“आज तुम लोग बड़े हो गए, तो तुम्हें उनकी ज़रूरत नहीं? उन्हें फिर क्या मिल गया इतने साल अपने जीवन के रात-दिन तुम्हें देकर? क्या तुम लोग जैसी ही होती हैं वे संतानें जिनके कारण वृद्धाश्रम बढ़ते जा रहे हैं? रिया, तुम दिल्ली जैसे शहर में रात को बाहर रहोगी, तो किस पिता को चिंता नहीं होगी? तुम्हारी चिंता में वे जागते रहे, उनका क्या फ़ायदा हो रहा था? उल्टा उनकी तो हेल्थ पर ही असर हो रहा होगा न.”
यश पैर पटकता हुआ रूम से निकला और अपने पापा की कार में पिछली सीट पर जाकर बैठ गया. दीपक और उनकी पत्नी उदास से कार में बैठे थे, क्योंकि यश की प्रतिक्रिया देखकर जाने का मन नहीं था, पर बचपन के दोस्त शेखर ने अपने बर्थडे पर सपरिवार बुलाया था. यश ने जाने के लिए साफ़-साफ़ मना कर दिया था, तो दीपक को ग़ुस्सा आ गया था. उनकी पत्नी ने बेटे को समझाया था, “तुम्हें जाना चाहिए यश. ऐसे मिलने-जुलने से अच्छा लगता है. आजकल कौन किसको बुलाता है और तुम्हारे पापा के कौन-से बहुत दोस्त हैं. शेखरजी का अभी तो मुंबई ट्रांसफर हुआ है, तुम्हारे पापा कितने ख़ुश हैं उनके आने पर.”
यश गुर्राया था, “तो आप लोग एंजॉय करो न, किसने रोका है. मैं कहीं अपने दोस्तों में जाता हूं, तो इतने सवाल पूछते हैं कि कहां जा रहे हो, कब आओगे, किसके साथ जा रहे हो. अब अपने दोस्त के घर जाने पर इतनी ख़ुशी हो रही है, तो मेरे जाने पर इतने सवाल क्यों? मैं सबसे ज़्यादा किस बात से परेशान हूं आपको पता है? उनकी माइक्रोमैनेजमेंट की इस आदत से, ऑफिस में बॉस, घर में पापा.”
अब तीनों जा तो रहे थे, पर कार में जो अजीब-सा सन्नाटा था, वह तीनों के दिल को जला रहा था. राधा ने कई बार बात करने की कोशिश की भी, तो यश ने ऐसा जवाब दिया कि उसका दिल रो उठा. दीपक कार चलाते हुए अलग ग़ुस्सा थे कि यश उनके हर सवाल का जवाब उल्टा ही क्यों देता है. अगर वे उसकी चिंता करते हैं, वह कहां है, किसके साथ है… पूछने का हक़ क्यों नहीं है उन्हें? पिता हैं वे. रास्ता तनाव में ही बीता. शेखर, उनकी पत्नी मालती और उनकी बेटी रिया ने उनका दिल से स्वागत किया. बनारस में काफ़ी साल पहले दोनों दोस्तों का बचपन साथ ही बीता था. अब मुद्दतों बाद मिले, तो दोनों की आंखें भर आईं. रिया यश की ही हमउम्र थी, उसने दिल्ली में हाल ही में जॉब जॉइन किया था. वह भी शेखर के बर्थडे के लिए आई थी. यश से वह ख़ुशदिली से मिली, यश भी परिचय के बाद मुस्कुराया, तो राधा ने चैन की सांस ली. दीपक ने शेखर के लिए लाया गिफ्ट दिया, तभी शेखर के एक और सहयोगी रमन, उनकी पत्नी आरती और उनकी बेटी कोमल भी पहुंचे. सबका आपस में परिचय हुआ, थोड़ी देर बाद शेखर के पड़ोस में रहनेवाली मीता, जो रिया की फ्रेंड बन चुकी थी, वह भी आ गई. उसे रिया ने बुलाया था. अब एक रूम में बच्चे बैठ गए, एक में बड़े. सबकी बातों का पिटारा खुल गया था. बीच-बीच में मालती दोनों रूम में रिया की मदद से सभी मेहमानों को खाने की चीज़ें सर्व करती रही.
युवा बच्चों की बातों के विषय अलग ही होते हैं… कॉलेज, ऑफिस, मूवीज़, म्यूज़िक के बाद बात पैरेंट्स पर आ गई. यश तीन लड़कियों के बीच अब तक काफ़ी खुल चुका था. यह जनरेशन दोस्ती में लड़का लड़की का भेदभाव नहीं रखती, यह इस पीढ़ी की ख़ासियत है. यश अब भुनभुना रहा था, “यार, तुम लोग तो लड़कियां हो, पापा तो मेरे पीछे ऐसे पड़े रहते हैं, जैसे मैं उन्हें बताए बिना कहीं चला गया, तो मुझे कोई उठाकर ले जाएगा. कब आओगे, कहां जा रहे हो, किसके साथ जा रहे हो, ऑफिस में यह क्यों नहीं कहा, बॉस से ऐसे बात करनी चाहिए थी… यार, हद होती है माइक्रोमैनेजमेंट की. इतने सवाल तो मेरा बॉस भी नहीं पूछता मुझसे. मैं तो अब उनसे कम ही बात करता हूं.”
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रिया हंस पड़ी, “वाह, तुम्हारा भी वही हाल है जो मेरा है. यार, मैं तो दिल्ली में रहती हूं. अकेली सब मैनेज कर लेती हूं. आराम से, चैन से रहती हूं, पर पापा वहां भी फोन करके रोज़ पूछते हैं कि बेटा, घर पहुंच गई न? रात में बाहर तो नहीं हो. एक दिन ग़लती से बोल दिया था कि मूवी देखने आई हूं फ्रेंड्स के साथ 12 बजे तक पहुंच जाऊंगी. क्या बताऊं, पापा ने हद कर दी. जब तक घर नहीं पहुंची, फोन पर ऑनलाइन ही थे. सोए भी नहीं थे और यहां आई हूं, तो यहां तो सवाल ही नहीं ख़त्म होते. इन लोगों को समझ क्यों नहीं आता कि हम बड़े हो गए हैं. अब हमारे पीछे पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं. मैं कितनी बार कह चुकी पापा को कि आप भी चैन से जीयो और मुझे भी जीने दो… पर कोई फ़ायदा नहीं. बेकार के सवाल, बेकार की चिंता में अपनी एनर्जी वेस्ट करते हैं. थैंक गॉड, मम्मी कूल हैं. उनसे इतनी प्रॉब्लम नहीं है. वे समझ जाती हैं.”
रिया ने कोमल से हंसते हुए पूछा, “तुम बताओ, तुम्हारे यहां पैरेंट्स का माइक्रोमैनेजमेंट कैसा चल रहा है? मम्मी या पापा? किसे आदत है हर समय सवाल पूछने की?”
कोमल ज़ोर से हंसी, “यार, हम सब तो एक ही कश्ती में सवार हैं. मतलब हम सब की प्रॉब्लम एक ही है- पैरेंट्स की माइक्रोमैनेजमेंट की आदत. क्यों इनकी लाइफ में बस हमारी ही बातें हैं. मैं तो घर में बचती घूमती हूं दोनों से. छोटी बहन घर में ज़्यादा रहती है, वह फंस जाती है…” कहकर कोमल हंस पड़ी. उसकी बात पर यश ने भी ठहाका लगाया. “मतलब तुम्हारी बहन पर है सारा लोड.” सब ख़ूब हंसने लगे.
मीता बस शांत-सी मुस्कुराती रही. खान-पीने के दौरान मीता बस हां… हूं ही करती रही थी. कोमल ने आख़िर पूछ ही लिया, “मीता, तुमने तो अपने पैरेंट्स के बारे में कुछ बताया ही नहीं.”
मीता के चेहरे पर उदासी छा गई, फिर कहना शुरू किया, “तुम सब नए दोस्तों से मिलकर मुझे आज बहुत अच्छा लगा. मेरे दोस्त कम ही हैं. हमारे घर में सिर्फ़ मैं और मम्मी ही हैं. बचपन में ही मेरे पापा की डेथ हो गई थी. आज तुम लोगों की बात सुनकर पता नहीं क्यों मुझे अफ़सोस हुआ कि तुम लोग अपने पापा का मज़ाक उड़ा रहे हो. मुझे अजीब लग रहा है. यहां मैं तरसती रह गई कि काश! मेरे भी पापा होते. मुझसे दसियों बातें करते, हज़ारों सवाल पूछते. मैं कहीं जाती, तो मेरी चिंता करते. मेरी मम्मी जॉब करती हैं. उनके पास इतना टाइम और एनर्जी नहीं बचती कि हर समय मेरे बारे में सोचें. वे कुछ ग़ुस्सैल और आत्मकेंद्रित भी हैं. मुझे तो लग रहा है कि तुम सब लोग कितने लकी हो. अभी मैं यहां हूं, मेरी मम्मी को पता भी नहीं और वे जब तक अपने काम से फ्री नहीं होंगी, तब तक उन्हें ध्यान भी नहीं आएगा कि मैं कहां हूं. तुम लोगों को आसानी से जो मिल गया है, उसकी कदर नहीं कर रहे हो. एक पिता के बिना ज़िंदगी क्या होती है तुम्हें नहीं मालूम.”
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मीता का स्वर रुंध गया, “वे लोग तुम लोगों की चिंता करते हैं, तभी तो इतने सवाल पूछते हैं. एक पिता की सुरक्षा, स्नेहभरे हाथ को तुम लोग माइक्रोमैनेजमेंट कह रहे हो? उन्होंने तुम्हें जीवन की हर सुख-सुविधा दी. आज तुम लोग बड़े हो गए, तो तुम्हें उनकी ज़रूरत नहीं? उन्हें फिर क्या मिल गया इतने साल अपने जीवन के रात-दिन तुम्हें देकर? क्या तुम लोग जैसी ही होती हैं वे संतानें जिनके कारण वृद्धाश्रम बढ़ते जा रहे हैं?
रिया, तुम दिल्ली जैसे शहर में रात को बाहर रहोगी, तो किस पिता को चिंता नहीं होगी? तुम्हारी चिंता में वे जागते रहे, उनका क्या फ़ायदा हो रहा था? उल्टा उनकी तो हेल्थ पर ही असर हो रहा होगा न. यश, तुम्हें अंकल लड़कियों की तरह चिंता कर सवाल पूछते रहते हैं. सोचो, उनका मन तुम्हारे लिए कितना कोमल है और ये सवाल कई बार बात करने के बहाने भी होते हैं, क्या यह पता है तुम्हें? मैं घर में तरसकर रह जाती हूं कि कोई हो, जो मुझसे कुछ तो पूछे.”
यश, रिया और कोमल दम साधे मीता की गंभीर, उदास आवाज़ में खोए थे. मीता ने फिर कहा, “अगर तुम लोगों को मेरी बात बुरी लगी हो, तो माफ़ी चाहती हूं, पर क्या करूं, किसी भी पिता का अपमान सह नहीं पाती. पिता के बिना जीवन बिताया है, इसलिए जानती हूं कि पिता की कमी का दुख क्या होता है. कोई लाड उठानेवाला नहीं, कोई प्रॉब्लम को सुननेवाला नहीं. तुम लोग रिस्पेक्ट दो अपने पापा को. प्लीज़! जब सब ज़रूरतें पूरी हो चुकीं, तो उनका अपमान मत करो प्लीज़.”
उन तीनों के चेहरे शर्मिंदगी से भर गए थे. तीनों चुप बैठे थे. मीता की बातों ने बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया था.
दूसरे कमरे में बड़े अपनी महफ़िल में व्यस्त थे. राजनीति, मौसम, परिवार, नौकरी के बाद आजकल के बच्चों के व्यवहार पर बात आकर रुक गई. दीपक का चेहरा उदास हो गया. शेखर ने टोका, “मुंह क्यों लटक गया तेरा?”
एक ठंडी सांस भरी दीपक ने और कहा, “बच्चों का तो बात करने का मन ही नहीं होता. उन्हें अब कुछ कह नहीं सकते. कुछ पूछने पर गुर्राते हैं.”
रमन ने भी कहा, “पता नहीं कैसी हवा चली है. बड़ों की हर बात बुरी लगती है इन्हें. हर बात पर चिढ़ जाते हैं, उल्टा जवाब देते हैं. बेटियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहना क्या स्वाभाविक नहीं है?”
दीपक ने कहा, “यश के चारों तरफ़ ही सोचता रहा हमेशा. उसे कोई तकलीफ़ न हो कभी, यही कोशिश रही.”
मालती ने मुस्कुराते हुए कहा, “देखिए, कुछ ग़लती आप लोगों की भी है. आप उन्हें बहुत बांधकर रखना चाहते हैं. उन्हें कुछ स्पेस की ज़रूरत रहती है, जो आप देते नहीं और बात बिगड़ जाती है. दीपक भाईसाहब, मुझे शेखर ने आपके परिवार की स्थिति बताई है, आपको घर में इतना संरक्षण नहीं मिला, तो आपने सोचा होगा जो मुझे नहीं मिला, मैं अपने बेटे को दूंगा. उसे कोई तकलीफ़ नहीं होने दूंगा, अब आपने उसके चारों तरफ़ जो अपने प्यार और सुरक्षा का घेरा कस रखा है, उसे थोड़ा ढीला कीजिए. ये आज के बच्चे हैं, आपने उन्हें पढ़ा-लिखा दिया, बहुत है. अब उन्हें बाकी काम अपनी मर्ज़ी से करने दीजिए. उन्हें कोई ज़रूरत होगी, तो वे आपके पास ही आएंगे. अपने सवाल कुछ कम कीजिए.”
राधा ने भी सहमति जताई, “हां, ठीक कहा. मालती, दीपक बहुत ज़्यादा प्रोटेक्टिव हैं. चिढ़ जाता है यश इतने सवालों से. कई बार वो भी ग़लत होता है, पर बहुत ज़्यादा टोकाटाकी आज के बच्चे भला पसंद करेंगे?”
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मालती ने कहा, “हां, पता है. फिर होता क्या है कि रिया मुझे दिल्ली से सब बता देती है कि वह कहां है और बोलती है कि पापा को नहीं बताना, क्योंकि मुंबई में बैठकर वे अलग तरह से सोचते हैं और मेरा दिल्ली का जॉब और बाकी रूटीन उन्हें समझाना मेरे लिए मुश्किल है. अकेली रहती हूं, सब मैनेज कर रही हूं. अपनी सेफ्टी का भी ध्यान है मुझे. बस पापा को समझाना मुश्किल है. आप समझ जाती हैं, इसलिए आपको सब पता है ही कि मैं कहां हूं. अब बताओ, बच्चों को किसी पैरेंट से छुपाना क्यों पड़े? क्यों वह मुझे सब बता देती है और इनसे न बताने के लिए कहती है.”
“मतलब मां-बेटी मिली हुई हैं…” कहकर शेखर मुस्कुराए.
रमन हंस दिए. “लो देखो, हम पिता तो विलेन बनकर रह गए. भाई, क्या सच में हमें ही सुधरना है?”
शेखर ने कहा, “देख दीपक, तू अपने जीवन की बीत चुकी बातों को एक किनारे रख दे. तेरे शराबी पिता और मतलबी रिश्तेदारों के अनुभवों का बोझ तू यश के ऊपर डाल, हर समय उसके सिर पर सवार मत रह. मुझे तो वह बहुत समझदार लगा. जीने दे उसे. ग़लती करेगा, तो ख़ुद समझ आ जाएगी. जो समय सिखाता है, उसे कोई और नहीं सिखा सकता. शायद हम सबको यह समझ ही लेना चाहिए कि बच्चों को जब स्नेह एक बंधन लगने लगे, तो उन्हें कुछ आज़ाद होकर जीने का हक़ दिया ही जाए.” सब ने सहमति में गर्दन हिला दी. आरती ने कहा, “और सालों पहले का अपना ज़माना भी तो याद करें हम, क्या हमें बेवजह पैरेंट्स की टोकाटाकी अच्छी लगती थी? क्या हम नहीं चाहते थे कि उन्मुक्त रूप से जीएं?”
इतने में रिया कमरे में आई, पूछा, “मम्मा, सबके लिए चाय बना लूं?”
“हां बेटा.” मालती को बेटी का ऐसे पूछना अच्छा लगा. किचन से बच्चों की आवाज़ें आने लगीं. सब साथ ही थे. सब बड़ों को बच्चों के कहकहे अच्छे लग रहे थे. अचानक माहौल बदल गया था. मीता ट्रे उठाए बड़ों के कमरे में ही चली आई, “मेरा आप सबके साथ ही बैठकर चाय पीने का मन है, हम आप लोगों के साथ बैठ सकते हैं न?”
“अरे, नेकी और पूछ-पूछ… आओ… आओ.” शेखर ने कहा. बड़े दोस्ताना से माहौल में चाय पी गई. दोनों पीढ़ियों के मन का बोझ आपस में बातें करके कम हो गया था. मीता ने कहा, “आप लोग जब भी रिया के घर आएं, मुझे ज़रूर बताना. मैं आप सबसे फिर मिलते रहना चाहती हूं.”
यश ने कहा, “बिल्कुल, अब तो हमारे पास सबके फोन नंबर हैं ही. हम बिल्कुल कॉन्टैक्ट में रहेंगे.”
दीपक ने कुछ हैरानी से यश को देखा. कहा, “तुम आओगे हमारे साथ? तुम तो आज ही ग़ुस्से में आए थे.”
यश शरारत से मुस्कुराया, “यह मैंने कब कहा कि आपके साथ ही आऊंगा, तो मिलूंगा. हम तो कभी भी कहीं भी मिल लेंगे. क्यों दोस्तों?”
दीपक ने ज़ोरदार ठहाका लगाया. “बहुत अच्छा, जहां मन हो, वहां मिलना.”
यश आज पिता की इस हंसी पर बड़ा ख़ुश हुआ. उसने मीता को आंखों-ही-आंखों में थैंक्स कहा. मीता मुस्कुरा दी. फिर जल्दी-जल्दी मिलते रहने के वादे के साथ सब अपने-अपने घर की ओर निकल पड़े. वापसी के सफ़र में राधा को दृश्य पूरी तरह बदला हुआ लगा. यश ने आगे बैठने की ज़िद की थी, जिससे वह अपनी पसंद के गाने लगाकर सुनता हुआ जाए और साथ-साथ पापा से बातें भी कर सके. दीपक के चेहरे पर शांत मुस्कुराहट थी. सब कुछ बदला हुआ था. सबने आज बातों-ही-बातों में बहुत कुछ सीखा और महसूस कर लिया था. राधा को आज यही लगा था कि कितना ज़रूरी होता है आपस में बैठकर सुख-दुख बांटना, जो दुर्भाग्यवश आज के जीवन में घटता जा रहा है. यश मन-ही-मन मीता को याद कर रहा था, जिसने उसे बताया था कि पिता की चिंता माइक्रोमैनेजमेंट नहीं है. यह उनका प्यार, उनकी फ़िक्र है और वह उन्हें पाकर गर्व महसूस करेगा. उनके सवालों पर कभी नाराज़ नहीं होगा.
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