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कहानी- पापा की परी हूं मैं… (Short Story- Papa Ki Pari Hoon Main…)

भावना प्रकाश

“नहीं, लड़कियों की जान बहुत सख्त होती है. उनके लिए व्रत नहीं रखने पड़ते.” दादी ने रोष से कहा. मेरी आंखों में आंसू छलछला आए. बस पापा ने मुझे गोद में उठा लिया.
“परियां भी कहीं रोती हैं? मैं तुम दोनों बहनों के लिए व्रत रखूंगा.” और सच में उसके बाद से पापा ने किसी भी हरछठ पर कुछ नहीं खाया. वो मां के साथ व्रत रखते और शाम को हमारे लिए पूजा करते.

मेरी बेटी जो बड़े ही कौतूहल से खिड़की के बाहर देख रही थी, अचानक बादलों की एक सुंदर आकृति देखकर ख़ुशी से चीखी, “वो देखो स़फेद महल. उसी में परियां रहती हैं न?”
मुझे याद आया कि बचपन में बादलों में बने परियों के देश की कहानी पढ़कर मैं पापा से पूछती, “पापा, मैं परी हूं, तो मेरे पंख कहां हैं? मैं कब उड़ूंगी? आप मुझे लाने के लिए बादलों पर चढ़े कैसे?”
“उफ़! कितना बोलती है ये. हर समय पटर-पटर.” दादी बोल उठती थीं और पापा मुझे हंस कर गोद में उठा लेते और कहते, “पंख पढ़ाई करने से उगते हैं. देखना एक दिन तुम ज़रूर उड़ोगी.” और आज मुझे लग रहा था कि मैं सचमुच की परी बन गई थी. बादलों के ऊपर से उड़कर पापा के पास जा रही थी.
हालांकि ये मेरी पहली हवाई यात्रा नहीं थी. पर्यटन के सिलसिले में जाने कितनी बार हवाई यात्रा की है, पर पति के साथ. लेकिन आज पहली बार अकेले वो भी तीन महीने के बेटे और तीन साल की बेटी को लेकर मैं घर से एयरपोर्ट आई और विमान पर बैठी. मेरी जैसी डरपोक लड़की के लिए ये सचमुच बहुत बड़ी बात थी. मैंने इत्मीनान से पलकें मूंद लीं और मन को बादलों की तरह अतीत के आसमान में खुला छोड़ दिया.
दादी का वाक्य नश्तर की तरह दिल में चुभ रहा था. हालांकि पापा ने तुरंत फोन रख दिया, पर मैं दादी की बात सुन चुकी थी.
“ऊके आवे की बाट न जोहो. छोरा छोरा ही रहे है और छोरी छोरी ही.” अब मेरा और दादी का शीत युद्ध अपने चरम पर पहुंच चुका था. बस हार या जीत बची थी. लेकिन कैसी अनोखी लड़ाई थी ये? लड़ मैं और दादी रह थे और हार-जीत पापा की होनी थी. मुझे लगा कि पापा ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया है मुझे जीतने का संबल देने के लिए. नहीं तो ऐसा क्या था पापा के मन में कि ठीक होने की इच्छा शक्ति नहीं रही? पापा तो हम सब की ही नहीं, सारे ज़माने की प्रेरणा हुआ करते थे. बेबाक़ बिंदास, जुझारू और ज़िंदादिल. मैं बिल्कुल अपने पापा पर ही तो गई थी.
छह महीने पहले पापा की दुर्घटना के बारे में सुना, तो हूक सी उठी कि काश, मैं परी होती और उड़ कर अपने पापा के पास पहुंच जाती. पर मैं परी नहीं थी. सामान्य औरत थी और औरत के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका में थी. ये मेरी दूसरी प्रेग्नेंसी थी. छह माह की प्रेग्नेंसी और इतने सारे कॉम्प्लिकेशंस. ऐसे में डॉक्टर ने मुझे यात्रा की अनुमति नहीं दी. मैं मन मसोस कर रह गई, पर पापा की चिंता मेरा पीछा न छोड़ती. 
दुर्घटना के इन छह महीनों ने पापा को कितना बदल दिया था, ये तो फोन पर पापा की आवाज़ सुनकर ही मालूम हो जाता था. कार दुर्घटना में पापा की पीठ में ऐसी चोट लगी कि वे बिस्तर पर आ गए. दोनों भैया जी जान से सेवा में लगे थे, पर पापा किसी की सुनते कहां थे. पापा की हड्डी जुड़ चुकी थी. आगे का इलाज उस फिज़ियोथेरेपी से होना था जिसके लिए बहुत आत्मबल, इच्छाशक्ति और किसी दृढ़ व्यक्ति के साथ की ज़रूरत थी. पापा ने वो ट्रीटमेंट लेने से इनकार कर दिया था. डॉक्टर का कहना था कि उनका शरीर इलाज स्वीकार नहीं रहा, क्योंकि मन टूट गया है. पापा टूट चुके थे. वो पापा जो मेरी ताक़त थे, मुझे अपनी परी कहते थे.

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भैया, दीदी मुझे ‘पापा की लाडली’ कहकर चिढ़ाते थे. सब जानते थे कि यूं तो पापा सबको प्यार करते हैं, पर मेरी कोई बात वो टाल नहीं सकते.
“और तो और, हम सबका स्कूल साधारण और इसका एडमिशन शहर के सबसे महंगे स्कूल में…” जब छोटे भैया ने ग़ुस्से में एक बार ये कह दिया, तो मम्मी ने सबको बैठाकर पूरी कहानी सुनाई.
मैं पापा की चौथी संतान थी, पर सबसे पहले जिस नवजात शिशु को पापा ने गोद में उठाया था, वो मैं थी. भरे-पूरे संयुक्त परिवार में दादी का वर्चस्व चलता था. जिस ज्योतिष की वो भक्त थीं, उन्होंने बताया था कि मां को पहली बेटी होगी. वो बहुत भाग्यशाली होगी. उसी के भाग्य से उसके बाद सभी बेटे होंगे, इसीलिए दीदी दादी को बहुत प्यारी थी और दोनों भाई इसलिए क्योंकि वो खानदान के चिराग़ थे. पर मुझे उन्होंने अपने गुरु की भविष्यवाणी ग़लत सिद्ध करने के लिए कभी माफ़ नहीं किया. जब मैं हुई, तो मां बहुत कमज़ोर हो गई थीं. दादी ने मुझे गोद में उठाया नहीं. तब पापा ने पहली बार इतने छोटे बच्चे को डरते-डरते बहुत संभाल कर गोद में उठाया और सीने से लगाकर कहा, “ये तो बिल्कुल परी जैसी है.”
और मेरा नाम परी पड़ गया. मेरे होने के कुछ दिनों बाद भी जब मम्मी ठीक न हुईं, तो पापा ने उन्हें डॉक्टर को दिखाया. पता चला कि उन्हें तपेदिक है. नवजात शिशु को छूने की उन्हें सख़्त मनाही हो गई. बस, दादी के लिए वो और मैं निरर्थक कबाड़ हो गए, जिन्हें फेंक दिया जाना चाहिए था. उनकी मंशा भांप कर पापा ने अपनी बीमार पत्नी, चार बच्चों और एक वफ़ादार नौकर के साथ गांव की हवेली छोड़ दी और हम सबको लेकर शहर आ गए. मां के गहने बेचकर घर लिया और बच्चों को टयूशन पढ़ाकर घर चलाना और अपना शोध कार्य शुरू किया. सबसे पहले वे तीनों बच्चों का एडमिशन शहर के सबसे अच्छे स्कूल में ही कराने गए. प्रधानाध्यापक से बहुत विनती की, पर उन्होंने साफ़ कह दिया कि वो केवल नर्सरी में ही प्रवेश लेते हैं. तब उन्होंने
एक दूसरा अच्छा स्कूल देखकर सबका एडमिशन कराया.
पापा के प्रेम और सेवा ने मम्मी को बिल्कुल ठीक कर दिया. छह महीने वो एक नवजात शिशु का पालन-पोषण भी करते रहे. मैं एक पल को भी उनकी गोद से उतरने को तैयार न होती. वे भी मुझे गोद में लिए ही पढ़ने-पढ़ाने के और हर काम करने के आदी हो गए थे. छह महीने उन्होंने माता-पिता दोनों बनकर पाला था मुझे. वे मुझे घंटों बोतल से दूघ पिलाते और गर्मी देने के लिए अपने सीने पर लिटाकर जागते रहते. पर मेरी आंखों में आंसू न आने देते.
डॉक्टर की अनुमति मिलते ही मां ने मुझे गोद में लेना चाहा, पर मैंने उनकी गोदी में जाने से इनकार कर दिया.
मम्मी को लगता था कि अब पापा को थोड़ा आराम मिलना चाहिए, पर उन्होंने मुझे पापा से छुड़ाने की जितनी कोशिश की, मैं पापा से उतनी ही लिपटती गई. पापा ने भी मुझे ख़ुद से अलग करने की कोशिश
छोड़ दी.


“कम से कम मेरा एडमिशन उनके मनपसंद स्कूल में हो जाए, इसलिए सारा समय वे मुझसे अंग्रेज़ी में बात करते रहते.” कहकर मां हंस पड़ी थी.
और मैं पापा का प्रतिबिंब बनने लगी. जन्मदिन पर कुछ अलग-सी ड्रेस लेनी हो या किसी साथी के घर देखा कोई खिलौना, पापा मेरे एक बार कहने पर तुरंत उंगली पकड़ा कर चल देते.
दादी व्रत-त्योहारों पर आती रहती थीं. वे मुझे दिन-रात पढ़ते देखतीं, तो कुटिल स्वर में मां से बोलतीं, “इसे कुछ कामकाज भी सिखाओ. वही काम आवे है छोरियों के. ज़्यादा पढ़ गई, तो छोरा न मिलेगा.” कभी कहतीं कि “कौन सा दहेज बच जावेगा पढ़ा-लिखा कर.” मैं ग़ुस्साने लगती, तो पापा मुझे इशारे से रोक देते. बाद में कहते, “मैं उस दिन का इंतज़ार करूंगा, जब मेरी परियां ख़ुद अपनी योग्यता से अपनी दादी को ग़लत साबित करेंगी. उस दिन हम दोनों मिलकर दादी को जवाब देंगे.”
और मैं उस दिन के इंतज़ार में एक नए जुनून के साथ पढ़ाई में मगन हो जाती. एक बार हरछठ के व्रत में मैंने कौतूहलवश
मम्मी से पूछा, “तुम कुछ खा क्यों नहीं रहीं?” मम्मी कुछ जवाब देतीं, इससे पहले ही दादी बोल उठीं, “तेरे भाइयों की लंबी उम्र के लिए.”
“मेरी लंबी उम्र के लिए नहीं?” मैंने मासूमियत से पूछा.
“नहीं, लड़कियों की जान बहुत सख़्त होती है. उनके लिए व्रत नहीं रखने पड़ते.” दादी ने रोष से कहा. मेरी आंखों में आंसू छलछला आए. बस पापा ने मुझे गोद में
उठा लिया.
“परियां भी कहीं रोती हैं? मैं तुम दोनों बहनों के लिए व्रत रखूंगा.” और सच में उसके बाद से पापा ने किसी भी हरछठ पर कुछ नहीं खाया. वो मां के साथ व्रत रखते और शाम को हमारे लिए पूजा करते. 


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इक्कीसवां साल लगते ही दीदी का हाथ पापा के एक सुलझे हुए समृद्ध दोस्त ने अपने डॉक्टर बेटे के लिए मांगा. दीदी का घरेलू स्वभाव और ख़ुुशी देखते हुए पापा ने हां कर दी. उसके एक साल बाद भैया लोग इंजीनियरिंग पढ़ने हॉस्टल चले गए और घर में रह गए बस तीन प्राणी.
पापा इस छोटे से शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति बन चुके थे. लोग उन्हें अपनी मेहनत के बल पर टयूटर से सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते विश्‍वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष बननेवाले कर्मठ व्यक्ति के रूप में जानने लगे थे. हमारा छोटा-सा घर बंगले में तब्दील हो चुका था, पर उनका रहन-सहन और पहनावा अभी भी वही था. गांव से मिले अच्छे संस्कारों को वे भूले नहीं थे.
मैं लगभग सात साल मम्मी-पापा के साथ अकेली रही. मेरी अनपढ़ मम्मी सोलह साल की उम्र में ब्याह कर आईं और उसके बाद दस साल दादी की तानाशाही में रही थीं. वो विनम्र और कर्तव्यपरायण तो थीं, पर पापा की दोस्त नहीं बन पाईं कभी. इसकी कमी मैंने पूरी की. बाकी तीनों भाई-बहन जब तक घऱ में रहे, वो पापा के स्वयं को स्थापित करने के संघर्ष की व्यस्तता के दिन थे. शायद इसीलिए मेरा पापा से जो दोस्ती का रिश्ता जुड़ा था, वो किसी और से नहीं जुड़ सका था.
सब भाई-बहन मुझे पापा की लाडली कहकर चिढ़ाते. ठीक भी था, सबकी बुनियादी परवरिश गांव में हुई थी, तो वे सुसंस्कारी और आज्ञाकारी थे. और मुझे पापा की उन्मुक्त परवरिश मिली थी, जिसने मुझे बेबाक़, बिंदास और ज़िद्दी बना दिया था. मैं उनसे तर्क कर लेती थी, ज़िद कर लेती थी, लड़ लेती थी, ज़रूरत पड़ने पर उन्हें डांट भी लेती थी.  एक मैं ही थी, जो पापा के साथ चुहल करती थी.
स्कूल के अंतिम वर्ष में ही मैंने तय कर लिया था कि मुझे गणित की व्याख्याता बनना है. उस छोटे से शहर में विश्‍वविद्यालय की पढ़ाई तो बहुत अच्छी थी, पर माहौल अच्छा नहीं था. घर से कॉलेज तक के रास्ते में आवारा लड़कों के कारण लड़कियों का चलना मुश्किल था और कॉलेज के अंदर उनके कारण पढ़ना. फिर गणित की कक्षा में तो तीन ही लड़कियां थीं.
तब मेरा सामना हुआ उस कड़वी सच्चाई से, जिसने मुझे भीतर तक तोड़ दिया. ईव टीज़िंग लड़कियों के ख़िलाफ़ होनेवाले भयानक हादसों के मुक़ाबले ये बहुत छोटा लगता है, पर जिसने झेला है, वही इसका दर्द जानता है. गणित की कक्षा में उस नाकारा लड़के के अहं को क्लास की सबसे होनहार लड़की से आहत हो जाने में समय नहीं लगा. उसके कारण मेरा जीना दूभर हो गया. पहले शादी का प्रस्ताव, न मानने पर कभी बलात्कार, तो कभी एसिड अटैक की धमकी.
संयोग से उन्हीं दिनों शहर में कुछ ऐसी भयानक घटनाएं घट गईं कि हर लड़की के पिता की तरह पापा भी डर गए. उस पर मेरे केस में पुलिस का कहना था, “जब तक कुछ हुआ नहीं, तब तक गिरफ़्तारी संभव नहीं.”
समाज का, उस लड़के के घरवालों का, विश्‍वविद्यालय का गैरज़िम्मेदाराना और लड़की को ही ग़लत साबित करने का रवैया. दादी का वो नश्तर आज तक दिल में गड़ा है, “खुद को चाहे जितना बदल लो, समाज को थोड़े ही बदल सकते हो. लड़की वो पराई दौलत है, जिसकी रखवाली में ही बाप बूढ़ा हो जाता है.”
विश्‍वविद्यालय के पांच साल कैसे बीते, ये या तो मेरा दिल जानता है या पापा का. पापा ने मेरे लिए हर लड़ाई लड़ी, पर मुझे घर से बाहर के काम सिखाने और अकेले बाहर निकलने का आत्मविश्‍वास देने के लिए काम सौंपने की हिम्मत वो न कर सके. उन्होंने मुझे हर चीज़ सिखाई सिवाय अकेले कहीं आने जाने के. शहर की आवारा सड़कों पर, ट्रेन में, बस में मुझे अकेला छोड़ने की हिम्मत वो कभी नहीं कर सके. अंतर्विद्यालयी प्रतियोगिता हो या किसी सहेली की शादी, वो ख़ुद छोड़ने और लेने जाते.
पर मेरी हिम्मत उन्होंने कभी टूटने नहीं दी. मैंने पढ़ाई में दिन-रात एक कर दिया और पापा ने मेरी रखवाली करने और नैतिक संबल बनने में. आख़िर हमारी मेहनत रंग लाई और मैंने पूरे प्रदेश में टॉप किया.
तुरंत ही मेरी एक दूसरे शहर में लेक्चरर की जॉब लग गई. तभी किसी रिश्तेदार ने उसी शहर से उसी विश्‍वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर का रिश्ता बताया, जो पापा को बहुत पसंद आया.
दोनों के घर के बड़ों ने बड़े शौक से चट मंगनी और पट ब्याह रचाया. पापा ने विदाई के समय मुझसे कहा, “जो कुछ मैं तुम्हें नहीं सिखा सका, वो अब सीखना, पर सीखना ज़रूर. बिना बाहर निकलने के, बाहरी कामों के ज्ञान और आत्मविश्‍वास के आर्थिक आत्मनिर्भरता अधूरी है.”
लेकिन कुछ घर और नौकरी की व्यस्तता और कुछ पति का अधिक ही प्यार और देखभाल का स्वभाव, मैं पापा से किए वादे को भूल गई. कई बार उनके याद दिलाने पर कोशिश की, तो पाया कि दहशत के उन पांच सालों में मुझे अकेले बाहर निकलने का फोबिया डेवलप हो चुका है.
“ये तो बिल्कुल मनोरोग की तरह है.” अकेले बाहर निकलने की सोचकर ही मेरे हाथ-पांव कांपते देख एक बार पति को भी लगा. पर जैसा कि अपने देश में होता है, न उन्होंने न ही मैंने किसी तरह के इलाज की ज़रूरत समझी. हमारे ख़ुशहाल और एक-दूसरे का अधिक ही ध्यान रखनेवाले संयुक्त परिवार के कारण ज़रूरत भी नहीं महसूस हुई कभी.


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पापा अक्सर समझाते, चुहल करके चिढ़ाकर भी अकेले मायके आने के लिए मोटिवेट करते. एक बार तो बोले, “तुझसे तो भली तेरी दीदी है, जो अकेले अपनी सारी ख़ुशियां पूरी करने की शॉपिंग करती है और दूसरे शहर से ट्रेन से और कभी कैब करके भी मुझसे मिलने आ जाती है. हर महीने मिल कर जाती है वो और एक तू है जो महीनों लगा देती है अपने पापा से मिलने आने में. क्योंकि तू दूसरों पर निर्भर है.”
वो जानते थे कि ये तुलना मेरे मर्म पर चोट करेगी और मैं आ जाऊंगी. ऐसा हुआ भी, पर फिर निकलनेवाले दिन मुझे चक्कर आने लगे. फ्लाइट बुकिंग कैंसिल करानी पड़ी. चेकअप हुआ, तो पता चला मैं प्रेग्नेंट थी.
मेरी दूसरी प्रेग्नेंसी का चौथा महीना था और देवरानी की पहली प्रेग्नेंसी का पहला. मुझे और मेरे पति को दो साल के लिए विदेश जाने का मौक़ा मिला. ये एक प्रकार का शोध था. पति को तुरंत जाना था, पर मैं एक साल बाद तक का कोई भी समय चुन सकती थी. डॉक्टर ने मुझे इतने लंबे सफ़र की अनुमति नहीं दी. तो तय हुआ कि वे डिलीवरी के बाद जैसे ही मैं सफ़र करने लायक हो जाऊंगी, मुझे लेने आएंगे. लेकिन मेरा शोध देर से शुरू होने से मुझे देर तक वहां रुकना भी होगा. इस बीच उन्हें छुट्टी लेकर वहां रुकना होगा. अतिरिक्त दिनों के वीज़ा में भी झंझट आएगी. अगर मुझे लेने आने के लिए छुट्टी या आगे रहने के लिए वीज़ा मैनेज नहीं हुआ, तो? मैं ये शोध छोड़ने की सोचने लगी. इतना तो तय था कि अकेले वहां जाना और इनके लौटने के बाद अकेले रहना, तो संभव नहीं ही है.
ये प्रॉब्लम्स पापा के कान में पड़ीं, तो बहुत ग़ुस्साए. कहने लगे, “ये शोध है और इसमें चुना जाना तुम लोगों की मेहनत और प्रतिभा का फल हैे. कितनी प्रोन्नतियां जुड़ी हैं इसके साथ. ऐसे में अकेले जाने और रहने की बचकानी चिंताओं में इस स्वर्णिम अवसर को गंवाना कतई ठीक नहीं है.”
तभी पापा के एक्सीडेंट की ख़बर मिली. देवर का देवरानी के साथ रहना ज़रूरी था, पर इस बार कोई फोबिया मुझे अकेले उनसे मिलने जाने से रोक नहीं सकता था, पर डॉक्टर की सख्त मनाही के आगे सब
लाचार थे.
डेस्टिनेशन पर पहुंचने के एनाउंसमेंट की आवाज़ से मैं वर्तमान में वापस आई. इतनी सहजता से दो छोटे बच्चों और सामान को लेकर मैं एयरपोर्ट से कैब लेकर घर पहुंची कि मुझे ख़ुद पर ही आश्‍चर्य हो आया.
घर पहुंचते ही पापा से लिपट गई. मम्मी, भैया-भाभियां बच्चों को संभालकर चाय-नाश्ते के लिए पूछते ही रहे, पर मैं तो पापा से लड़ने में इतनी व्यस्त थी कि किसी की बात सुनने को तैयार ही न थी. आख़िर पापा हाथ जोड़कर अपने पुराने अंदाज़ में मुस्कुराए, “अच्छा मेरी मां, तू जीती मैं हारा. तू बस हाथ-मुंह धोकर कुछ खा ले और बच्चे को फीड करा दे. और हां ये जो फिजियोथेरेपिस्ट आता है न, बड़ा नालायक है. तू ऐसा कर कि यहां के सभी…”


“मैं सब समझ गई पापा, मैं सब कर दूंगी, फिर तो आप मेरी बात मानेगे न?”
“बिल्कुल, अब से जैसा तू कहेगी, वैसा ही करूंगा.” मैंने जीत की ख़ुशी में पापा को ताली दी और उठ खड़ी हुई.
भतीजी की स्कूटी उठाई और नेट से सर्च किए शहर के फिजियोथेरेपिस्ट्स से मिलने निकल पड़ी. मुझे पता था कि उनसे बात करके उनका सेटअप देखकर पर्सनली मिलकर मुझे उनकी प्रतिभा, क्षमता और संवेदनशीलता को समझना है.
इस काम में मैं एक्सपर्ट थी. शहर के लगभग सभी थेरेपिस्ट से मिलने के बाद जो मुझे सबसे अच्छा लगा, वो घर जाकर काम नहीं करता था. उसका अपना वेल सेटिल्ड क्लीनिक था. सभी मशीनें आधुनिक और बहुत अच्छी हालत में थीं.
मैंने तय कर लिया एक महीने पापा को एंबुलेंस से यहां ले आऊंगी. थेरेपी, रिलायबल एंबुलेंस आदि सब सेटल और बुक करके मैं बेटे को फीड कराने के अगले टाइम यानी तीन घंटे से पहले लौट भी आई.
“एंबुलेंस क्यों? अपनी कार में जाऊंगा.” पापा ने नाक-भौं सिकोड़ी.
“ठीक है, मैं कल से…” भैया की बात बीच में काटकर पापा ग़ुस्साए, “अब छुट्टियां बची भी हैं तेरे पास? ये क्यों नहीं ले जा सकती? ड्राइविंग लाइसेंस तो लाई है न?” कहते हुए वे मेरी ओर मुख़ातिब हुए.
“हां पापा, लाई तो हूं…” मेरी आगे कोई बहस करने की हिम्मत न हुई.
“इतनी स्ट्रॉन्ग विल पॉवर के इनसान को ठीक होने में दो हफ़्ते से ज़्यादा नहीं लगेगा.”  पहले ही दिन थेरेपिस्ट बोला, तो मैं ख़ुशी से उछल पड़ी. घर आकर अपनी उपलब्धि पर पापा को जीत की ताली दी, तो वे बोल उठे, “अब तो तुझे यक़ीन हो गया न कि तू अकेले विदेश जा सकती है और दामादजी के लौट आने पर भी अपना शोध पूरा होने तक बच्चों के साथ अकेले वहां रह सकती है. किसी द़िक्क़त के आने पर अकेले मैनेज कर सकती है?” मुझे झटका सा लगा.
अब इस मुलाक़ात में पहली बार मैंने पापा का चेहरा ध्यान से देखा. वही ममता और आत्मविश्‍वास से भरी मुस्कान, स्नेह से दमकता, सरल चेहरा. कहीं आत्मबल की कमी, मन के टूट जाने या इच्छाशक्ति के ख़त्म हो जाने के कोई संकेत नहीं. तो क्या मेरा फोबिया ख़त्म करने के लिए पापा इतने महीनों से बिस्तर पर थे? तो क्या मेरी अधूरी शिक्षा पूरी करने के लिए मेरे सामने ये परीक्षा रची थी? मुझे दादी से जिताने के लिए उन्होंने ज़िंदगी से हार जाने का नाटक रच डाला था… डॉक्टर कहते थे कि अगर हड्डी जुड़ने के कुछ माह बाद तक ये थेरेपी पूरी न हुई, तो हो सकता है पापा को ताउम्र झुककर चलना पड़े. पापा के चेहरे पर साफ़ लिखा था कि उनकी ममता को मुझे तनकर चलना सिखाने के लिए ख़ुद सारी उम्र झुककर चलना पड़ने का जोख़िम उठाने का कोई अफ़सोस नहीं था.

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