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कहानी- मृगतृष्णा (Short Story- Mrigtrishana)

अब तक मैं भटक रही थी, लेकिन आज मैंने सत्य को पा लिया था. अपने भीतर के सत्य को अपने भीतर से ही पाना होता है. वह ढूंढ़ने, मांगने या शब्दों से बयां नहीं होता, अनुभव से उतरता है. आज एक सत्य को मैंने बंटी को देखने के बाद ख़ुद में पाया और पहचाना… और सचमुच कितना कड़वा होता है सत्य.

आसमान छूने की मेरी अभिलाषा ने मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन भी खींच ली, पर तब मैं ज़मीन को देखती ही कहां थी. मैं तो आसमान को ताकते हुए अपना लक्ष्य पाना चाहती थी. तब अगर कुछ दिखाई देता था, तो वह केवल दूर-दूर तक फैला नीला आसमान, जहां उड़ा तो जा सकता है, पर उसका स्पर्श नहीं किया जा सकता. ऊंचाइयों का कब स्पर्श हुआ है? जब हाथ उठाओ, वे और ऊंची उठ जाती हैं- मरीचिका की तरह. ज़मीन चाहे ऊबड़-खाबड़ हो, पर उसका स्पर्श हमारे पैरों को खड़े रहने का आधार देता है. पर यह एहसास तब कहां था?

आज दस वर्षों बाद उसी शहर में लौटना पड़ रहा है और जीवन की क़िताब का वह पृष्ठ, जो मैं यहां से जाते व़क़्त फाड़कर फेंक गई थी, आज वही पन्ना हवा के झोंके से उड़ आए पत्ते की तरह फिर मेरे आंचल में आ पड़ा है. जैसे-जैसे इंदौर पास आ रहा था, मेरी धड़कन अनजाने भय से तेज़ होती जा रही थी. पता नहीं, अरुण लेने आते भी हैं या नहीं? दस वर्ष लंबा अंतराल हमारे मध्य से गुज़र गया है.

देवास के बाद वही जाना-पहचाना रेल रूट. धडधड़ाती हुई ट्रेन मन के अंदर भी दौड़ रही थी. दिल की धड़कनें तेज़… और तेज़ हो गईं. बस, आने ही वाला था इंदौर स्टेशन, अरुण… अरुण… अरुण… बस, यही एक नाम दिलोदिमाग़ में गूंज रहा था. एक पल को लगा दस साल अरुण से अलग रहकर भी, अविनाश का साथ होने के बावजूद, शायद ही ऐसा कोई दिन होगा जब अरुण यादों में न आया हो. मैं नहीं भूल पाई उसे? शायद आज भी मैं अरुण से प्यार करती हूं, अविनाश तो बस…

गाड़ी स्टेशन पर रुकते ही नज़र बेचैनी से अरुण को तलाश कर रही थी. अरुण सामने से हाथ हिलाते हुए दिख गया, मैंने भी हाथ हिलाया. गाड़ी से उतरते ही अरुण ने हाथ मिलाया. हाथ पकड़ते ही मुझे लगा अरुण दस साल के विरह में दोनों हाथ फैलाएगा, मुझे बांहों में समेट लेगा और कहेगा, ‘मैं जानता था तुम ज़रूर वापस आओगी.’ पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.

“हैलो नीरजा! कैसी हो?” अरुण ने मुस्कुराकर पूछा.

“ठीक ही हूं.” छोटा-सा उत्तर दे मैं चुप हो गई थी. अरुण सहज था, पर मैं उसके हैलो से आहत हुई थी. बग़ैर ज़्यादा कहे मैं अरुण के साथ आगे बढ़ गई. अटैची गाड़ी की डिक्की में रख अरुण ने कहा, “चलें?”

मैं चुपचाप अरुण के साथ वाली सीट पर आ बैठी थी. उसका चेहरा शांत था. गाड़ी स्टेशन से बाहर निकालकर वह मुझे बरसों पुराने हमारे फेवरेट कॉफी हाउस में ले गया. मैं सोच रही थी कि अरुण वहां ले जाकर उन पुराने दिनों की यादों को ताज़ा करना चाहता है. मैंने ध्यान हटाना चाहा उन बातों से, “कितना बदल गया है कॉफी हाउस?”

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“हां नीरजा, समय के साथ बदलाव आ ही जाते हैं. देखो, तुम भी तो पहले से मोटी हो गई हो.”

“हां, कुछ बदलाव न चाहते हुए भी आ ही जाते हैं. मोटा होना भी उन्हीं अनचाहे बदलावों में शामिल है.”

यहां आकर गुज़रे हुए लम्हों को फिर से जी लेने का मन होने लगा. कॉफी के साथ अरुण ने कटलेट का भी ऑर्डर दिया था. कटलेट उसे पसंद नहीं थे, पर उसने बड़े स्वाद से खाए.

“तुम्हारा स्वाद भी बदल गया है अरुण. तुम्हारा काम कैसा चल रहा है आजकल?”

“एकदम ब़िढ़या.” अरुण मुस्कुराते हुए बोला, “और तुम्हारा?”

“अच्छा चल रहा है. इस बार मुझे मध्य प्रदेश का कॉन्ट्रैक्ट मिला है. बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है. सोचा, इसी बहाने कुछ दिन तुम्हारे साथ रहने को मिल जाएगा.”

“कब से काम शुरू कर रही हो?” अरुण ने बिना किसी उत्साह के पूछा.

“शायद कल से.” मैंने सहर्ष बताया, “तुम फ्री हो न अरुण?”

“बस, आज किसी तरह कुछ घंटे निकाल पाया हूं. नहीं निकालता, तो तुम समझतीं कि मैं अब तक नाराज़ हूं तुमसे.”

मैं एक बार फिर आहत हुई थी कि अरुण के पास आज भी मेरे लिए समय नहीं है! मैं चाय ख़त्म कर उठ खड़ी हुई थी चलने के लिए.

गाड़ी में बैठते ही अरुण ने पूछा था, “तुम्हें कहां ड्रॉप करना है?”

“घर.”

“हां, हां… पर किसके घर?” अरुण ने पूछा.

“अपने घर अरुण… एक बार मैं फिर देखना चाहती हूं उस घर को.”

अरुण ने गाड़ी मोड़ दी. थोड़ी देर में हम उसी घर के सामने थे. मैं उतरने लगी, तो अरुण ने रोका था, “बाहर से ही देख लो नीरजा… यह घर तो आठ साल पहले ही हम बेच चुके हैं.”

“क्या?”

“हां.”

“तो, अब कहां रहते हो ?”

“विजय नगर में.”

“यह कोई नया नगर है क्या?

“नया नहीं है. अब वहां हमारे पास फ्लैट है.”

‘क्यों बेचा अरुण… मैं नहीं तो, तुम तो जुड़े रहते इस घर से…’ मैं मन ही मन सोचने लगी थी. एक बार फिर मैं आहत हुई थी. तभी गाड़ी होटल श्रीमाया के सामने रुकी. अरुण ने रिसेप्शन पर पूछताछ की और मेरा सामान रूम में पहुंचवा दिया.

मैं मौन रही. मुझे लगा कि अरुण मुझे घर नहीं ले जाना चाहता. वह नहीं चाहता कि उसकी अस्त-व्यस्त ज़िंदगी मेरे सामने उजागर हो. अपने टूटे दिल और बिखरे घर को वह समेट नहीं पाया होगा अब तक, इसीलिए घर की बजाय होटल में छोड़ रहा है.

“मैं चलता हूं नीरजा. तुम अभी यहीं पर हो, तो मुलाक़ात होगी ही. अगर कुछ परेशानी हो, तो इन नंबरों पर कॉन्टैक्ट कर लेना. और हां, यहां के ‘बेक्ड मशरूम’ स्पेशल हैं, लंच में ज़रूर ऑर्डर देना. मैं चलता हूं.” वह जल्दी में था. मेरा जवाब सुने बगैर ही चला गया.

अगर अरुण की जगह अविनाश ऐसा करता, तो मैं तूफ़ान खड़ा कर देती. पर अरुण के इस बर्ताव पर उदासी ने मुझे घेर लिया था. मैं रूम लॉक करके लेटी, तो झपकी आ गई.

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दो घंटे बाद आंख खुली, तो उठने का मन नहीं हुआ. एक मनहूसियत-सी पसरी थी कमरे में. मैं सोचकर आई थी कि अरुण को पछतावा होगा मुझसे अलग होने का, पर एक औपचारिक व्यवहार के अलावा उसमें कुछ भी दिखाई नहीं दिया था. अब क्या करूं, यही सोचते हुए उठी, चाय का ऑर्डर दिया और नहाने चली गई. नहाकर थोड़ा फ्रेश लग रहा था. मैं तैयार हुई और कैमरा लेकर होटल से बाहर आ गई थी. रिक्शा ले राजबाड़े तक जाने का मूड बनाया.

   इतने सालों बाद राजबाड़े को नए स्वरूप में देखा, तो कई फ़ोटो खींच लिए. अकेले घूमने में मज़ा नहीं आ रहा था. कितना घूमती थी मैं अरुण के साथ राजबाड़े और सराफे में. रबड़ी, देशी घी की जलेबी… कितना स्वाद है यहां के खाने में! चाट, पकौड़े, समोसा… सब कितना पसंद था मुझे.

यादों के झुरमुट में भटकते हुए मैं उसी चाट हाउस के सामने पहुंच गई थी. पर अकेले खाने का मन नहीं हुआ. कुछ देर रुककर खाती हुई भीड़ के फ़ोटो लिए और पलटने लगी, तो अरुण की आवाज़ सुनाई दी, “ऐ, नीरजा रुको!”

पलटी तो अरुण मेरी ही तरफ़ आ रहा था. मैं रुक गई. “बगैर कुछ खाए जा रही हो? जानती हो तुम्हारे जाने के बाद कई दिनों तक दुकानवाला पूछता था कि आपके साथ वो चटोरी मैडम नहीं आतीं अब…”

मैं मुस्कुरा दी. हल्की-सी चपत लगा देती, पर ऐसा कुछ नहीं कर पाई. अरुण मेरे हाथ में पेटिस-चटनी का दोना पकड़ाकर एक छोटे-से बच्चे को लेने आगे बढ़ गया. एक खनकती-सी आवाज़ सुनाई दी थी, “अरुण, देखो बंटी कहां है?”

मैंने आवाज़ की तरफ़ देखा- दुबली, गौरवर्णी, सुंदर-सी स्त्री अरुण से बच्चे को गोद में ले रही थी. वे तीनों मेरे पास आ गए थे. अरुण ने परिचय करवाया, “नीरजा, ये अंजली है, माई वाइफ़ और ये हमारा बेटा बंटी. और अंजली नीरजा को तो जानती ही हो.”

“हैलो.”

“हाय.”

‘अंजली… अंजली माई वाइफ़…’ मेरे कानों में सीसा-सा उड़ेलते हुए शब्द थे. अरुण ने शादी कर ली. उसका बेटा भी है. सुबह दो घंटे साथ रहा, पर बताया तक नहीं. मैं भी बच्चे को गोद में ले प्यार करने लगी, “बेटा सचमुच प्यारा है! एकदम अरुण की तरह.” मैंने पर्स में हाथ डाला और पांच सौ का एक नोट बच्चे को शगुन कहकर पकड़ा दिया.

पैरों में अब मानो ताक़त नहीं थी. मैं फिर मिलने का वादा कर होटल लौट आई. सारे रास्ते ‘अंजली, माई वाइफ़’ शब्द  मेरा पीछा करते रहे. मैं थक गई थी ख़ुद से लड़ते-लड़ते. मैं अब भी अरुण से बंधी हूं मन से और अरुण…?

होटल पहुंचकर मैंने लंच नहीं लिया और डिनर लेने का अब मन नहीं था. कमरे में लौटकर मैं निढाल हो पलंग पर पड़ी रही. ख़ूब रोई भी. इतना तो शायद जब अरुण से अलग हुई तब भी नहीं रोई थी. कमरे में अंधेरा पसरा था, पर मन लाइट जलाना नहीं चाहता था.

अंधेरे में जो मानक गढ़े और जिनको आधार बनाकर मैंने अपने भविष्य को गढ़ा था, उससे यदि मैं ख़ुश और सुखी रह सकती, तो आज रोती ही क्यों? कितना सरल-सहज जीवन था, जो अरुण के आगोश में सुरक्षित-सा था, पर महत्वाकांक्षा उछालें मार रही थी. गृहस्थी के दायित्व कुछ थे ही नहीं, पर तब भी मैं उस बंधन से मुक्ति मांग बैठी थी, लेकिन समय ने मेरे सारे मुगालते दूर कर दिए. आज अरुण, अंजली और उनके बच्चे को ज़िंदगी जीते हुए देखा, तभी से लगा, मैं हार गई. अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के बाद भी हार महसूस कर रही हूं.

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मैं केवल स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी में ही करियर बनाती रही. नाम, यश, पैसा, क्रिएशंस कितने शब्द थे मेरी महत्वाकांक्षा की डिक्शनरी में, पर असल तस्वीर तो अंजली ने बनाई है अरुण की, बंटी के रूप में. रचना भी वही और सृजन भी. स्त्री के स्त्रीत्व का अनमोल क्रिएशन मैं नहीं कर पाई. शायद अविनाश न आया होता जीवन में तो महत्वाकांक्षा यूं प्रबल नहीं होती. करियर के लिए मातृत्व को दांव पर न लगाती. पर तब एक ही ज़िद थी कि नहीं चाहिए अभी बच्चा. मैं एबॉर्शन पर अड़ी रही थी. अरुण रो दिया था मेरे फैसले पर. अरुण चाहता था कि मैं ‘मां’ बनूं, पर मैं नहीं चाहती थी. अब मैं चाहती हूं, पर अविनाश के साथ शादी ही नहीं की, तो वह बच्चे के लिए क्यों तैयार होगा? मैं उदासी से बचना चाहती थी. इसलिए होटल की छत पर आ गई. तारे टिमटिमाते हुए आसमान में मैं ढ़ूंढ़ने लगी अपनी कोख से तोड़े उस अंकुर को, जो पता नहीं कौन-सा तारा बना होगा. अचानक धीरे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा. पलटी तो सामने अंजली थी और अरुण बच्चे को संभाल रहा था.

“नीरजा, हम तुम्हें डिनर के लिए लेने आए हैं. फटाफट तैयार हो जाओ.” अरुण बोला.

“मुझे? नहीं, मैं यहीं ठीक हूं.”

“चलिए न. प्लीज़ नीरजाजी! एक बार हमारे लिए चलिए.”

“अंजली, मैं कल लंच तुम्हारे यहां लूंगी, आज मुझे माफ़ कर दो.” मैंने अंजली के कंधे को हल्का-सा थपथपाया था, “आओ नीचे चलते हैं. यहीं कुछ साथ में लेते हैं. अरुण, तुमने बताया था न, यहां ‘बेक्ड मशरूम’ बहुत अच्छा बनता है, चलो सब मिलकर टेस्ट करते हैं.”

वो मान गए. मुझे लगा उन्हें तो मानना ही था. दोनों में अहम् नहीं है. अड़ियल स्वभाव तो मेरा था, इतने मान-सम्मान से लेने आए और मैं नहीं गई. अरुण मुझे जानता है, मैं हूं ही ऐसी. कमरे में लौट रही थी. रिसेप्शन पर चाबी लेने पहुंची तो पता चला, अविनाश का चार बार फ़ोन आ चुका है. अविनाश को फ़ोन लगाया. अविनाश से बात करके अच्छा लगा, मन से थोड़ा बोझ कम हुआ. बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचती रही- ‘अब तक मैं भटक रही थी, लेकिन आज मैंने सत्य को पा लिया था. अपने भीतर के सत्य को अपने भीतर से ही पाना होता है. वह ढूंढ़ने, मांगने या शब्दों से बयां नहीं होता, अनुभव से उतरता है. आज एक सत्य को मैंने बंटी को देखने के बाद ख़ुद में पाया और पहचाना… और सचमुच कितना कड़वा होता है सत्य. फ़ोटोग्राफ़ी में अविनाश की मदद और गाइडेंस से तब मेरा काम चल पड़ा था. मेरी बातों, मेरे काम, मेरी कला में अहंकार झलकने लगा था. वह अहं ही तो था, जो मेरे और अरुण के मध्य पसर गया था, वरना आज अंजली नहीं, मैं… हां, मैं नीरजा ही बंटी के साथ होती.

क्यों हो गया ये सब…? हमारे तो संबंध भी शुरुआत में अच्छे थे. हमने तो प्रेम-विवाह किया था. आज समझ में आ रहा है. सेक्स और आपसी समझ जहां एक-दूसरे के पूरक हैं, वहीं एक-दूसरे पर पूरी तरह निर्भर भी हैं, पर हम प्रेम-विवाह के बावजूद बिना एक-दूसरे की भावनाओं को समझे, एक-दूसरे के लिए धीरे-धीरे अजनबी होते गए. तो क्या विवाह के शुरू के महीनों में जो कुछ था, वह महज शारीरिक आकर्षण था. शायद हां, वह स्वाभाविक था. वहीं मैं चूक गई. यही तो वह समय था, जब हमें एक-दूसरे की रुचियों, शौक़, पसंद-नापसंद से जुड़ना चाहिए था. तभी पनपता वह प्यार, जो मैंने अंजली की आंखों में लबालब देख लिया था, वही प्यार जो अरुण मुझे करना चाहता था. पर वह अब पूरी तरह अंजली को अर्पित है. हां, यही प्यार है, जिसे मैं ठुकराकर चली गई थी. यही तो वह सिलसिला है, जो आगे चलकर एक सुखी सफल लंबे वैवाहिक जीवन की नींव बनता है. मैंने नींव रखी ही नहीं और अब ध्वस्त अवशेषों पर आंसू बहा रही हूं.

आख़िर कोई कब तक सहन करता? और यही हुआ अरुण के साथ. एक दिन अविनाश के आकर्षण में ज़मीन से ऊपर उठ गई और बिफर पड़ी अरुण पर. पर कहां जानती थी कि पैरों के नीचे अब ज़मीन आएगी ही नहीं?

क्या पाया मैंने? क्या खो दिया? यश, नाम, रुपया, स्वतंत्रता जैसे बड़े शब्द हैं, जो मैं प्राप्ति के पलड़े में रख सकती हूं, पर दूसरे पलड़े में एक सुंदर घर, बांहों में समेटता पति, मुस्कुराता बंटी आकर बैठ जाते हैं, तो वह पलड़ा भारी होता चला गया- इतना भारी कि ज़मीन छूने लगा है. दूसरे पलड़े के हवा में लटकने का एहसास एक त्रासदी की तरह कड़वा लगा. यह एहसास इंदौर लौटने के बाद ही ज़्यादा कचोट रहा है.

मैं इन विचारों से उबरना चाहती थी. चाय और नाश्ता रेस्तरां में जाकर लिया, ताकि ध्यान बंटे. इडली-सांबर मंगवाया. नाश्ता करने के बाद चाय की चुस्कियां लेने लगी. चाय समाप्त हुई तो नज़र सामने बैठी महिला पर गई. नज़रें मिलते ही हम एक-दूसरे को पहचान गए.

“नीरजा?” वह महिला उठकर आ गई.

“शुभा.. शुभा शर्मा?”

“अब शर्मा नहीं… शुभा जोशी हूं.”

“अच्छा?”

“कब आई इंदौर?”

“बस, कल ही आई हूं. कुछ फ़ोटोग्राफ़ लेने थे राजबाड़ा, मांडू, माहेश्‍वर वगैरह के.”

“अरे वाह!…”

“तुम कैसी हो, शुभा?”

“अच्छी ही हूं, शाम को आओ घर. खाना हमारे साथ लेना… ये मेरा कार्ड.”

“नहीं शुभा..”

“क्या नहीं? अरुण-अंजली से मिली?”

“हां.”

“उन्हें भी बुला लेते हैं शाम को.”

वह चली गई और मैं रूम में लौट आई. रूम में फिर वही अकेलापन था. तन्हाई जीवन को उलट-पलटकर देखने का अवसर देती है और फिर मैं अपनी ही महत्वाकांक्षाओं, अपनी भावनाओं की समीक्षा करने लगी. लगा, वैवाहिक संबंध शाश्‍वत होते हैं, कितने पवित्र और सात्विक. अविनाश के उत्तेजनापूर्ण संबंधों में स्थायित्व नहीं है, वे क्षणिक आवेश ही थे. अरुण को अंजली के साथ संतुष्ट जीवन जीते देख लगा, उसे दोबारा पा लेने का मेरा दंभ आज टुकड़े-टुकड़े हो गया है. उसे छोड़कर जाना बचपना ही तो था, अब आज मैं स्वतंत्र हूं, परिपक्व भी और गढ़ सकती हूं अपना जीवन, पर संतुष्ट परिवार का सुख दोबारा चाहकर भी अब नहीं गढ़ा जाएगा.

मैं, नीरजा आईने के सामने खड़ी हो गई. माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं. रंग अब कलसाने लगा है. आंखों के नीचे उम्र झुर्रियां बनकर उतरने लगी है, तो क्या मेरा समय टल गया?

रूम में ही सारा दिन अपनी ही नकारात्मक समीक्षा करते हुए निराश हो चली. रूम में टहलने के बाद स्नान किया. कपड़े बदले, संवरकर देखा, तो लगा अब भी अच्छी लगती हूं. बाहर अंधेरा होने लगा. टैक्सी बुलवाई और पचमढ़ी के लिए चल पड़ी. अरुण को सूचना देना मुझे ज़रूरी नहीं लगा.

स्वाति तिवारी

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