“हां, यह मिस जूही बत्रा द्वारा नववधू के लिए ईजाद की गई सर्वाधुनिक अवधारणा है. दो पाटों के बीच वधू लुब्रिकेंट की तरह रहे जैसे कि आप सभी रहती आई हैं, तो ख़ुद भी सुरक्षित रहेगी और दोनों पाट भी घिसने से बच जाएंगे!”
शादी की चहल-पहल ने घर भर को गुलज़ार कर रखा था. दादी तो अति उत्साही थीं. हों भी क्यों न? उनकी पोती जूही दुल्हन बनने जा रही थी. बेटी सुरभि भी सपरिवार आ गई थी. आते ही उसने मायके की कमान संभाल ली थी. “यह क्या मीता? शादी में दो दिन रह गए हैं और जूही खिलने की बजाय कुम्हला रही है. उसे बादाम-पिस्ता का दूध दे रहे हो या नहीं? मैंने तो उसकी हल्दी-तेल से मालिश होते भी नहीं देखा.” मीता बेचारी सफ़ाई में मुंह खोल पाती, इससे पहले ही दादी ने बेटी को आड़े हाथों ले लिया. “अब मीता बेचारी की जान को तो सौ-सौ आफ़त हैं. कहां-कहां संभाले? तू भी तो पाहुने की तरह चार दिन पहले आई है. फिर यह साइंटिस्ट भतीजी! यह किसी के बस में आती है क्या? अब तू संभाल इसे. कर ले जितने लाड़-दुलार करने हैं. जितनी सीखें देनी हैं. सब तेरे भरोसे.” दादी ने मोर्चा संभाला तो मीता ने राहत की सांस ली. दादी भी बुआ-भतीजी के बीच की प्रगाढ़ता से परिचित थीं, इसलिए दोनों में गहरी छनती देख वे भी निश्चिंत हो गईं. “अब पुराना ज़माना तो रहा नहीं जूही. तू नए ज़माने की बहू है और वह भी साइंटिस्ट! वैभव के बराबर की कमानेवाली. तुझे ससुराल में किसी से दबने की ज़रूरत नहीं है. अपने हिसाब से रहना. वैसे भी ससुराल में तो तुझे दो-चार दिन ही रहना है. फिर तो तू वैभव के संग नोएडा चली जाएगी. पर इन चार दिनों में ही अपना सिक्का जमा लेना, ताकि सारी ज़िंदगी सास-ननद तुझे छेड़ने की हिम्मत न कर सकें.” कमरे में बढ़ते दादी के क़दम ठिठक से गए. वह दोनों को खाने के लिए बुलाने आई थीं. लेकिन यह बेटी सुरभि पोती जूही को कौन-सी घुट्टी पिला रही है? “क्या बात है सुरभि? क्या उल्टी पट्टी पढ़ा रही है तू जूही को?” “मैं कहां उल्टी पट्टी पढ़ा रही हूं मां? मैं तो उसे सही और ग़लत में भेद करना समझा रही हूं. यदि ससुराल में सीधी गाय बनी सब कुछ सहती रही, तो दो पाटों के बीच घुन की तरह पिसकर रह जाएगी. ज़माना कितना आगे बढ़ गया है. वो छुईमुई, घूंघट में दबी-ढंकी, गूंगी-सी बहू इस आधुनिक ज़माने में कहां फिट बैठेगी?” “यह सच है कि ज़माना तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, पर ज़माने की सोच उसी तेज़ी से आगे नहीं बढ़ रही है. हमारी प्रगति भौतिक ज़्यादा, मानसिक, आध्यात्मिक और तार्किक कम है. हमने कंप्यूटर बना लिए हैं, रोबोट बना लिए हैं. लेकिन भावनात्मक संबल के लिए इंसान को रोबोट या कंप्यूटर की गोद में सुबकते देखा है? हम कहते हैं स्त्री को लज्जा का आवरण उतार फेंकना चाहिए, तभी वह आगे बढ़ सकती है. पर इसका मतलब घूंघट को उतार फेंकने से है, आंखों की शरम को नहीं. स्त्रियोचित गुणों से ही स्त्री कोमलांगी और पुरुष प्रिया बन सकती है और सृष्टि का संतुलन भी तभी संभव है.” “तो क्या वह ससुराल में सबसे दबकर रहे?” सुरभि तर्क-वितर्क पर उतर आई. “नहीं. अन्याय को सहना तो किसी भी युग में नहीं सिखाया गया है. हमेशा से ही स्त्रियां अपने हक़ के लिए लड़ती और आवाज़ उठाती आई हैं. अच्छा तुम्हें याद है जब तुम कॉलेज में थी. तुम कुछ दोस्तों ने मिलकर गोवा घूमने जाने का कार्यक्रम बनाया था. तुम्हारे बाऊजी ने साफ़ इंकार कर दिया था कि गोवा के स्वच्छंद माहौल में वे लड़कों के संग तुम्हें हरगिज़ नहीं भेजेंगे. तुम भी जाने के लिए ज़िद पर उतर आई थी. दोनों में से कोई झुकने को तैयार ही नहीं था. “फिर?” जूही की आंखों में उत्सुकता थी, तो सुरभि नज़रें चुराने का प्रयास कर रही थी. “ज़रा सोचो तो, उस वक़्त मेरी क्या हालत हो रही होगी? एक मन तो कहता, चिल्लाकर कहूं कि मुझ पर क्यों चिल्ला रहे हो तुम दोनों? जिसे जो करना है, कर लो. तुम्हें बेटी का गला घोंटना है, घोंट लो. और सुरभि तुमने ठान ही लिया है, तो दे दो बाऊजी को दूसरे हार्टअटैक का झटका, पर मैं ऐसा न कर सकी. मैं एकांत में उन दोनों के सम्मुख गिड़गिड़ाती रही, उन्हें समझाने में जुटी रही. सुरभि को बाऊजी की इ़ज़्ज़त और नासाज़ तबियत का वास्ता दिया, तो उसके बाऊजी को जवान ख़ून के दुस्साहसी हो जाने का डर दिखाया. आख़िर इस बात पर समझौता हुआ कि सुरभि उस टूर में नहीं जाएगी, बल्कि आने वाली छुट्टियों में हम सपरिवार गोवा जाएंगे. वैसा ही हुआ. और वहां मैंने बाप-बेटी के संबंधों को जिस प्रगाढ़ता के बंधन में बंधते देखा, उसे देखकर मैं सारा रंज भूल गई.” मां को भावुक होते देख सुरभि ने स्नेह से मां का हाथ थाम लिया. “मैं इसके लिए आपकी ताउम्र आभारी रहूंगी मां. आपने बाप-बेटी के संबंधों को बिखरने से बचा लिया.” “पागल, मां से आभार जता रही है? अरे पगली, मेरा परिवार भी तो बिखर रहा था. मैं कैसे हाथ पर हाथ धरे बैठी रह सकती थी?” “बुआ, आप तो बड़ी ज़िद्दी थीं.” जूही ने बुआ को छेड़ा तो दादी ने फिर बात का सिरा पकड़ लिया. “अरे, तेरा पापा कम ज़िद्दी था क्या? याद है न सुरभि, मीता से शादी की कैसी ज़िद ही पकड़ बैठा था.” “बताइए न दादी, मम्मी-पापा की लव कम अरेंज्ड मैरिज थी. कैसे हुआ सब?” “अरे जूही, याद मत दिला मां को और मुझे वो सब. तेरे पापा पर तो बस भूत सवार हो गया था मीता भाभी का.” “और तेरे बाऊजी?” दादी ने बेटी को याद दिलाया. “अरे बाप रे! उनकी तो बात ही मत पूछो. उनके वश में होता तो परेश के टुकड़े-टुकड़े कर देते. वे तो मीता भाभी के घर जाकर उनके मां-बाप को भी ख़ूब खरी-खोटी सुना आए थे. भाभी को बेशर्म, बेहया जाने क्या-क्या कह डाला था. वे लोग भी कहां झुकनेवाले थे? अपने इंस्पेक्टर भाई को लेकर आ धमके और परेश व बाऊजी को हथकड़ियां डालने की धमकी देने लगे कि वे उनकी बेटी को बहकाकर भगा ले जा रहे थे.” “फिर?” हैरत से जूही का मुंह खुला का खुला ही रह गया था. “अरे, मां ने हाथ जोड़कर बीच-बचाव न किया होता, तो लातें-घूंसे तक चल जाते उस दिन. फिर दोनों ही ओर से कुछ शुभचिंतक आगे बढ़े. एक-दूसरे को सहमत कराने के लिए समझाने का एक लंबा दौर चला और तब तुम्हारी मां इस घर की बहू बनकर आई.” “मतलब हर जगह मेल-मिलाप का काम दादी ने ही किया?” जूही के स्वर में गर्व थी. “अरे, नहीं मेरी बन्नो! अकेला चना भी कभी भाड़ फोड़ सकता है? तुम्हारी मां आते ही इस घर में घुलमिल-सी गई. इकलौती बहू मानकर मैंने तो उसे हाथोंहाथ लिया, लेकिन तुम्हारे दादा बरसों तक उस बेचारी से बैर भाव पाले रहे. पर वही संयम और धैर्य, जिसकी मैं अभी दुहाई दे रही थी, तुम्हारी मां ने उसी का पालन किया और आख़िर पहाड़ को झुकाकर ही मानी.” “वाह दादी! आपने तो दादा को पहाड़ कह डाला.” पहाड़वाली टिप्पणी ने तीनों का अच्छा-खासा मनोरंजन कर डाला. तभी उन्हें खोजते हुए मीता वहां आ पहुंची. “आप तीनों यहां हंसी-मज़ाक कर रहे हैं और वहां सब आपका खाने पर इंतज़ार कर रहे हैं.” “लो अच्छा याद दिलाया. अरे, मैं इन दोनों को खाने के लिए ही तो बुलाने आई थी. इन्होंने मुझे भी बातों में बिठा लिया. मीता बेटी, इन दोनों की बातों का न तो कोई ओर है और न छोर.” “खाना खा लीजिए. फिर सब आराम से बैठकर बातें करेंगे. मैं भी शामिल हो जाऊंगी. आज ही तो हम सब थोड़ा फ्री हैं. कल से तो रस्में आरंभ हो जाएंगी.” खाने के बाद सभी बैठक में पसर गए और सुस्ताने लगे. जूही ने ही वार्तालाप की कड़ी जोड़ी. “मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि मम्मी कभी दादा की आंखों में इतना खटकती थीं. अब तो वे उनकी आंख का तारा हैं. कभी-कभी तो दादी, मुझे मम्मी से ईर्ष्या होती है. कैसे वे सबकी इतनी प्रिय हैं? हर वक़्त घर में उन्हीं की पुकार क्यों मची रहती है?” “ले, सुन ले सुरभि. तेरी भाभी भी तो इतनी पढ़ी-लिखी है. नौकरी करती है. उसे क्या ज़रूरत थी तुम्हारी भाषा में इतना दबने की? क्योंकि न तो वह दब रही थी और न ही कोई अन्याय सह रही थी. वह तो भड़कती हुई ज्वाला के थोड़ा थमने का इंतज़ार कर रही थी. यदि वह भी भड़ककर प्रतिकार करती तो ज्वाला और भड़क उठती. और उसमें फ़ायदा किसी का नहीं होता, बल्कि सबका नुक़सान ही होता. यह जो आज हम चार मिल-बैठकर प्यार से बातें कर रहे हैं और बोल रहे हैं तो यह तुम्हारी भाभी की सहृदयता और सहनशीलता की वजह से ही संभव हो सका है.” “मांजी आप भी क्या पुरानी बातें ले बैठी हैं?” मीता ने सास को रोकना चाहा. “नहीं मीता बेटी, आज मुझे बोलने दे. मैं चाहती हूं कि जूही अपने नए घर-संसार में रच-बस जाए, ख़ूब सुखी रहे. इसके लिए उसे ज़िंदगी की सारी अच्छी-बुरी सच्चाइयां जाननी होंगी और फिर अपने लिए सही राह का चयन करना होगा. जूही बेटा, यह घर तुम्हारी मां के सतत सद् प्रयासों से ही जुड़ा हुआ है. अपना दंभ, ईर्ष्या, रोष, कड़वाहट आदि सब ताक पर रखकर ही हम स्त्रियां अपने स्त्रियोचित गुणों से एक ईंट-पत्थर की इमारत को घर बना पाती हैं, वरना छोटी-मोटी टकराहटें तो हर घर में चलती ही रहती हैं. अब सुरभि को ही ले लो. अपने बाऊजी जैसा ही गरम और तुनकमिज़ाजी स्वभाव इसने पाया है. परेश द्वारा रक्षाबंधन पर दी गई साड़ी यह कहकर लौटा दी कि उसे रंग पसंद नहीं है. यदि मीता ने भी गरमाई दिखाते हुए अपना हाथ खींच लिया होता, तो क्या आज भाई-बहन के संबंध इतने मधुर रह पाते?” सुरभि मौन सुन रही थी. वाकई वह कैसी नादानियां कर रही थी? ससुराल की छोटी-छोटी बातें उसे गहरे असंतोष से भर देती हैं. और भाभी से वह उम्मीद करती है कि वह इन छोटी-छोटी बातों को दिल से नहीं लगाएंगी. क्या उन्हें इन बातों से दुख नहीं होता होगा? लेकिन उन्होंने कभी उसके विरुद्ध परेश या जूही के कान नहीं भरे. तभी तो परेश ‘दीदी-दीदी’ और जूही ‘बुआ-बुआ’ करते आगे-पीछे डोलते रहते हैं. सुरभि का आत्मचिंतन और उदासी मीता की अनुभवी आंखों से छुपी नहीं रह सकी. “दीदी ऐसी बुरी नहीं हैं मांजी जैसा आप समझ रही हैं. वे बहुत समझदार हैं. हमारी शादी के वक़्त उन्हें ससुराल में बहुत ताने सुनने पड़े थे. जीजाजी भी उन पर काफ़ी नाराज़ हुए थे. मेरी ऊषा ताई का दीदी के ससुराल में आना-जाना है. उन्हीं से मुझे ये सब पता चला. एकबारगी तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, क्योंकि दीदी ने ये सब हम पर कभी ज़ाहिर ही नहीं होने दिया. हम लोगों की भावनाओं को ठेस न पहुंचे, इसलिए ये बातें वे कभी भी ज़ुबान पर नहीं लाईं. बाऊजी या हम लोगों ने भी यदि कभी दीदी के ससुरालवालों या जीजाजी के लिए कुछ बुरा-भला बोला तो उन्होंने कभी जाकर किसी के कान नहीं भरे. दीदी तो बाहर रहती हैं, लेकिन एक शहर में रहते हुए यदि दोनों परिवारों में अच्छे संबंध हैं तो इसकी वजह दीदी ही हैं.” “सुरभि, बेटी तूने कभी बताया क्यों नहीं?” “मां, अब ऐसी छोटी-छोटी बातें तो चलती रहती हैं. आपकी बातें बताती या उनकी आपको तो व्यर्थ ही दोनों परिवारों के मन में खटास पैदा हो जाती. मैं तो बाहर रहती हूं, चार दिनों के लिए आती हूं. यदि सबने अपनी-अपनी भड़ास मुझ पर निकाल भी ली तो कोई बात नहीं. अपने घर लौटकर सब कुछ भुलाने का प्रयास करती हूं, लेकिन आप लोग तो एक ही शहर में हैं. शादी-ब्याह, बाज़ार आदि में मिलते ही रहते हैं. यदि आप लोगों के दिलों में थोड़ा-सा भी द्वेष पनप गया तो फिर संबंध सामान्य नहीं रह पाएंगे. आप लोग एक-दूसरे से कतराने लगेंगे. व्यर्थ ही लोगों को बातें बनाने का मौक़ा मिलेगा, छीछालेदार होगी सो अलग. कोई भी ख़ुुश नहीं रह पाएगा. यदि मेरी ज़रा-सी चुप्पी से दो परिवार जुड़े हैं तो मुझे क्या परेशानी है? थोड़ा-बहुत सुनना ही तो पड़ता है.” दादी मां की आंखें स्नेह से भीग उठीं. वातावरण सुखमय पर थोड़ा गंभीर हो चला था, जिसे झेलना वाचाल जूही के लिए मुश्किल था. “सबका अनुभव सुनने और उस पर पर्याप्त चिंतन-मनन करने के पश्चात् मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि मैं दो पाटों के बीच पिसने वाला घुन नहीं, लुब्रिकेंट बनूंगी.” “लुब्रिकेंट?” तीनों के मुंह से एक साथ निकला. “हां, यह मिस जूही बत्रा द्वारा नववधू के लिए ईजाद की गई सर्वाधुनिक अवधारणा है. दो पाटों के बीच वधू लुब्रिकेंट की तरह रहे, जैसे कि आप सभी रहती आई हैं, तो ख़ुद भी सुरक्षित रहेगी और दोनों पाट भी घिसने से बच जाएंगे!” “वाह! मेरी समझदार लुब्रिकेंट पोती!” दादी ने उत्साह से जूही को सीने से लगा लिया, तो सब मुस्कुरा उठे.अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें - SHORT STORIES
संगीता माथुर
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