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कहानी- कुहासा (Short Story- Kuhasa)

मेरी नफ़रत के बावजूद वे मुझे अब भी बहुत प्यार करते हैं. पर शायद मेरे तेवर देखकर वे पहले की तरह खुलकर प्रदर्शन नहीं कर पाते. उनकी उपस्थिति में मैं असहज महसूस न करूं, इसलिए ़ज़्यादा से ़ज़्यादा व़क़्त टूर के बहाने घर के बाहर रहते हैं. मेरे लिए यह स्थिति और भी दमघोंटू है. मैं ख़ुद ही नहीं समझ पा रही चारू कि मैं चाहती क्या हूं? अंदर ही अंदर घुट रही हूं मैं. चारों ओर कुहासा-सा नज़र आता है.

मेडिकल में प्रवेश के साथ ही मेरा और रेणु दीदी का चोली-दामन का साथ छूट गया. नाते-रिश्तेदार हम मौसेरी बहनों को एक-दूसरे की परछाईं कहा करते थे, क्योंकि बचपन से ही साथ रहने का कोई भी मौक़ा हम दोनों नहीं छोड़ती थीं. इतना मेल-मिलाप होते हुए भी हम दोनों नदी के दो किनारों की तरह थीं. दोनों के स्वभाव में भी ज़मीन-आसमान का अंतर था. मैं एकदम बहिर्मुखी, हंसमुख, खुलकर हंसने-बोलनेवाली, सबसे घुल-मिल जानेवाली लड़की थी, तो दीदी बेहद अंतर्मुखी, गंभीर और एकाकी प्रवृत्ति की. अपने स्वभाव के अनुरूप अध्ययन समाप्त कर उन्होंने अध्यापन का पेशा चुना और तभी मेरा मेडिकल में प्रवेश हो गया. मुझे वह शहर और दीदी का साथ छोड़ना पड़ा. दीदी ने ही समझाया कि अपने ख़तों के माध्यम से वह हमेशा मेरे समीप बनी रहेगी.

 उन जैसी अंतर्मुखी लड़की को भी अपने मन की गुत्थियों को खोलने के लिए कोई भरोसेमंद हमदर्द तो चाहिए ही था. हमारा आपसी संप्रेषण भी अजीब था. दीदी हमेशा  भावनाओं से सराबोर लंबे-लंबे ख़त लिखती थीं और मैं प्रत्युत्तर में फ़ोन पर लंबी-लंबी बातें करती थी. मेरे साथी डॉक्टर हमेशा शिकायत करते

थे कि मेरा मोबाइल हमेशा व्यस्त रहता है, पर मैं आदत से मजबूर थी. कलम घिसना मेरे बूते के बाहर था और पेट का सब कुछ दीदी के सम्मुख उगले बिना मुझे खाना ही हजम नहीं होता था. मैं बेबाक़ी से दीदी के सम्मुख सब कुछ बोल देती थी. छेड़छाड़, रोमांस तक की बातें भी मज़े ले-लेकर बताती थी. बताती तो दीदी भी सब कुछ थीं अपने ख़तों में, लेकिन उनकी शैली जुदा थी. प्याज़ की परतें जैसे धीरे-धीरे उतर रही हों, वैसे ही वे ख़तोें में खुलती चली जाती थीं. उनके ख़त मेरे लिए ज़िंदगी के सबसे बड़े आकर्षण होते थे. आरंभ से लेकर अंत तक भूखी आंखों से जब तक पूरा न निगल लेती, चैन नहीं पड़ता था. कई बार तो ईर्ष्या होती. काश! यह हुनर मुझमें भी होता तो किसी को भी मुट्ठी में ़कैद कर लेती.

दीदी के इसी हुनर पर फ़िदा होकर एक व्यवसायी पुत्र ने आगे बढ़कर उनका हाथ थाम लिया था. वैसे तो ख़ूबसूरत दीदी पर मंडराने वाले आशिक़मिजाज़ भंवरे बहुत थे, लेकिन अमित जीजाजी की कलापारखी नज़रों ने उनका सही आकलन किया था. शादी से दीदी के ख़तों का अंतराल ज़रूर बढ़ गया था, लेकिन उनके आकर्षण की महक पहले से दोगुनी हो गई थी. परीक्षाओं की वजह से मैं उनकी शादी में नहीं जा पाई, जिसका मुझे शायद ज़िंदगीभर अफ़सोस रहेगा. इसके बाद भी कभी अमित जीजाजी से मुलाक़ात का मौक़ा नहीं मिला. लेकिन ख़तों के द्वारा दीदी ने उनका ऐसा रेखाचित्र मेरे सम्मुख खींच दिया था कि शायद प्रत्यक्ष मुलाक़ात होने पर भी मैं उनके बारे में इतना न जान पाती.

दीदी के कुछ ख़तों की बानगी इस प्रकार थी, ‘ज़िंदगी इतनी ख़ूबसूरत होगी चारू, कभी सोचा भी न था. अमित मुझसे इतना प्यार करते हैं, इतना प्यार कि शब्दकोश लेकर बैठूं तो भी उसकी अभिव्यक्ति के शब्द न खोज पाऊंगी. लगभग रोज़ ही वह मुझ पर एक कविता लिख डालते हैं. प्यार से सराबोर उनका एक-एक शब्द, एक-एक हरकत मुझे मंत्रमुग्ध कर देते हैं. ऐसा लगता है कि मैं अब तक उनके बग़ैर कैसे ज़िंदा थी? सच चारू, पूजने को दिल करता है उन्हें.’

कभी लिखतीं, ‘…बिल्कुल तेरे जैसा स्वभाव है अमित का. शायद इसीलिए वे मुझे इतने अच्छे लगने लगे हैं. हर व़क़्त हंसी- मज़ाक, बतियाते रहना. एक दिन के लिए भी टूर पर चले जाते हैं तो घर काट खाने को दौड़ता है. कभी सोचती हूं चारू, काश! मेरा स्वभाव भी तुझ जैसा होता. अमित को मैं भी बहुत चाहती हूं, पर उनकी तरह बोलकर, शायरी सुनाकर, खुल्लम-खुल्ला चुंबन-आलिंगन देकर अपना प्यार व्यक्त नहीं कर पाती. न जाने अमित मेरे बारे में क्या सोचते होंगे? शायद मुझे बिल्कुल नीरस, बोरिंग, अनरोमांटिक लड़की समझते होंगे. सोच-सोचकर मन बहुत घबराता है. उपयुक्त प्रत्युत्तर न पाकर कहीं उनका मन मेरी ओर से फिर ही न जाए. पता नहीं, मैं उनके लायक हूं भी या नहीं?”

फिर एक दिन ख़त आया, ‘…मैं ग़लत सोचती थी चारू. अमित न केवल मुझे चाहते हैं, बल्कि अच्छी तरह समझते भी हैं. मेरी आशंका भांपकर उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैं जानता हूं तुम भी मुझे बहुत प्यार करती हो. हर इंसान की अभिव्यक्ति का अपना अलग तरीक़ा होता है. तुम्हारी आंखों की गहराई, तुम्हारे दिल की धड़कनें, तुम्हारे कांपते हाथ, लरजते होंठ तुम्हारे दिल का सारा चिट्ठा खोल देते हैं और मुझे तुम पर और भी प्यार आने लगता है. ज़िंदगी के हर मोड़ पर मेरे क़दम तुम्हारे साथ रहेंगे. मुझ पर हमेशा विश्‍वास रखना चारू.’ मैं उनकी महानता, उनके प्यार के आगे नतमस्तक हूं. डर लगता है कहीं ये सब मुझसे छिन न जाए. एक और राज़ की बात बताऊंं? अमित को बच्चों से बहुत प्यार है. बच्चों के साथ वे बिल्कुल बच्चे बन जाते हैं. कई बार शरारत में कहते हैं, ‘मेरा तो मन करता है घर में क्रिकेट टीम खड़ी कर दूं. क्या तुम मेरा साथ दोगी?’ …श्श्श स़िर्फ तुम्हें बता रही हूं, हम बच्चा प्लान कर रहे हैं. जल्दी ही तुम्हें ख़ुशख़बरी दूंगी.’

इसके बाद लंबे समय तक दीदी का ख़त नहीं मिला. मेरा पीजी., गायनाकोलॉजी में चयन हो गया था. इसलिए मैं भी पूरी तरह पढ़ाई में व्यस्त हो गई थी. एक-दो बार समय निकालकर दीदी को फ़ोन भी किया तो पता चला, उनकी तबियत ठीक नहीं रहती. अमित जीजाजी भी एक नई ब्रांच खोलने के चक्कर में टूर पर ़ज़्यादा रहने लगे हैं.

भाई की शादी तय हुई तो मैंने पूरे सप्ताह की छुट्टी ले ली. चार दिन शादी में और फिर दो दिन रेणु दीदी के पास रहूंगी. पढ़-पढ़कर ऊब गई हूं. कहीं पागल ही न हो जाऊं? भाई की शादी का जितना उत्साह था, उतना ही रेणु दीदी से मिलने का मोह था और इन सबसे भी ऊपर पहली बार अमित जीजाजी से मिलने का उतावलापन था. किसी इंसान के बारे में बहुत ़ज़्यादा सुन लो तो फिर मन उससे मिलने को अत्यंत व्याकुल हो उठता है. मेरी भी यही स्थिति हो रही थी, लेकिन बेहद निराशा हुई यह जानकर कि जीजाजी की नई ब्रांच का उद्घाटन भी शादीवाले दिन ही होना था. इसलिए शादी के सभी मांगलिक अवसरों पर वे अनुपस्थित ही रहे. हां, रेणु दीदी ज़रूर सभी कार्यक्रमों में उपस्थित हो रही थीं. पर एक ही शहर में होने के कारण वे हर रस्म पूरी होते ही घर लौट जातीं. इस कारण मुझे उनसे बातचीत का अवसर ही नहीं मिल पा रहा था. शरीर से भी थकी-मांदी ही लग रही थीं. मां  और मौसी से पूछा तो यही कहा कि बीमार रहने लगी है, जल्दी थक जाती है.

ख़ैर, शादी की सभी रस्में धूमधाम से संपन्न हुईं. एक ही लाडली बहन होने के कारण मैं पूरी शादी में चक्करघिन्नी की तरह घूमती रही. अगले दिन जब भैया-भाभी हनीमून के लिए रवाना हो गए तो मैं भी अपना सूटकेस उठाकर रेणु दीदी के साथ चल पड़ी. जानती थी, उन जैसे अंतर्मुखी, धीर-गंभीर व्यक्तित्व से कुछ भी उगलवाना टेढ़ी खीर है. पर मुझे इंतज़ार था भावनाओं के उस सैलाब का, जो अतीत को कुरेदने के साथ उमड़कर आएगा और अपने साथ सब कुछ बहाकर ले आएगा. इसलिए घर में घुसते ही मेरी ज़ुबान की पिटारी खुल गई. अगला-पिछला, खट्टा-मीठा कोई भी वाकया याद करने से मैं नहीं चूकी. रेणु दीदी मेरे संग जबरन हंसने-मुस्कुराने का प्रयास कर रही थीं, लेकिन मैं जानती थी, वे मेरे साथ होकर भी नहीं थीं. पूरे समय वे हां-हूं ही करती रहीं.

“आप भी न दीदी, ख़ूब चालाक निकलीं. पता चला कि चारू आनेवाली है तो जीजाजी को पहले ही ग़ायब कर दिया. कहीं एक जैसे स्वभाव वाले आपस में दिल न लगा बैठें? क्यूं दीदी, यही ख़तरा था न अपनी छोटी बहन से?”

“धत् पगली! कुछ भी बोल जाती है. और वैसे भी चारू, अब तेरे जीजाजी वो पहले वाले जीजाजी नहीं रहे. बिल्कुल बदल गए हैं. मेरी तरह गंभीर, संजीदा, चुप-चुप रहने लगे हैं.”

“लेकिन क्यों दीदी?”

“अपनी पोल खुल जाने पर इंसान चहकता रह सकता है क्या?”

“पोल? ये आप कैसी बातें कर रही हैं? मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा.”

“उनकी जिस महानता के आगे मैं नतमस्तक थी चारू, उसकी पोल खुल चुकी है. याद है, मैंने तुम्हें लिखा था कि अमित को बच्चों से बहुत प्यार है और हम बच्चा प्लान कर रहे हैं.”

“हां…. हां! तो तुम प्रेग्नेंट हो?” मैं ख़ुशी से चहकी.

“नहीं, यह सुख मेरे भाग्य में नहीं है… जब निरंतर प्रयासों के बाद भी मैं लंबे समय तक कंसीव नहीं कर पाई तो हम दोनों ने अपनी डॉक्टरी जांच कराने का निर्णय लिया. जांच कराकर आए काफ़ी दिन बीत चुके थे तो मैंने एक दिन अमित से उनकी रिपोर्ट के बारे में पूछा. उन्होंने बताया कि रिपोर्ट तो दो दिन बाद ही आ गई थी. संतानसुख हमारे भाग्य में नहीं है रेणु!” कहते हुए उनका मुंह लटक गया था.

“क्या?” मैं ठगी-सी खड़ी रह गई थी. “ऐसा कैसे हो सकता है?” मैं सदमे में बड़बड़ाने लगी थी चारू. “क्या हम कभी मम्मी-पापा नहीं बन पाएंगे अमित? कोई मुझे बांहें फैलाकर ‘ममा-ममा’ नहीं पुकारेगा?” दरअसल, जबसे हमने बच्चे की प्लानिंग की थी, मैं सोते-जागते उसी के सपने देखने लगी थी. अपने सपनों का इतनी बेदर्दी से कुचला जाना मैं सह नहीं सकी. मुझे चक्कर-सा आने लगा. अमित ने मुझे बांहों में उठा लिया और लाकर बेड पर लिटा दिया.

“मुझसे बहुत प्यार करती हो न रेणु?” मेरी आंखों में झांकते हुए अमित ने मुझसे प्रश्‍न किया. मैंने सहमति में सिर हिलाया तो वे आगे बोलने लगे. “क्या मेरी इस छोटी-सी कमी को तुम बर्दाश्त नहीं कर सकती?” एक पल को मुझे ऐसा लगा चारू, मानो मेरे आस-पास सैकड़ों बम फट गए हों. उन आंखों की याचना और स्वर की वेदना ने मुझे हिलाकर रख दिया. मैंने अपने दिल को कड़ा किया और अमित का मुंह अपने सीने में छुपा लिया. ज़िंदगी में पहली बार मैंने अमित को इतना टूटते हुए देखा था. अमित अपनी कमज़ोरी की वजह से हीनता का शिकार न हो जाएं, इसलिए मैं अपने दिल का दर्द उनके सामने ज़ाहिर नहीं होने देती थी. अब तक अमित की महानता मुझ पर हावी थी. पहली बार मुझे महानता दिखाने का मौक़ा मिला था. मैं चाहती थी कि अमित मुझसे याचना करें कि मैं दूसरी शादी कर लूं या नियोग या कृत्रिम गर्भाधान या ऐसा ही कोई उपाय कर मां बनने का

गौरव पा लूं…”

मैं दीदी को अविश्‍वास से घूरने-सी लगी, “क्या आप सचमुच ऐसा चाहती हैं दीदी?”

“नहीं चारू, मेरी सोच इतनी संकीर्ण नहीं है. लेकिन अमित ऐसा आग्रह तो कर

सकते हैं.”

“फिर मना करके आप अपनी महानता प्रदर्शित करना चाहती हैं?”

“झूठ नहीं बोलूंगी चारू. शायद मैंने ऐसा ही कुछ चाहा था और यदि मैंने ऐसा चाह भी लिया तो क्या ग़लत किया? मैं भी इंसान हूं आख़िर. कब तक सामनेवाले की महानता का

बोझ उठाऊं?”

मुझे लगा मानो मैं मनोचिकित्साशास्त्र के किसी गहन चक्रव्यूह में फंस गई हूं. रेणु दीदी की मनःस्थिति सचमुच विचित्र और अचंभित करने वाली थी.

“उन्हें ऐसा कहने के लिए उकसाने हेतु मैं कई बार उनके सामने बच्चे की कमी का रोना भी लेकर बैठ जाती, लेकिन वह बेहद संयम से मुझे ही समझाने लग जाते कि हमारे भाई बहनों के बच्चे भी तो हमारे ही बच्चे हैं रेणु. उन पर, अपने आस-पास के बच्चों पर अपनी ममता लुटाओ. इस देश में संतान के लिए तरसने वालों से ़ज़्यादा संख्या ममता के लिए तरसने वाले बच्चों की है. ज़िंदगी में बच्चे बहुत कुछ होते हुए भी सब कुछ तो नहीं होते ना? तुमने कितने ही निःसंतानों को सुखी-संपन्न जीवन जीते देखा होगा. तो कितने ही संतानवालों को नरक-सा जीवन जीते भी देखा होगा. इसलिए जो हमारे नसीब में

नहीं है, उसे लेकर क्यों

परेशान हो?”

चारू, मैं हैरान रह जाती. क्या यह वही इंसान है, जो बच्चों पर जान छिड़कता था? घर में क्रिकेट टीम खड़ी करने की बात

करता था?’

‘पर तुम्हें तो बच्चों से इतना प्यार है?” मैं टटोलती.’

‘हां था, अब भी है, पर तुमसे ़ज़्यादा नहीं. हां, यदि तुम चाहो तो तुम्हारी ख़ुशी के लिए हम बच्चा गोद ले सकते हैं.’

‘नहीं अमित, अपना ख़ून तो अपना ही होता है. पराया ख़ून वह ख़ुशी नहीं दे सकता.’

 “हालांकि ऐसा कहते हुए मेरा दिल मुझे कचोटता कि मैं उस महान आत्मा को कितना कष्ट पहुंचा रही हूं? पर फिर भी आस बनी रहती शायद अब वे कोई वैसा प्रस्ताव रखेंगे. पर प्रत्युत्तर में उनकी ठंडी निःश्‍वास मुझे अंदर तक चीर जाती. महानता की मूर्ति खोखले आदर्शवाद का पुतला लगने लगती. मेरी वही आंखें, जो पहले उनके प्यार के विश्‍वास से लबालब भरी नज़र आती थीं, अब निरादर और अवहेलना के भाव दर्शाने लगीं. मैं लाख अपने भावों को छुपाने का प्रयास करूं, लेकिन अमित मेरी हर धड़कन, हर नज़र पहचानते हैं. अब तो मैं छुपाने का प्रयास भी नहीं करती. मेरी नफ़रत के बावजूद वे मुझे अब भी बहुत प्यार करते हैं. पर शायद मेरे तेवर देखकर  पहले की तरह खुलकर प्रदर्शन नहीं कर पाते. उनकी उपस्थिति में मैं असहज महसूस न करूं, इसलिए ़ज़्यादा से ़ज़्यादा व़क़्त टूर के बहाने घर के बाहर रहते हैं. मेरे लिए यह स्थिति और भी दमघोंटू है. मैं ख़ुद ही नहीं समझ पा रही चारू कि मैं चाहती क्या हूं? अंदर ही अंदर घुट रही हूं मैं. चारों ओर कुहासा-सा नज़र आता है. सब समझते हैं मेरी तबियत ठीक नहीं है, लेकिन यह तन से ़ज़्यादा मन का रोग है. सच्चाई जल्द ही सबके सामने आ जाएगी.”

रेणु दीदी मेरे लिए सहानुभूति की पात्र थीं. मैं देर तक उन्हें समझाती रही. शाम को खाना खाकर टहल रहे थे कि दीदी को अचानक तेज़ पेटदर्द होने लगा. मैंने उन्हें उनकी डॉक्टर के पास ले जाना ही उचित समझा. दीदी के इशारे पर मैंने दराज से उनकी केस फाइल निकाली और उन्हें डॉक्टर के पास ले गई. डॉक्टर जब तक अंदर उनका मुआयना करती रही, मैं उनकी फ़ाइल, रिपोर्ट, जीजाजी की रिपोर्ट आदि देखती रही. दीदी को कार में बिठाकर मैंने डॉक्टर से अपने शक की पुष्टि की. घर लौटते व़क़्त मैं विचारों के गहन जाल में उलझी रही. तड़के ही मुझे रवाना होना था. कहने-सुनने के लिए बस, आज की रात थी. कल जीजाजी भी आ जाएंगे. मेरी उनसे इस बार भी मुलाक़ात नहीं हो पाएगी.

“कल और रुक जाती तो अपने जीजाजी से मिल लेती.” रात को पास-पास लेटे तो दीदी ने बात छेड़ी. मैं चुप ही रही.

 “क्या बात है, जब से डॉक्टर के यहां से लौटे हैं, तू बहुत चिंतित है? क्या मुझे कैंसर-वैंसर जैसी कोई बीमारी है?”

“आपने कभी अपनी फ़ाइल देखी दीदी?”

“नहीं. देख भी लूं तो मैं क्या समझूं डॉक्टरी भाषा? बता न क्या हुआ है मुझे?”

“कुछ नहीं. वह तो मामूली पेटदर्द ही था. अनियमित माहवारी वालों को अक्सर हो जाता है. लेकिन अब जो सच मैं आपको बताने जा रही हूं, उसे ध्यान से सुनना और सुनने से ़ज़्यादा समझना. संतानोत्पत्ति में अक्षम जीजाजी नहीं, आप हैं. जीजाजी ने आपसे यह सच क्यूं छुपाया, इसका मेरी समझ में तो एक ही कारण आता है कि वे आपसे बेइंतहा प्यार करते हैं और आपके दुख को कम से कमतर करना चाहते हैं. आप उनके प्यार को हमेशा महानता के तराजू में ही तौलती रहीं, कभी उनकी महानता में छुपे प्यार को पहचानने का प्रयास ही नहीं किया. तभी तो उनका निश्छल प्यार भी आपको बोझ लगने लगा… बच्चे की कमी तो आप फिर भी दूर कर लेंगे. लेकिन इतना प्यार करनेवाला पति यदि आपने अपनी नासमझी से खो दिया तो फिर नहीं पा सकेंगी.”

तड़के जब मैं रवाना होने लगी, तब अंधेरा-सा छाया हुआ था. पर दीदी के चेहरे पर उभर रही उम्मीद की चमक बता रही थी कि नए प्यार का सूरज उगनेवाला है और कुहासा छंटने में अब देर नहीं है.

संगीता माथुर


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