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कहानी- उत्सव मनाओ (Short Story- Utsav Manao)

Hindi Short Story
‘छोटी-सी ज़िंदगी है हर बात में ख़ुश रहो’ साधना गुनगुना रही थी. कितनी सहज है वह... अभी इतनी बहस हुई, उसके बाद भी वह मस्ती से गुनगुना रही है. शायद इसे ही ज़िंदगी जीना कहते हों. उसे भी मैंने कभी खुलकर जीने नहीं दिया, पर फिर भी वह गुनगुनाती रहती है. उसकी चुलबुलाहट कितनी अच्छी है... एकदम खिला-खिला चेहरा... कभी कोई शिकायत नहीं करती... निमेश अपनी सोच में मग्न ही था कि अचानक रोहन आकर बोला, “पापा, ये पाब्लो नेरूदा की कविता की कुछ पंक्तियां हैं, इनका मतलब समझा दो.”
  “देखिए, इस बार कोई बहाना मत बनाइएगा. दीदी के बेटे की शादी में आपको चलना ही होगा और वह भी एक हफ़्ते के लिए. दीदी भी तो फोन पर आपसे कितनी बार आग्रह कर चुकी हैं. मैंने एजेंट को टिकट बुक करने के लिए कह भी दिया है.” “तुम तो जानती ही हो कि मुझे कहीं जाना पसंद नहीं है. फिर इतनी बिज़ी लाइफ में से एक हफ़्ता निकालना भी नामुमकिन है. वैसे भी मैं एक हफ़्ते तक वहां क्या करूंगा. बोर हो जाऊंगा. तुम रोहन और राधिका के साथ चली जाओ, मैं शादीवाले दिन आ जाऊंगा.” निमेश ने कहा, तो साधना एकदम भड़क उठी. “कहीं भी जाना होता है, तो आप हमेशा यही कहते हैं कि बच्चों के साथ चली जाओ. हद होती है किसी बात की. न आप रिश्तेदारों के पास जाना पसंद करते हैं, न ही दोस्तों से मिलना पसंद करते हैं. यूं सारी दुनिया से कटकर रहने से कैसे काम चलेगा. कल को हमारे बच्चों की शादी में कौन आएगा. वैसे भी बात केवल दुनियादारी निभाने की नहीं है, मिलने-जुलने से जीवन में एक उत्साह बना रहता है. आज हम लोगों की जैसी ज़िंदगी हो गई है, उसमें दूसरों के साथ हंसी-ख़ुशी के कुछ पल बिताने से कुछ ऊर्जा संचित हो जाती है, वरना इस भागदौड़ की ज़िंदगी में एक-दूसरे से बात करने का टाइम ही नहीं मिलता. आप अपने बिज़नेस में व्यस्त रहते हैं और बच्चों की अपनी पढ़ाई है.” “बेकार की ज़िद मत करो साधना.” निमेश ने झुंझलाते हुए कहा. “अपने काम को देखूं या मौज-मस्ती करता रहूं. बिज़नेस में हज़ारों परेशानियां होती हैं. इन सबके बीच शादी में एक हफ़्ता ख़राब करना बेव़कूफ़ी नहीं तो और क्या है? फिर कह तो रहा हूं कि शादीवाले दिन आ जाऊंगा. इस बारे में मुझे और कोई बहस नहीं चाहिए.” हमेशा की तरह निमेश ने अपना फैसला सुना दिया था. साधना उसके बाद बड़बड़ाती रही. बच्चों ने भी बहुत समझाने की कोशिश की. “पापा, चलिए न बहुत मज़ा आएगा. मौसी का घर भी बहुत बड़ा है और मौसाजी तो इतना मज़ाक करते हैं कि हम हमेशा हंसते ही रहते हैं. फिर इस बहाने आप जम्मू भी घूम लेंगे.” “तुम्हारे मौसाजी का वह मज़ाक कितना फूहड़ होता है. बेटे की शादी कर रहे हैं, पर मैच्योरिटी बिल्कुल भी नहीं है. बिना बात ठहाका लगाते रहते हैं. पता नहीं कैसे हंस लेते हैं बेकार की बातों पर. आदमी को थोड़ा सेंसिबल होकर बिहेव करना चाहिए.” “पापा, वो ज़िंदगी जीना जानते हैं. छोटी-छोटी बातों में ख़ुशियां ढूंढ़ लेते हैं. ज़रूरी तो नहीं कि हंसने के लिए कोई ठोस वजह ही ढूंढ़ी जाए.” नौवीं क्लास में पढ़नेवाला रोहन समय से पहले समझदार हो गया था. शायद उसे भी निमेश की ऐसी सोच और व्यवहार खलने लगा था. सही भी था. घर के उबाऊ वातावरण में किसका मन लगेगा. हमेशा चुप्पी और गंभीरता चेहरे पर लादे रहनेवाले निमेश के घर आते ही बच्चे अपने कमरे में चले जाते थे. माहौल में एक भारीपन आ जाता था. साधना भी काम में ख़ुद को व्यस्त कर लेती थी, ताकि किसी भी तरह की बहस न हो जाए. वैसे भी अब उसे हर जगह अकेले या फिर बच्चों के साथ जाने की आदत हो गई थी. फ़ायदा भी कुछ नहीं था. निमेश कहीं बेमन से जाते भी थे, तो मुंह लटकाए बैठे रहते थे. इससे सभी का मूड ऑफ हो जाता था. पर इस बार बात अलग थी. उसकी सबसे बड़ी बहन के बेटे की शादी थी. घर में सबसे छोटी होने के कारण वह दोनों भाई-बहन की लाड़ली थी, इसलिए सबको चाव रहता था कि वह उनके यहां आए. वैसे भी शुरू से चुलबुली होने और उसके बिंदासपन के कारण वह जहां भी जाती थी, वहीं रौनक़ आ जाती थी. घर पर तो निमेश के कारण उसे भी सीरियस ही रहना पड़ता था, वरना उनके पीछे बच्चों के साथ तो वह ख़ूब मस्ती करती थी. जब से पता लगा था कि भांजे गौतम की शादी तय हो गई है, उसने मन ही मन कितनी योजनाएं बना ली थीं. कितने चाव से सारी तैयारियां की थीं. बच्चे भी ख़ूब एक्साइटेड थे, लेकिन पापा की बात सुनकर उनका मुंह लटक गया था. “पापा कितने बोर हैं न? न कहीं जाना पसंद करते हैं और न ही किसी का आना. आख़िर वो लाइफ एंजॉय करना क्यों नहीं चाहते? सारा समय बस काम-काम.” राधिका बोली, तो साधना की आंखों में आंसू आ गए. “शुरू से ऐसे ही हैं तुम्हारे पापा. सोचा था, बच्चे हो जाएंगे, तो उनमें कुछ बदलाव आ जाएगा. मुझे घूमने का शौक़ है, पर निमेश कहीं जाना ही नहीं चाहते. कहते हैं कि ट्रैवलिंग थका देती है. क्या रखा है बाहर खाक छानने में. न मूवी देखने जाते हैं, न ही रिश्तेदारों के घर. किसी के घर फंक्शन हो, तो मुझे अकेले ही जाना पड़ता था. अब तुम दोनों के साथ जाती हूं. कितना अजीब लगता है. इसीलिए लोग भी हमारे घर आने से कतराते हैं. यूं सबसे कटकर रहना कोई अच्छी बात नहीं है. हमारी शादी के बाद मायके में यह पहला मौक़ा है, जब किसी की शादी हो रही है. इसमें भी नहीं जाएंगे, तो तुम्हारी मौसी को कितना बुरा लगेगा.” “पापा हंसते भी तो कितना कम हैं. हमेशा गंभीर चेहरा बनाए घूमते रहते हैं. मेरे स्कूल के फ्रेंड्स भी उनका मज़ाक उड़ाते हैं. अगली बार पैरेंट्स-टीचर्स मीटिंग में मां आप अकेले ही आना.” पांचवीं में पढ़ रही राधिका की बात सुन साधना मन मसोसकर रह गई. हालांकि वह निमेश की मनोस्थिति समझती थी. बचपन में ही पैरेंट्स की मुत्यु हो जाने और भाई-बहनों द्वारा अपने हाल पर छोड़ देने के कारण वह अपने में ही सिमट गए थे. ग्वालियर से दिल्ली आकर अपने दम पर पढ़ाई की और बिज़नेस जमाया. बस, इसीलिए वह ऐसे हो गए थे. बचपन में उनसे छीनी गई हंसी-ख़ुशी और लगातार संघर्ष ने उन्हें रूखा बना दिया था. शादी के बाद भी साधना की लाख कोशिशों के बावजूद निमेश के अंदर जमा वह चुप्पी का लावा बाहर नहीं निकल पाया. उन्होंने जो आर्थिक तंगी देखी थी, उसकी वजह से वह पैसे बनानेवाली मशीन बनने पर मजबूर हो गए थे. शायद भीतर एक डर भी था... बच्चों की बातें निमेश ने सुन ली थीं. यह क्या कर रहा है वह... बच्चों और अपने बीच दूरियां खड़ी कर रहा है. उसे मां-बाप का प्यार नहीं मिला, भाई-बहनों का साथ नहीं मिला, तो उसका आक्रोश परिवार पर क्यों उतार रहा है वह... ‘छोटी-सी ज़िंदगी है हर बात में ख़ुश रहो’ साधना गुनगुना रही थी. कितनी सहज है वह... अभी इतनी बहस हुई, उसके बाद भी वह मस्ती से गुनगुना रही है. शायद इसे ही ज़िंदगी जीना कहते हों. उसे भी मैंने कभी खुलकर जीने नहीं दिया, पर फिर भी वह गुनगुनाती रहती है. उसकी चुलबुलाहट कितनी अच्छी है... एकदम खिला-खिला चेहरा... कभी कोई शिकायत नहीं करती... निमेश अपनी सोच में मग्न ही था कि अचानक रोहन आकर बोला, “पापा, ये पाब्लो नेरूदा की कविता की कुछ पंक्तियां हैं, इनका मतलब समझा दो.” निमेश ने हैरानी से उसे देखा. रोहन को साधना ही पढ़ाती थी और बच्चे भी तो उससे कभी पूछते नहीं थे. और कोई दिन होता, तो वह डांटकर उसे भगा देता, पर उनकी बातें अभी तक उसे परेशान कर रही थीं. उसने काग़ज़ हाथ में ले लिया- ‘धीरे-धीरे तुम मरने लगते हो, अगर तुम यात्राएं नहीं करते, अगर तुम अपनी आदतों के दास बन जाते हो, अगर तुम रोज़ाना एक ही पथ पर चलने लगते हो, अगर तुम ढर्रे पर चल रहे दैनिक जीवन में परिवर्तन नहीं करते, अगर तुम भिन्न-भिन्न रंगों के कपड़े नहीं पहनते, धीरे-धीरे तुम मरने लगते हो, अगर तुम उत्साह और जुनून के भावों को नज़रअंदाज़ करने लगते हो.’ जैसे-जैसे निमेश उसे पढ़ रहा था, उसे एक झटका लग रहा था. रोहन इसका मतलब समझने नहीं, बल्कि उसे जीवन का मतलब समझाने आया था. “मैं तुम्हें क्या समझाऊं, तुम मुझसे बेहतर इसका मतलब जानते हो.” निमेश अपने बेटे से ही नज़रें नहीं मिला पा रहा था. “साधना, मेरा टिकट कैंसल मत कराना. मैं भी चल रहा हूं तुम लोगों के साथ, पूरे एक हफ़्ते के लिए.” शादी में साधना हालांकि काफ़ी आशंकित थी कि कहीं निमेश, जीजाजी के मस्तमौला व्यवहार से क्षुब्ध होकर कुछ कह न दें, कहीं चारों तरफ़ फैली ख़ुशियों पर कोई टिप्पणी न करने लगें या फिर मुंह बनाकर ही न बैठ जाएं. लेकिन जीजाजी के मज़ाक पर उसने निमेश को भी ठहाका लगाते देखा, तो केवल वही नहीं, सब हैरान रह गए. बारात में निमेश नाच रहे थे, गौतम से ठिठोली कर रहे थे. एक अलग ही रूप देखा उसने निमेश का. बच्चे पापा को इस तरह देख उनसे लिपट गए. ऐसा लग रहा था कि बरसों से जमा लावा आज बहने को आतुर था. ख़ुशियों को चाहो तो कैसे भी मुट्ठी में भरा जा सकता है, उन्हें खुले आकाश में पंख लगाए उड़ते हुए देखा जा सकता है... उसके रंगों की कोई सीमा नहीं होती. ‘जी खोलकर उत्सव मनाओ मेरे बच्चों.’ कहते हुए निमेश ने राधिका और रोहन को कसकर अपने में समेट लिया. साधना की मुस्कुराहट से मानो असंख्य फूल झर-झरकर धरती पर रंगोली बना रहे थे. suman-bajpai
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           सुमन बाजपेयी
 

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