कितना अजीब एहसास हुआ था उस दिन, जिस घर में जन्म लिया, पली-बढ़ी, जीवन के इतने सारे दौर से गुज़री, पढ़ाई, सखी-सहेलियां, शादी हुई. जीवन के पच्चीस बसंत बिताए. शिशु से विवाह तक सोते जागते, चेतन-अचेतन हर अवस्था में जिसे अपना घर माना, महज़ कुछ ही पलों में एकदम से पराया करके किसी और को सौंप दिया गया. आस-पड़ोस का आत्मीय, भरा-पूरा परिवार भी उसी के साथ छूट गया. तब से प्रांजल का मन ही नहीं हुआ कभी भोपाल आने का. वो तो मां ने राखी पर आने की बहुत मनुहार की, तो प्रांजल को आना प़ड़ा.
पूरे पांच साल बाद आ रही थी प्रांजल अपने मायके, लेकिन यह पांच साल उसे युगों जितने लंबे लग रहे थे. तभी अमेरिका से जब वह दिल्ली आई, तो दोनों बच्चों को सास के पास ही छोड़ आई थी कि कुछ दिन तो चैन से मायके में बैठकर पुरानी यादों की जुगाली कर ले, फिर बच्चों को भी भोपाल बुला लेगी. हवाई जहाज से भी वह आंखें गड़ाए शहर को देखती रही. उसका बस चलता तो पैराशूट से ही कूद पड़ती.
जन्म स्थान का आकर्षण भी कितना प्रबल होता है, तभी तो जन्मभूमि के लिए लोग अपनी जान भी न्योछावर कर देते हैं. जिस जगह पर नाभि गड़ी हो, उसका मोह जन्मभर नहीं छूटता. फ्लाइट लैंड करने के बाद सामान लेने तक उसका दिल न जाने कितनी बार ख़ुशी से धड़क गया. सामान लेते ही उसने तेज़ी से बाहर की तरफ़ दौड़ ही लगा दी. भैया गाड़ी लेकर ख़ड़े थे. प्रांजल को गले लगाकर उसका सामान डिक्की में रखा और गा़ड़ी आगे बढ़ा दी.
कहीं कुछ नहीं बदला था, तो कहीं बहुत कुछ बदल गया था शहर में. पुरानी इमारतें वैसी ही थीं. कच्ची अस्थायी दुकानों की स्थिति बदल गई थी. पुराने भोपाल को पार करके जब कार जेल रोड से होती हुई बोर्ड ऑफिस चौराहे के पास पहुंची, तो प्रांजल के चेहरे पर एक लंबी-चौड़ी मुस्कान आ गई, जिसे प्राजक्त ने भी देख लिया था. उसने कार चौराहे से अंदर लेकर बाईं तरफ़ मोड़ ली और दो मिनट बाद ही कार एक सरकारी क्वार्टर के सामने रुकी. एफ टाइप, एक सौ उन्नीस बटा इकतालीस. सामने लगा नीलगिरी का ऊंचा पेड़ और उसकी बगल में गुलमोहर. प्रांजल का जन्म इसी घर में हुआ था. उसके पिता कॉलेज में प्रोफेसर थे. वह बहुत हसरत से अभी घर को देख रही थी कि प्राजक्त ने कार धीरे से आगे बढ़ा ली. पुलिया पर से मुड़ते हुए भी वह पीछे पलटकर घर को देखती रही. चार साल पहले रिटायर होने के बाद पिताजी ख़ुद के घर में चले गए और यह घर छूट गया. पांच साल पहले जब वह मायके आई थी अमेरिका से, तब यहीं आई थी. पंद्रह दिन रहकर गई थी. अब इस जन्म में तो दोबारा यहां रहना तो क्या, अंदर भी जा नहीं पाएगी.
कितना अजीब एहसास हुआ था उस दिन, जिस घर में जन्म लिया, पली-बढ़ी, जीवन के इतने सारे दौर से गुज़री, पढ़ाई, सखी-सहेलियां, शादी हुई. जीवन के पच्चीस बसंत बिताए. शिशु से विवाह तक सोते जागते, चेतन-अचेतन हर अवस्था में जिसे अपना घर माना, महज़ कुछ ही पलों में एकदम से पराया करके किसी और को सौंप दिया गया. आस-पड़ोस का आत्मीय, भरा-पूरा परिवार भी उसी के साथ छूट गया. तब से प्रांजल का मन ही नहीं हुआ कभी भोपाल आने का. वो तो मां ने राखी पर आने की बहुत मनुहार की, तो प्रांजल को आना प़ड़ा.
चिरपरिचित मोहल्ला, स्कूल-कॉलेज मार्केट सब पीछे छूटते जा रहे थे और कार आगे बढ़ रही थी. नितांत अपरिचित कॉलोनी की ओर. शहर से बाहर बसी एक कॉलोनी में पिताजी ने घर बनवाया था. वहां पहुंची, तो देखा हमेशा की तरह उसकी राह देखते पिताजी बरामदे में ही खड़े थे. कार पोर्च में खड़ी करके प्राजक्त ने प्रांजल का सामान मम्मी के ही कमरे में रख दिया. मां नहाने गई थीं. भाभी चाय लेकर आईं. नन्हा भतीजा अभी सो रहा था. चाय पीकर प्राजक्त कॉलेज जाने की तैयारी करने लगा. वह भाभी और पिताजी से बात करने लगी.
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मां भी नहाकर आ गई. “घर क्या बदला तू तो मायके का रास्ता ही भूल गई प्रन्जू. क्या हम लोगों की भी याद नहीं आती तुझे?” मां ने गले लगाते हुए मीठी-सी उलाहना दी. “पांच बरस हो गए तुझे देखे.”
मां की आंखें भर आईं, तो प्रांजल को एक अपराधबोध-सा हुआ. वह मां से बातें करने लगी. थोड़ी देर बाद भाभी ने आकर कहा कि उसका सामान गेस्ट रूम में रख दिया है, जाकर नहा ले. ‘गेस्ट रूम’ प्रांजल के मन को ठेस लगी. वह इस घर में गेस्ट है क्या. उठकर कमरे में गई. डबलबेड, एक आलमारी, ड्रेसिंग टेबल से सजा कमरा, जिसके साथ वॉशरूम था.
तभी मां अंदर आकर बोली, “प्रांजल देख ले साबुन वगैरह है कि नहीं, नहीं है तो मेरे बाथरूम में नहा ले. या कहे तो मैं साबुन ला देती हूं.”
‘मेरे बाथरूम में’ मां के मुंह से यह शब्द कितने अजीब लगे. सरकारी क्वार्टर में स़ि़र्फ ‘बाथरूम’ था, न तेरा न मेरा बस सबका था. चाहे घर के सदस्य हों या मेहमान. वह घर स़िर्फ घर था. ‘बेडरूम’ या ‘गेस्ट रूम’ में बंटा हुआ नहीं था.
“सब होगा मां. भाभी ने रख ही दियाहोगा.” कहते हुए प्रांजल नहाने चली गई. एक घंटा ही हुआ होगा उसे आए हुए, लेकिन अजीब-सा अजनबीपन जैसा महसूस हो रहा था उसे. जैसे किसी बहुत दूर के रिश्तेदार के यहां पहली बार रहने आई हो.
अजीब-सा संकोच मन पर हावी होता जा रहा था. पुराने घर की बहुत याद आ रही थी. नहाकर आई, तो सब नाश्ते की टेबल पर इंतज़ार कर रहे थे. नाश्ता करके प्राजक्त कॉलेज चला गया. भाभी उसे घर दिखाने लगी. नीचे दो कमरे, एक मां-पिताजी का, एक गेस्ट रूम और ऊपर दो बेडरूम, एक बड़ा-सा बरामदा. अमूमन सोफासेट, पलंग समेत सब कुछ नया था. बस लोग ही पुराने थे या बस काया ही पुरानी थी.
डॉ. विनीता राहुरीकर
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