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कहानी- किराए का मकान (Short Story- Kiraye Ka Makan)

“पहले मुझे लगा था कि मैं एक आधुनिक लड़की हूं और प्रेम-प्यार जैसे शब्द हमारी पीढ़ी के लिए नहीं बने हैं. मैं निश्‍चिंत थी कि तुम्हें किसी के साथ शेयर करने में मुझे कोई द़िक्क़त नहीं होगी. किंतु अब मुझे यह एहसास हो गया है कि स्त्री चाहे कितनी भी आधुनिक क्यों न हो, प्रेम के मामले में हमेशा दकियानूसी ही रहेगी. मुझे यह रिश्ता छोड़ना मंज़ूर है, लेकिन बांटना नहीं…”

किराए के मकान सा लगने लगा है मुझे हमारा रिश्ता. कितने मान से सहेजा था मैंने उसे. कोना-कोना सजाया था मन भर के. इतना ख़्याल रखा था उसकी सार-संभाल का मानो अपने हाथों से बनाया घर हो.
मैं तो घर और मकान के बीच का फ़र्क़ भूल ही गई थी. पर अब अचानक मकान खाली करने का मन क्यों होने लगा? क्यों मैं उसके व्यवहार से आहत हूं? जो कुछ हो रहा है, इसमें उसका तो कोई दोष नहीं. उसने मुझे मकान खाली करने के लिए कभी नहीं कहा, लेकिन वादा भी तो नहीं किया था मुझसे कि ये मकान मेरे नाम कर देगा.
मेरा दिल भारी उथल-पुथल में डूबा था. कभी रोना आ रहा था, तो कभी ग़ुस्सा. मन उदासी के गर्त में जा गिरा. ध्यान भटकाने की कोई भी तरकीब काम नहीं आ रही थी. घड़ी-घड़ी ध्यान फोन की तरफ़ जा रहा था. लेकिन ये फोन है कि बजने का नाम ही नहीं ले रहा. न उसका कोई कॉल न मैसेज… कितनी ही बार मैसेंजर को टटोला. हर बार उसका स्टेटस बस कुछ ही मिनट पहले का लास्ट सीन दिखा रहा था. एक-दो बार तो वह ऑनलाइन भी दिखा.
मैं बेबस थी. चाह कर भी अपनी तरफ़ से फोन करने की पहल नहीं कर पा रही थी. यही अलिखित समझौता था हमारे बीच कि यह रिश्ता हमारे अन्य व्यक्तिगत रिश्तों के आड़े नहीं आएगा. हालांकि मन ऐसे किसी भी तरह के तर्क को नकारता हुआ बार-बार मोबाइल की तरफ़ लपक भी रहा था. लेकिन कमबख़्त दिमाग़ का क्या करूं, जो हर बार कॉल या मैसेज करने को आतुर मेरे हाथों को रोक लेता है.
व्यस्त तो नहीं है, होता तो ऑनलाइन कैसे आता. सारी दुनिया के लिए समय है उसके पास, बस मेरे लिए ही फ़ुर्सत नहीं. कभी-कभी तो लगता है जैसे मैं उसके लिए फ़ुर्सत का टाइमपास हूं. जब कोई काम नहीं तो लगा लिया मुझे फोन. मतलबी कहीं का… सोचते हुए मैंने उसे कोसा.
माना कि व्यस्तता के चलते लंबी बात नहीं कर सकता, लेकिन मैसेज तो कर सकता है ना? जानता तो है कि संपर्क न होने पर मैं कितना परेशान हो जाती हूं, मेरी परवाह हो तब ना? मेरा उसे कोसना जारी था, पर हैरानी की बात तो ये है कि मैं उसे कोस ही क्यों रही हूं?
नाराज़गी या मनमुटाव जैसा कुछ भी नहीं है, किंतु फिर भी पूरा एक सप्ताह हो गया हमारी आपस में बातचीत हुए. इसे अबोला तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मैं हर रोज़ बिना नागा उसे गुड मॉर्निंग का मैसेज करती हूं, परंतु मेरे मैसेज के जवाब में हाथ जोड़े इमोजी वाला रिप्लाई देना परवाह कम, मजबूरी में की गई औपचारिकता अधिक लग रही थी.

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ऐसा नहीं है कि हमारे दरमियान यह स्थिति पहली बार आई है. महीने-दो महीने में ऐसा हो ही जाता है. ऐसा तब होता है, जब वह अपने दोस्तों के साथ आउटिंग का प्रोग्राम बनाता है. और जब भी ऐसा होता है, मैं उखड़ जाती हूं.
वे कुछ दिन मेरे लिए बहुत कष्टदायी होते हैं. जी जलता है, मन कुढ़ता है. कहीं राहत नहीं मिलती, तो बैठकर उसे कोस लेती हूं, लेकिन अब लग रहा है जैसे नाहक ही उसे कोस रही हूं. उसकी तो कोई ग़लती है ही नहीं. सारा दोष तो मेरा ही है. ये सारी परिस्थितियां तो पहले भी मेरे सामने स्पष्ट ही थीं. उसने कभी दावा नहीं किया था कि मेरे प्यार की ख़ातिर वो दुनिया छोड़ देगा. मैंने ही पूरे होशोहवास में यह दर्द मोल लिया था.
मुझे लगता है कि दुनिया में तमाम दुखों, परेशानियों और मुसीबतों की जड़ यह मन नामक काल्पनिक ऑर्गन ही है. यह शरीर का वो अदृश्य हिस्सा है, जो बेशक दिखाई नहीं देता, किंतु हमारी दिनचर्या को पूरी तरह से प्रभावित करता है. शरीर की हर गतिविधि इसी के नियंत्रण में रहती है और हमारे हर क्रियाकलाप पर इसके मूड का असर साफ़ नज़र आता है.
मैं और वो… काम के सिलसिले में पास आए थे और ये जानते हुए भी कि मेरे अलावा भी उसकी बहुत सी महिला मित्र हैं, मैंने उसे सहजता से स्वीकारा था.
कुछ ही दिनों में हमारी नज़दीकियां अंतरंगता में बदल गईं. हम नई पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं. हमारी इस जमात में साथ पढ़ने या नौकरी करनेवाले अकेले जोड़ों में इस तरह की नज़दीकियां बहुत ही सामान्य सी बात है. दो एक जैसी विचारधारा के लोग साथ रहना स्वीकार कर लेते हैं और एक-दूसरे की तमाम अच्छाइयों-बुराइयों के साथ इस साथ को निभाते भी हैं.
हमारा यह रिश्ता पूरी तरह से ज़रूरत और उपलब्धता पर निर्भर था. प्यार जैसा कोई तत्व शायद इसमें नहीं था. यूं प्यार के अस्तित्व से इनकार नहीं है मुझे और ना ही मैं इसके होने को बुरा मानती हूं, परंतु प्यार जब तक दोतरफ़ा ना हो, इसके होने का कोई मतलब नहीं. कुल मिलाकर त्याग वाला प्यार हमारी पीढ़ी के कॉन्सेप्ट में नहीं था. रिश्तों के मामले में हम पूरे लेनदेन में विश्‍वास करते हैं. जितना लो, उतना दो भी. लेकिन मुझे कभी उससे ऐसा फिल्मों और कहानियोंवाला प्यार हो जाएगा ये मैंने नहीं सोचा था. उसकी तरफ़ से वफ़ा की उम्मीद मैं कैसे कर सकती थी, क्योंकि मेरे जैसी तो बहुत सी मित्र थीं उसकी और जहां तक मुझे समझ में आया है, भोगौलिक दूरी के अलावा उसे अपनी इन मित्रों से कोई विशेष शिकायत भी नहीं थी.


जब तक हम एक साथ एक ही ऑफिस में थे, हमारा रिश्ता बहुत स्मूदली चल रहा था. हालांकि इस तरह की सिचुएशन पहले भी बनती रही है, जब वह छुट्टी लेकर अपने दोस्तों से मिलने-जुलने जाता था. तब मुझे बुरा नहीं लगता था और मैं इसे एक शॉर्ट ब्रेक की तरह लेती थी.
इस बार भी ऐसा ही कुछ हुआ था. वीकेंड पर वह अपने दोस्तों से मिलने चला गया, तो मैं भी मां-पापा के पास आ गई. उसी दौरान करवा चौथ का व्रत आया. मां सुबह से ही सजी-धजी घूम रही थीं. पापा भी ऑफिस से छुट्टी लेकर मां के इर्दगिर्द मंडरा रहे थे. कभी सरगी, तो कभी पूजा… घर में तरह-तरह की रस्में हो रही थीं. मेरे मन में भी प्रेम की हल्की सी तरंग उठी. मैंने उसे फोन किया. फोन उठाते ही वह झल्लाया.
“तुम्हें पता है ना कि मैं कहां हूं? फोन क्यों किया?” उसने कहा, पर मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दिया.
“तुम्हें पता है, आज करवा चौथ का व्रत है?” मैंने उत्साह के अतिरेक से उससे पूछा.
“होगा, हमें क्या?” उसने लापरवाही से जवाब दिया. मेरा उत्साह बुझ गया, परंतु मैंने उस पर ज़ाहिर नहीं होने दिया. मैं कुछ और कहती इससे पहले ही उसका ठहाका सुनाई दिया.
“वैलेंटाइन डे मनानेवाली हमारी पीढ़ी कब से इन ढकोसलों में भरोसा करने लगी? वैसे तुम किसके लिए ये व्रत कर रही हो?” उसने मुझे दकियानूसी करार देने के साथ-साथ मेरा उपहास भी उड़ाया. उसके अंतिम प्रश्‍न ने तो मन की बंजर ज़मीन पर गुलाबी कोपलों के उगने पर ही प्रश्‍नचिह्न लगा दिया. मैंने फोन काट दिया.
हालांकि उस दिन मैंने वह व्रत नहीं रखा, लेकिन इन दिनों उसका अपने दोस्तों से मिलने जाना मुझे बेचैन करने लगा है. विशेषकर महिला मित्रों से. यहां से जाने के बाद मेरी तरफ़ उसकी उदासीनता मुझे अखरने लगी है. उसकी अपनी महिला मित्रों के साथ होने की कल्पना तक मुझे आहत करने लगी है.


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मुझे याद है अपनी वो बेहद बचकानी हरकत जब वह अपनी एक मित्र के साथ वीकेंड बिताने किसी रिसोर्ट पर गया था. कैसे मैं बार-बार फोन करके उन दोनों को डिस्टर्ब करने की कोशिश कर रही थी, ताकि वे एक-दूसरे के नज़दीक न आ सकें. मेरी इस हरकत पर वह मुझसे कई दिन रूठा भी रहा था, पर मुझे अपने किए पर न तो कोई दुख था और ना ही कोई पछतावा, बल्कि उसके ये कहने पर कि तुमने मेरे पूरे वीकेंड का सत्यानाश कर दिया सुनकर मैं भीतर तक खिल गई थी.
अब मुझे इस सच्चाई को स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं कि उसका किसी और महिला के साथ होना मुझे इतना अधिक बुरा लगने लगा है कि अब मेरी बुरा लगने की सहनशक्ति भी समाप्त हो चली है. निर्दोष होते हुए भी उसकी वे अनदेखी मित्र मेरे लिए खलनायिका बनने लगी हैं यानी मुझे उससे दूरी का ग़म कम और उसकी अपनी मित्रों से नज़दीकी का ग़म अधिक सताता है. ऐसी जलन… ऐसी कुढ़न… ऐसी ईर्ष्या… यह तो प्रेम में हुआ करती है. तो क्या मुझे उससे प्यार होने लगा है?
इसकी शुरुआत क़रीब छह महीने पहले होने लगी थी, जब उसका ट्रांसफर हमारी कंपनी की दूसरी ब्रांच में हो गया. अब हम अलग-अलग शहरों में रहने लगे, किंतु हवाई जहाज और हाई स्पीड इंटरनेट के ज़माने में न तो मानसिक दूरियां मायने रखती हैं और ना ही शारीरिक. हम हर समय संपर्क में रह सकते हैं और मन चाहे तो मात्र एक-दो घंटे का सफ़र करके मुलाक़ात भी कर सकते हैं. हम भी ऐसा ही कर रहे थे.
हमारा रिश्ता भी बहुत अच्छे से निभ रहा था. जब भी उसके पास समय और मन होता, वह मुझसे संपर्क करता और हम मिल लेते थे. यहां मैंने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि जब मेरा मन उससे मिलने का होता, तब हर बार वह मेरे लिए उपलब्ध नहीं होता था. परंतु यह भी सच है कि जब हम साथ होते, तब सिर्फ़ हम दोनों ही साथ होते थे. एक-दूसरे में पूरी तरह से निमग्न.
हमारे बीच पैसा कभी नहीं आया, क्योंकि दोनों की जेब ही भरी हुई थी. खाली थे तो केवल मन. उन्हीं को भरने के लिए हम प्रेम तलाश कर रहे थे. लेकिन प्रेम क्या इतना सहज उपलब्ध है? शायद नहीं. ये मुझे प्रेम होने के बाद महसूस हो रहा है.
यदि मुझे उससे प्यार हुआ है, तो क्या उसे मुझसे प्रेम नहीं हुआ? एक सहज सा प्रश्‍न मेरे भीतर कौंधा.
शायद नहीं ही हुआ, क्योंकि यदि हुआ होता तो उसके भीतर भी वही तड़प… वही छटपटाहट होती, जो मेरे भीतर है. मैंने ख़ुद ही अपने सवाल का जवाब भी दे दिया.


किंतु पिछली बार जब हम मिले थे, तब कितना समर्पित लग रहा था वो. मुझे एक पल को भी ये एहसास नहीं होने दिया कि मैं उसकी कोई नहीं. मेरा कितना ख़्याल रखा था. कितना ख़ुश भी था मेरे साथ. मैंने फिर से प्रश्‍न किया, पर उसका जवाब भी मेरे पास तैयार ही था.
मेरे साथ ख़ुश होने का मतलब ये भी तो नहीं कि वह अपनी अन्य मित्रों के साथ ख़ुश नहीं है या फिर मेरे लिए उन्हें छोड़ देगा. हो सकता है कि वह बाकी दोस्तों के साथ भी ऐसे ही प्रेमपूर्ण व्यवहार करता हो जैसे मेरे साथ. और वैसे भी, तब वह फ्री भी तो था ना? मैंने प्रश्‍न के मुंह पर प्रश्‍न ही दे मारा.
लेकिन वो समय भी तो उसने ख़ास मेरे लिए ही निकाला था ना? मैंने अपनी पैरवी की, किंतु मैं ख़ुद भी महसूस कर रही थी कि मेरी ये दलील कितनी कमज़ोर है.
वही तो मैंने कहा. वो फ़ुर्सत में था और मैं उसके लिए फ़ुर्सत का टाइमपास हूं. सच्चाई उगलकर मैं अपने आप पर व्यंग्य से मुस्कुरा दी. आईना मेरे सामने था और मेरे प्रश्‍नों का उत्तर भी.
अगर हमारा रिश्ता किराए के मकान जैसा ही है, तो मुझे भी उसे किराए का मकान ही समझना चाहिए ना! क्यों मैं उसे अपना घर समझ रही हूं. ठीक है कि हरेक की क़िस्मत में अपना घर नहीं होता, तो क्या हुआ? जब तक अपना निजी आवास न हो, तब तक रहो किराए के मकान में. किराए के मकान का ये बड़ा फ़ायदा मैं कैसे भूल रही हूं. जब पसंद न आए, मकान मालिक से न बने या कोई अन्य बेहतर विकल्प मिल जाए, तो बदल लो किराए का मकान. मैंने अपनी आधुनिक सोच को बल दिया. बहुत सोचा और निर्णय भी ले लिया. आश्‍चर्य की बात ये कि उसी पल मैं ख़ुद को बेहद हल्का महसूस करने लगी. इस मामले में हमारी पीढ़ी की दाद देनी होगी. हम किसी भी ग़म को दिल से लगाकर नहीं रखते. न निभे तो भी हम किसी मनमुटाव के साथ अलग नहीं होते, बल्कि हम तो ब्रेकअप को भी सेलिब्रेट करते हैं.
कहने को तो हम बहुत कुछ कह देते हैं, परंतु ये सब क्या इतना आसान होता है? नहीं. ज़िंदगी के यू टर्न बहुत मुश्किल होते हैं. किसी दूसरे को हिम्मत देना और वैसी ही हिम्मत ख़ुद अपने लिए जुटाना… दोनों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ होता है.
किसी रिश्ते का जुड़ना जितनी ख़ुशी, आल्हाद और ऊर्जा देता है, उसका टूटना उतनी ही निराशा, हताशा और अवसाद… लेकिन यह भी सच है कि हर दुख की एक एक्सपायरी डेट होती है और एक चरम भी. उसके बाद इसमें ख़ुद-ब-ख़ुद गिरावट आने लगती है. लेकिन उस चरम तक पहुंचने की प्रक्रिया भी तो कम कष्टदायक नहीं होती. कतरा-कतरा ख़ुद को खत्म करने जैसा ही तकलीफ़देह होता है. किंतु मैं अब उस चरम को पाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थी.


इन दिनों उस पर न तो मुझे ग़ुस्सा आ रहा था और ना ही नाराज़गी. अब मुझे उसके फोन कॉल या मैसेज का इंतज़ार नहीं रहा. कभी करे, तो ठीक और ना करे, तो भी मुझे कोई शिकायत नहीं रहती. न मैं उसे फोन कर रही थी और ना ही उसके ना करने पर उसे कोई उलाहना दे रही थी.
ठंडापन तो नहीं आया था हमारे बीच, लेकिन अब मैं झुलस भी नहीं रही थी. हमारा रिश्ता जो कभी मुझे इस्पात के तार सा मज़बूत लगा करता था, अब धागे सा कच्चा लगने लगा. शायद मैंने अपने दुख की अधिकतम सीमा को छू लिया था. हमारे रिश्ते की नींव की इस कमज़ोरी का एहसास शायद उसे भी होने लगा था.
“सुनो, बहुत दिन हो गए तुमसे मिले. इस वीकेंड आ जाओ.” एक दिन उसने आग्रह किया. मुझे ख़ुद पर आश्‍चर्य हुआ, क्योंकि उसका प्रस्ताव सुनकर मैं ख़ुशी से उछली नहीं.
“मैं नहीं आ पाऊंगी. मेरा मन नहीं है.” मैंने स्पष्ट इनकार कर दिया. अब चौंकने की बारी उसकी थी.
“मन क्यों नहीं है? तबियत तो ठीक है ना? अच्छा चलो, न तुम आओ न मैं. हम दोनों कहीं किसी तीसरी जगह चलते हैं. दो दिन का मिनी हनीमून.” उसने प्यार उंडेला, किंतु पता नहीं क्यों मैं इतनी निष्ठुर बनी जा रही थी. उसके हर प्रलोभन को ठुकराकर आत्मिक शांति महसूस कर रही थी. आख़िर उसके सभी हथियार मैंने निरस्त कर दिए. कमाल की बात तो ये रही कि इतना सब होने के बाद भी मैं हताश या निराश नहीं थी. डिप्रेशन का तो मतलब ही नहीं था.
शनिवार की सुबह जब मैं पूरी तरह से जगी भी नहीं थी कि डोर बेल बजी. जैसा कि मुझे पहले से ही अंदाज़ा था, वही सामने खड़ा था. मैंने मुस्कुरा कर गले लगते हुए उसका स्वागत किया. वह ख़ुश था. शायद उसे विश्‍वास था कि उसकी इस पहल से हमारे बीच जमी हुई ब़र्फ पिघल जाएगी. मैं कॉफी बना लाई. हमने साथ-साथ एक ही बिस्तर पर बैठकर कॉफी पी. कॉफी पीने के बाद वह काफ़ी रिलैक्स लग रहा था और मैं शांत.
ये दिसंबर के अख़िरी दिन थे. सर्दियां अपने चरम पर थीं. मैं तो रात से ही रजाई में दुबकी हुई थी, इसलिए पूरा शरीर ही गर्म था. मेरे पांवों से सटे उसके पांव भी अब गर्म हो चले थे. कॉफी का खाली मग बेड के किनारे रखी साइड टेबल पर रखने के बाद वह पांव पसार कर अधलेटा हो गया. उसने अपने हाथ मेरी कमर में डाल दिए. मैंने चुपचाप उन्हें परे सरका दिया. उसे मेरी इस हरकत पर थोड़ा आश्‍चर्य हुआ.

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“क्या हुआ? नाराज़ हो मुझसे? अब आ गया हूं ना तुम्हारे पास. दो दिन पूरी तरह तुम्हारा.” उसने अपनी खिन्नता छिपाते हुए फिर से मुझे अपनी तरफ़ खींचा.
“नहीं, मैं किसी से नाराज़ नहीं हूं.
परंतु प्लीज़, ये मैं नहीं कर पाऊंगी.” मैंने स्पष्ट किया.
“क्यों? ऐसा क्या हो गया? मेरे दोस्तों से परेशान हो? यार, ये सब तो तुम्हें पहले से पता था ना? मैंने तुमसे कुछ छिपाया तो नहीं? फिर?” अब उसकी खिन्नता शब्दों का जामा पहन चुकी थी.
“मैं तुम्हें कोई दोष नहीं दे रही, लेकिन मैं ये अधूरापन बर्दाश्त नहीं कर पा रही हूं.” मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.
“लेकिन मैं अपने दोस्तों को छोड़ तो नहीं सकता ना? वो भी बिना किसी ठोस वजह के.” उसने कसकर मेरा हाथ पकड़ लिया.
“मैंने कब कहा उन्हें छोड़ने को? छोड़ना चाहिए भी नहीं. दोस्त हैं वो तुम्हारे.” मैंने संजीदगी से कहा.
“तो फिर तुम्हारा ये निर्णय?” उसकी आंखों में प्रश्‍न झिलमिलाए.
“पहले मुझे लगा था कि मैं एक आधुनिक लड़की हूं और प्रेम-प्यार जैसे शब्द हमारी पीढ़ी के लिए नहीं बने हैं. मैं निश्‍चिंत थी कि तुम्हें किसी के साथ शेयर करने में मुझे कोई द़िक्क़त नहीं होगी. किंतु अब मुझे यह एहसास हो गया है कि स्त्री चाहे कितनी भी आधुनिक क्यों न हो, प्रेम के मामले में हमेशा दकियानूसी ही रहेगी. मुझे यह रिश्ता छोड़ना मंज़ूर है, लेकिन बांटना नहीं. मैं जिसे भी दूं, अपना पूरा प्यार देना चाहूंगी और लेना भी. एक दोस्त होने के नाते तुम्हें भी यही सलाह दूंगी. तुमसे दोस्ती से आज भी इनकार नहीं है, पर तुमसे प्यार नहीं कर पाऊंगी. और प्यार नहीं, तो ये सब भी नहीं.” कहते हुए मैंने उसे सहज गले से लगा लिया. मेरे हाथों पर उसकी पकड़ कमज़ोर पड़ने लगी थी.
मैं नहीं जानती कि उसके दिल पर क्या बीत रही थी, परंतु मैं स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रही थी और अपराधबोध से मुक्त भी. मैंने किराए के मकान को खाली करने का फ़ैसला कर लिया था.

आशा शर्मा

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