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कहानी- वो जलेबियां… (Short Story- Woh Jalebiyan)

मैं उसका चेहरा उस छोटे से जलेबी वाले नील से मिलाने लगा, तो जैसे सालों बाद उसकी वो चाशनी में डूबी जलेबियों का स्वाद फिर से मेरे मुंह में घुल गया.
“आप जो कहें उसका स्टॉल लग जाएगा सर! और आप जितना चाहें, उतने पैसे दे देना सर! होटल के इस छोटे से मालिक यानी मेरे लिए स़िर्फ आपका आशीर्वाद ही काफ़ी होगा. जैसे कभी स्कूल फीस के बदले आपके लिए मेरी लाई वो जलेबियां ही काफ़ी हुआ करती थीं.”

“किसी को स्टेशन भिजवा दो जी! कानपुर वाली दीदी की ट्रेन आने ही वाली होगी, नहीं तो आते ही कहेंगी कि दयाल! तुझसे इतना भी न हुआ कि दीदी को लेने स्टेशन आ जाता या किसी को भेज ही देता.” मेरी पत्नी शीतल ने बड़े ही मज़ाकिया ढंग से शादी के अनगिनत कामों के बीच मुझे एक ज़रूरी काम याद दिलाया, तो मैंने जल्द ही किसी को दीदी को स्टेशन से लाने के लिए भेज दिया.
“अच्छा! वो बारातियों के गिफ्ट्स देख लिए न तुमने! ठीक हैं न?” मैंने शीतल से पूछा, तो उसने अपना एक हाथ मेरे कंधे पर रखते हुए अपने दूसरे हाथ से एक गर्म चाय की कप मेरे हाथों में थमा दी.
“दो पल को सांस भी ले लो जी! सब बढ़िया है. हम हमारे हिसाब से सब अच्छा ही कर रहे हैं. अब थोड़ी-बहुत उन्नीस-बीस हो जाएगी, तो कौन सा तूफ़ान आ जाएगा? पहले आप शांति से बैठकर चाय पी लीजिए और भगवान पर भरोसा रखिए. देख लेना! ऊपर वाले की कृपा से सभी काम बड़े अच्छे से सम्पन्न होंगे.”

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हां! शीतल कह तो सही रही थी, पर बेटी की शादी की तैयारियों में जुटा पिता कभी चैन से बैठा देखा है? तो मैं चैन से कैसे बैठ सकता था भला? और शीतल को भी कहां चैन था? दो पल भी एक जगह न ठहरती. कभी उसे ये काम याद आता, तो कभी उसे वो काम याद आता.
ख़ैर हम दोनों ही बड़े उत्साहित और साथ में कुछ चिंतित भी थे? अब हमारी छोटी बिटिया रिया का ब्याह जो था. शादी की सब तैयारियां लगभग हो चुकी थीं. मैरिज हॉल की बुकिंग, रिश्तेदारों को दिए जाने वाले उपहार, बारातियों के स्वागत का इंतज़ाम, बर्तन, गहने, कपड़े इत्यादि की ख़रीददारी.
शादी की तैयारियां मैंने अपने सामर्थ्य से कहीं ज़्यादा कर ली थीं. चूंकि मेरे हिसाब से यह हमारे लिए आख़िरी बड़ा ख़र्चा था. पहली दो बड़ी बेटियों की शादी में तो फिर भी पीछे वाली बेटियों के लिए सोचना था. मगर अब सिर्फ़ रिया ही थी, इसलिए रिया के ब्याह में मैं किसी तरह की कोई भी कमी रखना नहीं चाहता था. शीतल अक्सर शादी के बढ़ते हुए ख़र्चों में मेरा हाथ पीछे को खिंचती, पर ब्याह के हर्ष-उल्लास में मैं कहां ब्याह से इतर भविष्य के ख़र्चों के लिए सोचने बैठता?
ब्याह को अब केवल एक ही सप्ताह रह गया था कि तभी रिया के होने वाले ससुरजी का कॉल आया, “नमस्कार समधीजी! कैसे हैं? हो गईं शादी की सारी तैयारियां?”
“जी नमस्कार, यूं तो सारी तैयारियां हो गईं, पर तैयारियों का क्या है भाईसाहब, शादी वाले दिन तक चलती ही रहती हैं.”
“हा… हा… सही कह रहे हैं आप दयालजी!” उन्होंने ठहाका मारते हुए कहा.
“दयालजी! एक बात करनी थी आपसे?”
“जी कहें भाईसाहब.” मैंने कुछ चिंतित पर विन्रम भाव से कहा.
“ज़रा खाने-पीने का इंतज़ाम तगड़ा कर लीजिएगा. वो क्या है न! हमारे यहां खाने-पीने के सब बड़े शौकीन हैं. मीठे में आपने दो चीज़ें ही रखवाई हैं न? उन्हें बढ़ाकर पांच कर दें और स्टार्टर्स भी कम से कम पांच-सात तो कर ही दें.”
“जी भाईसाहब, सब हो जाएगा.” मैंने उन्हें तो हां कह दी, पर दो मिनट को शादी के बढ़ते हुए बजट ने उन दिसंबर की सर्द दोपहरी में भी मेरे माथे पर पसीने की बूंदें छलका दीं.
ब्यूटीपार्लर से लौटी मेरी रिया झट से मेरे परेशान मन को भांप गई, “कुछ डिमांड की क्या अतुल के पापा ने आपसे?”
“नहीं, नहीं… कुछ नहीं बेटा!” मैंने बात को टालते हुए उसके चेहरे का नूर देखकर कहा.
“अरे वाह चांद सी चमक रही है हमारी बिटिया रानी! पार्लर जाकर तो तेरा चेहरा और भी खिल उठा. अपनी मां को भी ले जाती, वो भी थोड़ा यंग दिखने लगती.” मैंने अपने बगल में बैठी रिया की मां शीतल को कुहनी मारते हुए छेड़ा.
“पापा! आप बात मत घुमाओ, बोलो जल्दी क्या बोले अतुल के पापा?”


“खाने के कुछ आइटम बढ़ाने को कहा है.” लाख इशारे करने पर भी शीतल ने अपना मुंह रिया के सामने खोल ही दिया.
आख़िर उसका डर भी तो जायज़ था. बुढापे में ही तो सबसे ज़्यादा पैसों की ज़रूरत पड़ती है और मैं तो अपनी सारी जमापूंजी ख़र्च करने लगा था.
“आप! अब एक भी खाने के आइटम नहीं बढ़ाएंगे.” उसने मुझे बिल्कुल उसी तरह डांटा जैसे मैं कभी छोटी सी रिया को डांटा करता था.
“अब एक भी और चॉकलेट नहीं रिया! वरना दांत सड़ जाएंगे.”
“आपकी बेटी नौकरी करती है पापा… और अतुल भी इन सब बातों के ख़िलाफ़ है. मुझे दहेज लेने वालों के यहां नहीं जाना पापा. आप ही तो कहते हो कि दहेज बहुत बुरी प्रथा है, फिर आप ही आज इस बात का समर्थन करने लगे?”
“नहीं बेटा! यह सब दहेज नहीं होता. उन्होंने तो दहेज की बात ही नहीं की. तू इन सब बातों में मत पड़, अंदर जा, जाकर अपना नया लहंगा देखकर आ. मैं अभी-अभी तेरी मां के साथ जाकर लाया हूं. बिल्कुल तेरे मन-मुताबिक़ है, जरी वाला सुनहरा और सुर्ख लाल.”
रिया मुंह बनाती हुई अपने कमरे में चली गई. मैं रिया का ग़ुस्सा समझ रहा था, पर अतुल जैसा लड़का मिलना आसान भी तो नहीं था. बेहद सभ्य, पढ़ा-लिखा, सुलझा हुआ. पहली मुलाक़ात में ही उसने साफ़ कर दिया था कि वह स़िर्फ रिया को चाहता है और कुछ भी नहीं. दहेज जैसी बातों से तो वो कोसों दूर है. वैसे अतुल के पापा ने भी ऐसी कोई बड़ी मांग नहीं की थी. बारातियों का अच्छा स्वागत, उनके उपहार ये सब थोड़ा दहेज होता है. हां! उन्होंने इतना ज़रूर कहा था कि बस शादी ऐसी होनी चाहिए कि उनकी नाक ऊंची बनी रहे. अब इसका अर्थ आप जो चाहे निकाल सकते हैं.

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ख़ैर! मुझे मेरे ईश्‍वर पर पूरा भरोसा था. मुझे पता था कि पिछली दो बेटियों की शादी की तरह यह तीसरी शादी भी मैं बड़े अच्छे से सम्पन्न कर लूंगा. ’तीन-तीन बेटियां हैं कैसे ब्याहेगी?’ ’तीन लड़कियों के बाप हो, ज़रा चार पैसे बचाकर चला करो.’ इस तरह के ताने लंबे समय से सुनता रहा था मैं, पर कभी भी इस तरह की बातों को दिल पर नहीं लिया. पर आज थोड़ा परेशान था. मेरे दोनों बड़े दामाद मदद के लिए तैयार थे. यहां तक कि होने वाले तीसरे नंबर के दामाद अतुल ने भी बार-बार पूछा, “पापाजी! कोई दिक़्क़त तो नहीं. कोई मदद हो, तो कर दूं.” पर मैं अब तक सब अपने बलबूते पर करता आया था. सो अब भी मुझे विश्‍वास था कि मुझसे सब हो जाएगा.
मैरिज हॉल सज चुका था. रिया दुल्हन के रूप में बेहद प्यारी लग रही थी. शीतल कुछ परेशान थी, वो बार-बार एक-एक जगह जाकर सारे इंतज़ामों को देखकर तस्सली कर रही थी. मैं तमाम कामों के बीच मीठे के आइटम बढ़वाना और स्टार्टर्स बढ़वाना भूल गया था.
बारात को समय था और मेरे मेहमान शादी की तैयारियां देखकर ख़ुश हो रहे थे.
“वाह! एक अध्यापक भी इतने ठाट-बाट से तीन बेटियों का ब्याह कर सकता है भला! आप पर भगवान की बड़ी कृपा है दयालजी!” मेरे स्कूल की एक आध्यापिकाजी ने मुझसे कहा.
“सही बात कह रही हैं मैडम आप! दयालजी का जैसा नाम है वैसा ही काम है. कहीं भी वे कंजूसी नहीं करते. इन्होंने न जाने कितने ही गरीब बच्चों की फीस, कितनी ही बार जमा की है. सच ही तो है कर्म लौटकर आता है, बस ये सब आपके उन्हीं अच्छे कर्मों का नतीज़ा है दयालजी!” इस बार स्कूल के प्रिंसिपल साहब मेरी तारीफ़ कर रहे थे.


देखते-देखते बैंड-बाजे के साथ बारात आ गई. स्वागत-सत्कार के बाद जैसे ही स्टार्टर्स शुरू हुआ, मुझे तुरन्त समधीजी की बात याद आ गई,“दयालजी! खाने-पीने का विशेष इंतज़ाम कर लीजिएगा और स्टार्टर्स-मीठे में आइटम बढ़ा दीजिएगा.”
अब एक बार फिर सर्द हवा में मेरे माथे पर पसीने की बूंदें छलकीं.
“बारात आने से पहले सब एक बार ठीक से चेक कर लो दयाल, क्योंकि लाख ध्यान से एक-एक काम करो, पर शादी के कामों में कुछ न कुछ ज़रूरी काम छूट ही जाते हैं…” कानपुर वाली दीदी ने अभी-अभी मेरे कानों में अपने यह अनुभवी शब्द डाले थे. पर तब क्यों मुझे यह ज़रूरी काम याद न आया? अब इतनी जल्दी क्या करूं? हैरान-परेशान सा कुछ सोच ही रहा था कि मैं अपने सामने यह सब देखकर दंग रह गया कि मेहमानों को बीसों स्टार्टर्स परोसे जा रहे थे. मैं ये सब देखकर बड़ा अचंभित था.
मैं भागा-भागा कैटरिंग वाले के पास गया, तो वह क़रीबन दस तरह की मिठाइयों का स्टॉल लगवा रहा था. मैंने तत्काल उसे रोका, “नहीं भाई… नहीं… बस चार मिठाइयां ही रखो, मेरा इतना बजट नहीं.”
“बहुत बजट है सर आपका.”
नीली शर्ट में दुबला-पतला सा हैंडसम सा लड़का यह कहते हुए मेरे पैर छूने को झुका, तो मैं कुछ पीछे हटता सा बरबस उससे पूछ बैठा, “आप कौन?”
“आपका वही जलेबी वाला नील! जो फीस के बदले हमेशा आपको अपने पापा की दुकान की रस में डूबी वो जलेबियां दे जाता था. शायद आप भूल गए होंगे सर अपने इस पुराने स्टूडेंट को, पर मुझे आपकी अपने ऊपर की हुई एक-एक कृपा याद है. आप न होते तो मैं कैसे आगे बढ़ पाता?”
मैं उसका चेहरा उस छोटे से जलेबी वाले नील से मिलाने लगा, तो जैसे सालों बाद उसकी वो चाशनी में डूबी जलेबियों का स्वाद फिर से मेरे मुंह में घुल गया.

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“आप जो कहें उसका स्टॉल लग जाएगा सर! और आप जितने चाहें, उतने पैसे दे देना सर! होटल के इस छोटे से मालिक यानी मेरे लिए स़िर्फ आपका आशीर्वाद ही काफ़ी होगा. जैसे कभी स्कूल फीस के बदले आपके लिए मेरी लाई वो जलेबियां ही काफ़ी हुआ करती थीं.” नील की बात सुनकर बरबस मेरी आंखें सजल हो उठीं और फिर से मेरे कानों में कानपुर वाली बड़ी दीदी की कही एक और अनुभवी बात आकर ठहर गई, “दयाल! शादी-ब्याह में देने वाले बंद लिफ़ा़फे वाला गुप्त व्यवहार हो या जीवन में किया जाने वाला खुला व्यवहार, एक दिन वापस ज़रूर आता है.”

writer poorti vaibhav khare
पूर्ति वैभव खरे

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