Close

कहानी- मोह (Short Story- Moh)

"जिस सुख के लिए तुम वहां भाग रही हो, क्या वहां उस सुख की गारंटी है?"
"यहां क्या है?" मृणालिनी ने सीधे सवाल किया.
"यहां हम कुछ लेने नहीं आए हैं. और ज़िंदगी बनिए की दुकान भी नहीं है, जहां लाभ की कामना ही की जाए. हम अपना जीवन जी चुके हैं, बच्चों पर भार क्यों बनें? तुम कुछ भी समझो, मुझे तो अपने देश की मिट्टी से मोह है."
"मोह!.." मुणालिनी ने मुंह बिचकाया.

गर्मी, आंधी और बरसात इन तीनों ने मिलकर मृणालिनी को पस्त कर दिया था. कितनी बार नहाए, कितना पसीना सुखाए, बाथरूम में जाओ, तो पानी गायब, पंखा चलाओ, तो बिजली गायब. जब से वह अमेरिका से वापस आई है, भारत की आबोहवा तथा अन्य गतिविधियों से तारतम्य बैठाते-बैठाते वह थक गई है.
कितने लाख ख़र्च किए, तब कहीं जाकर मनपसंद का फ्लैट मिला है. छह माह से मिस्त्री-बढ़ई सभी लगे हैं घर सजाने में. सारे दिन घर-घर्र, चीं-चीं की आवाज़ें और नया पेंट, जो दरवाज़ों-खिड़कियों पर हो रहा है, उसकी गंध से दम घुटता है दिनभर… मुंह पर रुमाल रखते हुए वह शाम को कुछ देर फ्लैट से निकल कर सड़क पर आ गई. मन ही मन सोचा कि कल से मिस्त्री-बढ़ई सभी को कुछ दिनों के लिए आने से मना कर देगी. सड़क पर चलते हुए उसे अपने बेटे-बेटी, नाती-पोते सभी की याद व्याकुल कर रही थी. अगर यहां मायके के लोग भाई-भाभी, बहन-बहनोई, ननदें न होतीं, तो यह शहर उसे बियाबान जंगल जैसा लगता. पति की ज़िद के चलते उसे भारत आना पड़ा था. उनका मन अगर वहीं रम जाता, तो यहां के नरक में वह कभी भी न आती. मन में उठ रहे तूफ़ान से वह रुआंसी हो गई. जब अंधेरा घिरने लगा, स्ट्रीट लाइटें जल उठीं, तो अनायास उसे घर की याद आई. चलें उसने मन-ही-मन सोचा, खाना भी तो बनाना होगा.
घर का दरवाज़ा खुलते ही, "कहां चली गई थीं' सवाल सुनते ही उसका रोम-रोम जल उठा.
"क्यों?" उसने लापरवाही भरे स्वर में पति सुदर्शन चौधरी की ओर एक प्रश्न उछाल दिया.
"क्यों क्या भई! मुझे चिंता हो रही थी."
'चिंता' वह मन-ही-मन बुदबुदाई. फिर कुछ संयत होकर हैरानी से पति की ओर देखती रही.
"पसीने से तरबतर हो रहे हो, तुम भी नहा-धोकर थोड़ी देर सड़क तक घूम क्यों नहीं आते?" स्वर में आर्द्रता भी थी और धीमापन भी.
"तुम साथ चलतीं, तो ठीक रहता. अकेले नहीं जाऊंगा मैं." स्वर में अक्खड़ बच्चे वाला हठीलापन था.
"तुम्हें क्या हो गया है? हारे हुए जुआरी जैसे बैठ जाते हो."


यह भी पढ़ें: ना बनाएं कोविड सिंड्रोम रिश्ते, ना करें ये गलतियां, रखें इन बातों का ख़याल (Covid syndrome relationship: How much have relationships evolved in the pandemic, Mistakes to avoid in relationships)

"हारे हुए जुआरी नहीं, हारे हुए सिपाही कहना चाहिए. अरे जीवन के इस युद्ध क्षेत्र में वृद्धावस्था तक पहुंचकर स्थितियां हारे हुए सिपाही जैसी ही तो हो जाती है." सुदर्शन चौधरी खिलखिलाकर हंस दिए. पति की इस हंसी से मृणालिनी के मन मरुस्थल में हरियाली की लहर सी दौड गई.
"अकेले-अकेले मन नहीं लगता. शाम जब पक्षी बसेरा लेने के लिए उड़ते तब बच्चों की बहुत याद आती है. तुम्हें भी आती होगी न?"
"हां! ऐसा ही होता है. जब तुम अमेरिका में थीं और मैं यहां तो मुझे तुम्हारे साथ-साथ सभी की याद आती थी. तुम्हीं बतलाओ वहां रहने पर तुम्हें भी तो मेरी याद आती होगी?"
"लेकिन मैं अपनी और तुम्हारी नहीं, बच्चों की बात कर रही हूं." मृणालिनी के स्वर में झुंझलाहट थी.
"बच्चे जब स्वयं बच्चों वाले हो जाते हैं, तब वे बड़े हो जाते हैं. उनके कर्तव्य और अधिकार बदल जाते हैं. हम लोग अपने जीवन का कार्यक्षेत्र पूर्ण कर चुके हैं. फिर हम अकेले कहां हैं? हम-तुम दो है न, दो जब पास-पास खड़े हों, तो दो नहीं, ग्यारह होते हैं."
"यह फिलोसाफी मुझे बहला नहीं पाती." मन के भीतर की उदासीनता मृणालिनी के कंठ को अवरुद्ध कर रही थी.
"कुछ भी कहों. मुझे तो अपने देश में ही सुख-शांति मिलती है."
"तुम तो ऐसे कह रहे हो, जैसे बच्चों से तुम्हारा कोई रिश्ता ही न हो."
"रिश्ता! क्या मतलब?.. क्या माता-पिता के रिश्ते भी बच्चों को समझाए जाते हैं? बेटा वहां डॉक्टर है, बच्चों वाला है, बहू भी वहां अच्छी पोस्ट पर है. अगर वे सभी स्वेच्छा से भारत आते हैं, तो उनका स्वागत है और यह भी तभी तक सम्भव होगा, जब तक उनके बच्चे छोटे हैं. बच्चों के बड़े हो जाने पर उनका भारत वापस आना मुश्किल हो जाएगा.
बड़े हो जाने पर उनके बच्चे वहां की संस्कृति में अपने को ढाल चुके होंगे, तब हमारे बच्चों को मन मारकर वहीं रहना होगा. इस तरह वो पीढ़ियां एक-दूसरे से मिलने को व्याकुल होती रहेंगी." पति का कथन सत्य था, किंतु मृणालिनी के गले नहीं उतर रहा था.
उस दिन दोनों की शादी की वर्षगांठ थी. भाई-भाभी, बहन-बहनोई, ननद के बच्चे सभी एकत्रित हुए. घर में ख़ूब शोरगुल था. भतीजे-भतीजियों, ननदों के बच्चे सभी गीत गा रहे थे, चुटकुले सुना रहे थे.
"आज जोड़ी जम रही है." बड़े साले ने थोड़ा रोमांटिक लहज़े में कहा.
"कहां भाई, अब तो सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होने जैसा लग रहा है." सुदर्शन चौधरी ने थके हुए स्वर में कहा.
"क्या बात है यार, अभी से हथियार डाल दिए. साढू भाई ने चुटकी ली.


यह भी पढ़ें: 7 लाइफ स्किल्स, जो हर महिला को सीखना चाहिए (7 Life Skills Every Woman Should Learn)

"हथियार क्या डालना. बेगम को भारत रास नहीं आ रहा है." सुदर्शन चौधरी धीरे से फुसफुसाया.
"मृणाल." बहनोई की तेज आवाज़ सुनकर मृणालिनी भागती हुई पास आई, "क्या हुआ?"
"होना क्या है? ज़रा पास आकर बैठो तो कुछ कहें."
"कहिए." वह बहनोई के पास आकर बैठ गई.
"इधर नहीं, उधर चौधरी के पास. शिकायत इन्हें है."
"शिकायत?" उसने आश्चर्य से सुदर्शन की ओर देखा.
"कुछ नहीं, बैठो पास में." सुदर्शन मुस्कुराए.
"इस तरह से मुंह सिलकर नहीं बैठ सकती. इतने बच्चे आए हैं, तुम भी हंसो-बोलो."
"जो बहुत कुछ कहना चाहते हैं, वे अधिकतर चुप ही रहते हैं. फिर दूसरों की बात सुनने में जो आनंद है, वह अपनी कहने में कहां?"
"जीजाजी आप इनसे बातें करिए. मैं बच्चों के पास जा रही हूं."
"इनको बच्चों से बहुत लगाव है." सुदर्शन चौधरी ने एक लंबी सांस ली.
"फोन पर बेटे-बहू से बात करके आ रही हूं. उनका यहां इतनी जल्दी आने का कोई प्रोग्राम नहीं है." छाता गैलरी में रखते हुए मृणालिनी ने लगभग रुआंसे स्वर में कहा.
"तुम तो बहुत भीग गई हो." सुदर्शन के स्वर में आत्मीयता घुली जा रही थी.
"बेटा फोन पर कह रहा था कि वह हमें बहुत मिस कर रहा है. मेरा तो मन यहां बिल्कुल नहीं लगता. दिल कर रहा था, फोन पर बात करते-करते उड़कर उनके पास पहुंच जाऊं."
"कपड़े बदल लो. चलो कॉफी बनाते है." सुदर्शन के स्वर की शीतलता ने मृणाल के मन को झकझोर दिया.
"तुम अपने तक ही सीमित क्यों हो गए हो?" उसकी आंख में आग और पानी दोनों सम्मिलित हो गए थे.
"क्यों, क्या बच्चों के अलावा और कोई विषय नहीं है तुम्हारे पास?" उनके स्वर में आक्रोश कम निरीहता अधिक थी.
रात का प्रथम पहर समाप्त हो चुका था. मृणालिनी और सुदर्शन दोनों को नींद कुछ कहने के लिए जगाए हुए थी. जले और बुझे अनेक तीर दोनों के तरकश में थे.
"सुनो, मुझे बच्चों के पास अमेरिका जाना है."
"क्या इसे तुम्हारा अंतिम फ़ैसला समझूं?" सुदर्शन ने धीरे से हाथ बढ़ाकर मृणाल का हाथ थाम लिया.
"तुम पूरे दिन पसीने से तरबतर रहते हो. दो टाइम नहाना भी तुम्हें अच्छा नहीं लगता, क्या अइयाजी ने तुम्हें अफीम खिलाकर पाला था?"
मुणाल ने सुदर्शन का हाथ धीरे से परे कर दिया.
"आज अइयाजी की याद कैसे आ गई?" सुदर्शन हंसे.
"हां अइयाजी की एक-एक बात मुझे याद है. कुछ दिन बेटे के पास सुख से रह रहे थे, तो तुमने यहां आकर…"
"मैंने यहां आकर क्या…. मैं विदेश में पुअर ओल्ड मैन की डिग्री लेकर नहीं रह सकता. आई हेट दैट कल्चर. खाओ-पिओ और मौज करो, बस यही है ज़िंदगी. भौतिक सुविधाएं और युवावस्था की आपाधापी… और तो और दूसरे देश का युवा भी सेकंड सिटिजन… नॉनसेंस."
"व्हाट नॉनसेंस!" मृणालिनी आवेश में आ गई."
"मैं कल ही वापसी की तैयारी में लगती हूं. तुम यहां रहो, यहां का देश-राग अलापते रहो. जब वहां आने का मन हो, फोन कर देना, व्यवस्था हो जाएगी."
"व्यवस्था, कैसी व्यवस्था?" सुदर्शन के स्वर में बेपनाह हैरानी थी.
"जिस सुख के लिए तुम वहां भाग रही हो, क्या वहां उस सुख की गारंटी है?"
"यहां क्या है?" मृणालिनी ने सीधे सवाल किया,
"यहां हम कुछ लेने नहीं आए हैं. और ज़िंदगी बनिए की दुकान भी नहीं है, जहां लाभ की कामना ही की जाए. हम अपना जीवन जी चुके हैं, बच्चों पर भार क्यों बनें? तुम कुछ भी समझो, मुझे तो अपने देश की मिट्टी से मोह है."
"मोह!.." मुणालिनी ने मुंह बिचकाया.
अगले दिन से दोनों में अव्यक्त अनबोला शुरू हो गया. बाहरवालों के सामने व्यवहार बिल्कुल सामान्य. भोजन, चाय-नाश्ता सब एक साथ, मगर ज़ुबान बिल्कुल ख़ामोश. कुछ दिन बाद क्रम टूटा?
"मैं परसों वापस जा रही हूं."
"कहां?" हैरानी से सुदर्शन का मुंह खुला का खुला रह गया.
"अमेरिका, बेटे के पास." मृणालिनी ने नपा-तुला जवाब दिया.
"तुमने बिना बतलाए तैयारी भी कर ली."
"किसको बतलाती?"
"बुढ़ापे में हम दोनों को एक-दूसरे का ही सहारा है. यह भी नहीं सोचा."
"सब सोचकर ही फ़ैसला किया है."
फिर अमेरिका जाने का दिन भी जल्दी ही आ गया.
"मेरी सवेरे पांच बजे की फ्लाइट है." मृणालिनी ने कहा, तो सुदर्शन ने गौर से उसकी ओर देखा. उसकी आंखों ने जो कुछ मृणालिनी से कहा उसे उसने समझ कर भी नहीं समझा.
"मैं एयरपोर्ट तक पहुंचा दूंगा."


यह भी पढ़ें: जीवन में ऐसे भरें ख़ुशियों के रंग (Fill Your Life With Happiness In The Best Way)

"सवेरे-सवेरे परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. छोटे भाई से कह दिया है, वह अपनी गाड़ी से पहुंचा देगा." संवाद पर यहीं विराम लग गया.
उस रात किसे नींद आई कुछ कहा नहीं जा सकता. सवेरे गाड़ी का हॉर्न सुनकर सुदर्शन की नींद खुली, तो मृणालिनी बैग अटैची उठाकर "चलती हूं…" कहते हुए बाहर निकल गई.
दिन निकल रहा था. छोटे साले का फोन आया, "दीदी को एयरपोर्ट पहुंचा दिया है. फ्लाइट एक घंटे लेट है."
मृणालिनी प्रतीक्षालय में अटैची-बैग रखकर आराम से सोफे पर बैठ गई. अचानक उसे आभास हुआ जैसे वह बोधिवृक्ष के नीचे बैठी हो. सुन्न होते हुए शरीर की सारी उष्मा मस्तिष्क को मथ रही थी. किसी अदृश्य शक्ति ने उसे कुरेदा.
जिस मोह में वह भागकर जा रही है, क्या वह ठीक है? बेटा-बेटी दोनों वहां अपने अपने परिवार में रचे-बसे हैं. उसका अस्तित्व तो वहां होते हुए भी न के बराबर है, जब तक हाथ-पैर चल रहा है, सब ठीक रहेगा. कई वर्षों तक उसने वहां नौकरी की है. उसकी उसे अच्छी पेंशन मिलेगी, मगर उससे क्या? पैसों की तंगी तो यहां भी नहीं है. फिर पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता.
सुदर्शन जाग चुके होंगे. वह सोफे से अच्छी तरह चिपक कर बैठ गई. नए घर में अभी तो सामान भी व्यवस्थित नहीं किया है. वह स्वयं चकित थी कि सात फेरों के बंधन को नकार कर वह यहां आ कैसे गई?
अभी तक मां होने के नाते उसका जो ममत्व कुलांचे मार रहा था, वह भी उसे चिढ़ाता हुआ लगा. बेटा पूछेगा, "पापा को अकेला छोड आई." जिसके मोह में भागकर जा रही थी, उसी ने पलट कर वार कर दिया था. इस वार से वह तिलमिलाई नहीं, कुछ सोचने को बाध्य हो गई. भूत-भविष्य सब गड्डमड्ड हो गए. सिर्फ़ वर्तमान उसके सामने साकार खड़ा था.
वर्तमान अपना घर, अपनी गृहस्थी, अपना पति. सम्पूर्ण जीवन की अनुभूतियों का यदि वह बंटवारा करे, तो उसका बहुत बड़ा भाग भारत में उसके घर में ही बिखरा या सजा हुआ था. जिस तरह उसके बच्चों के अपने परिवारों के प्रति फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारियां है, उसकी अपने घर के प्रति भी तो ज़िम्मेदारी और जवाबदेही है.
इसी उहापोह में कितना समय निकल गया, उसे पता ही नहीं चला. वह तंद्रा में थी आसपास से बेख़बर.
वह बार-बार अपने घर का जीना चढ़ रही थी. सुदर्शन कभी ऊपर वाले पांव दान पर तो कभी नीचे वाले पर…. क्या करे क्या न करे. अचकचाकर उसकी तंद्रा टूटी, हवाई जहाज जा चुका था.
"थैंक गॉड." उसके मुंह से निकला. अपना सामान उठाए वह इत्मीनान से बाहर आ गई. खुली हवा में उसने चैन की सांस ली और पानी की बोतल घूंट-घूंट पीकर खाली कर दिया.
"टैक्सी." उसने हाथ दिया. टैक्सी में बैठते ही एक पल को उसकी आंखें बंद हुईं.
उसे उलझन हो रही थी. घर दूर क्यों हो गया है. गाड़ी धीरे-धीरे क्यों चल रही है.
कब वह घर पहुंच गई, कब उसने कॉलबेल बजाई उसे कुछ पता ही नहीं चला.
"अरे, क्या हुआ? गई नहीं तुम?" सुदर्शन आश्चर्यचकित थे.
"नहीं, मैं लौट आई हूं." वह धम्म से सोफे पर बैठ गई.
"हुआ क्या?"
"होना क्या है? कोई अदृश्य शक्ति थी जिसने मुझे जाने नहीं दिया." मृणालिनी थके, किंतु स्थिर स्वर में बोली.
"मुझे पता था."
"क्या?"
"यही कि तुम नहीं जा सकतीं."
"फिर उसी समय क्यों नहीं रोका?"
"और किसने रोका."
"सुदर्शन तुम!.. तुम…" मृणालिनी बोल नहीं पा रही थी.

- माधवी कपूर

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का गिफ्ट वाउचर.

Share this article

https://www.perkemi.org/ Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Situs Slot Resmi https://htp.ac.id/ Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor Slot Gacor https://pertanian.hsu.go.id/vendor/ https://onlineradio.jatengprov.go.id/media/ slot 777 Gacor https://www.opdagverden.dk/ https://perpustakaan.unhasa.ac.id/info/ https://perpustakaan.unhasa.ac.id/vendor/ https://www.unhasa.ac.id/demoslt/ https://mariposa.tw/ https://archvizone.com/