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कहानी- मेरे मीत का पाथेय (Short Story- Mere Meet Ka Pathey)

“तूने भी अपना आदर्श चुना तो किसे… सांप जैसे तुच्छ प्राणी को? जो सीख लेनी ही है तो प्रकृति को अपना आदर्श बना… जिसने सिर्फ़ देना ही जाना है. प्रकृति को पलटवार करते या प्रतिदान मांगते देखा है कभी? विवेक और बुद्धि होने का अर्थ यह नहीं कि दान का प्रतिदान मांगने तराज़ू लेकर बैठ जाएं? हम स्त्री हैं पान… कोई पंसारी नहीं… हम जननी भी हैं, जिसे ईश्‍वर ने प्रकृति की प्रतिकृति बनाया है..."

बचपन की यादें जब भी करवट लेती हैं, याद आता है नेपाल की तराई में बसा हरियाली से घिरा हुआ अपना ननिहाल. इस छोटे से गांव का, गर्मी के मौसम के साथ यादों से बड़ा गहरा नाता रहा है. बचपन की लगभग हर गर्मी यहीं बीतती थी. एक छुट्टी बिताकर शहर लौटते ही दूसरी छुट्टी का इंतज़ार शुरू हो जाता था. ऐसे में साल कब सरक जाता, पता ही नहीं लगता था. दुष्यंत के संग विवाह के साथ ही इस गांव से जुड़े तार धीरे-धीरे टूटते गए. उच्च पदस्थ पति के सानिध्य और विवाहित जीवन के किलोल ने इस सुविधा विहीन गांव की यादें धुंधला दीं. नहीं सोचा था कि सुकून की तलाश में लौट कर फिर उसी भूले-बिसरे गांव में एक दिन आना होगा.

आम, शीशम, कटहल के बगीचे बेतरतीब बन उठे रिहायशी इलाकों के बीच कितने सिमटे-सहमे से लग रहे हैं. बिजली और टेलीफ़ोन के तारों ने इस पक्षी कलरव-मुखरित कानन के प्राण सोख लिए, ऐसा लगता है. कितना कुछ बदल गया है अब यहां. गोबर से लिपे, ढेकी-बखार वाले जिस गांव की स्मृति, मैं पंद्रह वर्ष पूर्व अपने मन में संजोए यहां से गई थी, वह ऐसा तो कतई नहीं था. तब क्या मेरी ‘पान’ परिवर्तन की इस आंधी से अपने आपको बचाए रख पाई होगी? मैं तो अपनी उसी निश्छल ‘पान’ से मिलने की ललक लिए चली आई हूं अकेली, जो मित्र, गुरु, मार्गदर्शक सब कुछ थी मेरे लिए. मन बार-बार ‘पान’ की यादों के इर्द-गिर्द भटकने लगा. मेरा मन ‘पान’ के सानिध्य की शीतल बौछार के लिए तड़प रहा था.

‘पान’, मेरे बचपन की निश्छल सहेली. ‘पान’ से रक्त का नाता दूर-दूर का न होते हुए भी हृदय का नाता अत्यंत निकट का था. यूं तो उसका नाम था वृंदा. पर हम दोनों ने पांच वर्ष की आयु में आपस में मीत बांधकर अपने संबंध को यह नया उपनाम दिया था- ‘पान’. आधुनिक संस्कृति के फ्रेंडशिप-डे की भांति यहां मीत बांधना किसी एक दिन का प्रतीक न होकर जीवन पर्यंत का पर्व होता है. सदियों से चली आ रही इस परंपरा ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को मित्रता की पौध रोपना सिखाया है. इस अंचल की हवा में, पत्तों के स्पंदन में ऐसे कितने क़िस्से हैं, जो प्रतिध्वनित हो-होकर नई पीढ़ी के मित्रों में एक-दूसरे के लिए जीने-मरने की अभिलाषा को हवा देते रहे हैं. मीत की ख़ातिर कोई पेड़ पर लटक गया, कोई पोखर में डूब मरा, तो किसी ने धतूरे के बीज ही चबा मारे, ऐसे क़िस्से जब-जब अपनी वृंदा के मुंह से सुनती, उसके प्रति मेरे स्नेह और आस्था के वज़न में उतनी ही वृद्धि होती जाती.
वृंदा बताती कि मीत भांति-भांति के हो सकते हैं, मसलन- प्राण प्यारी, सुपारी, पान, सराता, फूल, बंधु, मीता…. मुझे पांच वर्ष की आयु में वृंदा से अपना मीत बंधवाना आज भी अच्छी तरह से याद है. वृंदा ने हम दोनों के सामने एक हमउम्र गवाह को खड़ा किया, जिसने दोनों के कान में शपथ जैसा ही कुछ पढ़ा. क्या पढ़ा था, ये तो याद नहीं, पर तात्पर्य शायद यही था कि आजन्म हम अपनी मित्रता को पूरी निष्ठा से निभाएंगे और यदि भूलकर भी एक-दूसरे को किसी ने ‘पान’ के सिवा किसी और नाम से संबोधित किया तो उसे फलां-फलां जानवर की गंदगी चखनी पड़ेगी. अंत में हम दोनों के बीच एक-एक सुपारी का ‘एक्स्चेन्ज’ हुआ और बस दिल के काग़ज़ पर स्नेह की इबारत लिख दी गई, वो भी पक्की स्याही से. मेड़ पर चलते, पोखरों में तैरते हम बढ़ रहे थे. पहले तो मैं सकुचाती, पर वृंदा का जब-तब मुझे ‘पान’ कहकर पुकारना मेरे मुंह में चाशनी-सी घोल जाता. धीरे-धीरे मेरे संकोच के बंधन ढीले पड़ने लगे और होंठ कब ‘पान’ कहने के अभ्यस्त हो गए, मुझे पता भी नहीं चला. ग्यारह महीने बाद हर गर्मी की छुट्टियों में जब हम मिलते, ‘पान’ के साथ बिताए दो माह मेरे जीवन के स्वर्णिम दिन होते. दो महीने ‘पान’ और मैं, मैं और ‘पान’, दिनचर्या का यही स्वरूप रहता. ‘पान’ मुझसे बड़ी थी, शायद दो-ढाई बरस. गोबर से आंगन लीपना, मछली पकड़ना, चक्की-ढेकी चलाने के साथ-साथ पान ने ही मुझे किशोरावस्था की पहली घुट्टी पिलाई थी. किसी गंभीर मसले को समझाने का उसका तरीक़ा निराला था.
हर मुद्दे पर अपने सतरंगी उदाहरण तैयार रखती, वो भी ‘डबल तड़के’ के साथ कि भुल्लन ठाकुर आजकल किसके संग लटपटा रहे हैं या कुंजी राय की बेटी पढ़ने के बहाने जोगी मिसर से सटर-पटर करती कैसे पकड़ी गई. शैवाल भरे यौवन की दहलीज़ पर फिसलन से बचने का उसका पाठ आज भी मुझे कंठस्थ है. शादी के बाद शुरू-शुरू में उसके पत्र निरंतर आया करते, पर ज्यों-ज्यों व्यस्तताओं के रहते मेरे उत्तर की सरिता सूखती गई, ‘पान’ के पत्र आने स्वत: बंद हो गए. पिछले पंद्रह वर्षों से संपर्क तो लगभग टूट-सा गया.
घर पहुंची तो मामा-मामी का आतिथ्य मन को छू गया. लंबे अंतराल के बाद भांजी मिलने आई है, जानकर वे गद्गद् थे. ‘पान’ के विषय में बातचीत हुई, वह यहीं थी. मिलने की बड़ी तीव्र इच्छा थी. मामी को बोल संदेश भिजवा दिया. जीवन में समायोजनों की विफलताओं या प्रतिकूलताओं की इस घड़ी में हज़ार किलोमीटर दूर से भ्रमण मात्र या अतीत चिंतन के लिए तो निस्संदेह नहीं ही आई थी. एक चाहत थी कुछ ऐसा पाने की, जिससे उबर सकूं अपने उपेक्षित, गतिहीन और नीरस हो चुके जीवन से.
मन फिर उलझ गया जीवन की उन गुत्थियों को सुलझाने में, जो उलझ गई हैं पिछले एक दशक से. दुष्यंत के संग बिताया शुरुआती समय मेरे लिए अब सुनहरा अतीत मात्र था. जीवन मंथर गति से चल रहा था, बिना हिचकोले. बोर्डिंग में पढ़ते दोनों बच्चे और ज़्यादातर टूर पर रहने वाले अति व्यस्त पति. इन दो ध्रुवों के बीच का गतिहीन जीवन कुछ समय से मेरी सांस रोकने लगा था. दुष्यंत की अति व्यस्तता मन में फांस-सी चुभती रहती. उनकी आंखों में अपने प्रति उपेक्षा के सघन डोरे देख मन कांपता रहता था. ‘बहुत-सी व्यस्तताएं हैं, सफल पुरुष पत्नी के पल्लू में बंधा फिरता शोभा देता है कहीं?’ बहलाने के लिए अपने आपको फटकारती. ऐसे में ‘पान’ और याद आती. परंतु जीवन जब नि:स्सार दिखाई पड़ने लगे तो उसे अधिक समय तक बहलावे में रखना आसान नहीं होता. सफ़र की थकान और इन्हीं सब विचारों में कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला.
“इट हैप्पन्स…स्वीकार क्यों नहीं कर लेती कि हमारे बीच अब वो सब नहीं रहा, जो पहले था. हमारे बीच के बासीपन को दूर करने के लिए क्या कभी तुमने प्रयास किए? रिश्ते के इस ठंडेपन के लिए मुझसे ज़्यादा तुम दोषी हो. व्यस्त रहता हूं, बाहर जाकर अपने आपको रिलैक्स करने की कोशिश करता हूं, तो तुम्हें शिकायत होती है? शिकायत स़िर्फ मुझसे ही क्यों…..? अपने आपसे क्यों नहीं….? बुरा मत मानना, आई नीड स्पेस…
तुम्हारी कचहरी में सलाम बजाता रहूं, इतना व़क़्त नहीं है मेरे पास….” … भीतर से किसी वातायन में तब्दील हो चुका मेरा शरीर भीषण झंझावात में उलझकर रह गया था. उन्हें सुनने का धीरज किसमें था अब? मैं तो चीख रही थी ज़ोर-ज़ोर से, “इस जीवन को मात्र जीने भर के लिए जीती चली जाऊं, वो भी आपकी दया पर…नहीं… अपने आत्मसम्मान की बलि देकर, कभी नहीं…. अपनी इस मुर्दा आत्मा पर सांसारिकता का दुर्ग नहीं बनाना मुझे. कितनी आसानी से कह दिया आपने…इट हैप्पन्स? आपको स्पेस चाहिए…? थोड़ा क्यों… पूरा लीजिए ना… चली जाऊंगी आपके जीवन से दूर…हमेशा के लिए.”
“…उठो नेह…” कोई मुझे झंझोड़ रहा था ज़ोर-ज़ोर से.
“नेह उठो.. मैं वृंदा …तुम्हारी ‘पान’.” हांफती, आंसुओं में तर उठ बैठी, जैसे मीलों दौड़ लगाकर आई होऊं. मसहरी में बैठी वृंदा मेरे बाल सहला रही थी. स्वप्न में कहे दुष्यंत के निष्ठुर शब्दों ने, जो यथार्थ में भी कुछ ऐसे ही थे, मेरे पन्द्रह वर्षों की तपस्या को पल भर में निर्वस्त्र कर दिया था. दोनों गले लगकर सिसकती रहीं देर तक. ‘पान’ के आंसू सात्विक मित्रता से भीगे थे और मेरे…? रोते-रोते मेरी हिचकी बंध गई.
शाम ढले वृंदा मुझे टीले वाले काली मंदिर में ले गई. वृंदा के शरीर से यौवन की प्रत्यंचा छूटी नहीं थी अभी. शरीर में वैसा ही कसाव, वही आलतई गोरा रंग. शृंगार के नाम पर मात्र माथे की बिंदिया और मांग में भरा ढेर-सा कलकतिया इंगुर. उसका ललछौंहा रूप मुझमें हीनभावना भर रहा था. वृंदा निहार रही थी मुझे एकटक, “पाहुन नहीं आए?” फिर जवाब भी उसी ने दिया, “व्यस्त होंगे… ये मर्द भी बड़े अजीब होते हैं, पहले तो चिपकाए साथ घूमते हैं, फिर एकदम से व्यस्त हो जाते हैं, है न पान?” कहीं इसकी तीव्र घ्राण शक्ति ने कुछ सूंघ तो नहीं लिया? विषय बदलने का भरपूर प्रयास कर पूछा मैंने, “जीजाजी कैसे हैं?” तो वो बोली, “जैसे पहले थे और कैसे…?”
“मेरा मतलब क्या अभी भी उनका… अपनी भाभी से… यानी…?” मैं हकलाने लगी थी. क्या पंद्रह साल बाद इतनी दूर से यही पता करने आई हो पान? सकपका-सी गई मैं. उसका स्नेह भरा हाथ मेरी पीठ पर था, “घर पर सब ठीक तो है?” मन का गरल बह निकला आंखों के रास्ते. कैसे कह दूं सब कुछ छोड़ कर आई हूं, तुमसे सामंजस्य की परिभाषा जानने? क्या कहूं कि दुष्यंत का सामीप्य दमघोंटू है? पर कहूं कैसे, कहीं सब-के-सब मेरे संबंधों की दरार में से झांकने लग गए तो?
मेरे मन की गठरी का वज़न वृंदा ने तौल लिया था शायद, तभी तो बिना किसी प्रस्तावना के आप ही विषय वस्तु पर आ गई, “पहले तो सिंहासन पर बिठा, उन्हें पूजते रहे थे हम. पर जिस दिन देख लिया अपनी आंखों से अपनी ही भौजाई के संग…जी किया घसीटकर उन्हीं को धूल में ला पटकें. रोते, चौखट से माथा कूटते, पर सुनवैया था कौन? रूप-रंग में हमसे उन्नीस ही ठहरती थी वो, पर कसीदे उसी के नाम के कढ़ते. रात-रात का रतजगा हम करते, पर उनके खर्राटे वहीं निकलते. ज़ुकाम हमें होता, बाम उसे मला जाता. पैर हमारे भारी हुए, इमली-अमरूद वहां पहुंचाए गए. जाने कौन-सा काला जादू जानती थी कलमुंही कि कट के रह जाते हम…”
घुटने पर ठोड़ी रखे बैठी रही वह थोड़ी देर चुपचाप. मेरी आत्मा ने अपने भीतर पसरे अहंकार को डांट लगाई- ‘एक ये है जो चरित्रहीन-लंपट पति के साथ निभा सकती है, तुझे आत्मकेन्द्रित पति खारा लगने लगा?’ धीमे स्वर में उसने फिर कहना प्रारंभ किया, “मन करता अलगौंझा कर लें. फिर दूधमुंहे बच्चे दिखते, उन्हें कैसे बांटते? बच्चे तो उन्हें भी प्यारे थे, अपने जो थे…पराए तो हमीं थे. पर हमने भी धीरज का साथ नहीं छोड़ा पान…. इन्हीं काली मैया पर भरोसा था, सो डटे रहे आंख मूंदकर. हमारे हिस्से का दुर्भाग्य हमारा था…बिना किसी से कुछ कहे अपना धर्म निभाते रहे चुपचाप. रोज़ की लटर-पटर वैसे भी ज़रा कम ही लुभाती थी हमें, तुम भी जानती हो. यही कहकर समझा लेते मन को कि चलो एक ज़िम्मेदारी से तो मुक्ति है…” एक दीर्घ नि:श्‍वास से यह अंतिम वाक्य समाप्त किया उसने. कितनी आसानी से कह गई वृंदा इतनी बड़ी बात? मानवीय संबंधों के जटिल समीकरणों का इतना आसान हल कहां से सीखा इसने? किसी पोथी में?
“बच्चे धीरे-धीरे बड़े हुए. सब सुनते-समझते थे. अजीब-अजीब सवाल करते बाप से, तो बेचारे मुंह चुराते फिरते. चोर की दाढ़ी में तिनका जब झंखाड़ जितना फैल जाए तो छिपता है कभी? एक समय आया जब झूठी-पिरीत (प्रीत) उन्हें ख़ुद ही बोझ लगने लगी. समय के साथ उम्र की धार ढली… जो रसपगे शब्द उसके लिए गढ़े जाते थे, हम पर ख़र्च होने लगे. अब तो घर की देहरी लांघने से पहले सौ बार हमसे पूछते हैं. हमने भी उनसे कभी कैफ़ियत नहीं मांगी, पति और पिता होने का उनका मान बने रहने दिया घर में.” बांस के झुरमुट के पीछे छिपा सूरज आहिस्ता-आहिस्ता ढल रहा था. वृंदा चुपचाप आंखें मूंदे होंठों में कुछ बुदबुदाने लगी. ढलते सूर्य को मानसिक अर्घ्य दे रही थी शायद. गंभीर स्वर में कहना उसने जारी रखा, “बीता समय लौटा कर वापिस लाया तो नहीं जा सकता पान… पर हमारी सोहाग-पेटारी हमें वापिस मिल गई, अब और कोई साध नहीं जीवन से…” भीतर के ओज से उसका चेहरा दमक रहा था.
मेरी तार्किक बुद्धि उकसा रही थी मुझे कि कुछ ऐसा पूछ लूं, जिससे उसके हृदयतल में छिपे कुछ और सीप हाथ लग जाएं? “कहना कितना आसान है पान… पर माया से परे कौन हो सका है? सांप को देखा होगा तुमने? कभी ग़ौर किया है?… बिना हाथ-पैरों के, पंगु बना, पेट के बल कैसे चलता है घिसटकर…? पर उसके शरीर पर कोई भूल से भी पैर रख दे तो कैसे उछलकर फुफकारता है? फिर हम तो मनुष्य हैं…सक्षम हैं…विवेक और बुद्धि हमारे शस्त्र हैं. जो कह दे हमने माया त्याग दी, सबसे बड़ा मिथ्यावादी है. तुम्हारा धैर्य क्या कभी पलट वार करने को प्रेरित नहीं हुआ?” उत्तेजना से मैं हांफने लगी.
“तूने भी अपना आदर्श चुना तो किसे… सांप जैसे तुच्छ प्राणी को? जो सीख लेनी ही है तो प्रकृति को अपना आदर्श बना… जिसने सिर्फ़ देना ही जाना है. प्रकृति को पलटवार करते या प्रतिदान मांगते देखा है कभी? विवेक और बुद्धि होने का अर्थ यह नहीं कि दान का प्रतिदान मांगने तराज़ू लेकर बैठ जाएं? हम स्त्री हैं पान… कोई पंसारी नहीं… हम जननी भी हैं, जिसे ईश्‍वर ने प्रकृति की प्रतिकृति बनाया है.
पुरुष तो पवन के समान है, जो स्वभाव से ही चंचल है. उसे बांधे रखना बहुत कुछ स्त्री पर निर्भर करता है. हवा काबू में रहे, इसके लिए प्रकृति कैसे-कैसे रूप धरती है. नदी, पहाड़, जंगल को धारा है उसने. तभी तो हवा पर लगाम है. प्रकृति ये सब जतन न करे, तो धरती पर कैसा हाहाकार मचे, तनिक सोचो तो…?” मन कर रहा था, वृंदा बोलती रहे और मैं सुनती रहूं. मुग्ध थी मैं इस अल्पशिक्षिता के पांडित्य पर. मेरी समस्त डिग्रियां उसके ज्ञान के समक्ष बौनी थीं.
अंधेरा फैल चुका था, मैं उठने का उपक्रम करने लगी, तो उसने पकड़कर फिर बिठा लिया, “सुन…तुझे याद होगा, अम्मा हम दोनों को जब किस्सा सुनाया करतीं, तो तू सारा क़िस्सा पीती रहती थी, गुट्ट-गुट्ट और मैं कुंभकरन बनी बीच में ही सो जाया करती. कहते हैं, कहानी अधूरी छोड़कर सो जाओ तो बटोही राह भटक जाता है. इसीलिए मेरा बटोही कुछ समय को राह भटक गया था रे…. पर तेरा पथिक..? पाहुन तो सही राह चल रहे हैं न?” चिर-परिचित डेढ़ इंच की मुस्कान लिए मुझे देख रही थी वृंदा.
“आं…हां…नहीं तो…”
“तो ऐसी मातमी सूरत काहे बना रक्खी है मरी…जो आज तक नहीं भटके तो इस सूरत को देख-देख जल्दी ही भटक जाएंगे बेचारे, क्या समझी? चल उठ…इससे पहले कि देर हो जाए…” कहकर मुझे घसीटकर एक पल में खड़ा कर दिया उसने.
सघन नीरवता को चीरती उसकी खिलखिलाहट दूर तक फैल गई. मेरी तंद्रा टूटी, सचमुच कहीं देर करके मैं अपना सर्वनाश ही न कर बैठूं. कहीं ऐसा न हो कि मेरा पथिक भी राह भूलकर… दुष्यंत का ध्यान आते ही हठात् उठ बैठी. अंधेरे में मेरा हाथ पकड़े वह ऊबड़-खाबड़ रास्ते से उतार रही थी, मुझे लग रहा था जैसे जीवन की पथरीली पगडंडी पर हाथ पकड़कर चलना सिखा रही हो ‘पान’. मुझे मेरे ताले की कुंजी हाथ लग गई थी. ऐसा लगा जैसे मीलों लंबी यात्रा निरर्थक नहीं गई. उसका कहा एक-एक शब्द मेरे कानों में अब भी गूंज रहा था. “प्रकृति को अपना आदर्श बना… प्रकृति को प्रतिदान मांगते देखा है कभी… हम स्त्री हैं, कोई पंसारी नहीं…” मेरे अनुत्तरित प्रश्‍न का समाधान मुझे मिल गया था. यही था मेरे लिए मीत का पाथेय…

- पूनम मिश्रा

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