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प्रेरक कहानी- संस्मरण: गंगटोक की यात्रा और जोशीमठ का दर्द… (Story- Gangtok Ki Yatra Aur Joshimath Ka dard)

मुझे याद आई बद्रीनाथ की यात्रा. जब जोशीमठ पहुंचे थे, तो लगा था जैसे बर्फीले पहाड़ का एक टुकड़ा मुंह उचका कर हमें देख रहा हो. उसे देखकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा था।. मैंने जीवन में पहली बार बर्फीले पहाड़ को इतनी नज़दीक से देखा था.

इस सर्दियों में गंगटोक जाने का मौक़ा मिला. बहुत दिनों से ख़्वाहिश थी सिक्किम देखने की. वहां की बर्फीली वादियां और फ़िज़ाएं और वह ख़ूबसूरत पहाड़ जिन्हें बहुत दिनों से नहीं देखा था.
मेरा बचपन उत्तराखंड में बीता, इसीलिए पहाड़ों से बहुत लगाव है. जैसे लगता है वह मेरे पहले प्यार हैं. ख़ैर जब एक पहाड़ जाने का मौक़ा मिला, तो मैं बहुत ख़ुश थी. जब हमारी टैक्सी सिलीगुड़ी से गंगटोक की ओर रवाना हुई, तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना न था. कैमरा तैयार था, लेकिन यह क्या? शहर से निकलते-निकलते ही हमको 3 घंटे लग गए. कई किलोमीटर ट्रैफिक जाम से निकलते हुए आधी से ज़्यादा ऊर्जा तो वही ख़र्च हो गई टेंशन से मन भर गया. ख़ैर, आगे बढ़े तो पेड़ दिखाई देने शुरू हुए तो अच्छा लगा.


लेकिन हर कुछ दूर पर यह लग रहा था जैसे हम अपने किसी मेट्रो सिटी में ही चल रहे हैं, क्योंकि हर कुछ दूर पर ट्रैफिक जाम लग जाता था. मुझे याद आने लगी उत्तराखंड की यात्राएं. तब रोड़ इतनी चौड़ी नहीं होती थीं, मगर अच्छी थीं. बगल में घाटी दिखती थी उसके पार पेड़ों से पूरी तरह ढके हुए पहाड़. वह ख़ूबसूरती सचमुच सम्मोहित कर लेनेवाली होती थी, लेकिन अब कैमरा जैसे ही स्टार्ट करो पहाड़ों की जगह बिल्डिंग्स आ जाती थीं. दूसरी तरफ़ भी बिल्डिंग. इतनी बिल्डिंग्स जिसने पहाड़ों के सौंदर्य को तो पूरी तरह ख़त्म कर ही दिया था, उनके बीच चलने पर किसी भी तरह के एडवेंचर का भी एहसास नहीं हो रहा था.
मुझे याद आई बद्रीनाथ की यात्रा. जब जोशीमठ पहुंचे थे, तो लगा था जैसे बर्फीले पहाड़ का एक टुकड़ा मुंह उचका कर हमें देख रहा हो. उसे देखकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा था।. मैंने जीवन में पहली बार बर्फीले पहाड़ को इतनी नज़दीक से देखा था.
जब हम एक साधारण से कमरे में ठहरे, तो बेसाख़्ता मेरी बड़ी बहन के मुंह से निकल गया, "यहां शायद कोई अच्छे होटल्स नहीं है." तो पापा ने तुरंत कहा था, "अच्छे होटल्स नहीं है, इसलिए यह शहर है. पहाड़ों पर अच्छे होटल, अच्छे कहलाए जानेवाले होटल्स तो कभी बनने ही नहीं चाहिए, क्योंकि यहां की धरती उनका भार सह नहीं पाएगी."
फिर हम लोग बद्रीनाथ पहुंचे थे और धर्मशाला में रुके थे. धर्मशाला में बड़े-बड़े हॉल्स थे और जी भर के चाहे जितने आप चाहो रजाई और गद्दे ले सकते हो और ज़मीन पर ही उन्हें बिछाकर सो सकते थे. हम भाई-बहन मुंह बनाने लगे, तो पापा ने वही बात समझाई थी.
"जब तक यहां होटल्स नहीं हैं, तभी तक यहां की सुंदरता, यहां का वैभव है, जो देखने हम यहां आए हैं."
वहां तब एक भी होटल नहीं था और इसीलिए उसका वजूद सुरक्षित था.
ख़ैर! हम लोग गंगटोक में बहुत ही सुंदर होटल में ठहरे. ऐसा लगता था जैसे मेट्रो सिटी का कोई लग्जरी होटल हो. लेकिन जाने क्यों मुझे अच्छा नहीं लग रहा था, क्योंकि ऐसे होटल और रिसॉर्ट्स बनाने के लिए पहाड़ों की बेदर्दी से कटिंग की जाती है. हमें यह चीज़ तुरंत भले ही अच्छी लगती हो, लेकिन हम सब जानते हैं कि पहाड़ यह सब सह नहीं पाएंगे. फिर भी हम ना सिर्फ़ यह सब कुछ होने दे रहे हैं, बल्कि इन सब चीज़ों को एंजॉय करके ख़ुश भी हो रहे हैं. गंगटोक में शॉपिंग मॉल्स, हर अच्छे ब्रांड्स की दुकानें और वह सब कुछ था, जो मेट्रो सिटी में होता है. नहीं दिखी, तो बस वह शांति जिसे पाने के लिए लोग पहाड़ों पर जाया करते थे.


गंगटोक घूमते समय वहां का असंतुलित विकास देखकर जो दर्द हुआ, वही दर्द वापस लौट कर जोशीमठ की ख़बर सुनकर और गहरा गया. जो कहानी आज जोशीमठ की है क्या वही हमारी बाकी पहाड़ों की भी कल को बन जाएगी या फिर हम समय रहते संभल जाएंगे. आप ख़ुद भी विचार कीजिए.

भावना प्रकाश

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Photo Courtesy: Freepik

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