“ओह! कम ऑन. आरती वो नहीं, तो क्या हम गाएंगे? काश! मेरी भी ऐसी इन-लॉ होतीं.” तभी विनीता बोल उठी, “शिल्पी, हमसे नहीं मिलाओगी अपनी इन-लॉ को? हम लोग तो तरसते हैं कोई बुज़ुर्ग साथ रहे. कितना ईज़ी हो जाता है हमारे लिए भी और बच्चों के लिए भी.” इन बातों से शिल्पी हैरान रह गई. वो सोचती थी कि सभी सहेलियों की चाहत न्यूक्लियर फैमिली ही होगी.
डोरबेल बजी तो शिल्पी चौंक गई. दिन के तीन बजे कौन हो सकता है? दरवाज़ा खोला, तो हैरान रह गई. “दीप्ति तुम? इस समय?”
दीप्ति अधीरता से बोली, “शिल्पी, तेरी इन-लॉ घर में ही हैं न?”
“हां, वो कहां जाएंगी? मगर...”
“अगर-मगर छोड़, मुझे उनसे ही मिलना है.”
“उनसे?” शिल्पी आश्चर्य से बोली.
“हां, तीज आ रही है न! कितने सालों से ऐसे ही रस्म-सी निभाती आ रही हूं. इस बार सोचा उनसे सारे डिटेल पूछ लूं. कितनी गुणी व जानकार हैं. प्लीज़, चल न उनके कमरे में.” दीप्ति तो जैसे घोड़े पर सवार थी. शिल्पी सोच रही थी कि यहां उसकी सास की कितनी कद्र हो रही है, जबकि उसका ख़्याल कुछ और ही था. दीप्ति के जाने के बाद उसे पुरानी बातें याद आने लगीं.
तीन-चार महीने पहले की बात रही होगी. शाम को ऑफिस से लौटकर रवि सोच में डूबा था. शिल्पी बोली, “क्या हुआ, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? ऑफिस की कोई बात तो नहीं?”
“मेरी तबीयत ठीक है. दिन में सतीश का फोन आया था कि मां की तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती. आजकल कुछ खाती-पीती भी नहीं. जाने क्या सोचा करती हैं.” रवि के स्वर में चिंता व पीड़ा झलक उठी.
“यह कौन-सी बड़ी समस्या है कि तुम इतने चिंतित हो रहे हो. वो लोग कुछ पैसा चाह रहे होंगे. तुम एक-डेढ़ हज़ार रुपए भेज दो और कह दो वहीं सरकारी अस्पताल में दिखा दें. पैसा मिल जाएगा, तो उन लोगों को रास्ता भी ख़ुद ही सूझेगा.” शिल्पी ने दरियादिली की आड़ में समझदारी दिखाई.
रवि की मां पार्वतीजी फैज़ाबाद में एक गांव में रहती थीं. इकलौता बेटा रवि गुड़गांव में अच्छी पोज़ीशन पर था. लक्ज़री अपार्टमेंट में अपना फ्लैट, महंगी कार आदि सब ख़रीद चुका था. कुछ ही दिन पहले पिताजी का निधन होने पर उसने मां को साथ चलने की बहुत ज़िद की, पर उन्होंने ही मना कर दिया कि यहां तुम्हारे पिताजी की यादें जुड़ी हैं. सारा जीवन यहीं बिता दिया, तो बुढ़ापे के दो-चार साल भी कट जाएंगे. गांव में बड़ा खानदानी मकान था, जिसमें चाचा का भी परिवार संयुक्त रूप से रहता था. इसलिए अकेलेपन या खाना बनाने की भी कोई समस्या नहीं थी. खेती-बाड़ी सम्मिलित थी, जिसे उसका चचेरा भाई सतीश देखता था. उसकी पत्नी पूरे घर की देखभाल के साथ मां को भी खाना व दवा देने की सारी ज़िम्मेदारी ख़ुशी-ख़ुशी निभाती थी.
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“नहीं शिल्पी, इतना आसान नहीं है. मुझे लगता है कि पिताजी के बाद मां एकदम अकेली पड़ गई हैं और इस समय उनको हमारी ज़रूरत है. भले ही वो कुछ न कहें, पर मुझे बस इस बात का डर है कि ज़्यादा अकेलेपन की वजह से मां कहीं डिप्रेशन में न चली जाएं. इसलिए सोचता हूं कुछ दिनों के लिए उनको यहीं ले आऊं. कुछ दिन बाद यदि वो चाहें, तो गांव वापस पहुंचा आऊंगा.” रवि ने कहा.
“ऐसा कैसे हो सकता है?” शिल्पी ने तुरंत तेवर बदले. “यहां इस पॉश सोसायटी में उनको कहां रखेंगे और कुल तीन ही तो कमरे हैं. ड्रॉइंगरूम, हमारा बेडरूम और एक बच्चों का कमरा. कहां रखोगे उनको? जगह भी है? और जब बच्चे छोटे थे सहारे के लिए बुलाया था, तब तो आई नहीं और अब बोझा बनने को तैयार हैं.” कटु स्वर में बड़बड़ाते हुए शिल्पी ने अपने सारे तीर एक साथ छोड़ दिए.
“बात समझो शिल्पी. वे मेरी मां हैं, कोई बोझ नहीं और न ही कोई आउटडेटेड फर्नीचर हैं कि पॉश सोसायटी में उनको लाने में शर्म आए और जगह घर में नहीं दिल में होनी चाहिए. जो जी में आए उल्टा-सीधा मत बोलो. उस समय पिताजी यहां आते नहीं और अपने स्वार्थ के लिए पिताजी को गांव में अकेले छोड़कर मां को बुलाना व्यावहारिक नहीं होगा, यही सोचकर मैंने ही उनसे नहीं कहा था, तो इसमें उनका क्या दोष? और फिर वे अभी भी अपनी इच्छा से तो यहां आ नहीं रही हैं, मैं ही ज़िद करके लाऊंगा. और अगर इकलौता बेटा ही संकट के समय काम नहीं आएगा, तो कब काम आएगा? शिल्पी, परिवार इसीलिए होते हैं. माता-पिता, बेटा-बहू, भाई-बहन- ये सब ऐसे रिश्ते हैं कि इनसे ही हमारी ख़ुशियां बढ़ती हैं और दुख घटते हैं. रही बात जगह की, तो वे बच्चों के कमरे में रह लेंगी.” रवि ने ग़ुस्से पर क़ाबू रखते हुए अपने स्वर में कुछ दृढ़ता लाते हुए कहा.
“जब तुमने सब पहले ही सोच लिया है, तो मुझसे क्यों पूछ रहे हो. जो मर्ज़ी करो.” शिल्पी ग़ुस्से में उठकर चल दी. वो जानती थी कि बच्चे अपनी दादी के साथ ख़ुशी-ख़ुशी एडजस्ट कर लेंगे, क्योंकि उनकी दादी का स्वभाव ही ऐसा था. घर-गृहस्थी की समस्या या सिलाई-बुनाई-कढ़ाई हो, विभिन्न व्यंजन बनाना या घर संभालना उनका कोई सानी न था. रवि समर वेकेशंस में रतन, रुचि व शिल्पी के साथ कुछ दिन अपने गांव ज़रूर जाता, ताकि बच्चों को अपने पूरे परिवार को जानने-समझने का मौक़ा मिले. बच्चों को दादा-दादी का स्नेह से परिपूर्ण स्वभाव, खपरैल वाले मकान, खेत-खलिहान, तालाब, बाग़-बगीचे बहुत अच्छे लगते.
रवि अपनी ज़िद से मां को मनाकर ले ही आया. बच्चों ने उनको अपने कमरे में रखा या दिल में यह तो पता नहीं, पर वे उनको हर समय घेरे रहते. एकल परिवारों में शायद टीवी ही बच्चों के सुख-दुख का साथी होता है, परंतु स्कूल से आकर उनको छोटी-छोटी बातें बतानेवाले बच्चे यह तक भूल गए कि घर में टीवी भी है. रात को दादी के एक ओर रतन, तो दूसरी ओर रुचि लेटकर कहानी सुनते-सुनते सोते, वरना पांच वर्षीया रुचि अक्सर शिल्पी के साथ सोने की ज़िद करती थी.
शिल्पी का मन किचन में अधिक न लगता इसलिए जैसे-तैसे निपटाती, पर पार्वतीजी विभिन्न पौष्टिक व्यंजन बच्चों को मान-मनुहार करके खिलातीं. उनको बच्चों का साथ बहुत भाता, बल्कि वे ख़ुद ही बच्चा बनकर कभी उनके साथ लूडो, कैरम बोर्ड सहित अन्य गेम्स खेलतीं, तो कभी बातें करतीं. बच्चे भी चाहते हैं कि मन की बातें किसी से शेयर करें और इसके लिए बड़े-बुज़ुर्ग सबसे अच्छे साथी होते हैं. बच्चों के आर्ट-क्राफ्ट के होमवर्क शिल्पी के सिरदर्द थे, पर पार्वतीजी मनोयोग से करातीं. कुछ लोगों की स्कूली शिक्षा भले ही कम हो, पर मनोविज्ञान का अद्भुत ज्ञान होता है. पार्वतीजी भी भले ही बच्चों को डांटती-फटकारती न थीं, पर परोक्ष रूप से अनुशासन, संस्कार, सद्गुण, सदाचार आदि विकसित कर रही थीं.
उस दिन किटी का नंबर शिल्पी का था. उसने सासूमां को बच्चों के कमरे में ही रहने की हिदायत दी थी. वो नहीं चाहती थी कि उसकी आउटडेटेड सास दिखें और उसकी रेपुटेशन ख़राब हो. शाम के पांच बजे थे कि एकाएक मधुर स्वर गूंज उठा, “ओम् जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें...” शिल्पी असहज होने लगी. “यह क्या शिल्पी?” रूपा ने पूछा ही था कि शिल्पी सफ़ाई देने लगी, “सॉरी. वो मेरी मदर इन-लॉ आई हैं. पुराने ख़्यालों की हैं न, इसलिए आरती-भजन गाती हैं.” उसके चेहरे पर झेंप साफ़ दिख रही थी.
तब तक सोनल ठहाका मारकर बोली, “ओह! कम ऑन. आरती वो नहीं, तो क्या हम गाएंगे? काश! मेरी भी ऐसी इन-लॉ होतीं.” तभी विनीता बोल उठी, “शिल्पी, हम से नहीं मिलाओगी अपनी इन-लॉ को? हम लोग तो तरसते हैं कोई बुज़ुर्ग साथ रहे. कितना ईज़ी हो जाता है हमारे लिए भी और बच्चों के लिए भी.” इन बातों से शिल्पी हैरान रह गई. वो सोचती थी कि सभी सहेलियों की चाहत न्यूक्लियर फैमिली ही होगी, क्योंकि सास-ससुर का साथ स्वच्छंद जीवन में बहुत बाधक होता है.
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सबके कहने से मजबूर शिल्पी पार्वतीजी को बुला लाई. कॉटन की सादी साड़ी और सुनहरे फ्रेम के चश्मे में पार्वतीजी का गरिमामय व्यक्तित्व, ममता से भरी आंखें और आत्मीय मुस्कान से अभिभूत सारी सहेलियां उठ खड़ी हुईं. “बैठो-बैठो तुम सब तो मेरी बेटियां हो.” पार्वतीजी की बात से तो वे सब ऐसे खिल उठीं जैसे सूखी लता पर सावन की वर्षा हो. “जी पहले आप बैठिए.” रूपा की बात सुनकर पार्वतीजी बैठ गईं.
“मांजी, आप कितना अच्छा गाती हैं. कुछ सुनाइए न?” दीप्ति की बात पर पार्वतीजी मुस्कुरा दीं. “अरे बेटा, अब वो स्वर नहीं रह गया, फिर भी कभी सुना दूंगी. अरे, अगले हफ़्ते जन्माष्टमी है. उस दिन भजन-संध्या रख लो. तुम सब भजन सुनाना, तो मैं भी सुना दूंगी.” पार्वतीजी की बात पर सब खिल उठीं. पहली बार ऐसा कार्यक्रम बना था. पार्वतीजी की बनाई रंगोली और
जन्माष्टमी की सजावट तो सब देखते ही रह गए. फिर उन्होंने ढोलक बजाते हुए ऐसे भजन गाए कि समां बंध गया. क्या बच्चे, क्या बड़े सभी देर रात तक आनंदित होते रहे.
अब तो पार्वतीजी जैसे सब की सास, बल्कि मां बन गई थीं. शिल्पी की सहेलियां किसी न किसी बहाने उनको घेरे रहतीं. कभी कोई नए-पुराने व्यंजन सीखता, अचार-सॉस की विधि लिखता, तो कोई त्योहारों की कथा पूछता. कितने ही भजन व लोकगीत वे उनसे पूछकर लिख चुकी थीं. बाज़ार के अचार की आदी सहेलियों को पार्वती के बनाए सिंघाड़े के अचार ने तो दीवाना ही कर दिया था, इसलिए सभी उनसे अचार बनाना सीख चुकी थीं.
दीप्ति की बेटी को सिंथसाइ़जर सीखने का बहुत क्रे़ज था, पर आसपास म्यूज़िक टीचर न होने से मायूस थी. पार्वतीजी को पता चला, तो बोलीं, “कोई बात नहीं, मैं सिखा दूंगी. तुम्हारे विदेशी बाजे और हारमोनियम का की-बोर्ड एक ही तो है.” उसके बाद दो-तीन बच्चे जब-तब सिंथसाइ़जर सीखने पहुंच जाते. एक दिन दीप्ति ने कहा, “मांजी, अगर आप घर पर म्यूज़िक क्लासेस शुरू कर दें, तो कितनी इनकम हो जाएगी.” इस पर पार्वतीजी मुस्कुराकर बोलीं, “अरे बेटा, पैसा क्या करूंगी. मेरी इनकम तो तुम बेटियों का प्यार और इन बच्चों का अपनापन है.”
अपने बेटे के घर व परिजनों के बीच रहकर प्रेम की धूप से पार्वतीजी का अवसाद तो कोहरे के समान तिरोहित हो चुका था. स्वास्थ्य भी सुधर गया था. वृद्धावस्था में अपनों का साथ संजीवनी के समान होता है, जो जीवन को उत्साह से भर देता है और जीने के नए-नए बहाने भी दे देता है. बुज़ुर्ग वैसे ही मग्न हो जाते हैं जैसे कि बच्चे खिलौने से होते हैं. शायद बच्चों और बुज़ुर्गों को एक-दूसरे का साथ कुछ अधिक भाता है, जो आजकल दुर्लभ होता जा रहा है.
रवि भी कुछ दिनों से शिल्पी में बदलाव महसूस कर रहा था कि मां के यहां रहने से शिल्पी ख़ुश ही है. इसलिए रात में जान-बूझकर बोला, “मां का स्वास्थ्य तो सुधर ही गया है, तो क्यों न गांव छोड़ आऊं. तुम भी सोचती होगी कि इतने महीने हो गए और स्वस्थ होने के बावजूद बोझ बनी हुई हैं.”
शिल्पी पुरानी बातों को लेकर ग्लानि महसूस करती थी, परंतु कैसे कहती कि उनके आने से ज़िंदगी बदल गई है. इसलिए परोक्ष रूप से बोली, “लेकिन ऐसा न हो कि वहां जाकर फिर बीमार हो जाएं और तुम परेशान हो जाओ. इसलिए कुछ दिन और रह लेने दो.” रवि छेड़ने के लिए बोला, “फिर सोच लो. मैं तो इसलिए कह रहा था कि तुम अपनी सासूमां से परेशान न हो गई हो?”
इस पर शिल्पी बोली, “ऐसा नहीं है. वे दूसरों जैसी नहीं हैं. गुणी व अनुभवी तो हैं ही, अपने व्यवहार से सबको अपना बना लेती हैं. उनकी वैल्यू मुझे अब समझ आई. मेरी सहेलियों में ऐसी मशहूर हो जाएंगी मैंने कभी सोचा भी नहीं था. बच्चे भी कितने बदल गए हैं. टीवी से तो पीछा छूटा ही, घर की बनी डिशेज़ भी खाने लगे हैं. समय पर सोना, होमवर्क करना और क्लास में रैंक भी कितनी अच्छी आई है. दादी ने तो उनको एकदम बदल ही दिया. रवि उन्हें यहीं रहने दो.” शिल्पी के मुंह से सच निकल ही गया.
“ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी. वैसे मुझे लगता है उनको यहां रोकने की वजह कुछ और ही है.” रवि ने कहा, तो शिल्पी हैरानी से पूछने लगी, “ऐसी और क्या वजह हो सकती है?”
“अरे भाई, अब रुचि यहां सोने की ज़िद जो नहीं करती. अब तुमको पूरी फ्रीडम और निश्चिंतता जो है.” रवि ने शरारती लहज़े में कहा ही था कि शिल्पी ने शरमाकर नाइट बल्ब ऑफ कर दिया.
अनूप श्रीवास्तव