मेरी आहट से मां ने आंखें खोल दीं. मां से नज़रें मिलीं, तो ख़ुद को रोक नहीं पाया और ट्रे एक तरफ़ रख उनके पास लेटकर उनसे लिपटकर ज़ोर से रो पड़ा. मेरा रोम-रोम 'सॉरी' कह रहा था. मां तो मां है ना! सब समझ गई थीं.
दोपहर दो बजे मेरी आंख खुली, उनींदी आंखों से सामने टंगी घड़ी पर नज़र डाली थी. आज फिर मैंने कॉलेज की छुट्टी कर ली थी. इंजीनियरिंग का मेरा अंतिम वर्ष है, पर कॉलेज जाने की मेरी इच्छा ही नहीं होती है. आंखें बंद किए ही मैंने रात में लिखी अपनी कविताओं के बारे में सोचा, बड़ा संतोष व ख़ुशी हुई. आजकल मैं बहुत खुश हूं. मैं कविताएं तो चार-पांच सालों से एक डायरी में लिखता रहा था, पर एक दिन जब मैंने सोशल मीडिया पर अपनी कुछ कविताएं पोस्ट कर दीं और मुझे अच्छा रिस्पॉन्स मिला, तो मेरे उत्साह की कोई सीमा न रही. मैंने अपना पेज भी बना लिया. मेरे प्रशंसकों की संख्या बढ़ती जा रही थी, जिसे देखकर मैं फूला नहीं समाता. जीवन में और क्या चाहिए? इतनी कम उम्र में इतनी प्रसिद्धि! मेरी एक ईबुक भी आ गई है. मैं अब अपने छोटे-मोटे ख़चों के लिए कमाई करने लगा हूं. कॉलेज की फीस ही पापा देते हैं, बाकी मैं मैनेज करने लगा हूं. मां हैरान है मेरी प्रतिभा से. रोज़ जब वे उठती हैं, मेरी रात में लिखी कविता पढ़कर ख़ुश हो जाती हैं.
पापा इंजीनियरिंग पूरी करने के लिए बहुत दबाव डाल रहे हैं, पर मेरा मन तो अब कविताओं में ही रमता था. कुछ साल पहले मैंने इन सबकी कल्पना भी नहीं की थी. मुझसे पांच साल छोटा मेरा भाई आशीष जब कहता कि अमन भैया, आपके पेज को कितने लाइक्स मिल चुके हैं, कितने फैंस है आपके, तो मैं गर्व से तन जाता हूं. मैंने लेटे-लेटे फोन पर फेसबुक खोला, वाह! रात तीन बजे कविताएं पोस्ट करके सोया था, इतने लाइक्स और कमेंट्स भर उठा में और कर्मेट्स, ख़ुशी से भर उठा मैं. मां को बताऊंगा कितनी ख़ुश होंगी. आजकल मैं 'मां' सीरीज़ पर कविताएं लिख रहा हूं. बहुत पसंद की जा रही हैं.
मैंने फिर टाइम देखा. अभी तो मां लंच करके सो रही होंगी. मैंने अपना मेल भी चेक किया. यह क्या मां ने मुझे मेल लिखा है, वो भी इतना लंबा. पर क्यों? दूसरे बेडरूम में लेटी मां को मुझे मेल भेजने की क्या ज़रूरत है मां भी न! आजकल बीमारी मे लेटे लेटे बोर हो रही होगीं, कुछ भी लिख दिया होगा, पढता हूं. जैसे-जैसे मैंने मां का मेल पढ़ना शुरू किया, मेरी सारी सस्ती हवा हो गई. मैं बेड से टेक लगाकर उठकर बैठ गया, लिखा था-
सुबह नहाकर निकली, इतने में ही थकान हो गई थी. बेड पर लेटकर आज उदास मन से बहुत कुछ सोचती रही. बहुत अजीब-सी तबीयत है. आराम की ज़रूरत सुबह-सुबह ही महसूस हो गई. दिल की मरीज़ हो गई हूं. अब अपना ध्यान भी ख़ुद ही रखना पड़ता है. ४६ साल की उम्र में दिल धोखा दे जाएगा, यह कब सोचा था. मैं तो इतनी फिट थी कि अपने स्टेमिना पर ख़ुद ही हैरान हो जाती थी. अब लेटी, तो पिछले महीने की वो रात फिर याद आ गई, जब रात एक बजे सांस लेने में परेशानी हो गई थी. एक चीख सी निकली थी, तो बराबर में सोए सुनील की भी आंख खुल गई थी. उस दिन मौत मुझे छूकर गुज़र गई थी, महसूस किया था मैंने.
सुनील और तुमने फौरन हॉस्पिटल पहुंचा दिया था. सांसें अभी लिखी थीं, तो बच गई हूं फ़िलहाल, पर कितने दिन पता नहीं. रिपोटर्स देखकर तो सब हैरान ही रह गए थे कि मेरा हार्ट सिर्फ़ तीस प्रतिशत काम कर रहा था. डॉक्टर्स ने कहा है कि अगले तीन महीने निकल गए, तो पेसमेकर लगा देंगे. ठीक है अब जैसा क़िस्मत में होगा, हो ही जाएगा.
तुम और आशीष मुझे रेस्ट करने के लिए कहते हो, डॉक्टर्स ने भी थका देनेवाले काम मना किए है. सब परिचित, रिश्तेदार देखने आकर वापस जा चुके हैं. खाना बनाने के लिए अच्छी मेड मिली नहीं, बस साफ़-सफ़ाई करनेवाली रमाबाई से मिलकर काम चला रही हूं, लेकिन आज तुम्हें बताना चाहती हूं कि इस गृहस्थी को संभालने में मैंने सालों लगा दिए हैं, पर आज मेरी ज़रूरत के समय मुझे तुम लोगों से जिस केयर और सहयोग की आशा थी, वह मैं तलाशती ही रह जाती हूं. मैंने आज सुबह फेसबुक देखा, तो तुम्हारी रात की लिखी हुई कविता दिखी, काफ़ी लाइक्स और कमेंट्स थे. तुम रातभर जाग-जागकर कविताएं लिखते हो. दिनभर सोते हो. तुमने अपना अजीब सा स्टीन बना लिया है. बातें भी ख़ूब बड़ी-बड़ी करते हो. आज तुम्हारी मां सीरीज़ की कविता मैंने भी पढ़ी, तो मुझे व्यंग्यपूर्ण हंसी सी आ गई. मां के त्याग, ममता से भरी कविता, पर यथार्थ की दुनिया में तुम्हारे जीवन में तुम्हारे लफ़्ज़ों के क्या मायने हैं? कल मुझे कह रहे थे, "मां मैं आजकल मदर की फीलिंग्स पर सीरीज़ लिख रहा हूं आपको डेडिकेट करूंगा…" मैंने प्रत्यक्षतः ख़ुशी दिखाई. मां हूं न, मेरा काम ही है बच्चों की ख़ुशी में ख़ुश रहने की कोशिश करना, पर मन आहत है मेरा, क्योंकि सच तो यह है कि मुझे इस समय तुम्हारे बड़े-बड़े शब्दों में पिरोई गई कविता नहीं, तुम्हारा प्यार और साथ चाहिए. इस समय मुझे मां सीरीज़ में ऑनलाइन प्यार नहीं, मेरे तन-मन को अपनी देखरेख से सुकून पहुंचाता, मेरी बीमारी में मेरा ध्यान रखता हुआ बेटा चाहिए. एक ही फ्लैट में पूरा दिन अपने रूम से न निकलकर, कविताओं के संसार में डूबे रहना, दिनभर सोते रहना, शाम होते-होते, "मां आप आराम कर रही है न? अपना ध्यान रख रही है न? वी नीड यू, टेक केयर…" कहते बेटे की मां के लिए अपने प्यार का ढ़िढोरा पीटते शब्द नहीं चाहिए. मुझे इस समय उभरते प्रतिभावान कवि को दरकिनार रखकर एक बेटे की देखरेख चाहिए, जो यह देख ले कि में नहाकर निकली, तो कितनी थकी हुई थी. मुझे कुछ फल या जूस दे दे. मेरे हाथ से मेरा टॉवेल लेकर तार पर टांग दे. मुझे ज़बर्दस्ती लिटा दे.
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सुनील टूर पर हैं, आशीष लापरवाह व आत्मकेंद्रित है, पर तुम तो भावुक हो. तभी तो इतनी गहरी कविताएं लिख पाते हो, पर क्या जो गहरे शब्दों में ख़ुद को डुबा देते हैं, असल ज़िंदगी में एक ही घर में रहकर अपनी मां के दुख-दर्द उन तक नहीं पहुंच पाते या वे अनसुना कर देते हैं. मुझे नहीं पता कि मेरा कितना जीवन है. अब बस यही चाहती हूं कि इन दिनों मेरा बेटा बस यह देख ले कि मैंने कुछ खाया भी है या नहीं. दवाई ली या नहीं, कभी वो मुझे अपने हाथों से कोई फल काटकर दे दे, कभी मेरे पास यूं ही लेटा रहे, कभी अपने अनाड़ी हाथों से ज़बर्दस्ती कुछ बनाकर मुझे खिलाए, कभी यह कह दे कि बस मां आप आराम करो, जिससे आप जल्दी ठीक हो जाओ, काम तो हम दोनों भाई मिलकर कर लेंगे. लेकिन तुम दोनों तो अक्सर सोये रहते हो या लैपटॉप पर होते हो. डोरबेल होने पर भी मैं ही उठती हूं. तुम्हें पता है कभी-कभी तो मुझसे उठा भी नहीं जाता. मन अपने बेटों को आवाज़ें देता रह जाता है.
तुम्हें आहत नहीं करना चाहती, पर अगर तुम्हें दूसरों के दिलों की, उनकी भावनाओं को जानेवाली रचना लिखनी है, तो पहले उन्हें महसूस करना होगा. तुम्हारी मां पर लिखी कविताएं मेरे दिल को नहीं छूती. मैं उन्हें शब्द समझकर पढ़ती हूं और भूल जाती हूं. तब वे किसी और को क्या छूं पाएंगे. ऊंचाइयों को छूने के लिए अभी तुम्हें अपनी ठोस पकड़ बनानी है. शाब्दिक नहीं यथार्थ की दुनिया महसूस करनी है. अपने आसपास की दुनिया के दुख-दर्द महसूस करने हैं.
क्या तुम्हारे शब्द पाठक को छू पाएंगे, जब तुम्हारी अपनी अस्वस्थ मां अपनी कोमल भावनाओं को तुम्हारे साथ बांटने का इंतज़ार करती रह जाती है. मैं चाहती हूं कि एक मशहूर कवि बनने से पहले तुम ऐसा बेटा बन जाओ कि अपनी मां की अनकही बातें भी समझ सको, कल्पनाओं में नहीं यधार्थ में. विधाता ने नारी मन को जटिल तो बहुत बनाया है, पर इतना भी नहीं कि कोई बेटा चाहे तो इसे जान न पाए.
तुम्हें आहत नहीं करना चाहती, पर अगर तुम्हें दूसरों के दिलों को, उनकी भावनाओं को छू जानेवाली रचनाएं लिखनी है, तो पहले उन्हें महसूस करना होगा. तुम्हारी मां पर लिखी कविताएं मेरे दिल को नहीं छू पाती, मैं उन्हें शब्द समझकर पढ़ती हूं और भूल जाती हूं, तब वे किसी और को क्या छू पाएंगे. ऊंचाइयों की छूने के लिए अभी तुम्हें ज़मीन पर भी अपनी ठोस पकड़ बनानी है, शाब्दिक नहीं यथार्थ की दुनिया महसूस करनी है. अपने आसपास की दुनिया के दुख-दर्द महसूस करने हैं, ये जो इतने मशहूर कवि लेखक हुए हैं न, वे अपने तो अपने दूसरों के दुख-दर्द में भी ऐसे डूबकर निकले हैं कि उनका एक-एक लफ़्ज़ पढ़नेवाले को झकझोर गया है.
अमन, अपनी मां की ही भावनाओं से अछूते रह जाओगे, तो मां सीरीज़ कितना आगे तक ले जा सकोगे? मैं भी तुम्हें सफलता के शिखर पर देखना चाहती हूं, बस,
अब थक गई हूं, तुम्हारी मां…
मेरी आंखों के सामने अचानक सब धुंधला हो गया. मेरे गालों का गीलापन बढ़ता जा रहा था. मैं सिर पकड़कर बैठ गया. मां तो कोई कवि या लेखिका भी नहीं हैं, फिर भी उनका एक-एक शब्द मुझे झिंझोड़ गया. यह क्या हो गया मुझसे? उस रात डॉक्टर ने कितना साफ़-साफ़ कहा था कि इन्हें लाने में कुछ सेकंड की भी देर हो जाती तो… ओह! डॉक्टर ने ये तीन महीने चिंताजनक बताए हैं. मां बहुत बीमार हैं. पापा को मीटिंग के लिए टूर पर जाना पड़ा है. आशीष मस्तमौला है और मैं? में क्या करता हूं उनके लिए? रातों को जानकर मां पर लंबी-लंबी कविताएं लिखता हूं, दिनभर सोता हूं, शाम से रात तक इस फील्ड में आगे बढ़ने के लिए अपने नए कवि-मित्रों के साथ किसी कैफे में बैठकर विचार-गोष्ठी करता हूं. रात को आता हूं, तो मां जितना भी बना पाती हैं कभी खा लेता हूं, कभी पसंद न आने पर आशीष और मैं बाहर से ऑर्डर करके कुछ मंगवा लेते हैं. मां थकी सी वह खाना उठाकर फ्रिज में रख देती हैं और शायद अगले दिन वही खा लेती हैं. मैं शर्मिंदगी के अथाह सागर में डूबता जा रहा था. मां को तो आराम करना है, पर कैसे करेंगी वे आराम. मैं उनका हालचाल पूछकर अपनी कविताओं में डूब जाता हूं. क्या कर रहा हूं मैं! एक ही फ्लैट के दूसरे बेडरूम में लेटी अपनी अस्वस्थ मां से इतना दूर हूं मैं कि आज उन्हें अपने मन की बातें शेयर करने के लिए मुझे मेल लिखना पड़ा.
लानत है मुझ पर! मैंने बराबर में सोए आशीष पर नज़र डाली. यह भी क्या सीखेगा मुझसे, सबसे दूर अपने रूम में अकेले जीना,
मैंने धीरे से जाकर मां के बेडरूम का दरवाज़ा खोलकर झांका, मां सो रही थीं. फिर पूरे घर पर नज़र डाली, सब
अस्त-व्यस्त था. हर कोना बिखरा हुआ. मां को कैसे चैन आता होगा, जब घर की यह हालत देखती होंगी. मेरी रुलाई फूट पड़ी, कितना दुख होता होगा उन्हें. दो युवा बेटों के होते हुए उनके साथ कोई नहीं. कोई आराम नहीं. किसी को पता नहीं कि वे अपने लिए क्या बनाती हैं, क्या खाती हैं. आजकल कितनी चुप रहने लगी हैं. फ्रिज खोलकर देखा, कोई फल नहीं है घर में. मां को फल कितने पसंद हैं. वॉशिग मशीन के पास कपड़ों का ढेर लगा था. दो दिन पहले मां ने मशीन चलाई थी.
कपड़े सुखाने में ही हांफ गई थी मां. मुझे याद आया जब शाम की मां थकी सी हाथ में कपड़े लेकर अचानक चेयर पर बैठ गई थीं. मैं उस समय मां पर ही तो कविता लिख रहा था. मैंने क्यों नहीं उनके हाथ से कपड़े लेकर उन्हें लिटा दिया?
मां के मेल का एक-एक शब्द मेरे दिमाग़ में हथोड़े की तरह बज रहा था. फ्रेश होकर मैंने उनके लिए उनकी पसंद की अदरकवाली चाय बनाई. पहली बार इस बीमारी में उनके लिए कुछ किया. मन पता नहीं कैसा हो रहा था. मैंने एक ग्लास पानी, चाय, कुछ बिस्किट्स ट्रे में रखे और उनके रूम में पहुंचा.
मेरी आहट से मां ने आंखें खोल दीं. मां से नज़रें मिलीं, तो ख़ुद को रोक नहीं पाया और ट्रे एक तरफ़ रख उनके पास लेटकर उनसे लिपटकर ज़ोर से रो पड़ा. मेरा रोम-रोम 'सॉरी' कह रहा था. मां तो मां है ना! सब समझ गई थीं. उन्होंने जैसे ही मेरा सिर सहलाया, मैंने भी महसूस कर लिया कि मां ने मुझे माफ़ कर दिया है. वे समझ गई हैं कि मैं अपनी ग़लती महसूस कर चुका हूं. उनके पास अपनी दुनिया में खोया हुआ एक कवि नहीं, उनका बेटा लेटा था. वे यही तो चाहती थी न. बस, इतनी सी बात मैं समझ नहीं पाया था. हम दोनों ने एक शब्द भी नहीं कहा था, पर दोनों एक-दूसरे की भावनाएं महसूस कर रहे थे. इस मौन में बड़ा स्नेह था, शांति थी, ममता थी. मैं इस मौन से अभिभूत होता चला गया था. हम दोनों की ही आंखों से मां-बेटे के प्रेम की अविरल गंगा की गंगोत्री जैसे निःशब्द बहती चली जा रही थी.
- हिना अहमद
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