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कहानी- वो रहस्यमयी कान्हा (Short Story- Woh Rahasyamayi Kanha)

उस दिन मुझे प्रेम का सही अर्थ समझ आया था. मैंने तो उस साहिल को पाने की ख़्वाहिश की थी, जो मेरा कभी था ही नहीं. कभी उसके मन की बात नहीं जानी. अरे, वो तो प्रिया की अमानत था, जिसे मैं अपना समझने की भूल कर बैठी थी. उस दिन मेरा असफल प्रेम असफल होकर भी सफल हो गया था.


एक-एक करके सभी मेहमान जा रहे थे. भैया और भाभी दरवाज़े पर सभी मेहमानों का अभिवादन कर उन्हें विदा कर रहे थे. आज मां की तेरहवीं थी. मैं तो बस एक कोने में बैठ कर वहां रखी मां की तस्वीर को एकटक निहार रही थी. उन्हें और उनकी ममता को महसूस कर रही थी. पर मुझे कहीं-कहीं ये भी एहसास हो रहा था की मेरी दो आंखों के साथ-साथ कोई दो आंखें और भी हैं जो मां की तस्वीर को एकटक निहार रहीं थीं. वे भी बेहद अपनत्व से निहार रहीं थी. मेरी आंखें उनकी आंखों से टकरा रही थी, किंतु वे तो सिर्फ़ शिद्दत से मां को निहारने में लीन थे. उनकी नम आंखें, मूक दृष्टि और भाषा बहुत कुछ रहस्यमयी-सी लग रही थी. मैं उन्हें पहली बार देख रही थी. ये सोच कर कि शायद भैया के कोई परिचित होंगे मैंने उनकी तरफ़ से अपना ध्यान हटाने का असफल प्रयास किया. वे थोड़ी देर रुके नम आंखों से मां को निहारा और बिना किसी से कुछ कहे वे चले गए. यहां तक कि भैया-भाभी से भी कोई बात नहीं की. मुझे उनका ये व्यवहार अत्यंत विचित्र और रहस्यमयी-सा लगा. ऐसा लग रहा था मानो वे मन-ही-मन, आंखों ही आंखों में मां से बात करके चले गए. “भैया ये जो सज्जन मां की तस्वीर के समक्ष खड़े उन्हें मूक श्रद्धांजली अर्पित कर रहे थे क्या आपके कोई परिचित थे? “ जिज्ञासावश मैंने भैया से पूछा.

“ नहीं... मैं तो ख़ुद उन्हें पहली बार देख रहा हूं. ख़ैर छोड़ो होगा कोई जिसकी मां ने मदद की होगी. आख़िर हमारी दयालु मां भी तो दुनिया जहां की मदद करती थीं. आया होगा कोई उनको श्रद्धांजली देने. छोड़ उन्हें.“ संक्षिप्त-सा उत्तर देकर भैया अंदर अपने कमरे में चले गए.

पर मेरे मन-मस्तिष्क में वही रहस्यमय सज्जन घूम रहे थे. उनकी दर्द भरी मूक आंखों की मां की तस्वीर को निहारती भाषा में कुछ रहस्य भरी गूढ़ बात छिपी थी, जो शायद मैं नहीं समझ पा रही थी.

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भैया-भाभी सुबह से तेहरवीं की रस्मों की भागदौड़ में थके-हारे थोड़ी देर अपने कमरे में विश्राम करने चले गए. मैं... मेरे कदम स्वतः ही मां के कमरे की तरफ़ चल पड़े. कितना व्यवस्थित था मां का कमरा. सभी चीज़ें करीने से रखी थीं. दिवार पर लगी मां और पिताजी की उनकी कश्मीरवाली तस्वीर उन दोनों के अटूट प्रेम और समर्पण की साक्षी थी. मैंने हमेशा उन दोनों को एक-दूसरे के लिए निस्वार्थ प्रेम में जीते देखा. एक-दूसरे के दर्द को अपने दर्द की तरह महसूस करते देखा. अगर मैं उन दोनों को दो जिस्म एक जान की संज्ञा दूं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. किंतु पिताजी की असमय मृत्यु से मां, एक निष्ठावान पत्नी, एक प्रेमिका के रूप में भीतर तक टूट ज़रूर गई थीं, पर साथ ही उनके भीतर की मां ने उन्हें हिम्मत दे दी. भैया और मेरे लिए उन्होंने अपना सारा दर्द समेट कर अपने हृदय में क़ैद कर दिया और फिर से जी उठी हम दोनों भाई-बहन के लिए. उनके सभी सामान को महसूस कर अंत में मैंने मां की आलमारी खोली. आलमारी खोलते ही उनकी ख़ुशबू मेरी आंखें नम कर रही थीं. धीरे-धीरे जो ज़रूरी सामान था उसे छोड़कर मैंने बाकी आलमारी की चीज़ें ख़ाली कर रही थी, क्योंकि थोड़ी देर पहले ही भाभी ने मुझे ऐसा करने को कहा था. सामान ख़ाली करते हुए अचानक कोने में रखी एक छोटी-सी ख़ूबसूरत रंगों की मीनाकारीवाली संदूकची ने मुझे आकर्षित किया. उसे देख ऐसा लग रहा था की मानो वो मुझसे छुपने की कोशिश कर रही हो. मेरा कौतूहल मन जो ये जानने के लिए जिज्ञासु था कि आख़िर उसमें ऐसा क्या था, जिसे मां ने छुपा के रखा था उसे खोलने को विवश कर रहा था. मैं वो संदूकची लेकर मां की आरामकुर्सी पर बैठ गई. मैंने धीरे -धीरे जैसे ही उसे खोला, उसमें से निकली मोगरे के इत्र की ख़ुशबू ने मेरा मन मोह लिया. अद्धभुत ख़ुशबू थी उसकी. उसके अंदर सिर्फ़ एक छोटी-सी मोगरे के इत्र की शीशी, मुड़ा हुआ काग़ज़ था, जो शायद किसी का पत्र लग रहा था. पत्र इत्र की ख़ुशबू से महक रहे थे. मैंन पत्र पढ़ने के लिए खोला. ये तो किसी कान्हा ने अपनी राधा को लिखा था और वो कान्हा कोई प्रणव था और राधा... राधा कोई और नहीं, बल्कि रागिनी यानी मां थी. नाम पढ़ने के पश्चात, तो उत्सुकता थामे नहीं थम रही थी. मैंने पत्र पढ़ना आरम्भ किया. प्रिय राधा, प्रेम ईश्वर का दिया एक अनुपम वरदान है. एक अनुभूति है, जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है. प्रेम का दूसरा रूप समर्पण और त्याग है. सच्चा प्रेम किसी को पाने का नहीं, अपितु किसी को अपूर्व ख़ुशियां देने का प्रतीक है. एक सच्चा और पवित्र प्रेम सदा मरते दम तक आपके हृदय में महकता है. भले ही साक्षात जीवन में उसका अस्तित्व हो या न हो. अगर आप किसी से प्रेम करते हैं और वो इंसान आपके साथ छल करे या आपका साथ न दे पाए, तो इसका अर्थ ये क़तई नहीं होता की आपका प्रेम असफल हो गया. इसका अर्थ यह है कि आपने तो पूरी निष्ठा और सच्चे हृदय से उससे प्रेम किया और उसने छल किया, तो ये उसका दुर्भाग्य है, ना कि आपका. ये उसकी बदक़िस्मती है, जो उसने आपके सच्चे प्रेम को खोया. माना की टूटा हृदय बहुत दर्द देता है, किंतु वक़्त हर दर्द को भर देता है और जीवन में आगे बढ़ने का नाम ही तो ज़िंदगी है. रागिनी, तुमसे छल करनेवाला अपराधी मैं हूं और फिर मैंने तुम्हें अपना पक्ष रखने का अवसर भी तो नहीं दिया. पता है रागिनी, जिस तरह कान्हा lजी ने प्रेम तो सदा राधाजी से किया, किंतु विवाह रुक्मणी से किया. फिर भी इस संसार में उनका प्रेम अमर हो गया. आज भी लोग राधा-कान्हा के अमर प्रेम को मानते हैं. तुम हैरान हो रही होगी कि अचानक मैं ये सब बातें क्यूं लिख रहा हूं? क्योंकि मैं वो कान्हा हूं, तुम मेरी राधा जिसे मैं आजीवन प्रेम करूंगा और सुधा मेरी रुक्मणि.

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मैं सुधा से विवाह कर रहा हूं, क्यूंकि मैं घरवालों के आगे विवश हूं. सुधा से विवाह कर दहेज में आए पैसों से पिताजी मेरी दोनों छोटी बहनों का विवाह सहजता से कर सकेंगे. तुम तो मेरी आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह वाक़िफ़ हो, फिर एक पढ़े-लिखे नौकरीपेशेवाले बेटे का मोल लगाने का इससे अच्छा अवसर और कब मिलेगा, वो भी तब, जब मुंहमांगा दहेज मिल रहा हो... इससे अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं कहना. हो सके तो अपने कान्हा को क्षमा कर देना. इस पत्र के साथ तुम्हारा मनपसंद इत्र दे रहा हूं, इसे मेरी याद बनाकर अपने पास रख लेना. ईश्वर तुम्हारे जीवन को सच्चे प्रेम और ख़ुशियों से आबाद करे, इसी दुआ के साथ... तुम्हारा कान्हा.
पत्र पढ़कर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई. मन-मस्तिष्क शून्य हो गए. ये सब पढ़कर मैं मां के आगे नतमस्तक थी. आंखों से अविरल अश्रु धारा बह रही थी. मां ने भी कभी किसी को प्रेम किया था... बिना किसी शिकायत के, बिना किसी शिकवे के और बिना कुछ पाने की इच्छा रखें. एकदम निर्मल, निस्वार्थ, निश्छल. मां ने उस कान्हा की ख़ुशी को सर्वोपरि रख अपने प्रेम को त्याग की भावना से उसे सदा अमर कर दिया. इसलिए उन्होंने आज तक इस पत्र और इत्र को सदा सहेजकर रखा. यही सच्चे प्रेम की परिभाषा है, जो इतने वर्षों पश्चात भी उस इत्र की महक एकदम ताज़ा थी. मां के पत्र के एक-एक अल्फ़ाज़ उनकी आवाज़ बन मेरे कानों में गूंज कर मुझे मेरे अतीत में ले जा रह थे. कॉलेज में मेरा पहला दिन था और प्रथम वर्ष के छात्रों की अंतिम वर्ष के छात्र जम कर रैगिंग कर रहे थे. डरी-डरी-सी मैं वहां से छुप कर निकलना चाहती थी, पर आख़िर उन्होंने मुझे पकड़ लिया. वे सभी छात्रों को अलग-अलग टास्क दे रहे थे. किसी को भागने का तो किसी को नाचने-गाने का... और मुझे मिला था सामने खड़े लड़के को 'आई लव यू‘ बोलने का. मेरे तो जैसे प्राण ही निकल गए थे. ख़ैर, जैसे-तैसे मैंने टास्क तो पूरा कर दिया, किंतु शर्म और डर के कारण मैं कई दिन कॉलेज नहीं गई. मां ने मुझे हिम्मत और लड़ने की शक्ति दी. हिम्मत करके जब मैं कॉलेज गई, तो वही लड़का कॉरिडोर में दोस्तों के साथ खड़ा था. उसने मुझसे बात करनी चाही, पर मैं अपनी आंखें झुका कर आगे चली गई. दिन बीतने लगे. वो मुझसे जितनी बात करने की कोशिश करता और मैं उससे उतना ही बचती. आख़िर एक दिन उसने मुझसे माफ़ी मांग कर दोस्ती का हाथ बढ़ाया और मैंने भी सब भूलकर, उसे माफ़ कर उसे दोस्त बना लिया. उस दिन मुझे उसका नाम पता चला- साहिल. दिन अब पंख लगा कर उड़ने लगे थे. हम बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे. वो हरदम एक सच्चे दोस्त की तरह मेरा साथ देता और मेरी ढ़ाल बनता. वो मेरा इतना ध्यान रखता था. मुझे बहुत अच्छा लगता. मेरी दोस्ती धीरे-धीरे कब प्यार में परिवर्तित हो गई पता ही नहीं चला. कॉलेज के फेयरवेल वाले दिन उसने मेरी सबसे प्रिय सखी प्रिया को प्रपोज़ कर दिया. मुझे ग़ुस्से में देख वो बोला की, “श्रुति, मेरी बात सुनो. मैं प्रिया से बहुत प्यार करता हूं. तुम मेरी एक बहुत अच्छी दोस्त हो. मैंने तुम्हें कभी प्यार नहीं किया. मुझे ग़लत मत समझो श्रुति...” वो बोले जा रहा था और मेरे सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो गई थी. आंखों में आंसुओं के कारण अंधेरा छा रहा था. बिना कुछ जाने, बिना कुछ समझे मैंने साहिल को खरी-खोटी सुना दी और एक दोस्त की तरह वो सब सुनता रहा. मुझसे साहिल की ये बेवफ़ाई बर्दाश्त नहीं हुई, क्योंकि मैंने तो उसे सच्चे दिल से प्रेम किया था. और अपने असफल प्रेम में मैंने आत्महत्या जैसा कायरतापूर्ण और घिनोना कदम तक उठा लिया था. हॉस्पिटल में जब होश आया, तो मां मेरे माथे को प्यार से सहला रही थीं, पिताजी, भैया और साहिल मुस्कुराते हुए मुझे देख रहे थे. साहिल ने मां को सब कुछ बता दिया था. मां मुझे प्यार से जीवन और प्रेम की अहमियत और अर्थ समझा रही थी. तब उन्होंने मुझसे हू-ब-हू वही शब्द बोले, जो पत्र में उनके कान्हा ने उनको लिखे थे. उस दिन मुझे प्रेम का सही अर्थ समझ आया था. मैंने तो उस साहिल को पाने की ख़्वाहिश की थी, जो मेरा कभी था ही नहीं. कभी उसके मन की बात नहीं जानी. अरे, वो तो प्रिया की अमानत था, जिसे मैं अपना समझने की भूल कर बैठी थी. उस दिन मेरा असफल प्रेम असफल होकर भी सफल हो गया था.

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तभी भाभी की आवाज़ ने मुझे पुनः वर्तमान में खींच लिया. मां की पवित्र प्रेम कलंकित न हो, इसलिए मैंने चुपचाप उनके पत्र को गमले की मिट्टी के अंदर अर्पित कर दिया, पर वो इत्र, वो इत्र- एक सच्चे प्रेम का स्वरूप मैंने अपने पास रख लिया. अचानक मुझे वो सुबह तेहरवींवाले रहस्यमयी सज्जन याद आ गए, जो सुबह मां की तस्वीर को नम आंखों से अपलक निहार रहे थे. मुझे समझते देर न लगी कि वो रहस्यमयी सज्जन कोई और नहीं, अपितु मां के कान्हा थे, जो मां को अंतिम नमन करने आए थे. तभी तो वे चुपचाप एक रहस्यमयी ढंग से आएं और बिना किसी से बात किए चले गए. मैं मां और उन रहस्यमयी कान्हा के समक्ष मन ही मन नतमस्तक हो गई, जिनका प्रेम मां की विदा के साथ सदा के लिए अमर हो गया था. और वो एक रहस्यमयी कान्हा की अपनी राधा को सच्ची श्रद्धांजली थी!

कीर्ति जैन
कीर्ति जैन

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