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कहानी- सही शिक्षा (Short Story- Sahi Shiksha)

"घर में बड़ों को इज़्ज़त दो. उनका स्थान ऊंचा है, ऊंचा ही रहने दो. अपनी बराबरी में मत तोलो. रिश्ते जोड़ने से जुड़ते हैं और तोड़ने से टूटते हैं, यह तो तुम जानती हो. ज़िंदगी को हंसते-खेलते गुज़ारना चाहती हो तो रिश्तों को जोड़ना सीखो."

गायत्री देवी ने गौर किया, जब से विभा ससुराल से आई है. हर वक़्त खोई खोई रहती है, न हंसती है, न कुछ बात करती है, बस दिनभर लेटी रहती है. बेटी की ऐसी हालत देखकर गायत्री देवी का मन शंकाओं से घिर गया. कहीं ससुराल में किसी से झगड़ा तो नहीं हो गया, कहीं जयंत ने तो कुछ नहीं कह दिया? अभी उसे विदा किए हुए ही सिर्फ़ छह महीने ही हुए थे. इन छह महीनों में विभा तो जैसे मुरझा गई थी. श्रीकांत ने तो पूरी छानबीन करके ही विभा की शादी तय की थी, फिर ऐसी क्या बात हो सकती है कि विभा इतनी परेशान है.

गायत्री देवी ने देखा, विभा अब भी तकिए के बीच मुंह गड़ाए लेटी थी. उन्होंने उसके बालों में धीरे-धीरे हाथ फेरते हुए पूछा, "विभा, अपनी मम्मी को बताओगी नहीं कि तुम क्यूं परेशान हो. इस तरह चुपचाप ख़ामोश रहने से, अपने आपको अंदर ही अंदर जलाने से क्या किसी समस्या का हल निकल सकता है. तुम तो एक पढ़ी-लिखी लड़की हो और यह अच्छी तरह जानती हो कि किसी भी समस्या का हल आंसू नहीं है.

आज तुम इस क़ाबिल हो कि अपनी समस्या सुलझा सकती हो. और संघर्ष ही तो जीवन का नाम है. जो संघर्ष करके हंसते हुए जीता है, वो ही सही मायने में ज़िंदगी जीता है, और जो आंसू बहाना ही ज़िंदगी समझता है, उसका जीना व्यर्थ है. चलो उठो, अपने आंसू पोंछो और मुझसे नज़रें मिलाकर बताओ कि क्यों तुम इस तरह से मायूस हो गई‌ हो?"

गायत्री देवी की बातें विभा पर असर कर गईं. वह आंसू पोंछते हुए उठी. एक नज़र अपनी मम्मी पर डाली, फिर नज़र नीचे करके तकिए पर उंगली फेरते हुए कहने लगी, "मां, मेरे ससुराल में मेरी कोई अहमियत नहीं है. वहां मेरा कोई स्थान नहीं है. सब लोग मुझसे बहुत दूर हैं."

विभा को बीच में टोकते हुए गायत्री देवी ने पूछा, "यह तुम कैसे कह सकती हो कि ससुराल में तुम्हारी कोई अहमियत नहीं."

"हां मां, यह सच है कि ससुराल में मेरी कोई अहमियत नहीं है. जयंत की नज़रों में मैं अच्छी बीवी नहीं हूं. हर वक़्त तू तू मैं मैं होती रहती है. वहां हर फ़ैसले, हर बात जेठानी यानी भाभीजी से पूछकर किए जाते हैं, पूरे घर में उन्हीं की हुकूमत चलती है. जयंत के लिए तो भाभीजी ही सब कुछ हैं. उनके दिल में मेरे लिए कोई जगह नहीं है. महीने का पूरा वेतन वे भाभीजी को ही देते हैं, जैसे मैं उनकी पत्नी नहीं कोई गैर हूं.

यह बात सच है कि वे लोग मुझसे व्यवहार भी गैरों के जैसा ही करते हैं. अपनेपन से कोई मुझसे बात नहीं करता. वे लोग आपस में बहुत प्यार से और हिलमिल कर रहते हैं, पर मुझे उसमें शामिल नहीं करते. तन्हाइयों से भरा व्यर्थ जीवन गुज़ार रही हूं मम्मी में वहां." और विभा कहते-कहते रुक गई.

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"हां तो फिर, आगे कहो, में पूरी बात जानना चाहती हूं."

"मम्मी मेरे भी कुछ सपने थे, इच्छाएं थीं, पर अब तो ऐसा लगता है सारे सपने टूट चुके हैं. सारी इच्छाएं मर चुकी हैं. बस यही सोचती रहती हूं कि यह पहाड़ सी ज़िंदगी कैसे गुज़रेगी. शादी के बाद ऐसा भी कोई मुकाम मेरी ज़िंदगी में आएगा मैंने नहीं सोचा था." और विभा अपना चेहरा दोनों हथेली के बीच लेकर फूट-फूट कर रोने लगी.

गायत्री देवी विभा की सब बातें शांत मन से सुन रही थीं. कुछ पल सोचने के पश्चात उन्होंने विभा से कहा, "जाओ मुंह धोकर आओ, और मेरी कुछ बातें सुनो. मेरी बातों से शायद तुम्हें कोई रास्ता नज़र आए या तुम कोई फ़ैसला कर सको."

विभा आश्चर्य से गायत्री देवी की ओर देखने लगी. उनके कहने का अंदाज़ ऐसा था कि उसे लगा कि दो मज़बूत हाथों का उसे सहारा मिल गया हो. वह उठी और पानी के छीटें चेहरे पर डालकर, तौलिए से पोंछकर मां के पास आकर बैठी.

गायत्री देवी विभा की ओर देखकर कहने लगी, "देखो विभा, तुम्हारा कहना मैंने सुना, पर मुझे ऐसे लग रहा है कि तुम ग़लतफ़हमी और नासमझी की शिकार हो रही हो और शादी के बाद जो ग़लतियां अक्सर लड़कियां करती हैं, वही ग़लतियां तुम कर रही हो."

विभा आश्चर्य से गायत्री देवी की ओर देखने लगी और बोली, "यह क्या मम्मी, तुम भी मुझे ही दोषी मान रही हो, जब कि मेरा दोष कुछ भी नहीं है."

"देखो विभा, बेटियों की ग़लतियों पर पर्दा डालकर उनका हरा-भरा उपवन उजाड़ डालते हैं हम. रिश्तों को सुलझाने के बदले उलझा लेते हैं हम, और फिर क़िस्मत को कोसते हुए सारी ज़िंदगी रोते रहते हैं. परेशानियों से दूर भागते हैं हम. उन्हें समझकर उनका मुक़ाबला नहीं करते. तभी तो कहते हैं पहाड़ जैसी ज़िंदगी कैसे गुज़ारेंगे.

अब देखो, तुमने कहा कि सारे घर में भाभीजी की हुकूमत चलती है, तुम्हें उस घर में गए हुए सिर्फ़ छह-सात महीने हुए हैं. जबकि तुम्हारी जेठानी को उस घर में आए हुए क़रीब दस साल हो गए हैं. तुम्हारे सास-ससुर की मौत के पश्चात जयंत को उन्होंने अच्छे संस्कार और अच्छी शिक्षा दी है. जयंत भी अपनी ज़िम्मेदारी और कर्तव्य को जानता है. उसे उनके स्नेह का एहसास हैं."

गायत्री देवी उठकर दो कप चाय बनाकर लाई. एक कप विभा को देते हुए कहने लगीं, "विभा, तुम अपने स्वार्थ के लिए जयंत को अलग रहने के लिए कहती हो. तुम्हारे सपने क्या थे, तुम्हारी इच्छाएं क्या थीं, यह तुम्हारी मां होने के नाते मैं अच्छी तरह जानती हूं. तुम्हारा सपना था... तुम्हारा एक घर हो, जिसमें सिर्फ़ तुम व तुम्हारा पति हो. परिवार के झमेलों से तुम दूर रहना चाहती थीं. तुम्हें संसार में किसी की दख़लअंदाज़ी पसंद नहीं थी. तुम अपने मुताबिक़ पति को ढालना चाहती थीं. अपनी सहेलियों के साथ मौज-मस्ती तुम्हारे जीवन का उद्देश्य था. अपने शौक पूरे करने के लिए तुम अपने पति की कमाई पर पूरा अधिकार जताना चाहती थीं. यही सपना था न तुम्हारा शादी के बाद का?"

गायत्री देवी के सवाल का कोई जवाब नहीं था विभा के पास. गायत्री देवी ने ख़ामोश विभा की ओर देखा और समझाते हुए कहा, "विभा, जयंत तुमसे अलग हो

सकता है, पर उस परिवार से नहीं. उस परिवार से उसे जो निःस्वार्थ और निश्छल प्यार मिला है वह प्यार आज तक तुम उसे नहीं दे पाई. पति-पत्नी के रिश्ते में ज़रूरी होता है एक-दूजे के प्रति विश्वास, प्यार, भावनाओं का सम्मान, ज़िम्मेदारी का एहसास. कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. उस परिवार ने तुम्हें अपनाया है, पर तुम उस परिवार को नहीं अपना सकी.

मैं चाहती हूं कि तुम अपनी ज़िम्मेदारी व कर्तव्य को समझो और उसे पूरा करने की कोशिश करो. जयंत के कामयाबी की ओर बढ़ते हुए हर कदम पर तुम उसका साथ दो. तुम पढ़ी-लिखी हो, हालात को अच्छी तरह समझ सकती हो और सही रास्ता चुन सकती हो.

घर में बड़ों को इज़्ज़त दो. उनका स्थान ऊंचा है, ऊंचा ही रहने दो. अपनी बराबरी में मत तोलो. रिश्ते जोड़ने से जुड़ते हैं और तोड़ने से टूटते हैं, यह तो तुम जानती हो. ज़िंदगी को हंसते-खेलते गुज़ारना चाहती हो तो रिश्तों को जोड़ना सीखो.

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एक बात कह देती हूं विभा, उस परिवार को तुम जिस दिन अपना लोगी और उनका विश्वास हासिल कर लोगी, जयंत के क़ामयाबी की ओर उठते कदम का रोड़ा नहीं बनोगी. जब उसकी प्रेरणा, उसकी हिम्मत बनकर हमेशा उसके कंधे से कंधा मिलाकर चलोगी, तभी इस घर में पैर रखना, तब तक इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए बंद हैं."

विभा को लगा कि मां उसे ही हर तरह से दोषी मान रही है. उसके दर्द को समझने की बजाय उस पर और प्रहार कर रही हैं. वह तो यह सोच रही थी कि मां उसे गले लगाएंगी. उसके दर्द को समझते हुए उसके ससुरालवालों के ख़िलाफ़ कुछ कहेंगी, पर मां ने उसे ही दोषी माना. यह सोचकर उसे मां पर बहुत ग़ुस्सा आया. वह उठी, साड़ी ठीक करके बिखरे बाल संवारे और बैग उठाते हुए कहा, "मैं जा रही हूं. मैं यह भूल गई थी कि अब यह घर मेरा नहीं रहा. शादी के बाद मां-पिता के लिए बेटी बेगानी हो जाती है."

गायत्री देवी कुछ कहती, इससे पहले ही विभा वहां से निकल पड़ी. वह मन-ही-मन सोचने लगी, इससे ज्यादा तो वह जयंत के पास ही ख़ुश थी. बस में बैठे-बैठे वह अनेक विचारों से घिर गई. क्या ग़लती उसी की है? सच ही तो कहा था मां ने, जयंत उस परिवार को छोड़ नहीं सकता. उस परिवार में ही उसकी ख़ुशियां है. क्या अलग रहकर ख़ुद की ख़ुशी के लिए वह जयंत की ख़ुशियां छीन लेगी. कितना प्यार करता है जयंत अपने भाई-भाभी को. और उतना ही प्यार वे दोनों उसे करते हैं. भाभी तो ख़ुद के बच्चों की तरह प्यार करती हैं जयंत को. उस प्यार में न स्वार्थ है न दिखावा है सिर्फ़ प्यार है, जैसे उसके कुछ ख़्वाब हैं, इच्छाएं हैं, भाभी के भी कुछ ख़्वाब, कुछ इच्छाएं रही होंगी, मगर उन्होंने परिवार को ही ज़्यादा अहमियत दी.

उनका सब कुछ उनका परिवार था. घर के सदस्य का दुख उनका अपना दुख था. तभी तो भाभीजी सभी के दिलों पर राज करती हैं. विभा ने अपने आप को बदलने का प्रण कर लिया और वह भाभीजी के नक्शे-कदम पर चल पड़ी.

वक़्त गुज़रता गया. विभा की मेहनत रंग लाई. वह जयंत, भाभीजी, बच्चे सब की दुलारी बन गई. जयंत की सच्ची हमसफ़र व उसकी प्रेरणा बनकर हर सुख-दुख में उसका साथ दिया. हर कार्य में चाहे वह ऑफ़िस का हो या घर का उसने जयंत को पूरा सहयोग दिया. जयंत अपने भाई की सहायता से एक फैक्टरी का मालिक बन गया.

कल उसकी फैक्टरी का उद्घाटन समारोह था. उनके सभी रिश्तेदार और क़रीबी मित्र उस समारोह में शामिल होने वाले थे. आज उसे मम्मी-पापा की बहुत याद आ रही थी. विभा चाहती थी कि उसके मम्मी-पापा और भाई उस समारोह में शामिल होकर जयंत को उसकी क़ामयाबी पर बधाई दें, पर यह संभव नहीं था. लंबे समय से उसने मम्मी-पापा की कोई ख़बर नहीं ली थी. और न ही उन्होंने उसकी. वह तो नादान थी, क्या उसकी नादानी माफ़ नहीं की जा सकती थी. क्या मां-पिता अपनी बेटी से इसी तरह का बर्ताव करते हैं? पर दूसरे ही पल उसके मन में यह ख़्याल आया. ग़लती तो उसी की है. मां ने ही उसका घर बचाया है. उसका दामन ख़ुशियों से भर दिया है.

जयंत जैसे ही कमरे में आया, उसने विभा को परेशान व गहरी सोच में डूबा हुआ पाया. उसने विभा के क़रीब जाकर उसका हाथ अपने हाथों में लेकर पूछा, "क्या बात है विभा, परेशान नज़र आ रही हो तबियत तो ठीक है ना."

"हां, बस ऐसे ही."

"कुछ बात तो ज़रूर है, जो तुम मुझसे छिपा रही हो. मैंने तुम्हें इतना उदास पहले कभी नहीं देखा. मुझसे कह लेने से तुम्हारे दिल का बोझ कुछ हल्का हो जाएगा, शायद परेशानी भी दूर हो जाए."

"जयंत, मुझे मम्मी-पापा की बहुत याद आ रही है. मैं चाहती थी की इस ख़ुशी के मौक़े पर वे भी शामिल होकर तुम्हारी कामयाबी पर गर्व करें. मुबारकबाद दें. पर... ऐसा नहीं हो सकता, हमने उन्हें कोई ख़बर नहीं की.

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जयंत, जिस मम्मी-पापा ने मुझे बड़ा किया, ढेर सारा प्यार दिया, अच्छे संस्कार एवं अच्छी शिक्षा देने की जिनकी हमेशा कोशिश रही. मैं कितनी ग़लत थी. मम्मी की सही शिक्षा को समझ नहीं सकी उल्टा नाराज़ होकर उनसे इस तरह नाता तोड़ा, जैसे मैं उनकी बेटी नहीं हूं," कहकर विभा अपना चेहरा दोनों हाथों के बीच लेकर सुबकने लगी.

जयंत विभा को अपने सीने से लगाते हुए बोला, "अपने आप को संभालो विभा, इस तरह रोते नहीं हैं."

"कैसे संभालूं? अगर में ग़लत हूं तो मम्मी-पापा तो बड़े हैं, वे मुझे माफ़ नहीं कर सकते? आख़िर मैं उनकी बेटी हूं. अपनी बेटी की नादानी पर क्या इस तरह रिश्ता तोड़ दिया जाता है."

"उन्होंने तुमसे कहां रिश्ता तोड़ा है विभा, रिश्ता तो बेगानों की तरह तुमने उनसे तोड़ा है. वे तो हमेशा तुम्हारी ख़बर लेते रहे, तुम्हें याद करते रहे."

"क्या कह रहे हो जयंत, मम्मी-पापा मेरी ख़बर लेते रहे?" आश्चर्य से जयंत की ओर देखते हुए विभा ने पूछा.

"रुको, मैं तुम्हें कुछ बताता हूं" जयंत उठा दराज खोलकर उसने ख़तों का बंडल निकाला और विभा को देते हुए बोला, "विभा ये सब ख़त तुम्हारे मम्मी-पापा ने मुझे लिखे हैं. वे इन ख़तों द्वारा तुम्हारा समाचार मुझसे जानते रहे. तुम्हें याद करके तुम्हारे लिए वे कितना तरसे हैं, कितना रोए हैं, इन ख़तों द्वारा तुम जान सकती हो. उन्होंने तुमसे कभी रिश्ता नहीं तोड़ा. तुमसे, मुझसे इस परिवार से उन्होंने हमेशा रिश्ता बनाए रखा. मैं तुम्हें यह सब बताना चाहता था, पर उन्होंने मुझे मना कर दिया था."

"पर मम्मी-पापा ने मना क्यों किया, क्या उन्हें मुझ पर विश्वास नहीं था."

"उस वक़्त नहीं था, पर अब है. विभा, वे चाहते थे तुम इस परिवार को अपना परिवार समझो. अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह न मोडकर उसे विश्वास एवं धैर्य से, हंसते-हंसते संभालो और तुमने यह सब किया. आज इस परिवार से तुम इस तरह जुड़ गई हो कि यह परिवार ही तुम्हारा सब कुछ हो गया.

तुमने मुझे वह प्यार, वह ख़ुशियां दीं, जो मैं चाहता था. तुमने हम सब का विश्वास हासिल कर लिया है. तुम्हारी मम्मी का जो सपना था, वह तुमने पूरा कर दिया. विभा तुम चाहती हो न इस ख़ुशी के मौक़े पर तुम्हारे मम्मी-पापा और भाई यहां आए तो वे आ रहे हैं. भैया उन्हें लेने स्टेशन गए हैं."

"सच कह रहे हो न, मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा है. कितनी ख़ुशियां भगवान ने आज मेरी झोली में डाल दी हैं. ओह जयंत, आज में कितनी ख़ुश हूं." अधीर होते हुए विभा बोली.

"अच्छा अब जल्दी से तैयार हो जाओ वे लोग पहुंचते ही होंगे."

गाड़ी का हॉर्न सुनते ही बेताब विभा दौड़ पड़ी. मम्मी-पापा और भाई को देख विभा ख़ुशी के आंसुओं को रोक न सकी. मां की सही शिक्षा से कभी न ख़त्म होने वाली ख़ुशी और प्यार उसे मिल रहा था. वह मां के प्रति और मां की सही शिक्षा के प्रति कृतज्ञ हो गई.

- सौ. अनिता राठी

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