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कहानी: विवाह- एक यज्ञ (Short Story- Vivah Ek Yagy)

Usha Wadhwa
उषा वधवा

“रिश्ते इतनी आसानी से नहीं तोड़े जाते. विवाह तो वैसे भी दो अलग-अलग व्यक्तित्व वाले प्राणियों को मिलाता है, तो दोनों एक जैसे कैसे हो सकते हैं? तुम दोनों ने तो फिर भी वर्षों एक-दूसरे को जाना है, अधिकांश लोग तो नितांत अजनबी से विवाह करके भी निबाह जाते हैं जीवन पर्यन्त...”

साथ-साथ बड़े हुए थे वह दोनों. आसपास ही घर था. एक जैसे मध्यमवर्गीय परिवार, जहां खींचतान कर आवश्यकताएं पूरी कर ली जाती हैं बस! ऐसे लोगों के सपने भी सीमित रहते हैं एवं कल्पना की उड़ानें भी.

रणबीर के पिता आठवीं कक्षा को पढ़ाते थे. उनके लिए शिक्षा का बहुत महत्व था. स्वयं अधिक नहीं पढ़ पाए, परन्तु चाहते थे कि उनका इकलौता बेटा ख़ूब पढ़-लिख जाए. अनेक कटौतियां कर उसे उन्होंने एक अच्छे स्कूल में पढ़ाया. पत्नी का बहुत पहले देहांत हो गया था और अब उनकी सब इच्छाओं, आकांक्षाओं का केंद्र यही बेटा था.

अपनी सोच एवं हैसियत के हिसाब से ही उन्होंने रणबीर के लिए सपना देखा था कि उनका बेटा बहुत पढ़-लिख कर कॉलेज में प्रोफेसर हो गया है. पीएचडी कर लेना उनके सपने की पराकाष्ठा थी. यह सपना उन्होंने अपने बच्चे के कच्चे मस्तिष्क में इस तरह बिठा दिया कि यही अब उसका भी सपना बन गया था. लंबी और कड़ी मेहनत करके उसने इसे पूरा भी कर लिया.

ताप्ती के पिता उसी स्कूल में बड़ी कक्षाओं को पढ़ाते थे. उनकी दो संतान थीं, ताप्ती और उसका छोटा भाई प्रबुद्ध. दोनों अच्छी शिक्षा पा रहे थे. उनकी मां बंगला भाषी थीं, साहित्य और कला में रुचि रखनेवाली. उनके घर का वातावरण बहुत सुसंस्कृत था. घर में अन्य वस्तुओं की अपेक्षा पुस्तकों ने अधिक स्थान घेरा हुआ था. वार्ता का विषय अधिकतर पुस्तकों के इर्दगिर्द घूमता.

ताप्ती ने यह भी निश्‍चय किया हुआ था कि समय आने पर वह ग़रीब लड़कियों को शिक्षित कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने में सहायता करेगी.

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पात्रों से तो आपका परिचय हो चुका. अब असली कहानी पर आते हैं.

मस्त और ज़िंदादिल, यही थी रणबीर की पहचान. उसके मित्रों की गिनती करना मुश्किल. परंतु अपने से एक वर्ष जूनियर ताप्ती से उसकी मैत्री विशेष थी. पड़ोस में तो रहते ही थे. लक्ष्य भी लगभग समान थे. दोस्ती कब प्यार में बदली, इसकी निश्‍चित तिथि बतला पाना संभव नहीं. पीएचडी समाप्त कर जब रणबीर को व्याख्याता पद की नौकरी मिल गई, तो वह उसके पिता के लिए ख़ुशी के साथ ही गर्व का दिन था. गुरु अपने शिष्य को एवं पिता अपनी संतान को स्वयं से आगे बढ़ा देख गौरवान्वित होता है- यह एक युग सत्य है. और वही गौरव आज रणबीर के पिता को मिला था.

नौकरी लग जाए और परिवारवालों को कोई आपत्ति भी न हो, तो फिर विवाह में देर क्यों? ताप्ती की पीएचडी तो विवाह उपरांत भी पूरी हो सकती थी. ताप्ती की मां बहुत बढ़िया गाती थीं, तो ताप्ती की रुचि लेखन में थी. उसकी अनेक कहानियां सराही जा चुकी थीं और दो कहानी संग्रह भी तैयार थे. कलफ़ लगी सूती साड़ी और एकदम काले लंबे बालों का जूड़ा उस पर ख़ूब फबता.

गरिमामयी और आत्मविश्‍वास से भरपूर थी वह. समान रुचि वाले लोगों से मिलना-जुलना, शहर में मंचित हो रहे नाटक देखना इत्यादि, कुल मिलाकर रणबीर और ताप्ती अपने नए जीवन से बहुत संतुष्ट थे.

ताप्ती की पीएचडी पूरी हुई, तो उसने भी उसी कॉलेज में पढ़ाना आरंभ कर दिया जिसमें रणबीर पढ़ाता था. परंतु इधर जीवन-दर्शन तेज़ी से बदल रहा था. समाज की सोच इस कदर उलट-पलट हो रही थी कि देखकर भौंचक्के रह जाओ. विद्वता का नहीं, धन का सम्मान होने लगा था समाज में. अब सफल व्यक्ति वह था, जो अधिक से अधिक धन कमाने में सक्षम हो- जरूरत से भी अधिक. रणबीर मिलनसार तो था ही, मित्र भी अनेक थे. उस पर बदलती हवा का असर तेज़ी से पड़ रहा था.

रणबीर को पढ़ाई पूरी करने में काफ़ी समय लग गया था और तब तक उसके अनेक साथी ऊंचे मुक़ामों पर पहुंच चुके थे. कुछ पैतृक व्यापार संभाल रहे थे, तो कुछ विदेशों में जा बसे थे. छुट्टियों में वह घर आते तो सब के लिए उपहार लाते. वहां के जीवन की बड़ी-बड़ी कहानियां सुनाते. रणबीर के वह दोस्त जो धक्का लगाकर बामुश्किल ग्रेजुएशन पूरी कर पाए थे, वे अब आलीशान घरों में रह रहे थे, उम्दा गाड़ियों में घूमते और पांच सितारा होटलों से कम की बात न करते.

दसवीं पास लड़के छोटा-मोटा काम करके जितना कमा लेते थे, रणबीर और ताप्ती दोनों मिलाकर भी उतना न कमा पाते. जिस तरह साधारण से कपड़े पर किसी ब्रांड का लेबल लग जाने से उसकी क़ीमत चार गुना हो जाती है और पहननेवाले की प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, उसी तरह ‘धनी’ होने का लेबल लगते ही बेपढ़ा व्यक्ति संभ्रान्त और प्रतिष्ठित हो रहा था. धन का यह बढ़ता वर्चस्व रणबीर को भी आकर्षित करने लगा और उसमें बदलाव आने लगा था.

सखी-सहेलियां ताप्ती की भी थीं और उसे भी मिलना-जुलना पसंद था. परन्तु उसे फ़ालतू का दिखावा और बातें उबाऊ लगतीं. वह अपनी रुचि के लोगों से ही मैत्री रखती थी. समय निकाल कर लेखन भी अवश्य करती. जब उनकी बेटी का जन्म हुआ, तो ताप्ती ने लंबी छुट्टी लेकर उसे स्वयं पालने का निर्णय लिया. बहुत अच्छा लग रहा था उसे अपनी बिटिया केया का संग. वह तो चाहती थी कि केया का एक संगी भी आ जाए, ताकि वह दोनों को एक ही संग पाल सके और बड़े होने पर उन दोनों का अच्छा साथ रहे. पर इस बीच रणबीर को अपने जीवन से अनेक शिकायतें होने लगी थीं. प्रोफेसर बनना कभी उसका सपना था अवश्य, परंतु यह पिता द्वारा पोषित सपना था. अब मित्रों का धन-वैभव देखकर उसकी आकांक्षाओं को पंख लग गए थे. उसे लगने लगा था कि तमाम उम्र मेहनत करके एवं आंखें ख़राब करके भी वह उतना नहीं बचा पाएंगे, जितना उसके मित्र एक ही वर्ष में ख़र्च कर देते हैं.

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रणबीर के मित्र अपने बच्चों का जन्मदिन पांच सितारा होटलों में मनाते थे, जबकि इन्होंने अपनी बेटी की पहली वर्षगांठ घर पर ही सबको आमंत्रित कर, स्वयं के बनाए व्यंजन परोस कर मनाई थी. रणबीर को चाहे इस बात से शर्मिंदगी महसूस हुई हो, ताप्ती को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था.

रणबीर जब भी अपने मित्रों से मिलकर आता, हताश और झुंझलाया रहता. प्रायः ही वह कहता, “काश मेरे पास थोड़ी सी पूंजी होती, तो मैं कोई अपना काम शुरू कर लेता. पर इस नौकरी से तो बचत की ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी एवं उसके अध्यापक पिता अनेक कटौतियां करके रहने लायक एक छोटा सा मकान ही बनवा पाए थे और अब पेंशन से अपना गुज़ारा कर रहे थे.

यही काफ़ी था कि वह अपने बेटे पर निर्भर नहीं थे. ऐसा भी नहीं कि रणबीर स्वार्थी था और अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझता था. इसके विपरीत वह तो यही सोचता कि काश मेरे पास धन होता और मैं अपनी बिटिया को राजकुमारी की तरह पालता. ताप्ती को देश-विदेश घुमा सकता. जबकि ताप्ती को ऐसी कोई लालसा नहीं थी. वह तो बस केया को संस्कारी और आत्मविश्‍वास से भरपूर युवती के रूप में देखना चाहती थी.

यहां विधि ने रणबीर का साथ दिया. उसके पिता वृद्ध और अक्षम हो चुके थे. अब तक तो रणबीर और ताप्ती के अनेक बार कहने पर भी वह अपना घर, अपने संगी-साथियों को छोड़ने को तैयार नहीं थे, परंतु अब उनका अकेले रहना संभव नहीं रह गया था. अत: वह इनके पास आकर रहने को तैयार हो गए और उन्होंने स्वयं ही अपना पुराना मकान बेच डालने का प्रस्ताव रखा.

रणबीर को इतनी रक़म तो मिल ही गई कि कम पूंजी वाला कोई व्यवसाय शुरू कर सके. उसने अच्छी सी जगह चुनकर एक फास्ट फूड जॉयंट की शुरुआत की. मेहनती तो वह था ही, लोकेशन भी उसने अच्छी चुनी थी. फूड जॉयंट इतना चल निकला कि शीघ्र ही उसे पासवाली दुकान भी ख़रीदनी पड़ गई. आगे बढ़ने का जूनून उस पर इस कदर हावी हो गया था कि पूरा दिन कड़ी मेहनत कर जब वह देर रात को घर लौटता, तो उसमें बात करने की भी हिम्मत न रहती. अब तो वह ज़रा-ज़रा सी बात पर खीज उठता. पिता उसकी स्थिति पर चिंतित थे. ताप्ती समझाने का प्रयत्न करती, परन्तु उस पर धन कमाने का नशा इस कदर हावी हो चुका था कि शब्द उसके कानों से आगे जाते ही न.

ताप्ती परेशान थी. कहां खो गया वह रणबीर जिसे वह जानती-समझती थी, जिसके जीवन मूल्यों पर गर्व करती थी. अब तो वह अजनबी हो गया था, जिससे बात करने के पहले सोचना पड़ता था.

अब उनके पास बड़ा सा घर था. आराम का सब साजो सामान मौजूद था, बस रणबीर ही वहां मौजूद न होता. जब तक वह लौटता, बेटी सो चुकी होती और ताप्ती इंतज़ार करती, कुर्सी पर बैठी ऊंघती रहती. बाबूजी से बात किए कई दिन बीत जाते रणबीर को. चाह कर भी उन्हें समय न दे पाता. बीमार पड़ गए तो उन्हें अस्पताल दाख़िल करना पड़ा, तब भी नहीं. कई दिन रहे अस्पताल में. उनका बचना कठिन लग रहा था तब भी नहीं. ऐसा नहीं कि रणबीर कठोर दिल था, ऐसा नहीं कि उसे अपने पिता से लगाव नहीं था, स्वार्थी हो गया था वह. परिस्थिति ही कुछ ऐसी आन खड़ी हुई थी.

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चंद माह पूर्व रणबीर को एक कॉलेज के पास चलती हुई फास्ट फूड की एक दुकान मिल गई, जो उसने बैंक से लोन लेकर ख़रीद ली. घर से दूर थी वह. आने-जाने में वक़्त लग जाता और इसके लिए उसे अभी तक कोई भरोसेमंद मैनेजर नहीं मिला था. दलदल में ही फंसा हुआ था मानो वह. आख़िरी घड़ी तक बाबूजी की नज़रें बेटे के इंतज़ार में द्वार पर टिकी रहीं.

ताप्ती को घुटन होने लगी इस माहौल से. नहीं चाहिए उसे ऐसा जीवन जहां धन रिश्तों से अधिक महत्वपूर्ण हो गया हो.

उसने कोलकाता में बसे अपने छोटे भाई की सहायता से वहीं अपने लिए नौकरी तलाश ली और एक दिन अपनी दस वर्षीया बेटी को लेकर चली गई. केया स्कूल से लौट कर घर में अकेली न रहे, इसके लिए ताप्ती ने अपनी मां को भी अपने पास बुला लिया.

यद्यपि कोलकाता में ताप्ती के अनेक संबंधी और मित्र थे, फिर भी उसे वहां कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. उसके मनपसंद सांस्कृतिक कार्यक्रम भी उसे न बांध पाते. जी उचट जाता और वह कार्यक्रम बीच में ही छोड़ घर लौट आती. वह ख़ुशी जिसकी तालाश में उसने घर छोड़ा था, वह मृगतृष्णा बनकर रह गई.

स्वयं से अधिक उसे केया की फ़िक्र होने लगी. पहाड़ी झरने सी चहकती उसकी गुड़िया शांत झील में बदल गई थी. दरअसल, नए स्कूल की सहेलियां अपने मम्मी-पापा, अपने परिवार की बातें करतीं, पर केया के पास कहने को कुछ न होता. प्रश्‍नों से बचने के लिए उसने अलग-थलग रहना शुरू कर दिया और एकांतप्रिय होती चली गई.

ताप्ती ने अपनी बेटी के इस बदलाव को लक्ष्य किया, तो उसे विभिन्न गतिविधियों में उलझाए रखने का प्रयत्न भी किया और स्वयं भी अधिक से अधिक समय घर पर ही बिताने लगी. वह घर में हंसी-ख़ुशी का माहौल बनाए रखने का भरसक प्रयत्न करती. परन्तु हंसी यदि मन से ही न फूटे, तो उसका खोखलापन स्पष्ट गूंजता है.

ताप्ती की मां को इन दोनों की ही चिंता लगी रहती. उनका मानना था कि ताप्ती को यूं घर छोड़ कर नहीं आना चाहिए था. मां को इसकी ज़रा भी भनक होती, तो वह ताप्ती को ऐसा कदम कतई न उठाने देतीं. रणबीर को वह उसके बचपन से जानती थीं. वह आजकल परिवार के साथ समय नहीं बिता पा रहा था, किन्तु ऐसा तो नहीं था कि इनके साथ दुर्व्यवहार करता था. वह ताप्ती को भी लौट जाने का मशविरा देती.

कठिनाई यह है कि मनुष्य केवल अपने मन और बुद्धि के ही आधीन नहीं होता, इन दोनों से बढ़कर वह अपने अहम् के वशीभूत रहता है और यही अहम् इस वक़्त रणबीर और ताप्ती दोनों को अपने गिरफ़्त में लिए खड़ा था. ताप्ती सोचती कि रणबीर उसे स्वयं लेने आएगा तभी जाऊंगी और रणबीर का सोचना था कि मैंने तो उसे जाने को कहा नहीं था. स्वयं गई है तो अब स्वयं ही लौटे. और दोनों के अहम् के टकराव में दंड भुगत रही थी बेक़सूर केया.

केया को अपने पापा की बहुत याद आती. नौकरी के दिनों में वह हर छुट्टी के दिन उसके साथ शतरंज, कभी बैडमिंटन खेलते अथवा बाहर घुमाने ले जाते. पापा अब घर पर कम रहते थे, परंतु जब भी वह ़फुर्सत पाते उसके संग समय बिताते. उसकी फ़रमाइशें पूरी करते. पापा की तो वह आज भी राजकुमारी ही थी.

नानी भी केया की उदासी स्पष्ट देख रही थी.

नानी को विश्‍वास था कि रणबीर और ताप्ती एक-दूसरे को सामने देख अपना अहम् भूल जाएंगे. अतः वह किसी भी तरह उन्हें आमने-सामने ला खड़ा करना चाहती थीं. अतः उन्होंने एक योजना बनाई.

नानी के कहने पर केया ने अपने पापा को पत्र लिखा. और तुरंत उसका उत्तर भी आ गया. पत्र का उत्तर पाकर केया बहुत प्रसन्न हुई. उससे भी ज़्यादा ख़ुशी उसकी नानी को हुई. और इस तरह केया और उसके पापा के बीच पत्रों का सिलसिला चल पड़ा. केया की उदासी, उसका चिड़चिड़ापन कम होने लगा. वह पापा को ख़ूब लंबे पत्र लिखने लगी. अपनी हर बात उनसे बांटती. मां अब ताप्ती की प्रतिक्रिया देखना चाह रही थीं. कहीं वह बेटी के इस पत्र व्यवहार से नाराज़ तो नहीं होगी? पर जब उसने ताप्ती को रणबीर का पत्र ध्यान से पढ़कर मुस्कुराते देखा, तो वह अगला कदम लेने की तैयारी करने लगीं.

नानी की सलाह मान केया ने अपना अगला ग्रीष्मावकाश अपने पापा के संग मनाने का निर्णय लिया और ताप्ती को भी बता दिया.

अकेली जा रही है, सोच तापती ने उसके लिए हवाई जहाज की टिकट मंगा दी.

लंबा समय हो गया था बिटिया को देखे. और इस उम्र में तो बच्चे बढ़ते भी इतनी तेज़ी से हैं कि जल्दी से पहचान पाना भी मुश्किल होता है. पर बिटिया ने तो दूर से ही पापा को पहचान लिया था और भागकर गले जा मिली. घर पहुंच कर देर तक इधर-उधर देखती रही. वही दरो-दीवार, आगे का बगीचा भी वही, पर सब कुछ अव्यवस्थित, बेतरतीब. बहुत सा नया सामान था, पर एक किनारे रखा हुआ मानो घर न होकर कोई स्टोर रूम हो.

केया को याद आया मां कैसे थोड़े में ही घर सजा कर रखती थीं- अब भी रखती हैं. स्त्री के स्पर्श से ही घर सुंदर बन जाता है फिर उसकी मां तो कलात्मक रुचि वाली थीं.

जादू की छड़ी और किसे कहते हैं?

केया के जाने के दस दिन पश्‍चात मां के पास उसका पत्र आया कि उसके पैर में मोच आ गई है. ताप्ती घबरा गई और बेटी के पास जाने की तैयारी करने लगी. घबराने का अभिनय नानी ने भी किया और संग चलने को तैयार हो गईं. ताप्ती ने लेखिका के रूप में कितनी भी ख्याति अर्जित की हो, एक छोटा सा नाटक मां ने भी रच डाला था. नुस्ख़ा वही पुराना, आज़माया हुआ था. मक़सद तो दोनों को मिलाने का ही था न. मां ने एक काम और किया, उन्होंने चुपके से ताप्ती और अपने आने की सूचना केया को भिजवा दी, ताकि वह तैयार रहे.

ताप्ती ने अपने आने की कोई सूचना नहीं दी थी. वह सीधे ही घर जा पहुंची. केया के पैर पर पट्टी बंधी थी, परंतु घबराने वाली कोई बात नहीं लग रही थी. थोड़ी देर में रणबीर भी आ गया. आजकल वह अधिक से अधिक समय अपनी बिटिया के संग बिताने का प्रयास करता था. अचानक ताप्ती को सामने देख रणबीर के चेहरे पर वही स्वभाविक मुस्कान खिल उठी. यद्यपि ताप्ती ने देखा कि रणबीर के चेहरे पर वह पहले वाला उजास ग़ायब है.

दूसरे ही दिन शाम को चाय पीते समय मां ने ऐलान किया, “मैं कल जा रही हूं और तुम लोग अब यहीं रहोगे.”

मां ने बात ज़ारी रखते हुए कहा, “रिश्ते इतनी आसानी से नहीं तोड़े जाते. विवाह तो वैसे भी दो अलग-अलग व्यक्तित्व वाले प्राणियों को मिलाता है, तो दोनों एक जैसे कैसे हो सकते हैं? तुम दोनों ने तो फिर भी वर्षों एक-दूसरे को जाना है, अधिकांश लोग तो नितांत अजनबी से विवाह करके भी निबाह जाते हैं जीवन पर्यन्त. क्योंकि वह एक-दूसरे को उसकी अपनी संपूर्णता में ही स्वीकार करते हैं. विवाह तो वो यज्ञ है, इसमें तेरा-मेरा समाप्त हो जाता है. ख़ैर जिन पुलों को लांघकर हम अपनों से दूर चले जाते हैं, उन्हीं पुलों से फिर लौटा भी तो जा सकता है न?”

मां ने पहले ताप्ती को संबोधित करते हुए कहा, “जब रणबीर को अपना सपना पूरा करने की चाह थी, तो उसकी सहायता करने की बजाय तुम उसे अकेला छोड़कर चली आई.

ख़ैर! अब तुम दोनों मिलकर भविष्य की योजना बनाओ. मैं तो स़िर्फ सुझाव दे सकती हूं, जैसे- ताप्ती कुछ समय रणबीर की सहायता करेगी, जिससे दोनों का साथ भी रहेगा और रणबीर का कुछ बोझ भी कम होगा.

जीवन में धन के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता, विशेषकर आज के समय में. परन्तु एक सीमा के बाद पैसा जीवन को वह ख़ुशी नहीं दे सकता जैसा अन्य कोई सार्थक गंतव्य. और अब जब तुम लोगों के पास पर्याप्त आमदनी है, तो ताप्ती कुछ समय उन ज़रूरतमंद बच्चों को जो बढ़ी-बढ़ी कक्षाओं में बिना बाहरी सहायता के सफल नहीं हो सकते, उन्हें पढ़ाने में दे सकती है. ताप्ती का युवावस्था से रहा यह संकल्प भी पूरा हो जाएगा. इससे घर के कामकाज पर भी नज़र रहेगी और केया को मां और पिता का साथ भी मिलेगा, जो उसका हक़ है.”

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