन कब निकल गया पता ही नहीं लगा. मालती को अच्छा तो लगा, पर पोर-पोर दर्द कर रहा था. उसे अब इतना उठने-बैठने, गोद में उठाने की आदत नहीं रही थी. शाम को वह अक्सर नीचे पार्क में चली जाती थी. वहां हमउम्र सहेलियों के साथ घूमने, बतियाने में ही पूरी शाम गुज़र जाती थी.
सवेरे का खाना बाई बना जाती थी. शाम को वह अपने लिए दलिया या कुछ हल्का-फुल्का ख़ुद ही पका लेती थी, पर अब न केवल बाई को शाम के खाने के लिए रोकना पड़ता था, वरन मालती को स्वयं भी उसके साथ लगना पड़ता था. मनु का अकेले का ही ढेर सारा काम था. पूर्णा थकी-हारी लौटती, तो कभी तो मनु सो गया होता. यदि जग रहा होता तो वह कुछ देर उससे बतियाती और फिर खाना खाकर, उसे लेकर ख़ुद भी लुढ़क जाती. मालती सोचती छुट्टी वाले दिन बेटी से बात करेगी. उसे घर लौटने को, अमेय से बात करने को कहेगी, ज़रूरत हुई तो वह ख़ुद मध्यस्थता करेगी, लेकिन पूर्णा उस दिन दिन चढ़े उठती. कभी अकेले, तो कभी सबको लेकर शॉपिंग पर निकल जाती. फिर वे देर रात खा-पीकर ही लौटते थे. मालती समझाइश का पिटारा खोलने का प्रयास करती, तो पूर्णा थकान का रोना रोकर सोने चली जाती.
मालती बेचारी अपने अनुभव अपने को ही सुनाने लगती कि उसने भी कितना कुछ सहा है. सास-ससुर साथ ही रहते थे. कैसे उसका पूरा दिन घर के कामों में ही गुजर जाता था. नीलेश अकेले में भले ही मदद कर दें, लेकिन माता-पिता के सामने तो एक ग्लास पानी भी ख़ुद उठाकर नहीं पीते थे. पति ने मां के जीते जी कभी उसके हाथ में तनख़्वाह नहीं रखी. अपने ज़रूरी कामों के लिए उसे सास से पैसे मांगने पड़ते थे, लेकिन फिर भी पूर्णा के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा में मालती ने कहीं कोई कमी नहीं रखी.
माता-पिता के गुज़र जाने के बाद नीलेश में भी थोड़ा परिवर्तन आया था. मालती के त्याग और पूर्णा के प्रति वात्सल्य ने उन्हें काफ़ी नरम बना दिया था, पर मालती की भाग्यरेखा में सुख शायद लिखा ही नहीं था. नीलेश भी बहुत जल्द उसका साथ छोड़ इस संसार से कूच कर गए. मालती ने पूर्णा की ख़ातिर ख़ुद को फौलाद बनाकर उसके पालन-पोषण में पूरी तरह झोंक दिया. यह उसके सुप्रयासों का ही प्रतिफल था कि पूर्णा एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इतने अच्छे ओहदे पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी. उसकी पसंद से अमेय से उसका ब्याहकर मालती एक पल को तो नितांत अकेली हो गई थी, लेकिन हमउम्र सहेलियों विशेषतः मौसेरी बहन सुलेखा का साथ मिला तो उसकी जिंदगी ने एक नई गति पकड़ ली थी. सुलेखा उसे अपने साथ कई चैरिटी संस्थाओं में ले जाती थी. उनकी सदस्या बनकर मालती की सोच को एक नया आयाम मिला. पहली बार उसे एसास हुआ कि दुनिया कितनी बड़ी है, उसमें क्या क्या हो रहा है जबकि उसकी पहचान और सोच का दायरा कितना सीमित था.
पूर्णा जब भी पति से लड़कर आती मालती सोच के इसी विस्तृत दायरे और अपने अनुभव के आधार पर उसे समझा-बुझाकर वापिस भेज देती थी. लेकिन इस बार…
घंटी बजने की आवाज़ के साथ मालती वर्तमान में लौट आई. उसकी अंतरंग सखी सुलेखा थी.
“पूर्णा क्या आती है तू तो पूरा ईद का चांद हो जाती है. पांवों में क्या बेड़ियां पड़ जाती हैं तेरे? मैंने सोचा बेटी के लौटने पर अपने आप निकल आएगी पर इस बार तो तूने बहुत दिन लगा दिए? तबियत तो ठीक है न? पूर्णा क्या गई नहीं?”
“पूर्णा अब नहीं लौटेगी. वह सब कुछ छोड़-छाड़कर आ गई है.” इतने दिनों बाद किसी हमदर्द को पास पाकर मालती खुद को रोक नहीं पाई.
“वो तो नासमझ है, बच्ची है. ग़ुस्से में अपना घर छोड़ आई, लेकिन तेरी अक्ल पर क्या पत्थर पड़े हैं? उसे रोक नहीं सकती तलाक़ लेने से?” मालती का मुरझाया चेहरा देख सुलेखा को उस पर दया आ गई.
“देख मालती, हम कितने ही आधुनिक हो जाएं, लेकिन तू तो जानती है हमारे समाज में तलाक़शुदा स्त्री की क्या हैसियत होती है? इसलिए वक्त रहते उसे समझा और अपने घर वापिस भेज दे.”


“अपने घर? स्त्री का कभी कोई अपना घर हुआ है? नरक मानती है वह उस घर को. कहती है वहां रही तो एक दिन घुट-घुटकर दम तोड़ देगी. वह आई तब तुमने उसे देखा नहीं था ख़ून निचुड़ा हुआ, न कपड़ों का होश न बालों का, और अब देखो अपने घर आकर कैसे रंगत लौट आई है मां-बेटे की. पूर्णा पढ़ी-लिखी इतने ऊंचे ओहदे पर आसीन, आर्थिक रूप से पूरी तरह आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, जागरूक लड़की है. फिर भी मेरे कहने पर इतने समय तक उस घर में निर्वाह करती आ रही है. पर कहते हैं न दबाने वाले को लोग और दबाते हैं वही उसके साथ उस घर में हो रहा है. क्या मेरी बच्ची ज़माने को दिखाने के लिए सारी जिंदगी ऐसे ही घुटती रहेगी? हम अपने बच्चों को पहले तो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी बनने की सीख देते हैं फिर ज़माने की दुहाई देकर अपने आत्मसम्मान से समझौता करने को कहते हैं. मेरी बेटी ज़िंदा है, ख़ुश है यही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है. लोग क्या कहते सोचते हैं मुझे परवाह नहीं.”

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सुलेखा के लौट जाने के बाद मालती देर तक रोती रही थी. अपनी सबसे प्यारी सहेली का दिल दुखाकर उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था. वह जानती थी सुलेखा ने जो भी कहा एक कड़वी हकीकत थी. पर वह भी क्या करे? अमेय ने भी तो इस दौरान सुलह का कोई प्रयास नहीं किया. बेटे से मिलने भी नहीं आया. पूर्णा ठीक ही कहती है उसने पूर्णा से नहीं उसके पैसों से प्यार किया था. हो सकता है भविष्य में पूर्णा को कोई उससे सच्चा प्यार करने वाला मिल जाए, तब वह फिर से घर बसा ले. इस विचार के साथ ही मालती की आंखें चमक उठीं. यदि ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो! वह आज ही पूर्णा से बात करेगी कि अमेय से तलाक़ मिलते ही वह दुबारा घर बसा लेगी. मालती बेचैनी से पूर्णा के लौटने का इंतजार करने लगी. आज पूर्णा भी बेहद उत्फुल्ल मूड में गुनगुनाती हुई घर में घुसी थी. उसका मूड देखकर मालती भी ख़ुश हो गई. 'लगता है इसकी जिंदगी में कोई आ चुका है.' मालती सोच ही रही थी कि पूर्णा ने उसे गोद में लेकर घुमा दिया.
“मां, मैं आज बहुत बहुत ख़ुश हूं. मेरा बरसों का सपना पूरा होने जा रहा है. मुझे विदेश से एम बी ए करने के लिए स्कॉलरशिप मंजूर हो गई है. मैं 2 साल के लिए विदेश जा रही हूं… जानती हो न मां मैं पढ़ रही थी तब से यह मेरा सपना था. पर बीच में ही नौकरी, प्यार, शादी, बच्चा जैसे झमेलों में फंस गई…”
“पर तूने अप्लाई कब किया? बताया ही नहीं?” मालती हक्का-बक्का थी. मैंने सोचा एक बार हो जाए फिर सबको चौंका दूंगी. ऑफिस में भी सब तुम्हारी ही तरह हैरान और ख़ुश थे. अमेय से तलाक़ एक तरह से अच्छा ही रहा मेरे लिए. वह लालची मुझे नौकरी छोड़कर कभी नहीं जाने देता. मनु को तुम संभाल ही लोगी, बल्कि अब तो वह मुझसे ज्यादा तुमसे हिल-मिल गया है. जब मैं डिग्री लेकर लौटूंगी न मां इससे भी ज़्यादा पैकेज की शानदार नौकरी मेरा इंतज़ार कर रही होगी. फिर हम ठाठ से रहेंगें.” पूर्णा इतनी उत्साहित थी कि मालती को उसे कुछ कहने, पूछने का साहस नहीं हुआ और पूर्णा के पास मां की मनःस्थिति पढ़ने जितना व़क्त ही नहीं था.
उत्साह से लबरेज़ पूर्णा अगले दिन ऑफिस चली गई, तो मालती अपनी दिनचर्या में लग गई. हाथ यंत्रवत चल रहे थे पर मन विचारों की न जाने किस भटकन में ग़ुम हो गया था. शाम को मनु को प्रॉम में डालकर पार्क में टहलना आरंभ किया था पर आज उसका भी मन नहीं हुआ. मालती खुद हैरान थी वह बेटी की ख़ुशी में ख़ुश क्यों नहीं हो पा रही?
घंटी बजी. सुलेखा को देखकर मालती का चेहरा खिल उठा. वह तुरंत चाय बना लाई.
"आज मनु को घुमाने भी नहीं आई? तबियत तो ठीक है?.. अच्छा सुन, एक ख़ुशखबरी है. हमारे आग्रह को सोसायटी वालों ने मान लिया है. हम चारधाम यात्रा के लिए जा रहे हैं. सुमित्रा, प्रसून, माधवी सब सहेलियां चल रही हैं. पूरी बस बुक हो गई है. खाने-पीने ठहरने का बहुत अच्छा इंतज़ाम है. हम आज से ही चलने की तैयारियां आरंभ कर देते हैं.”
“सुलेखा, मैं इस यात्रा पर नहीं चल सकती.”
“क्यों? तू तो इसके लिए सबसे ज़्यादा उत्साहित थी?”
“हां… पर… पूर्णा एमबीए करने विदेश जा रही है. मनु पूरी तरह मेरे भरोसे है.”
“वाह! मां होने की अच्छी कुर्बानी दे रही हो तुम! अपनी इस भूमिका में तुम इतना रम गई हो कि अपना वजूद ही भूल गई हो. मालती, तुम सारी ज़िंदगी अपनी ख़ुशियां ताक पर रखकर परिवार के लिए जीती रही. अपने लिए जीना कब सीखोगी? याद करो, कुछ समय पूर्व जब तुम अपनी ज़िंदगी जी रही थी तब कितनी ख़ुश थी? सुबह-शाम ताज़ी हवा में घूमना, दोस्तों से बतियाना, मिलकर शॉपिंग करना, चैरिटी संस्थाओं के लिए काम करना. तुमने ख़ुद कहा था मैं अपनी ज़िंदगी का सबसे सार्थक अध्याय जी रही हूं. और अब शरीर और मन का साथ न होते हुए भी गृहस्थी में घुसी रहती हो. कभी घुटने दर्द करते हैं, कभी कमर. तुम पूर्णा को बता क्यों नहीं देती कि शरारती मनु को संभालना अब तुम्हारे अकेले के बस की बात नहीं है. पूर्णा वहां भी तो उसे प्ले स्कूल में छोड़कर जाती थी तो यहां क्यों नहीं?”
“यहां क्यों छोड़ेगी? मैं हूं न नानी!”
“नानी या नैनी? बुरा मत मानना मालती तुम बहुत अच्छी मां हो. पर अपनी बेटी को न अच्छी बेटी बना पाई न अच्छी मां.”
“व… वह यह सब मनु और मेरे लिए ही तो कर रही है.” मालती ने प्रतिवाद करना चाहा.
“नहीं, वह यह सब अपने लिए कर रही है. अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कर रही है.”
दरवाज़े के उस ओर खड़ी पूर्णा की आंखों से झरते आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे. सुलेखा मौसी निकल गईं तो वह अंदर दाखिल हुई.
“अरे पूर्णा तू कब लौटी? तेरे लिए चाय बना देती हूं. मैंने तो सुलेखा मौसी के साथ पी ली थी.”
“नहीं मां, बैठो. तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है. मैं आगे पढ़ाई के लिए विदेश नहीं जा रही.”
“ क्यूं?… तूने मौसी की बात तो नहीं सुन ली? अरे कोई कुछ भी कहे. मैं चाहती हूं तू जाए. तेरा बरसों का सपना पूरा होने जा रहा है.”
पूर्णा मुग्ध मां की आंखों में झांक रही थी. बचपन से वह मां की आंखों में अपने ही सपने तो देखती आ रही है. मां के अपने भी कुछ सपने हो सकते हैं, यह ख़्याल तो उसके दिमाग़ में कभी आया ही नहीं.
“तेरे और मेरे सपने कोई अलग थोड़े ही हैं. तेरी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी है.”
“ठीक है मां. तो मेरी ख़ुशी इसमें है कि आप मौसी और अपने दोस्तों के साथ चारधाम यात्रा करके आएं. मनु को संभालने कल से ही एक नैनी आएगी. आपको उसे प्रशिक्षित करना है ताकि मैं उसे विदेश साथ ले जा सकूं और जब आप यात्रा से लौटेंगी तब हमारे पास आने का टिकट आपका इंतज़ार कर रहा होगा. बोलो मां, करोगी न मेरी ख़ुशी के लिए यह सब?”
प्रत्युत्तर में मालती की आंखें छलछला उठी थीं. उसने पूर्णा को सीने से लगा लिया.

- संगीता माथुर

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