“उस जैसी महत्वाकांक्षी लड़कियां ऑफिस के बंद चैंबरों में तो अच्छी लगती हैं, पर घर के आंगन में नहीं. तुम प्यार और विश्वास की नींव ज्योत्सना के साथ ही रख सकते हो. उसे अपनाने की कोशिश तो करके देखो.”
शादी हुए एक हफ़्ता हो चुका था. रिश्तेदार व मित्र सभी जा चुके थे. विवाह का काम ख़त्म होने में महीनों लग जाते हैं, इसलिए घर में एक व्यस्तता का माहौल तो बना ही हुआ था. लेकिन इतनी भी व्यस्तता नहीं थी कि पति-पत्नी के बीच जो घट रहा है, उससे परिवार के अन्य लोग अनजान रहें. ज्योत्सना के प्रति उमेश का रूखा व उपेक्षित व्यवहार देख सभी अचंभित व दुखी थे. रात को उमेश का ड्राइंगरूम में सोना किसी से छिप न सका था. ज्योत्सना बहुत ही ख़ुशमिज़ाज क़िस्म की लड़की थी, इसलिए आते ही ससुराल के हर सदस्य के साथ घुल-मिल गई थी. उसके सांवले मुखड़े पर खिली रहने वाली मुस्कान ने सास-ससुर, ननद सबको मोहित कर लिया था. वह उमेश के व्यवहार से स्वयं हैरान और परेशान थी, फिर भी उसके व्यवहार से किसी क़िस्म की कटुता नहीं झलकती थी. उसकी झील-सी गहरी आंखों में बहुत सारे सवाल ज़रूर झिलमिलाते रहते, पर किसी क़िस्म की शिकायत नहीं थी उसमें. उमेश उससे क्यों कटा-कटा रहता है या उसे अपनी पत्नी का दर्जा क्यों नहीं दे रहा है, वह अगर इसका उत्तर चाहती भी तो वे लोग आख़िर जवाब क्या देते? ऐसा नहीं था कि वजह किसी को मालूम नहीं थी. “मुझसे कोई भूल हो गई है क्या? मुझे बताइए तो सही, तभी तो मैं आपकी नाराज़गी समझ पाऊंगी. नई-नई इस घर में आई हूं, थोड़ी, समय दीजिए, आपकी हर उम्मीद पर खरी उतरूंगी.” उमेश से किए गए हर सवाल के जवाब में उसे चुप्पी ही सहनी पड़ती. वह भी हर लड़की की तरह अनगिनत सपने लेकर आई थी और पति का प्यार पाने की इच्छा रखती थी. हालांकि माता-पिता द्वारा तय किए गए इस विवाह से पहले उन दोनों की मुलाक़ात न के बराबर ही हुई थी. हर बार जब भी उसकी बहन ने उनकी मुलाक़ात करानी चाही, उमेश अपनी व्यस्तता ज़ाहिर कर कन्नी काट लेता था. उमेश जैसा स्मार्ट व उच्च पद पर आसीन जीवनसाथी पाने की उमंग में ज्योत्सना का ध्यान इस ओर गया ही नहीं था कि उमेश शायद अपने माता-पिता के दबाव में आकर यह विवाह कर रहा था. वैसे भी उसे इस बात का भरोसा था कि अगर माता-पिता ने रिश्ता तय किया है तो सब ठीक ही होगा. फिर सगाई वाले दिन उसकी बहन ने भी यही कहा था, “लगता है जीजाजी भी आप की ही तरह कम बोलते हैं.” सुहागरात के दिन वह इतनी थक गई थी कि सुबह उमेश को ड्राइंगरूम में सोते देख वह हैरान तो हुई थी, पर किसी तरह के ग़लत विचारों को उसने अपने मन में आने नहीं दिया था. फिर उसनेे हनीमून पर जाने से मना कर दिया तो भी ज्योत्सना को लगा कि ठीक भी तो है. दो अजनबियों का साथ जाना कहां तक सही होगा? लेकिन धीरे-धीरे वह इतना तो जान गई थी कि कुछ बात अवश्य है, जिसकी वजह सेे उमेश ने एक संवादहीनता की स्थिति कायम की हुई है. ससुरालवालों का साथ और प्यार उसे हिम्मत देता और उसे लगता कि यह स्थिति अपने आप ठीक हो जाएगी. वह भरसक अपनी तरफ़ से यह कोशिश करती कि उसकी ओर से कोई ग़लती न हो जाए. उस दिन रविवार था. सब लोग टीवी देख रहे थे. उमेश बालकनी में बैठा था. छुट्टी वाले दिन वह ज्योत्सना से बचने के लिए बालकनी का ही सहारा लेता था. “मां, एक कप चाय मिलेगी.” उमेश की आवाज़ सुन ज्योत्सना फटाफट चाय बनाने के लिए उठ गई. चाय का कप मां के हाथ में थमा मूक नज़रों से उसने उन्हें देखा. मां की नज़रें झुक गईं. वह तुरंत बालकनी की ओर चली गईं. तभी ज्योत्सना को ख़याल आया कि उसने बिस्कुट तो रखे ही नहीं. उमेश खाली चाय नहीं पीता था. वह बिस्कुट की प्लेट ले बालकनी की ओर बढ़ी. अपना नाम सुन उसके क़दम वहीं ठहर गए. “बेटा, आख़िर ऐसा कब तक चलेगा? ज्योत्सना का क्या दोष है, जो वह सज़ा भुगत रही है?” “मां, मेरे बस में कुछ भी नहीं है. तुम तो सब कुछ जानती हो. मैंने तो तुम्हें मना भी किया था कि मेरी शादी न करो. मैं किसी लड़की की ज़िंदगी ख़राब नहीं करना चाहता था, पर तुमने मेरी एक न सुनी.” “बेटा, तुम्हें नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए. किसी ऐसे इंसान की ख़ातिर अपनी ज़िंदगी के हर दरवाज़े को बंद कर लेना, जहां से ख़ुशी आती है, कहां की अक्लमंदी है. माधुरी ने तुम्हें धोखा दिया. यह क्यों नहीं मान लेते कि वह तुम्हारे लायक थी ही नहीं. आखिर ज्योत्सना में कमी ही क्या है?” “मां, इन बातों का कोई फ़ायदा नहीं है. माधुरी की जगह कोई नहीं ले सकता है. ज्योत्सना बहुत अच्छी है, पर क्या वह माधुरी के रूप और सौंदर्य के आगे कहीं टिकती है? क्या वह माधुरी जैसी स्मार्ट है?” “आख़िर उसके रूप और स्मार्टनेस ने तुझे क्या दिया? स़िर्फ धोखा न? उसमें गुण होते तो तेरे प्यार की कद्र करती, तुझे सहारा देती, न कि तेरे से ़ज़्यादा पैसेवाले के पास चली जाती. उस जैसी महत्वाकांक्षी लड़कियां ऑफ़िस के बंद चैंबरों में तो अच्छी लगती हैं, पर घर के आंगन में नहीं. तुम प्यार और विश्वास की नींव ज्योत्सना के साथ ही रख सकते हो. उसे अपनाने की कोशिश तो करके देखो.” “मुझसे नहीं होगा मां.” कहकर उमेश अंदर कमरे में चला गया. आंसुओं के वेग को रोकने की नाकाम कोशिश करती ज्योत्सना जड़ हो गई थी. जब शांता की नज़र उस पर पड़ी तो वह सकपका गईं. नज़रें मिलाने का साहस नहीं हुआ. ज्योत्सना ने उन्हें ऐसे देखा मानो पूछ रही हों कि सब कुछ जानते हुए भी आपने मेरे साथ यह अन्याय क्यों होने दिया? बेटे को सुख देने की चाह में किसी और की बेटी के सपने बदरंग क्यों कर दिए? उसे मोहरा बना अपने बेटे से कह रही हैं कि हारी हुई बाज़ी जीत ले. यह मुमकिन है क्या? ज्योत्सना समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे? चीखने-चिल्लाने या किसी को दोषी ठहराने से तो कोई फ़ायदा नहीं था. “बेटा, उमेश को थोड़ा व़क़्त दे. समय की हवा गुबार को उड़ा ले जाती है.” शांता देवी ने उसे सांत्वना देने की कोशिश की तो वह फफक उठी, “पति का प्यार और साथ पाए बिना मैं आख़िर किस अधिकार से यहां रह रही हूं. क्या स़िर्फ आपकी बहू बनकर रहना ही काफ़ी है? मुझे मायके जाने की इजा़ज़त दें.” “तुम इस घर की इ़ज़्ज़त हो, यही तुम्हारा सबसे बड़ा अधिकार है. मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं, लेकिन इतना ज़रूर कहूंगी कि तुम्हें अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए. हिम्मत हार कर मायके चले जाने से स़िर्फ दूरियां ही बढ़ेंगी. हम तुम्हारे साथ हैं, एक कोशिश तो की ही जा सकती है.” “पर उन्हें तो मेरे रंग-रूप से भी चिढ़ है. क्या माधुरी बेहद सुंदर थी? मुझेे उसके बारे में कुछ बताएं.” “वह एक बंद अध्याय है, यह जान लो वह एक आंधी की तरह आई थी, जो हमारा सुख-चैन और विश्वास उड़ाकर ले गई. वह सुख को पैसे से तौलती थी, इसलिए जब उसे रईसजादा मिला तो उसे उमेश का प्यार ठुकराते पल भर नहीं लगा.” ज्योत्सना को लगा कि एक कोशिश करने में तो कोई हर्ज नहीं है. उमेश उससे दूर रहने की कोशिश करता तो भी वह सहज बनी रहती. कोई बात भी करती तो यह एहसास ज़रूर दिला देती कि ज़रूरी है, इसलिए कर रही है. बात करते-करते धीरे-से मुस्कुरा देती और ऐसा दिखाती मानो वह स्वाभाविक था. उसके कहने से पहले ही उसके सारे काम कर देती. उमेश उसे अपने आसपास देख झुंझलाता तो ऐसे दिखाती कि उसकी बेरुखी का उस पर कोई असर नहीं हो रहा है, वरन् गुनगुनाने लगती. उमेश हैरान हो जाता. वह उसके साथ ढंग से बात भी नहीं करता, फिर भी वह कोई शिकायत नहीं करती. मां और बहन ज्योत्सना के रूप और गुण की तारीफ़ करतीं तो वह चिढ़ जाता. आख़िर क्यों उन्हें ज्योत्सना में कोई कमी नज़र नहीं आती थी? ज्योत्सना जानती थी कि वह साधारण शक्ल-सूरत की लड़की है. वह कई बार शीशे में जाकर स्वयं को निहारती. उसे सुंदर बेशक नहीं कहा जा सकता था, पर उसकी सांवली रंगत में भी एक कशिश थी. उसकी आंखों की गहराई में किसी को भी अपने मोहपाश में बांध लेने की क्षमता थी. लंबी ज़ुल़्फें जब कमर तक लहरातीं तो लगता रेशम का गुच्छा-गुच्छा बिखर गया हो. तराशी हुई काया पर सलीके से बंधी साड़ी में वह बहुत शालीन लगती. ज्योत्सना जब भी उमेश के सामने पड़ती, वह माधुरी से उसकी तुलना करने लगता और तब यही सोचता कि माधुरी के सामने यह तो कुछ भी नहीं है. बस, फ़र्क़ है तो दोनों के व्यवहार और सोच में. माधुरी की बात नहीं मानता था तो वह ग़ुस्सा हो जाती थी और ये सब कुछ सह लेती है. वह उसे बहुत चाहता था, पर फिर भी उसने उसके प्यार की कद्र नहीं की. लेकिन ज्योत्सना से विवाह करने के बावजूद न तो वह जुड़ पाया है और न ही ऐसा सोच सकता है कि कभी उसे प्यार कर पाएगा, फिर भी उसकी आंखों में प्यार और विश्वास की एक चमक दिखाई देती है. “तुम माधुरी और ज्योत्सना की तुलना करना छोड़ दो. प्यार की बेल इस तरह नहीं सींची जा सकती. हर बेल का रंग-रूप अलग-अलग होता है और उसी के अनुसार वह फल-फूल देती है. बस, कुशल हाथों की छुअन और चाहत की खाद ही उसे संवार सकती है.” मां को जब भी मौक़ा मिलता, उमेश को समझाने लगतीं. सुकून की तलाश और प्रेम की चाहत उमेश के अंदर धीरे-धीरे मचलने लगी. वह हमेशा इस बात से डरता था कि कहीं शादी के बाद उसकी पत्नी उसकी उपेक्षा से परेशान न हो जाए, ज्योत्सना घर की शांति न भंग कर दे, पर उसका धैर्य और घर के बाकी लोगों के प्रति सम्मान व समर्पण उसे कहीं छूने लगा था. वह उसके व्यवहार से उसके प्रति खिंचने लगा था. उसके कमरे में आने पर अब वह जल्दी से भाग जाने की आतुरता नहीं दिखाता था. चोरी-चोरी उसे देखता. उसका सांवला रूप, बड़ी-बड़ी आंखें और निश्छल मुस्कान उसे बांधने लगी थी. वह लाख उससे दूर रहने का दिखावा करता, पर उसका साथ पाने के लिए उसका मन लालायित रहने लगा था. हालांकि खुलकर प्यार करने या जताने में वह हिचकिचाहट महसूस करता था. हर बार माधुरी की याद, उसकी बेवफ़ाई उसे ऐसा करने से रोक लेती थी. पर व़क़्त की हवा के साथ बहते-बहते कब ज्योत्सना उसके मन में बस गई, इसका एहसास उसे स्वयं न हो सका. अपने जीवन की गुत्थियां सुलझाने के चक्कर में ज्योत्सना विवाह के बाद एक बार भी मायके नहीं जा पाई थी. बस, कुछ देर के लिए पग फेरने गई थी. इधर उसके भाई-बहन और माता-पिता सब उससे मिलने को आकुल थे. फ़ोन पर ही उनकी बात होती थी, पर उतना ही तो काफ़ी नहीं था. एक दिन भाई उसे लेने आ पहुंचा. “भइया, कम से कम ख़बर तो करते, यूं इस तरह मैं कैसे जा सकती हूं?” “क्या करता, इतना बुलाने पर भी तुम नहीं आईं तो मां ने मुझे भेज दिया. उन्हें तुम्हारी बहुत फ़िक्र हो रही है. इस बार तो तुम्हें साथ चलना ही होगा.” ज्योत्सना ने बहुत मना किया, पर सास ने इजाज़त दे दी. उस समय उमेश घर पर नहीं था और वह उसे बिना कुछ कहे जाना नहीं चाहती थी. इधर वह कुछ दिनों से उमेश में बदलाव महसूस कर रही थी. वह अभी उसके साथ ही रहना चाहती थी. अपने हिस्से का प्यार और अधिकार पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी, यहां तक कि मायकेवालों का मोह भी बौना हो गया था. भाई की ज़िद के आगे उसे झुकना ही पड़ा. उमेश को जब यह बात पता चली तो उसने सोचा, चलो चैन से कुछ दिन गुज़ारेगा. कमरे से बाहर कहीं और शरण तो नहीं लेनी पड़ेगी. दो दिन ही बीते थे कि घर के लोग उसको बुलाने की बात करने लगे. उदासी की एक परत हर ओर बिछ गई थी. घर में सब लोग थे, फिर भी एक का न होना क्या इतना खल सकता है? उमेश भी अपने भीतर एक रिक्तता महसूस करने लगा. वह बेशक ख़ामोश रहता था, पर ज्योत्सना उससे बातें करती रहती थी. कमरे और घर में छाई रहने वाली चुप्पी उसे तंग करने लगी. वह ख़ुद हैरान था इस परिवर्तन से. उस दिन सुबह वह जब नाश्ते की टेबल पर बैठा तो अचानक उसके मुंह से निकला, “ज्योत्सना, आज कॉफी पीने का मन है.” वही नहीं, बाकी लोग भी हैरान रह गए. यह तो विडंबना ही है कि मृग अपने में बसी कस्तूरी को हर जगह ढूंढ़ता रहता है. क्या उमेश के अंदर भी ज्योत्सना कस्तूरी की तरह बस गई थी? “वह जब थी तो कद्र नहीं की, अब...” मां कुछ कहते-कहते चुप हो गईं तो उमेश का मन हुआ कि पूछे कि अब क्या हो गया है. पर हिम्मत न जुटा सका. “वह तो लगातार कोशिश करती रही, पर मिला क्या उपेक्षा और तिरस्कार. प्यार को तो प्यार से ही सुरक्षित रखा जा सकता है.” कम बोलने वाले बाबूजी का स्वर भीगा हुआ था. “भइया, क्या फ़ायदा आपका इतने पढ़े-लिखे होने का? भाभी का मान भी न रख सके.” छोटी बहन की बात उसे झकझोर गई. आख़िर ये लोग ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं? ज्योत्सना कोई हमेशा के लिए थोड़े गई है. वह तो मायके गई है. लेकिन कहीं... अनगिनत सवाल और डर उसे कुरेद गए. इन लोगों का इस तरह बोलना... कहीं वह हमेशा के लिए चली तो नहीं गई...? नहीं, इस बार नहीं. फिर से उसके प्यार को चोट नहीं लग सकती है. प्यार, वह स्वयं चौंका. हां, वह ज्योत्सना से प्यार ही करने लगा था. अपना अभिमान, अपने डर और बीती बातों को दफ़न कर उसे ही लेने जाना होगा. वह जिस अधिकार की हक़दार थी, वह उसे देगा. माफ़ी मांगेगा तो निश्चित रूप से वह माफ़ कर देगी. ज्योत्सना का खिलखिलाता चेहरा उसकी आंखों के सामने घूम गया. मन में विश्वास हो तो रास्ते आसान लगने लगते हैं. घरवालों से उसने कुछ नहीं कहा. ज्योत्सना को अचानक आया देख वे कितने ख़ुश हो जाएंगे. वह गाड़ी में बैठने ही वाला था कि मोबाइल बजा. एक चिर-परिचित नंबर देखकर उमेश का मन विचलित हो गया. कांपते हाथों से उसने फ़ोन कान पर लगाया. “देखो, मैं जानती हूं कि तुम मुझसे बेहद नाराज़ हो. लेकिन मुझे अब अपनी ग़लती का एहसास हो गया है. मैं तुम्हारे पास वापस लौटना चाहती हूं.” माधुरी की आवाज़ पहचानने में वह ग़लती कैसे कर सकता था. उसके भीतर अंतर्द्वद्व की फांस चुभती और वह फिर से चकाचौंध भरी मीनारों की ऊंचाई के लोभ में फंसता, उससे पहले ही उसने ‘रॉन्ग नंबर’ कह फ़ोन काट दिया और गाड़ी स्टार्ट कर ली. उसे विश्वास और प्यार से सींची गई नींव की ज़रूरत थी.अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें - SHORT STORIES
सुमन बाजपेयी
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