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कहानी- सन्तो (Short Story- Santo)

"भाभी, में इतनी मूर्ख नहीं हूं. तुम अमीर लोग हर बात को रुपयों से क्यों तौलते हो? मेरी तो समझ में ही नहीं आता. भाभी, तुम ऊंची जाति के लोग तो हम लोगों के दुख-सुख में शामिल नहीं होते, पर कम-से-कम हम लोगों को तो अपने दुख-सुख में शामिल होने दो. सुख में ना सही, तो कम-से-कम दुख में ही सही."

सब लोग जैसे उसके सामने बौने हो गए थे. ऐसा नहीं था कि उसने इन सब लोगों के सामने ख़ुद को ऊंचा साबित करने का प्रयत्न किया हो या फिर वह जान-बूझकर इन सब लोगों को नीचा दिखाना चाहती हो. यह सब तो बस अप्रत्याशित ही हो गया था. वह इन सब लोगों के सामने थी ही क्या? कहां ये बड़े मकानों में रहनेवाले, पढ़े-लिखे बड़े लोग और कहां वह..?
उसे बड़ी आशा थी कि प्रदीप की शादी में उसे कम-से-कम एक अच्छी धोती तो ज़रूर मिलेगी. वह कई बार कह भी चुकी थी, "भाभी, प्रदीप की शादी कब कर रही हो?"
सुनकर सरोज को गुस्सा ही आता. उससे अधिक इस जमादारिन को उसके बेटे की शादी की चिंता है? जब भी अपने पैसे लेने आती है प्रदीप की शादी का ज़िक्र ज़रूर छेड़ती है. कई बार तो उसने उपेक्षा से कह भी दिया था, "प्रदीप की शादी की तुझे बहुत चिंता है रे सन्तो! उसकी शादी किसी ऐरे गैरे से तो कर नहीं दूंगी, बहुत सुंदर लड़की मिलेगी तभी उसकी शादी करूंगी. आख़िर इंजीनियर है मेरा बेटा."
सन्तो बेशर्मों की तरह हंसकर बोली, "सो तो हैं ही भाभी, चांद जैसी दुलहन लाना और मैं भी इस बार नेग में अच्छी-सी साड़ी लूंगी, याद रखना."
इसी बात पर कुढ़ती है सरोज. जब देखो मुंह बाए रहती है. पर वह कुछ बोली नहीं. मुंह बनाकर अंदर चली गई. सन्तो भी अब वहां रुकी नहीं, अभी बहुत जगह का काम बाकी रह गया था.
कई बार तो उसने उपेक्षा से कह भी दिया था, "प्रदीप की शादी की तुझे बहुत चिंता है रे सन्तो! उसकी शादी किसी ऐरे-गैरे से तो कर नहीं दूंगी, कोई बहुत सुंदर लड़की मिली तभी उसकी शादी करूंगी. आख़िर इंजीनियर है मेरा बेटा."
सरोज ने कई लड़कियों देखने के बाद आख़िर एक जगह प्रदीप की शादी तय कर दी थी. लड़की पढ़ी-लिखी, सुंदर और सुशील थी. शादी तय होते ही तैयारियां भी शुरू हो गई. पहले मकान की लिपाई-पुताई हुई, फिर बाज़ार से ख़रीददारी शुरू हो गई. बहू के लिए जेवर-कपड़े लेने थे, लड़कियों और दोनों दामादों के लिए भी साड़ियां और सूट के कपड़े लेने थे. सारी तैयारियां भारी उत्साह से हुई. शादी में जी खोलकर ख़र्च किया गया. बहू जब घर में आई, तो शानदार रिसेप्शन भी रखा गया. सब लोग बेहद खुश थे.
जब शादी की गहमा-गहमी ख़त्म हो गई तब सन्तों ने अपनी साड़ी की याद दिलाई, "भाभी, साड़ी अच्छी होनी चाहिए, इस बार ऐसी वैसी साड़ी नहीं लूगी."


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"अरे, ज़रा चैन तो लेने दे. देखती नहीं कितना काम पड़ा है घर में? सारा घर अस्त-व्यस्त है."
सारा घर वाकई अस्त-व्यस्त ही पड़ा था.
सरोज सोच-सोचकर परेशान हो रही थी कि ये सारा काम कैसे निबटेगा. नई बहू मुक्ता और प्रदीप हनीमून पर निकल गए थे. पति ने भी आज से ऑफिस जाना शुरू कर दिया था. दोनों लड़कियां भी अपने-अपने घर चली गई थीं. उत्साह ही उत्साह में वह चार दिनों तक लगातार काम में लगी रही. उस समय तो कुछ मालूम नहीं पड़ा, पर अब उसका अंग-अंग दर्द कर रहा था.
वह चाय का एक कप लेकर बरामदे में बैठी ही थी कि सन्तो ने गेट खोलकर अंदर प्रवेश किया. उसे देखते ही वह कुढ़ गई, आ गई फिर से दिमाग़ चाटने. कल ही तो पूरी-कचौड़ी और ढेर सारी मिठाई ले गई थी. अब फिर से साड़ी का पचड़ा लेकर बैठ जाएगी. उसका यही रवैया तो उन्हें अच्छा नहीं लगता.
"भाभी, गए सब रिश्तेदार?" उसने वहीं बैठते हुए पूछा.
" हां… सब गए."
"दोनों बेटियां भी चली गई?"
" हां, वे भी गई."
"भाभी, अब कुछ दिन तो बहुत खाली खाली-सा लगेगा."
" हां, वह तो है."
"भाभी, मैं कह रही थी कि अब मुझे भी निपटा देती.
"क्यों..? कल तू पूरी-कचौड़ी और ढेर सारी मिठाई ले नहीं गई?"
"वह तो ठीक है भाभी, मिठाई तो तुमने भरपूर ही दी, उसकी शिकायत भी मैं नहीं कर रही हूं, लेकिन मेरी साड़ी भी दे देती."
"सन्तो, क्यों दिमाग़ खाए जा रही है? तू देख नहीं रही कि घर कैसा कबाड़खाना बना पड़ा है. अब घर ठीक करूं या तेरे लिए साड़ी लेने बाज़ार जाऊं?" देखती रह गई सन्तो. तो अभी तक उसके लिए साड़ी आई ही नहीं है.
क्या उसके लिए ही साड़ी लाने का ध्यान नहीं रहा? वह बड़बड़ाने लगी, "वाह भई, ये क्या बात हुई भला? मैंने तो पहले से ही कह रखा था कि प्रदीप की शादी में एक अच्छी-सी साड़ी लूंगी. बोलो भाभी, कहा था कि नहीं?" "तो मैं मना कहां कर रही हूं? दूंगी साड़ी.. पर अभी तू जा. तुझसे झकझक करने के लिए मेरे पास समय नहीं है, अभी बहुत से काम करने हैं."
अब सन्तो कर भी क्या सकती थी? मन मार कर रह गई, पर जाते-जाते यह ज़रूर कह गई, "मैं तीन-चार दिन बाद फिर आऊंगी भाभी, मेरे लिए साड़ी गेरूर मंगवा लेना."
सरोज कुछ न बोली और ना ही उसने साड़ी मंगवाई. सन्तो कई बार आई और हर बार उसके हाथ निराशा ही लगी. वह कभी चुपचाप, तो कभी बड़बड़ाती हुई लौट गई, पर सरोज को साड़ी नहीं देनी थी, सो नहीं ही दी. किस बात की साड़ी? काम करती है, तो उसके पैसे लेती है. मेहरबानी तो कर नहीं देती. बात आई-गई हो गई.
महीनों बीत गए. साड़ी की बात आई-गई हो गई. मुक्ता गर्भवती थी, उसे चौथा महीना चल रहा था. पहली बार मां बनने जा रही थी, इसलिए उसकी ख़ूब देखभाल की जा रही थी. सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि एक दुर्घटना घट गई. मुक्ता बाथरूम में नहाने जा रही थी कि अचानक फिसल गई और पेट के बल गिर पड़ी. खून की धार बह चली. सब लोग घबरा गए. फौरन एम्बुलेंस मंगवाकर उसे नर्सिंग होम ले जाया गया. डॉक्टर ने कहा कि फ़ौरन ऑपरेशन करना पड़ेगा.


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मुक्ता को ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया था, तभी एक और परेशानी खड़ी हो गई. डॉक्टर ने ऑपरेशन थिएटर से निकलकर कहा, "मरीज को खून चढ़ाना पड़ेगा, आप में किसी का ब्लड ग्रुप ओ पॉजीटिव है.
सबका ब्लड चेक किया गया, पर किसी का भी ब्लड ग्रुप ओ पोज़ीटिव नहीं निकला.
डॉक्टर ने कहा, "आप शीघ्र ही ओ पॉजीटिव ग्रुप के खून का इंतजाम करिए. मैंने ब्लड बैंक में फोन किया, पर वहां भी इस ग्रुप का खून उपलब्ध नहीं था और जिन दो ओ पॉजीटिव वाले व्यक्तियों को मैं जानता हूं. दुर्भाग्य से वे भी शहर से बाहर गए हुए हैं. अब आप लोग ही अपने परिचितों में कोशिश कीजिए."
प्रदीप और उसके पिताजी भागदौड़ करने लगे. अपने स्थानीय रिश्तेदारों तथा दोस्तों को फोन किए, मगर ओ पॉजीटिव खून किसी का नहीं निकला. जिसका था भी, वे चुप कर बैठ गए. वे सब तरफ़ से निराश हो चुके थे कि तभी सन्तो उधर से गुज़री. उसका घर अस्पताल की तरफ़ ही था. सरोज को अस्पताल के बाहर बेचैनी से टहलते हुए देखकर उसने पास आकर पूछ लिया, "भाभी, क्या बात है? कोई बीमार है?"
सरोज रुआंसी हो गई. उसने सारी बात उसे बता दी. सारी बातें सुनकर सन्तो बोली, "भाभी, रो मत. मैं तो अनपढ़ हूं, पर एक बार मेरे लड़के को खून की ज़रूरत पड़ी थी, तो मैंने अपना ही खून दिया था. डॉक्टर शायद कुछ 'ओ' ग्रुप ही कह रहा था." सरोज को कुछ आशा बंधी. तुरंत उसे लेकर डॉक्टर के पास पहुंची, उसका खून चेक किया गया, तो 'ओ पॉजीटिव ही निकला. सबकी जान में जान आई, तुरंत डॉक्टर ने उसका खून लेकर मुक्ता को चढ़ाया. मुक्ता का ऑपरेशन कर दिया गया. कुछ दिन नर्सिंग होम में रहकर वह घर लौट आई. घर के सब लोगों ने मिलकर तय किया कि सन्तो ने खून देकर मुक्ता की जान बचाई है, इसलिए उसे एक साड़ी और पांच सौ रुपए दिया जाना चाहिए.
दूसरे दिन जब सन्तो साफ़-सफ़ाई करने आई, तो सरोज ने उसे रोक लिया और अंदर से साड़ी और रुपए लाकर उसके सामने रख दिए. सन्तो साड़ी और रुपए देखकर पहले तो ख़ुश हुई, परंतु शीघ्र ही उसके चेहरे पर उदासी छा गई.
"भाभी, क्या तुम मेरे खून की क़ीमत दे रही क्या हो?"
सुनकर सरोज चौंकी. उसे इस प्रश्न की तो सपने में भी आशा नहीं थी. वह तो सोच रही थी कि साड़ी के साथ रुपए भी पाकर सन्तो ख़ुशी से उछल पड़ेगी.
"नहीं… नहीं सन्तो, तुम्हीं तो कितने दिनों से साड़ी मांग रही थी. सच, मुझे फ़ुर्सत ही नहीं मिल पा रही थी. कल बाज़ार गई, तो साड़ी की याद आ गई."
"भाभी, यह साड़ी अगर तुम एक-दो महीने बाद देतीं, तो शायद मैं तुम्हारी बात सच भी मान लेती. इतने दिनों तक तुमको साड़ी की याद नहीं आई और आज तुम साड़ी के साथ रुपए भी दे रही हो. ना, भाभी ना, मेरा खून बेचने के लिए नहीं है.”
"नहीं तू ग़लत समझ रही है सन्तो." सरोज ने उसे समझाने का असफल प्रयास करते हुए कहा.
"भाभी, में इतनी मूर्ख नहीं हूं. तुम अमीर लोग हर बात को रुपयों से क्यों तौलते हो? मेरी तो समझ में ही नहीं आता. भाभी, तुम ऊंची जाति के लोग तो हम लोगों के दुख-सुख में शामिल नहीं होते, पर कम-से-कम हम लोगों को तो अपने दुख-सुख में शामिल होने दो. सुख में ना सही, तो कम-से-कम दुख में ही सही."
सरोज हतप्रभ खड़ी थी और सन्तो कहे जा रही थी, "भाभी, हम लोग तुम लोगों का मैला धोते हैं और तुम लोग पैसा देकर सब हिसाब बराबर कर लेती हो, लेकिन पैसे से क्या हिसाब बराबर होता है? भाभी, मैं यदि तुमको चार गुना अधिक पैसा दूं, तो क्या तुम मेरे घर का मैला धोने के लिए तैयार हो जाओगी? बोलो भाभी…"
सरोज चुपचाप खड़ी रही.
"भाभी, हम लोग आप लोगों के घर की गंदगी साफ़ करते हैं, शहर को साफ़-सुथरा रखते हैं, लेकिन आप लोग हम लोगों को ही सबसे गंदा समझते हैं. ऐसा क्यों है भाभी?"
सरोज को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें और क्या कहे? वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रही.
सन्तो बाहर जाने के लिए खड़ी हो गई थी. साड़ी और रुपए जैसे के तैसे रखे थे. सरोज का मन न जाने कैसा हो रहा था. उसकी इच्छा हो रही थी कि वह सन्तों को रोक कर उसके पैरों पर गिर पड़े, लेकिन वह डर रही थी कि ऐसा करने से कहीं सन्तो का और अधिक अपमान न हो जाए, वह वहीं जड़ सी खड़ी रही. सन्तो गेट के बाहर जा चुकी थी.

- डॉ. राजीव गुप्ता

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