डॉ. मंजुला मेहता के पास अधिकतर पत्र सेमिनार और कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए ही आते थे, लेकिन एक पत्र जो उनके सामने पड़ा था, उस पर लिखा था- कृपया यह पत्र पढ़कर ही नष्ट कीजिएगा.
डॉ. मेहता की उत्सुकता बढ़ी और उन्होंने पढ़ना प्रारंभ किया-
आदरणीया डॉ. महोदया!
क़रीब दो महीने पहले जब मैं अपनेअचेत पति को लेकर उस विख्यात चिकि त्सालय के इमरजेंसी में पहुंची तो शायद आप अपनी ड्यूटी पूरी कर निकल रही थीं. रात आठ बजे का समय रहा होगा. मैंने बिलखते हुए पर कहा- "डाक्टर साहब! मेरे पति को बचा लीजिए. मेरे साथ कोई नहीं है.
तब आपने कहा था, "मेरी ड्यूटी ख़त्म हो गई है, इस समय जो मेडिकल ऑफिसर हैं उनसे कहिए."
मैं दौड़कर उनके पास गई तो उन्होंने किंचित तटस्थता से कहा, "बेड नहीं खाली है, किसी और हॉस्पिटल में ले जाइए."
मैं दौड़ती हुई वापस आपके पास आई और आपके पैर पकड़ लिए. आपने भी बड़े बेमन से कहा, "अरे भाई, पैर छोड़िए. उन्हीं डॉक्टर से कहिए. मेरी स्टाफ बस छूट जाएगी."
आप मुझे यूं ही बिलखती छोड़ चलने को ही थे कि मैंने कहा, "डॉक्टर साहब! मेरे तो पति ही मेरे जीवन से छूट जाएंगे."
मेरी यह बात सुनकर न जाने क्यों और क्या सोच कर आप वापस लौट आईं. वास्तव में बेड खाली नहीं था.
आपने स्ट्रेचर पर ही मेरे पति को देखना शुरू किया और बताया कि ये लकवे का शिकार हो गए हैं. आपने तुरंत ही किसी और डॉक्टर को फोन किया और देखते ही देखते मेरे पति को
न्यूरोलॉजी वॉर्ड में स्थानांतरित कर दिया गया.
तत्पर इलाज और उचित देखभाल से मेरे पति के प्राण बच गए. हालांकि उनके शरीर का बायां भाग प्रभावित हो गया था. न्यूरोलॉजी के डॉक्टर साहब ने बताया कि समय से इलाज मिल जाने से मेरे पति बड़ी अनहोनी और अपंगता से बच गए. दवाइयों और उचित फिजियो थेरेपी से ये कुछ महीनों में ठीक हो जाएंगे.
मैं अपने पति को लेकर वापस आ गई और इस भागदौड़ की दशा में आप से मिल भी नहीं पाई. आप यह सब भूल चुकी होंगी, पर मैं आपको कैसे भूल सकती हूं?..
आगे लिखा था- डॉक्टर महोदया! मनुष्य के व्यक्तित्व की एक बहुत ही स्वाभाविक अनिवार्यता है- अहंकार! अनिवार्य इसलिए कि यदि हम में अहंकार न हो तो हम मनुष्य नहीं ईश्वर होते. अहंकार की अनेक परिभाषाएं हो सकती हैं.
किन्तु मैं समझती हूं कि मनुष्य के अन्दर का कोई भी ‘अहं’ जब स्थायी आकार ले लेता है तो अहंकार का उदय होता है. लेकिन डॉक्टर महोदया, जब हम धन, वैभव, पराक्रम, ज्ञान,
कौशल, सौन्दर्य आदि पर अवांछित अहंकार करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि हमारा यह अहंकार दूसरों को पीड़ा भी दे सकता है.
मैं यह तो नहीं जानती कि आपको अपने डॉक्टर होने का अहंकार है कि नहीं, किन्तु इतना अवश्य जानती हूं कि उस रात, उस क्षण आप केवल और केवल एक संवेदनशील नारी के रूप में डॉक्टर थीं, जिसके कारण मेरे पति बच पाएं.
डॉक्टर महोदया! मैं एक प्राइवेट स्कूल में हिंदी पढ़ाती हूं. बड़ी कठिनाई से सारे उत्तरदायित्व निभा पा रही हूं.
अपने जीवन में हम प्रतिदिन भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न लोगों से मिलते हैं, लेकिन सबको हम सदा याद नहीं रख पाते. किन्तु कुछ लोगों का हमारे जीवन में प्रवेश संगीत और सुगन्ध की तरह होता है. संगीत हमें दिखता नहीं, लेकिन उसकी धुनें, उसकी स्वर लहरियां, उसके राग और आलाप का अनुभव तो हम करते ही हैं. जो लोग संगीत की तरह अपनी पहचान छोड़ जाते हैं, वे हमें कभी विस्मृत नहीं होते. सदैव एक मधुर रागिनी की तरह हमारे जीवन में अपने होने का एहसास कराते रहते हैं. इसी तरह कुछ लोगों का हमारे जीवन में आगमन सुगन्ध की तरह होता है, जो हमें दिखता नहीं, लेकिन हमारे जीवन के दुख रुपी दुर्गन्ध को सुगन्ध में बदल देते हैं. ऐसे लोग सदा साथ तो नहीं रहते, पर उनके सुगन्ध की परछाइयां हमेशा उनके साथ होने का स्मरण कराती रहती हैं.
डॉक्टर महोदया! मेरे जीवन में आप भी संगीत और सुगन्ध की ही तरह हमेशा अपने होने का एहसास कराती रहेंगी.
ईश्वर सदा आपके साथ रहें.
पत्र पढ़ कर डाक्टर मंजुला सोचने लगीं-अपने डॉक्टर होने के अहंकार से मैं भी तो अछूती नहीं. यह पत्र पढ़कर न जाने क्यों उनके मन का अहंकार भी पिघलने लगा. उनका मन उस अनाम महिला के प्रति आदर और कृतज्ञता से भर उठा जिसने उन्हें (एक डॉक्टर को) संगीत और सुगन्ध जैसे मधुर एवं मोहक सम्बोधन दिए. वे सोचने लगीं और कौन हो सकते हैं ऐसे लोग?
डॉ. राम प्रमोद मिश्र